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हम विद्यार्थी हैं। हमारा सामना सब चीजों से होना है। अपनी भाषा में हमने इस संचार-युग की रामकहानी को अक्सर सुना होगा कि भूमण्डलीकृत बाज़ार की निर्मिति बाज़ारवादी शक्तियाँ किस तरह कर रही हैं। उनके अन्तर्गत जो कुछ भी निर्माणाधीन है; उन पर उनका इकलौता आधिपत्य है। विदेशी संचारविज्ञानियों ने इस पर गंभीरता से सोचा है। विशेषतया राॅबर्ट डब्ल्ल्यू. मैक्चेस्नी की दृष्टि मार्केबल हैं। उन्होंने संचार की सामान्य और स्वाभाविक मानी जाने वाली प्रक्रिया को समझने की पूरी चेष्टा की है। वे यह जानना चाहते हैं कि आखिर संचार-तंत्र की सम्पूर्ण गतिविधियाँ किस तरह काम करती हैं; संचार प्रणालियों का स्वरूप क्या है और सरकारी नीतियाँ इस पूरे तंत्र के ढाँचें और गतिविधियों को किस तरह प्रभावित करती है। संचार माध्यमों द्वारा जो अन्तर्वस्तु उत्पादित की जाती है, उसकी प्रक्रिया और प्रकृति का विवेचन भी मैक्चेस्नी इस तंत्र को समझने के लिए आवश्यक मानते हंै। उनकी दृष्टि में इसमें उत्पादन, वितरण और विनिमय की प्रक्रियाएँ भी शामिल हैं।
दरअसल, भूमण्डलीय संचार के सन्दर्भ में प्रौद्योगिकी के विकास का प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा है। यह लगभग मान लिया गया है कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार ही दो ऐसे घटक हैं जो संचार की पूरी प्रणाली और प्रक्रिया को नियंत्रित कर रहे हैं। आज साइबर अंतरिक्ष में अमेरिकी वर्चस्व का होना सचाई है। आप क्या देखेंगे और कितना देखेंगे; यह आज हम नहीं अमेरिका तय कर रहा है। यही नहीं यह हमसे हमारे फुरसत के उन बेशकीमती क्षणों को भी छीन लेने पर आमादा है जिन पर अब तक हमारा एकाधिकार होता था। हालत बदतर इतनी है कि कईयों की मेहरारू रूठ जाये, तो उन्हें अपनी मोहतरमा को मनाने तक के वक़्त नहीं मिलते है। खैर!
गोकि पूँजी के भूमंडलीकरण के साथ जो सार्वभौम बाज़ार-तंत्र हमारे इर्द-गिर्द फैला-पसरा है वह ‘इलेक्टाॅनिक जनतंत्र’ के नाम पर हमें लगातार गुलामी की चक्करघिन्नी में पिस रहा है। फ्रेडरिक जेमेसन जिसे उत्तर पूँजीवाद या कि वृद्ध पूँजीवाद कहते हैं; वह वास्तव में सूचना पूँजीवाद है। इलेक्टाॅनिक जनतंत्र के समर्थकों का यह स्पष्ट मानना है कि औद्योगिक-क्रांति ने भीमकाय सामाजिक संस्थाओं, बड़े-बड़े निगमों, बड़ी-बड़ी यूनियनों, बड़ी-बड़ी सरकारों, इजारेदारियों, नौकरशाहियों का जो विराट और दमनकारी ढांचा प्रदान किया था और आम-आदमी को इसका अनुचर बना दिया था उसे इस नई प्रौद्योगिकी ने धीरे-धीरे नष्ट करना शुरू कर दिया है। यह अधूरी सचाई है। हाल-ए-हक़ीकत कुछ और है। संचार प्रौद्योगिकी से जुड़े उत्पादों के विश्वव्यापी प्रसार के कारण प्रभुत्त्वशाली उत्पादकों से जिस प्रौद्योगिकी का निर्यात किया जा रहा है उसके साथ उन उत्पादों का भी निर्यात किया जा रहा है जिन्हें सांस्कृतिक उत्पाद कहा जा सकता है। प्रभुत्त्वशाली देशों से अन्य विकासशील अथवा पिछड़े देशों को इन उत्पादों का प्रवाह बिना किसी प्रतिरोध और प्रतिक्रिया के हो रहा है? ये उत्पाद ग्रहण करने वाले देश क्या इन्हें सहज ही स्वीकार कर रहे हैं? क्या इन उत्पादों का असर वहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर नहीं पड़ रहा है? हमें यहाँ ठहरकर सोचना होगा कि संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान विश्व मानवता के हित में रहा है। विश्व सभ्यता का विकास इसी प्रक्रिया में हुआ है। लेकिन, सूचना पूँजीवाद के इस युग में यह प्रवाह पूरी तरह से एकतरफा हो रहा है।
समाजविज्ञानी पीटर गोल्डिंग की इस सन्दर्भ में चिंता वाजिब है कि विश्व सांस्कृतिक व्यवस्था में व्याप्त असमानताएँ पहले की तुलना में अधिक असंतुलित और विषमतापूर्ण है। यह पारंपरिक सामंती प्रभुत्त्वादियों से भिन्न अवश्य है; लेकिन इसकी जड़े उसी अवधारणा से फुनगी-पनपी हुई है। यदि हम अपने बच्चों को पोर्नोग्राफी की दुनिया और कार्टूनों के बेजा हरकत करते गतिशील चित्रों से दूर(बशर्ते इसे हम एक एहतियातन तौर पर जरूरी और विवेकपूर्ण कदम मानते हों) रखना चाहते हैं तो हमें सीधे-सीधे संचार-क्रांति के इन विचारों से टकराना होगा जिसे बिल गेट्स संचार-क्रांति के सन्दर्भ में ‘घर्षणहीन पूँजीवाद’ कह रहे हैं। उनकी भाषा में यह बदलाव सकारात्मक और जनतांत्रिक है। वे यह मानते हैं कि ‘‘पूँजीवाद का जो भी शोषणकारी और उत्पीड़नकारी इतिहास रहा है, उसे संचार-क्रांति बदल रही है। संचार क्रांति के द्वारा समानता और लोकतंत्र के नए और वास्तविक युग की शुरुआत हो रही है जिसकी सबसे बड़ी पहचान यह होगी कि सूचनाएँ सबको उपलब्ध होंगी और सूचनाओं पर सबका अधिकार होने की वजह से लोग अपने अधिकारों के प्रति न सिर्फ अधिक सचेत होंगे बल्कि उन अधिकारों का बेहतर ढंग से उपयोग कर सकेंगे।
बहरहाल, इनके ख़िलाफ खड़े होने के बरक़्स इस बारे में अपनी बेबाक एवं स्वतंत्र राय रखना भी हमारे स्वस्थ दृष्टिकोण और दूरदर्शी अंतःदृष्टि का परिचायक है। अतः हमें उपर्युक्त विश्लेषण को अपने सन्दर्भ में खुद को इनसे जोड़कर देखना चाहिए।
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