Saturday, May 3, 2014

पुरानी फाइल : हाशिए का हरफ़ लिखती ‘बहादुर कलम’

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 अख़बारनवीस रामबहादुर राय को जितना मैं जानता हूँ, ‘अनायास’(संपादकीय स्तंभ, प्रथम प्रवक्ता, 1-15 अगस्त, 2007 से आजतक) ही सही; यह कहने के लिए पर्याप्त है कि वे आखि़री आदमी के ‘प्रथम प्रवक्ता’ हैं। ऐसे प्रवक्ता जिनका अपना कोई स्वार्थ नहीं, राजनीतिक एजेण्डे का चोचरम नहीं। वे बेलाग-लपेट अपनी बात सीधे शब्दों में ‘यथाकाल’ कह डालते हैं; इसी कारण उनके लिखे को ‘बहादुर की निर्भीकता’ कहने में संकोच नहीं होता है। हाँ, उनकी तल्ख़बयानी से साँपनाथ और नागनाथ किस्म के करीबियों(ख़बर-खरीद के कारोबारी) के सीने पर मूंग अवश्य दल जाते हांेगे। ‘काली पत्रकारिता की कहानी’ लिखने वाले इस यशस्वी पत्रकार के मुख़ालफत में मोर्चा बुलन्द करने वाले भी अनेको होंगे। क्योंकि इस जहां की रीत है; सच लिखने वाले दोस्त कम, दुश्मन ज्यादा बनाते हैं। लेकिन पत्रकार रामबहादुर राय विचारों के मामले में स्वशासी हैं। उत्साही और जुनूनी भी खूब। वे आदर्शवाद के गोलम्बर नहीं रचते, बल्कि पगडंडी की परिधि पर पहला पग स्वयं धरते हैं। वे जानते हैं कि नेतृत्व हमेशा व्यवहार में फलित होता है। इसीलिए वे संघर्ष से गठजोड़ अथवा समझौता करने के बजाए उससे सीधे मुठभेड़ करते दिखते हैं। उनकी आत्मा आम-आदमी से सम्बद्ध(अटैच) है। जनमानस से उनका लगाव गाढ़ा, तो स्वयंनिर्णित जवाबदेही जबर्दस्त है। दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी के संस्मरण में उन्हें याद करते हुए वे जो शब्द-लड़ी पिरोते हैं, वस्तुतः वे उनके मन का मनका हैं-‘‘मैं मानता हँू कि 1983 की जुलाई में उनसे जो नाता जुड़ा वह नदी-नाव संयोग नहीं था। पत्रकारिता में मैं उसी तरह आया था जैसे फिसल पड़े तो हरगंगा। उस डुबकी के बाद की यात्रा तीर्थंकर संपादक प्रभाष जोशी की छाया में उनके न रहने पर भी चल रही है।’’
 
आपको बता दँू कि मैंने ‘प्रथम प्रवक्ता’ को इसलिए पढ़ना शुरू नहीं किया कि उसके संपादक रामबहादुर राय हैं जो एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं। उनकी ख्याति स्वयंसिद्ध है। दरअसल, उन दिनों ही मेरा दाखिला पत्रकारिता के मास्टर-डिग्री के अन्तर्गत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुआ था। पाठ्यक्रम प्रयोजनमूलक हिन्दी। छोटे कोष्ठक में पत्रकारिता शब्द भी उसके साथ गुदा हुआ था जिस पर गुमान कम आह्लाद अधिक था। अलबत्ता, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने की रुचि पैदा हुई। उन्हीं दिनों ‘प्रथम प्रवक्ता’ के अगस्त अंक को पलटा था। निगाह उस ‘बहस’ पर पड़ी जिसका शीर्षक था-‘क्या राष्ट्रवाद एक अपर्याप्त अवधारणा!’ यह जवाहरलाल कौल द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दिया गया भाषण था जिसे मैंने सुना नहीं था, किन्तु उसकी चर्चा सुन रखी थी। उस भाषण को आद्योपांत पढ़ा, अच्छी लगी। उसके बाद पत्रिका को मैं नियमित खरीदने लगा। कुछ भूलचूक के साथ। आज जिस अण्णा जनान्दोलन के बारे में देख-सुन कर हमारी बाँछे खिल रही है; ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय स्तंभ ‘अनायास’ में ‘भ्रष्टाचार है मुद्दा’ शीर्षक से संपादक रामबहादुर राय ने उस वक्त ही चेताया था जब देश में दूर-दूर तक अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के पगचिह्न या सितारे देसी-फलक पर नहीं मौजूद थे-‘‘चैंकने की नहीं, चैकन्ना होने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे आर. सी. लाहोटी उस हकीकत पर निशान लगा रहे हैं जिसे हर आदमी जान गया है। उसे देख रहा है। आम आदमी उसके भयावह रूप से पीड़ित है, पर मजबूर भी है। वह हकीकत यह है कि शासन और सार्वजनिक जीवन के हर ठिकाने पर बेईमानों ने कब्जा जमा लिया है।’’
 
