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(राजीव रंजन प्रसाद लिखित 'एक बंजारे बेरोजगार का नोट्स-बुक’ से)
अंग्रेजी में एक शब्द है-‘व्यक्तित्व’। लोकप्रिय और बहुचर्चित भी। इंटरनेट जो अक्षरों, शब्दों, वाक्यों, लिपियों, भाषाओं इत्यादि का खजाना है; में एक इंटर पर इफरात सामग्री(टेक्सट, इमेज, पीएडएफ, पीपीटी, आॅडियो, विडियो इत्यादि) मिल जाएंगे व्यक्तित्व के बारे में। वहाँ यह सूचना आसानी से मिल सकती है कि साधारण बोलचाल में प्रयुक्त शब्द ‘व्यक्तित्व’ को अंग्रेजी में ‘Personality’ कहा जाता है जो लैटिन शब्द ‘Persona’ से बना है। अपनी बोली में हम कुछ बोले नहीं कि सामने वाला व्यक्ति फौरन यह जान लेगा कि हम कैसे हंै? हमारे व्यवहार की प्रकृति क्या है? हमारा स्वभाव कैसा होगा? हम मिलनसार हैं या उजड्ड। अक्लमंद हैं या हमारे दिमाग में सिर्फ भूसा भरा हुआ है। कई बार तो हम किसी का हाव-भाव और हरकत देखकर यह सटीक अनुमान लगा सकते हैं कि फलांना व्यक्ति इस वक्त क्या सोच रहा है; उसके दिमाग में क्या चल रहा है। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
व्यक्तित्व का नाता हर आदमी के चाहे वह छोटा हो या बड़ा; देह और दिमाग दोनों से अंतःसम्बन्धित होता है। मन की हलचलों से, भाव-तरंगों से, सूझों से या फिर देखने-सुनने के उन सभी तौर-तरीकों से जो हमारे व्यवहार और आचरण का हिस्सा हैं; हमारे व्यक्तित्व की अमूल्य निधि हैं। बिल्कुल भाषा की माफिक। उस भाषा की तरह जो हमारे ज़बान के लार से पुष्ट-संपुष्ट होकर जवान होती है; समृद्ध होती है। मैं भाषा के मुद्दे पर आऊँगा, लेकिन उससे पहले व्यक्तित्व की बात। यदि कोई हँसोड़ है, तो यह उस व्यक्ति-विशेष का अपना व्यक्तित्व है। इसी तरह किसी आदमी की प्रसन्नता को भाँपकर जब हम कहते हैं, वह बहुत हँसमुख है, तो यह भी उस व्यक्ति के व्यक्तित्व पर की गई टिप्पणी ही होती है। दुनिया में बहुतेरे ऐसे लोग मिल जाएंगे जो खुशी हो या ग़म सब स्थिति में संतुष्ट और स्थिर बने रहने की चेष्टा करते हंै और अपने सचेतन प्रयत्न में सफल भी होते हैं; ऐसे लोगों को हम ज़िन्दादिल शख़्स कह उनके आगे सर नवाते हैं। उदाहरण कई-कई हो सकते हैं। जैसे-कोई उदारमना व्यक्तित्व का हो सकता है, तो कोई महामना। पण्डित मदन मोहन मालवीय जी स्वयं उदाहरण हैं जिनका व्यक्तित्व विराट चेतना, विशाल हृदय और विमल मन से आपूरित था। धैर्यवान, सयंमशील, उग्र, निंदक, आलसी, ईष्र्यालु आदि-आदि मनोवृत्ति-अभिवृत्ति के लोग भी होते हैं जिनके सम्पर्क-संगति में आते ही हमारा दिमागी एंटीना/एरियल उनके बारे में ख़बरें देने लग जात हैं। उद्दीपन, संवेदन, प्रत्यक्षीकरण और आत्माधारणा जैसी मनोवैज्ञानिक शब्दावली इसीलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वे हमारे मनोजगत और मनोचेतना को देखते ही पढ़ लेने में अव्वल हैं।
