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यह कहानी प्रेम की है...प्रेम-प्रसंग की नही।
उस दिन वह नीले रंग की बटनदानी वाली कुर्ती पहने हुए थी। परिधान उस पर जम रहे थे। वह आकर्षक लग रही थी। लड़कियाँ जब आकर्षक लगती हैं, तो मन के भँवरे अपनी आवाज की ट्यून बढ़ा देते हैं। मुझे अपने भीतर के भँवरों की गुनजाहट साफ सुनाई पड़ रही थी। ये भँवरे डोरे डालने वाले नहीं थें, लेकिन थे तो भँवरे ही।
शामली ने आते ही मुझे दस हजार रुपए थमाए थे।
‘‘इतनी जल्दी थी....,’’
‘‘हाँ...,’’ छोटा सा, लेकिन प्यारा-सा जवाब।
मैं और शामली चाय की दूकान से चाय लेकर घुटकने लगे। वह बड़ी मुश्किल से अपना नया सूट दिखाते हुए कुछ बोली थी।
मैं शामली को सुन रहा था। इस सुनाहट में ताजगी थी।
‘‘पापा निक हो गए हैं, माँ भी खुश है। लोग आजकल हरी सब्जियाँ बिना कहे ले आते हैं...कभी शक्कर और मसाले भी।’’
मैं शामली को देख रहा था। उस शामली को जिसने एक तिनके के सहारे खुद को बदल देने का ज़ज्बा दिखाया था।
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शामली जिसकी उम्र 26 साल है; यही कोई तीन माह पहले मुझे मिली थी।
वह बड़ी थी, लेकिन इतनी भी बड़ी नहीं कि मैं उसे अपनी छोटी बहन न कह सकूँ। शामली का स्वभाव बिंदासता के महीन तागे से बुना हुआ था। आँख जो हमारी जिंदगी के सर्वाधिक करीब होते है; वे ज़िन्दगी के सच को ऐसे देखते हैं जैसे किसी फुलझड़ी को जलाकर बच्चे देखा करते हैं...पूरे हुलस, उत्साह और उमंग के साथ। शामली अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही देखती थी।
मुझे पिछली बातें याद आ रही थी।
जिस दिन शामली को मैंने मंदिर की सीढ़ियों के पास पहली बार देखा, उसके आँख में आँसू थे। मैंने आगे बढ़कर उससे बात की थी।
शामली के पिता सूत-कारोबारी थें। पिछले कई महीनों से उन्हें बीमारी ने तोड़ दिया था। माँ दो-चार घरों में बर्तन-बासन कर गुजारा करने लायक कमा-धमा ले रही थीं, लेकिन शामली के पढ़ने के सपने को बलि देकर।
यह सच था। चंद रुपल्ली से ज़िदगी नहीं बदला करती हैं। सो मैंने शामली के घर में बात की। हमसब मिलकर घरेलू तंगी से निपटने का कोई न कोई उपाय सोच रहे थे।
‘‘शामली....हमलोग टिफिन पैक कर लोगों को देंगे...!’’
सब चुप। शामली भी चुप।
‘‘हाँ, शामली! सुुबह-सुबह स्कूल के बच्चों को टिफिन देने का काम करेंगे...बिना लेकिन...परन्तु के।’’
सभी हँस पड़े। लेकिन, इस सुझाव में हामी सबकी थी।
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उस दिन के बाद से शामली रूकी कहाँ?
वह बच्चों की टिफिन में रोटियाँ जेवर की तरह तहियाकर रखती थी। खाने में स्वाद हो, इसका जायज़ा लेने के लिए वह भोजन पहले खुद ही चख लेती थी। शामली पूरे मुहल्ले की ‘प्यारी दीदी’ बन गई थी।
मुझे शामली का चेहरा फुलदानी-सा दमक रहा था। वह मुझे बार-बार अपने घर चाय के लिए आमंत्रित कर रही थी। मैंने उसे प्रामिश किया कि मैं, सीमा और बच्चों के साथ आऊँगा जल्द ही।
शामली संतोष के भाव से मुझे देख रही थी...और मैं शामली जैसी साहसी लड़की का कहानी अपने दिमाग में बुन रहा था।
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