वे अपने इस संपादकीय में यहीं नहीं थमते हैं। आम आदमी से कटती जा रही उन वैचारिक बहसों एवं विमर्शों के ऊपर भी सवाल खड़े करते हैं जिन्हें ‘नागर-समाज’ आतुर-भाव से अपनी चिन्ता में  शामिल तो अवश्य कर ले रहा है; किन्तु उसके पास कारगर उपाय के निमित दृष्टिसंपन्न योजना एवं रणनीति का सर्वथा अभाव है। दो-टूक शब्दों में किया गया विषय-विश्लेषण द्रष्टव्य है-‘‘राजधानी दिल्ली में दो अनेक्सियाँ हैं जहाँ देश की तकदीर रोज लिखी जाती है। देश का ललाट ऐसा है जो इन इबारतों को रोज मिटा देता है और उस पर अपनी छाप बैठा देता है। पार्लियामेंट की अनेक्सी में वह समूह जमा होता है जो शासक-वर्ग में शरीक हो गया है। इंडिया इण्टरनेशनल की अनेक्सी दूसरी ज़मात के उस समूह के लिए है जो परिधि पर पहुँच जाता है। वहाँ बंद कमरे में होने वाली चर्चा के केन्द्र में आम आदमी का दुःख-दर्द होता है, उससे दूरी भी बनी रहती है।’’
 
बतौर संपादक रामबहादुर राय सिर्फ अपनी बात कहकर ही चुप बैठने वाले व्यक्ति नहीं है, वरन् वे पत्रकारीय कसौटी के साथ उस आग-पाछ से भी पाठक को अवगत कराते हैं जो उनकी निगाह में सच को सही सन्दर्भों में जानने हेतु यथेष्ट है। इसीलिए वे जब ‘धर्म बदला पर हालात नहीं बदले’ शीर्षक से एक तात्कालिक घटना पर अपनी राय प्रस्तुत करते हैं, तो उस घड़ी उनकी यात्रा वर्तमान से अतीत की ओर सहज ही प्रस्थान कर जाती है-‘‘19वीं और 20वीं सदी में पादरियों ने दलित समुदायों को ईसाई बनाने में ताकत झोंक दी। उन्हें यह आश्वासन दिया गया कि ईसाई होते ही उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। इज्जत मिलेगी। समाज में सम्मानपूर्वक जीने के अवसर उपलब्ध होंगे। इसके लिए शिक्षा और रोजगार के विशेषाधिकार भी प्राप्त होंगे। उन्हें कष्ट के समय भाईचारे का सहारा होगा। दमन की पीड़ा से दूर हो जाएंगे और आजाद हवा में सांस ले सकेंगे। इन आश्वासनों ने दलितों को ईसाई बनने के लिए अपनी ओर खींचा। लेकिन वहाँ जाने पर उन्हें जो कुछ मिला वह बद से बदतर ही था। रत्ती भर बदलाव की बयार उन्हें नहीं मिली। साफ था कि जिन खुशियों के लिए वे वहाँ गए थे, उन्हें नसीब नहीं हुई। वे एक ऐसी मृगमरीचका में फँसे हुए हैं कि हर कदम और हर क्षण अपने अधिकारों की रक्षा में गुजारना पड़ रहा है। साफ है कि वे आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं।’’ 
 