ध्यातव्य है कि चारित्रिक गुण हमारे व्यक्तित्व का अहम भाग है। इसके माध्यम से व्यक्तित्व को काफी हद तक जाना-समझा जा सकता है। जब किसी के काम को मौलिक कहा जाता है, तो यह मौलिकता कहीं बाहर से आरोपित अथवा प्रक्षेपित नहीं होती हैं, बल्कि यह उस व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का अंग-उपांग होती हैं जो उसका प्रयोक्ता होती हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व का आन्तरिक गुणधर्म है जो भिन्न-भिन्न कई रूपों में देखने को मिलती हैं। यथा-अंतःमुखी व्यक्तित्व, बाह््यमुखी या विकासोन्मुखी व्यक्तित्व। दरअसल, खाना, पीना, सोना, रोना, हँसना, बोलना इत्यादि को जिस तरह मनोविज्ञानियों ने मुलप्रवृत्ति कहा है; उसी तरह व्यक्तित्व हमारे जीवन का सूचक/संकेतक है। व्यक्तित्व स्वाभाविक जीवन-प्रणाली की अभिव्यक्ति है। यह चेतना का वास्तविक और मूर्त स्वरूप है। व्यक्तित्व को जानने के लिए अगर हम जिज्ञासा की खुरपी लगाएँ, तो आश्चर्यजनक चीजें प्राप्त होंगी। हम यह जानकर चकित होंगे कि-‘‘मानव का निर्माण पाँच पदार्थों से हुआ है। प्रथम तो उसे भौतिक शरीर मिला है जो अन्नमय कोष है। दूसरे उसे प्राणवायु प्राप्त हुई है, वही प्राणमय कोष है। तीसरे उसे मन प्राप्त हुआ है। उसी को मनोमय कोष कहा जाता है। चैथे उसे बुद्धि मिली है जो विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत आती हैं और पाँचवें उसे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं जिनके द्वारा वह आन्नदोपभोग करता है। अतः ये ही अन्नदमय कोष हैं। इस तरह हमारा मानव-शरीर जिसे व्यावहारिक भाषा में व्यक्तित्व कहा जा रहा है उक्त पाँचों कोषों से मिलकर पंचकोष के रूप में समन्वित है।
व्यक्तित्व या भौतिक-शरीर से सम्बन्धित यह व्याख्या भारतीय दृष्टिकोण से सम्बन्धित है। उपनिषदों में वर्णित इन प्रामाणिक तथ्यों को पश्चिमी विद्वान, विज्ञानी, शिक्षाशास्त्री सभी स्वीकार करते हैं; लेकिन इन्हें हम मानना तो दूर ‘आउटडेटेड नाॅलेज’ कह इस पूरे ज्ञान-मीमांसा से ही पल्ला झाड़ ले रहे हैं। दूसरी तरफ ज्ञान-तकनीकी की पश्चिमी विचारधाराएँ जिन्हें हम अंग्रेजी पोथियों में पढ़ने को बाध्य हैं; के प्रति हमारा दृष्टिकोण प्रायः बिल्कुण भिन्न किस्म का होता है। उदाहरणार्थ-पानी की यौगिकीय-संरचना के बारे में वैज्ञानिक जब यह कहते हैं कि-जल के कण मूलतः 2 भाग हाइड्रोजन और 1 भाग आॅक्सीजन से मिलकर बने हैं; तो हमें प्रथम द्रष्टया घोर आश्चर्य होता है। हम सेाचते हैं-पानी के कणों को कैसे अलग-अलग विभाजित किया जा सकता है? चूँकि यह वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में यह रूढ़-कथन है; इस कारण एक सीमा के बाद हम अधिक जिरह नहीं करते हैं। न्युटन की गति नियम हो या आइंस्टीन की सापेक्षिकता का सिद्धान्त; हम इन्हें वैज्ञानिक सत्य कह कर स्वीकार कर लेते हैं प्रायः। ऐसा क्यों है कि हम इन प्रस्थापनाओं के भीतरी खण्डों को अलग-अलग न देखते हुए भी उसे सच मान लेने को बाध्य होते हैं? उस पर जरूरी तर्क-वितर्क नहीं करते हैं? कई बार द्वंद्व या आन्तरित असंगति उत्पन्न होने की स्थिति में भी चिन्तन करने को उद्धत नहीं होते हैं? या फिर चिन्तन की प्रतिमाएँ इतनी सघन नहीं होती हैं कि वे इन सिद्धान्तों से सीधे टकराने की चुनौती मोल ले सकें।