याद करिए, जिन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी की आत्मकथा ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ चर्चा और विवाद के लपेटे में डूब-उतरा रही थी; रामबहादुर राय ने इस पुस्तक को अपनी पत्रिका की प्रथम कथा बनाना जरूरी समझा। ‘आत्मकथा नहीं आत्मकथन’ शीर्षक से रामबहादुर राय स्वयं इस पुस्तक के निहितार्थ उद्देश्य को खंगालते हैं। आम पाठक इस पुस्तक की वास्तविकता से जिन शब्दों में रू-ब-रू होता है; वह बेमिसाल है-‘‘यह किताब क्यों लिखी गई? क्या यह आत्मकथा है, जैसा कि कहा जा रहा है? आत्मकथा में आत्मावलोकन भी होता है। इस किताब में लाल कृष्ण आडवाणी के लंबे राजनीतिक जीवन के किसी मोड़ पर आत्मावलोकन का कोई भी संकेत नहीं है। सच तो यह है कि इस किताब में जो तत्त्व नहीं है, वह आत्मावलोकन ही है। इसमें वे ही बात है जिन्हें लाल कृष्ण आडवाणी बोलते-बताते रहे हैं। यह एक सिद्धान्त के तौर पर पूरी किताब पर लागू होता है।’’
 
‘प्रथम प्रवक्ता’ समाचार-विचार पाक्षिक के रूप में एक विश्वसनीय पत्रिका है। जल्द ही मुझे यह अहसास हो गया कि यह पत्रिका अन्य पत्रिकाओं के झुण्ड से कैसे अलग है? ‘मुद्दे की बात, मुद्दत के बाद’ कर ले जाने में क्योंकर अग्रणी है? साथ ही, इसकी चिन्ता गहरी, सत्यान्वेषी और परिवर्तनकामी क्यों है? पत्रकार रामबहादुर राय वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था पर महज़ आह! उफ! करने के उलट ‘बस! बहुत हो चुका’ शीर्षक के साथ जो आवरण-कथा लिखते हैं; उसकी नानाविध अर्थच्छटाएँ इन शब्दों में स्पष्टतः देखी जा सकती हैं-‘‘अनेक चिन्तकों ने लिख-पढ़ कर बताया है कि मौजूदा शासन-व्यवस्था ईस्ट-इंडिया कंपनी राज की लकीर पर चल रही है। भारत की राजनीति भी इसी आधारभूत सिद्धान्त से संचालित हो रही है जिसकी नींव अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य को मजबूत करने के लिए रखी थी। भू-मण्डलीयकरण ने उसे नया ज़ामा पहना दिया है। विश्व प्रेम दिखावा और मुनाफे पर नज़र यही है, वह आधारभूत सिद्धान्त जिसे सेसिल रोड्स ने निकाला था। उसी सिद्धान्त को भारत में शाश्वत बनाए रखने के लिए मार्ले-मिन्टो सुधार से एक निर्वाचन-पद्धति निकली। वह हमारी मौजूदा चुनाव-प्रणाली की जननी है जिसका आधार साम्प्रदायिक विभाजन है। उससे आदमी भारतीय नहीं रहता वह एक वोटर हो जाता है और मज़हब, जाति और उपजातियों में बँट जाता है। लोगों को छोटे-छोटे घरौन्दे में बाँटने के लिए ही वह निर्वाचन पद्धति निकाली गई थी। उस समय जो विषवृक्ष पैदा हुआ वह अब ज़हर का जंगल हो गया है। उसी की कीमत पर आतंकवाद लहलहा रहा है। इस राजनीतिक व्यवस्था में भारत का स्वबोध नहीं है। उसकी अपनी परम्परा का विलोप हो गया। सत्ता पाने की होड़ में राजनीतिक नेतृत्व अपनी वह सुध-बुध खो चुका है जिससे व्यवस्था-परिवर्तन का संकल्प उभरता है। मूलभूत अवधारणाओं पर सवाल खड़े कर वोट की राजनीति की जा रही है। इसलिए अपनी परम्परा और राष्ट्रीयता को पहचानने का सही प्रयास नहीं किया गया है। अलबत्ता, इसके नारे जरूर लगाए जाते हैं। लेकिन उसकी समझ बनाने से हमेशा बचने की कोशिश होती है। समझ तो वही बनी हुई है जो अंग्रेजों ने पढ़े-लिखे समुदाय में बैठा दिया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, राष्ट्रीयताओं का समूह है। इसपर अबतक एकमत न होना भी हमारे संकट का एक कारण है।’’ 
 
रामबहादुर राय जनता के प्रश्न का संसद में माख़ौल उड़ाए जाने पर उन जन-प्रतिनिधियों की माकूल ख़बर लेते दिखते हैं जिन्हें संसदीय प्रश्नकाल का इतिहास-बोध तक नहीं मालूम है। वे कहते हैं-‘‘प्रश्नकाल जनता का होता है। यही वह समय होता है जब सदस्य जनता की ओर से मंत्री से जानकारी मांगते हैं। सवाल उसका जरिया होता है। सदन की बैठक जैसे ही शुरू होती है पहला एक घंटा प्रश्नकाल होता है। इसमें मौखिक और लिखित प्रश्न सदस्य पूछते हैं। उसकी 21 दिन पहले वे सूचना देते हैं। यह प्रक्रिया इसलिए निर्धारित की गई है कि मंत्रालय सवालों के सही जवाब तैयार कर सके।...प्रश्नकाल की परम्परा पुरानी है। इसकी शुरूआत 217 साल पहले हुई थी जिसे आज़ादी के बाद लोकसभा ने बनाए रखा। इस समय सदन की छटा देखने लायक होती है। ऊपर की दर्शक-दीर्घाएँ भरी होती हैं और सदन में सदस्य सजे-धजे पूरी संख्या में उपस्थित रहते हैं। लोकसभा की बैठक में यही एक घंटा ऐसा होता है जिसमें सत्ता और विपक्ष की खाई पट जाती है। उस समय सदन दो पाले में खिंच जाते हैं। एक में सरकार के मंत्री होते हैं, तो दूसरे में जनता के प्रतिनिधि। जनता की प्रभुसत्ता का इसी समय सीधे दर्शन किया जा सकता है, बशर्ते जन-प्रतिनिधि योग्य, ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हो।’’
 
एक जवाबदेह पत्रकार ख़बर के साथ तथ्य, सूचना और आँकड़े के अतिरिक्त अपनी दृष्टि भी सम्प्रेषित करता है। अतएव, स्थानीय भूगोल और सांस्कृतिक सनातनता से जो पत्रकार जितना अधिक संपृक्त होगा; उसके भाव-बिम्ब और विचार में सत्य उतने ही उदात्त ढंग से मुखरित हांेगे। रामबहादुर राय की कलम इस दृष्टि से अतुलनीय है। ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ सूक्ति को व्यवहार में चरितार्थ अथवा फलीभूत करने की माफ़िक। यह उनके लेखन में स्फूर्त ढंग से समाविष्ट है-‘‘बनारस का न्यारापन जितना उसके नाम में है उससे अधिक उसकी विभूति में है। जिसका जैसा नज़रिया हो वह वैसा माने। यह आजादी यही शहर देता रहा है। याद में यह काशी है। सरकारी कागजों में वाराणसी है।...लोकतांत्रिक राजनीति में जो खतरे उभर आये हैं उन्हें बनारस ने अपने अनुभव से पहचाना कि वे उसी तरह के हैं जैसे कभी महामारी हुआ करती थी। उसका नाम चेचक, हैजा, प्लेग कुछ भी हो सकता है। नई महामारी आतंकवाद है। जिस तरह पहले बनारस वाले गली के हर नुक्कड़, तिराहे और चैराहे पर टोटका कर महामारी रोकते थे और उसके लिए अनुष्ठान करते थे वही तरीका इस बार चुनावी समर में बनारस ने अपनाया।’’
 
स्थानीय भूगोल और सांस्कृतिक सनातनता से परिचय, लगाव और निश्छल आत्मीयता रामबहादुर राय की स्वयं की खोज है। पत्रकारिता में उनके यायावरीपन का द्योतक। इसीलिए उनके लिए जितनी महत्त्वपूर्ण काशी है उतना ही प्रिय है मिजोरम। वे आम-बोलचाल की भाषा में मिजोरम के देसी-भूगोल, वेशभूषा, रहन-सहन, परम्परा और संस्कृति में इस कदर गहरे पैठते हैं कि मन एकबारगी इस पत्रकार के प्रति श्रद्धा से नत हो जाता है। पूर्वोत्तर भारतीयों के साथ आज़ादी के इत्ते वर्षों बाद भी किए जाने वाले भेदभाव के बर्ताव पर वे गहरी चिन्ता जाहिर करते हैं। दक्षिण भारत की यात्रा के दरम्यान मिजोरम के मुखिया लल थनहावला को जिस अजीबोगरीब स्थिति का सामना करना पड़ा; उसकी पड़ताल करते हुए रामबहादुर राय स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-‘‘इससे यह साफ हो जाता है कि मिजो पुरानी जनजाति है। इसका मूल निवास मिजोरम है। जो भारत के एक छोर पर पहाड़ियों के बीच स्थित है। ये पहाड़ियाँ उत्तर से दक्षिण की तरफ लम्बी बढ़ती चली जाती है। इसके ढलान तीखे हैं। हर पहाड़ी एक-दूसरे से अलग है। उनके बीच घाटियाँ हैं। ऐसे मनोरम इलाके के लोग बड़े आकर्षक तरीके से रहते हैं। उनका पहनावा उनकी रंगीन तबीयत की परिचायक है। उनकी संस्कृति भरी-पूरी है। मिजो का लोक-साहित्य विपुल है। ऐसे राज्य को अपने परिचय के लिए मुहताज होना पड़े, तो समझना होगा कि राजनीतिक व्यवस्था के कार्यकलापों में कहीं न कहीं बुनियादी खोट है। यह भी समझना होगा कि शब्दों के कोहरे में अपनी पहचान की लड़ाई लड़ने वाले लल थनहावला अकेले नहीं हैं, उन्हीं की तरह वे सब हैं जो उत्तर-पूर्व के सुदूर इलाके में रहते हैं।’’
 