जबकि हमारे यहाँ शास्त्रार्थ की संस्कृति हजारों वर्ष पहले तक मौजूद थीं। आज तो उनका जिक्र भी फ़साने में नहीं। आज की नवपीढ़ी को इस सत्य से साक्षात्कार कराना बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जैसा है कि हमारी परम्परा आज तक जीवित इसलिए नहीं है कि हम एक महान परम्परा के नागरिक हैं; बल्कि इसलिए कि हमारी सांस्कृतिक क्रियाशीलता में परिवर्तनीयता के गुण विद्यमान हैं। भारतीय ज्ञान-परम्परा नवीनताओं को हमेशा समय के कोख में ढोती है और उसे उपयुक्त अवधि के पश्चात जन्मती भी है, बशर्ते नवीन-धारा अपनी प्रकृति और चेतना में दीर्घजीवी हो। आज यह कसौटी हमारी आधुनिक भारतीय चित्तवृत्ति से गायब हैं जो सचमुच तकलीफदेह है और चिन्ताजनक भी।
इसके विपरीत पश्चिमी ज्ञानतंत्र या अकादमिक जगत से जुड़े लोग अच्छी से अच्छी चीज को हमेशा ‘काउंटर’ करते हैं। वे यह मानने के लिए न तो बाध्य होते हैं और न ही किए जाते हैं कि फलांना सत्य सार्वभौमिक सत्य है या कि उनमें परिष्कार/परिवर्धन की चेष्टा समय की फ़िजूलखर्ची है। भारतीय शिक्षालयों में ऐसी अध्यापकीय हिदायतें अटी पड़़ी हैं। वस्तुतः पश्चिमी शोधक भीतरी प्रयोग को लेकर पगलाए होते हैं। कई नई खोजें तो इसी पागलपन की देन हैं। ऐसे सुधीजनों के प्रति निःसंदेह हमारी कृतज्ञता व्यक्त होनी ही चाहिए जिन्होंने अपनी इस तर्क-वितर्क की चेतना से समय के पूरे ‘पैराडाइम’ को ही बदल देने का लाभकारी उपक्रम किया है। पश्चिमी अनुसन्धानकत्र्ताओं की इन चेष्टाओं पर निसार होने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपने दरो-दीवार के भूगोल, रंग, आकार, प्रकृति, भाषा और ज़ुबान भूल जाएँ। संवादी रूप में अपनी भाषा को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले व्यक्तित्व को ही खो दें सदा-सर्वदा के लिए।
बहरहाल, आज हम पश्चिमी जगत के उस दौर को अपना सार्थक अतीत मानने को अभिशप्त हैं, जो औद्योगिकीकरण के बाद उपनिवेश की खोज में विकसित हुई साम्राज्यवादी सत्ता का ज्ञानोदय-काल है। गोरे अंग्रेजे मैकाले की काली शिक्षा नीति आज भी प्रभावी और बेखटक प्रयोग में है, तो सिर्फ इसलिए कि स्वाधीन भारत की चेतना अपनी भाषा से कटकर उस भाषा से संयुक्त हो गई है जो अधिनायकवादी प्रवृत्ति और वर्चस्व की नीति से परिचालित है। स्मरण रहे, सीखने की भाषा अपनी या परायी नहीं होती है, लेकिन अपनी मर्म, वेदना, संवेदना, मौन और चिन्तन की भाषा परायी कैसे हो सकती है? जिस तरह हम अपनी जान को किसी बीमा-कम्पनी के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं, वैसे ही अपनी भाषा को अपनी ही ज़बान से बेदखल