वस्तुतः रामबहादुर राय अनुयायी नहीं हैं, सत्यानुरागी हैं। वे ऐसे जन-साधक हैं जो आम आदमी का बाहर से समर्थन नहीं करते, बल्कि उनके भीतर पैठकर उनकी बोली-वाणी में जन-पत्रकारिता का ख़म ठोंकते हैं। रामबहादुर राय हर पाठक में पत्रकारिता के मूलभूत अभिलक्षण मौजूद पाते हैं। लिहाजा, वे अपनी पत्रिका के एक पृष्ठ को उस अलक्षित ‘पाठक-पत्रकार’ के नाम सुपुर्द करते हैं जिस के भीतर सच के लिए लड़ने-भिड़ने का ज़ज़्बा हो, संकल्पशक्ति और दृढ़विश्वास हो। ‘प्रभाष दीपो भव’ का ध्येय हो। यह ध्येय खुद रामबहादुर राय के भीतर प्रभाष जोशी के प्रकाशपुंज से आलोकित है। वे प्रभाष जी को याद करते हुए कहते हैं-‘‘अपनी तरुणाई में उन्होंने देश को नए सिरे से बनाने का सपना देखा था। उस राह से पत्रकारिता में आए थे। वह सपना उनका कभी न मरा, न ठंडा पड़ा। आखिरी दिन तक वे उसके लिए पूरा सक्रिय रहे। नाना प्रकार के प्रभावों से परे थे। वे सत्यान्वेषी थे। लेकिन परम्परागत पद्धति से खोज नहीं करते थे। वे केन्द्र से विस्फोट करते थे, परिधि से नहीं।’’
 
किसी सम-सामयिक विषय पर रामबहादुर राय की चिन्ता तात्कालिक उत्तेजना की उपज नहीं है। वे दूरगामी प्रभाव को सूक्ष्मतम तरीके से पकड़ने में सिद्धहस्त हैं। सूचनाएँ स्पष्ट, तथ्य वस्तुपरक, तो अर्थ बेजोड़ हैं। 1 जून, 2010 के अंक में ‘ताकि करतूतें छिपी रहें’ शीर्षक से लिखे गए आवरण-कथा में रामबहादुर राय जिस सचाई को प्रकट करते दिखते हैं, उसका मकसद सिर्फ सच को सच की तरह कहना भर नहीं है-‘‘कहते हैं कि वक्त ही सबसे बड़ा मरहम होता है। जिन्हें चोट लगी है, वे वक्त नहीं चाहते। जल्दी इलाज चाहते हैं। साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है कि ख़बरें बेचने के धंधे ने लोकतंत्र के मर्म पर चोट की है। जिससे हर सुधी नागरिक मानसिक रूप से घायल हुआ है। नई कमेटी न मरहम-पट्टी कर पाएगी और न इलाज। वह लोगों की जिज्ञासा को शांत भी नहीं कर सकेगी। उससे किसी का बचाव भी नहीं होगा। क्योंकि बात बहुत दूर तक जा चुकी है। कोई ऐसा फोरम नहीं बचा है जिस पर ख़बरें बेचने और ख़रीदने के धंधे पर थू-थू नहीं हुई हो। साफ है कि चैतरफा निंदा से बचने का कोई उपाय उन लोगों को नहीं दिखता जो धंधे में अपना ईमान काला कर चुके हैं। यह धंधा हुआ ही इसलिए कि राजनीति एक बाज़ार हो गया है। राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अपनी मार्केटिंग के लिए मीडिया की जरूरत पड़ती है। इसलिए वे भी उतने ही गुनाहगार हैं जितने मीडिया घराने वाले माने जा रहे हैं।’’
 
रामबहादुर राय बिलावजह यहाँ राजनीति को कठघरे में खड़ा नहीं कर रहे हैं। आज राजनीति जिस कदर भ्रष्ट और पतनशील हो चुकी है; उसे देखते हुए स्वतःस्फूर्त बेहतर की गुंजाइश के बारे में सोचना भी फिजूल है। इस बाबत रामबहादुर राय की चिंता बेहद वाज़िब है-‘‘राजनीतिक दलों के बारे में एक धारणा बन गई है कि वे तात्कालिकता से ऊपर नहीं उठ पाते। चुनावी राजनीति ने उनकी सोच को कुंद कर दिया है। लोकतन्त्र के लिए यह जितना घातक है उससे ज्यादा यह परिपाटी घातक साबित होगी कि किसी सवाल पर खुलकर बहस ही न हो। ऐसे माहौल में उन लोगों की कौन सुनेगा जो सोच-विचार के हिमायती हैं।’’
 
पत्रकार रामबहादुर राय की एक ख़ासियत यह भी है कि वे किसी पर आरोप नहीं मढ़ते हैं। लांछन नहीं लगाते हैं। उनके कहे के साथ कार्य-कारण सम्बन्ध अविच्छिन्न ढंग से जुड़ा होता है। राजनीतिक गलियारे में मशहूर अमर सिंह के बारे में रामबहादुर राय अपने संपादकीय में ‘यथाकाल’ बड़ी साफगोई से कहते हैं-‘‘अमर सिंह जैसी राजनीति करते रहे हैं उसके लिए एक पार्टी होनी चाहिए। इन दिनों वे बार-बार चैदह साल के सम्बन्धों का जिक्र कर रहे हैं। कोई मलाल है जो बाहर निकल रहा है। उनकी छवि सत्ता के सौदागर की रही है। इसे लोगबाग सीधी संज्ञा देते हैं। यही लोकतन्त्र है। कल तक अमर सिंह के लिए मुलायम सिंह ‘नेता जी’ रहे हैं। ये दोनों बिना साफ-साफ बोले अपने ढंग-ढर्रे से संदेश देते रहे हैं कि जैसा ज़माना है सपा वैसे ही हो गई है।’’
 
रामबहादुर राय किसी व्यक्ति के किए का मूल्यांकन जिस संकल्प और निष्ठाभाव से करते हैं उसमें स्वार्थ या आत्मख्याति की गुंजाइश रत्ती भर भी नहीं है। आचार्य राममूर्ति जैसे राष्ट्रीय महापुरुष के निधन पर जब जनसत्ता अख़बार तक ने सुध न ली, तो रामबहादुर राय की संपादकीय कलम ने खुद शब्द-सुमन अर्पित करते हुए लिखा कि-‘‘धीरेन्द्र मजूमदार प्रखर क्रान्तिकारी थे। बाद में अहिंसक प्रयोगों की ओर मुड़े। उनसे प्रेरित होकर आचार्य राममूर्ति ने अपने जीवन की दिशा बदल दी। वे कहते थे कि हजूर से मजूर बन गया। यह सब उस प्रयोग की प्रक्रिया में था जिसमें लक्ष्य था-जनक्रान्ति और माध्यम अहिंसा। इसके लिए अपने विचार और कर्म की साधना की। भूदान आन्दोलन में कूदे। मुंगेर की श्रम भारती संस्था को बनाया जिसे खादी ग्राम से लोग जानते हैं। वे सर्वसेवा संघ के विभिन्न पदों पर रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया तब सबको चैंकाते हुए आचार्य राममूर्ति उसमें पड़े। उन्हें उम्मीद थी कि जेपी की अधूरी सम्पूर्ण क्रान्ति की एक कड़ी यह हो सकती है।’’
 
वर्तमान राजनीति जिस जार्ज फर्नांडीज को बिसार चुकी है; रामबहादुर राय की स्मृति में उनकी याद आज भी तरोताजा है। अपने संपादकीय में वे जार्ज को याद करते हुए कहते हैं-‘‘यह उस दौर की बात है जब जार्ज फर्नांडीज अपने में होते थे। अपना फैसला खुद करते थे। तब यह भी माना जाता था कि राजनीतिक नेताओं में जार्ज कई तरह से अपवाद हैं। उन पर उम्र का कोई कुप्रभाव नहीं दिखता था।...लोकसभा के पिछले चुनाव ने जार्ज फर्नांडीज को गहरे तोड़ दिया। उन्हें इतनी व्यथा झेलनी पड़ी कि मन और तन से टूट गए। वहाँ से शुरू हुई ढलान ने उन्हें आखिरकार खाई में ला पटका। मूलतः जार्ज नियति से हमेशा लड़ते रहे। उन्होंने गरीबों, आस्थावानों, मजदूरों और व्यवस्था परिवर्तन के सरोकारों से अपनी नियति को बचपन में ही नत्थी कर दिया था। इसे विडम्बना समझने की भूल मत करें कि वे नेतृत्व की भूमिका से अब उनके जैसे हो गए हैं जिनके लिए जीवन भर जूझते रहे हैं। जिनकी आवाज़ बन गए थे। यह ज़माना गरीबों की आवाज़ का है। ऐसे समय में जार्ज का बेजुबान होना ज्यादा अखरता है।’’   
 
जार्ज की क्षीण हो चुकी स्मृति के बाबत जो कसक रामबहादुर राय के अंतस में दिखती है, उसका महत्त्व सार्वकालिक है। आज ज़माना सचमुच गरीबों की आवाज़ का है। ऐसे में अगुवाई के लिए जार्ज जैसे अनुभवी तथा जमीन से जुड़े व्यक्तित्व का टोह आवश्यक है। क्योंकि आज की राजनीति में ‘हाइब्रिड’ राजनीतिज्ञों का वर्चस्व और बोलबाला सर्वत्र है। ये राजनीतिज्ञ महज़ चुनावी गरज़ से लोगों के बीच जाते हैं, अन्यथा उनकी खुद की बनायी दुनिया में रंगीनियत असीम है। रामबहादुर राय बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त के बारे में विचार करते हुए ठीक ही कहते हैं-‘‘सभा की भीड़ से उसका मिज़ाज़ नहीं जाना जा सकता। अक्सर भीड़ देखकर नेता बौरा जाते हैं। अपने बारे में गलतफ़हमी पालने लगते हैं। ऐसा उनके साथ भी होता है जो राजनीति के मंजे खिलाड़ी हैं। फिर राहुल गाँधी को दोष क्यों दें। बेचारे अभी ककहरा सीख रहे हैं। बिहार में बड़े दौरे किए। लोग ‘राजकुमार’ को देखने भी आए। उन्हें भ्रम हो गया कि वह भीड़ कांग्रेस की विधानसभा में संख्या बढ़ा देगी। वे कहने लगे थे कि कांग्रेस कम से कम 50 सीट जीतेगी। उनका अनुमान अगर सही निकलता, तो कांग्रेस को राहुल गाँधी के जादू से 41 सीटों का फायदा होता। हुआ ठीक उल्टा। पिछली बार कांग्रेस को वह अंक मिला जिसे ज्योतिषी बहुत पवित्र मानते हैं। वह अंक था-9। क्या राहुल गाँधी को उन्हीं ज्योतिषियों ने बताया था कि इस बार कांग्रेस 50 की संख्या छू लेगी। ज्योतिष और भीड़ से भ्रम हो सकता है, लेकिन राजनीति तो निष्ठुर नियमों से चलती है।’’
 
कहना न होगा कि हाल के दिनों में लोकपाल विधेयक को लेकर ग़हमागहमी जबर्दस्त रही। सरकारी महकमे से लेकर सिविल सोसायटी तक में धींगामुश्ती और तनातनी के माहौल तारी रहे। इस महत्त्वपूर्ण घड़ी में रामबहादुर की कलम ने जो लिखा उसमें सोलह आना सचाई नज़र आती है-‘‘जिस विधेयक को सरकार प्रचारित कर रही है उसकी कलई खुल गई है। उसमें इतनी कमियाँ हैं और इतने सुराख हैं कि भ्रष्ट राजनीतिक नेता चाहे वह सांसद हो या मंत्री या प्रधानमंत्री उससे साफ-साफ निकल जाएगा। जिनके खिलाफ़ जाँच होनी है वे किसी न किसी संरक्षण में हैं। सांसद के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल को सीधे नहीं की जा सकती। लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति की इज़ाजत चाहिए। उसी तरह मंत्री की जाँच के लिए प्रधानमंत्री की इज़ाजत चाहिए। जिस लोकपाल विधेयक को मनमोहन सिंह सरकार ला रही है, उसमें जब सांसद और मंत्री की जाँच भी कठिन होगी, तो प्रधानमत्री के ख़िलाफ जाँच करीब-करीब असम्भव ही होगी।’’
 
कहना न होगा कि मौजूदा केन्द्र सरकार में समझदार कम तीतर-बटेर ज्यादा हैं जो अपने पार्टीगत-मूल्य तथा आन्दोलनों की परम्परा से कट चुके हैं। जेपी की सम्पूर्ण क्रान्ति के बाद इसी वर्ष अगस्त में हुए अण्णा आन्दोलन जिसे अपनी प्रकृति और प्रभाव में अभूतपूर्व माना जा रहा है; से निपटने की खातिर कांग्रेस सरकार ने जो भी दाँव चले, सब के सब उल्टे पड़ गए। इस घटना की सविस्तार पड़ताल करते हुए रामबहादुर राय ‘अन्ना की आँधी के मायने’ शीर्षक से महत्त्वपूर्ण कवर स्टोरी’ लिखते हैं-‘‘आन्दोलन छोटा हो या बड़ा उसे जनजीवन से जोड़ कर ही देखा और समझा जाता है। वह कोई अलग-थलग घटना नहीं होती। जो घटित होता है उसमें कार्य-कारण का सम्मिश्रण होता है, और उसकी अखण्डता होती है। इसके बगैर कोई आन्दोलन सजीव, प्राणवान और प्रवाहमान हो ही नहीं सकता। जनजीवन अखण्ड बना रहना चाहता है। स्वस्थ समाज में उनकी अखण्डता अक्षुण्ण रहती है। उसकी व्यवस्था चरमराने पर या तो उदासी आती है या विद्रोह का भाव। विद्रोह का विचार ही आन्दोलन में फलित होता है। अन्ना आन्दोलन को देखने का एक नज़रिया यह भी हो सकता है।’’
 
रामबहादुर राय एक वरिष्ठ पत्रकार की हैसियत से किसी मुद्दे का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करके ही अपने कर्तव्यों का इति श्री नहीं समझ लेते हैं। वे सामाजिक मुद्दे को विचारधारात्मक आधार भी प्रदान करते हैं। वे उन प्रश्नों के जवाब खुद ही ढूढंना चाहते हैं जिससे आज हर एक भारतीय त्रस्त, भयभीत और विकल है। वे बीते आन्दोलन की दिशा और अभी तक तय की गई दूरी का मूल्यांकन करते हुए जो सवाल खड़े करते हैं, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-‘‘इस आन्दोलन का मूल प्रश्न नया है और वह यह है कि क्या इससे स्वस्थ राजनीति निकलेगी? इससे ही जुड़ा हुआ है कि स्वस्थ राजनीति क्या है? सीधी-सी बात है कि जो सिर्फ सत्ता की राजनीति न हो और जन-राजनीति उसमें हो वही स्वस्थ राजनीति है। यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अन्ना हजारे का आन्दोलन एक अराजनीतिक समूह के हाथ में है। यह आन्दोलन सघन और व्यापक है। इससे स्वस्थ राजनीति पैदा हो सकती है। अगर इसके लिए सही तरीके से प्रयास किए जाएँ।...सत्ता की राजनीति शोषण पर टिकी होती है। शोषण का ही सम्बन्ध भ्रष्टाचार से होता है। जिस मात्रा में भ्रष्टाचार कम होगा उसी मात्रा में सेवा की भावना प्रबल होगी। जिस दिन राजनीति सत्ता की पटरी से सेवा पर आएगी उसी दिन स्वस्थ राजनीति शुरू होगी। तब समाज खुद में होने से तृप्त होगा। उसे शासन और सत्ता पर हर क्षण के लिए निर्भर नहीं रहना होगा। क्या इस आन्दोलन के अगले चरण में यह संभव है?’’
 
निःसंदेह, आज इस ‘संभव’ शब्द की अर्थपूर्ण सम्भावना तलाशने की जिम्मेदारी हम सबों पर है। हमें वे नियामक स्वयं तय करने होंगे जो रायबहादुर की चिन्तनदृष्टि और चेतस चिन्ता के केन्द्र में है। सार्थक पहलकदमी के नए मानक, बिम्ब और प्रतीक गढ़ने की दिशा में प्रयास भी हमें खुद ही करना होगा। फ़िलहाल उस ‘बहादुर कलम’ को सलाम जो हाशिए का हरफ़ लिखने में उस्ताद है। लोककवि नागार्जुन की भाषा में-रामबहादुर राय आमआदमी के प्रति प्रतिबद्ध हैं; सम्बद्ध हैं; आबद्ध हैं।  

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