कर देना कहाँ की और कैसी समझदारी है? यह एक यक्ष प्रश्न है जिस पर भावुक विलाप करने की जगह वस्तुपरक संवाद-विमर्श की आवश्यकता है। वर्तमान भाषा-बोध की कमी और हिन्दी भाषा को लेकर फैलाई गई भ्रामक संकीर्णता के बाबत साहित्यकार प्रभाकर श्रोतिय दो-टूक कहते हैं-‘‘यह आर्थिक प्रभुत्त्ववाद अपने बहुत बड़े और महीन संजाल से मनुष्य के मन, बुद्धि, संवेग, इच्छा, यहाँ तक कि उसकी राष्ट्रीय राजनीति और व्यवस्थाओं को भी नियंत्रित कर रहा है; साहित्य, संस्कृति और भाषा का, मनुष्य के मन में नए ढंग से अर्थांतर और मूल्यांतर कर रहा है; प्रतिरोध और विद्रोह की आवाज़ों को तत्काल बिकने वाले साहित्य की ऊँची कीमत पर माँग से कुचल रहा है। घटिया साहित्य की विपुलता से वह विचारशील और गहरे साहित्य को विस्थापित कर रहा है। सब कुछ इतनी नफ़ासत और क्रमिक प्रक्रिया से होता है कि पाठक-मन को जरा धक्का न लगे।’’
(राजीव रंजन प्रसाद लिखित 'एक बंजारे बेरोजगार का नोट्स-बुक’ से)
अंग्रेजी में एक शब्द है-‘व्यक्तित्व’। लोकप्रिय और बहुचर्चित भी। इंटरनेट जो अक्षरों, शब्दों, वाक्यों, लिपियों, भाषाओं इत्यादि का खजाना है; में एक इंटर पर इफरात सामग्री(टेक्सट, इमेज, पीएडएफ, पीपीटी, आॅडियो, विडियो इत्यादि) मिल जाएंगे व्यक्तित्व के बारे में। वहाँ यह सूचना आसानी से मिल सकती है कि साधारण बोलचाल में प्रयुक्त शब्द ‘व्यक्तित्व’ को अंग्रेजी में ‘Personality’ कहा जाता है जो लैटिन शब्द ‘Persona’ से बना है। अपनी बोली में हम कुछ बोले नहीं कि सामने वाला व्यक्ति फौरन यह जान लेगा कि हम कैसे हंै? हमारे व्यवहार की प्रकृति क्या है? हमारा स्वभाव कैसा होगा? हम मिलनसार हैं या उजड्ड। अक्लमंद हैं या हमारे दिमाग में सिर्फ भूसा भरा हुआ है। कई बार तो हम किसी का हाव-भाव और हरकत देखकर यह सटीक अनुमान लगा सकते हैं कि फलांना व्यक्ति इस वक्त क्या सोच रहा है; उसके दिमाग में क्या चल रहा है। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
व्यक्तित्व का नाता हर आदमी के चाहे वह छोटा हो या बड़ा; देह और दिमाग दोनों से अंतःसम्बन्धित होता है। मन की हलचलों से, भाव-तरंगों से, सूझों से या फिर देखने-सुनने के उन सभी तौर-तरीकों से जो हमारे व्यवहार और आचरण का हिस्सा हैं; हमारे व्यक्तित्व की अमूल्य निधि हैं। बिल्कुल भाषा की माफिक। उस भाषा की तरह जो हमारे ज़बान के लार से पुष्ट-संपुष्ट होकर जवान होती है; समृद्ध होती है। मैं भाषा के मुद्दे पर आऊँगा, लेकिन उससे पहले व्यक्तित्व की बात। यदि कोई हँसोड़ है, तो यह उस व्यक्ति-विशेष का अपना व्यक्तित्व है। इसी तरह किसी आदमी की प्रसन्नता को भाँपकर जब हम कहते हैं, वह बहुत हँसमुख है, तो यह भी उस व्यक्ति के व्यक्तित्व पर की गई टिप्पणी ही होती है। दुनिया में बहुतेरे ऐसे लोग मिल जाएंगे जो खुशी हो या ग़म सब स्थिति में संतुष्ट और स्थिर बने रहने की चेष्टा करते हंै और अपने सचेतन प्रयत्न में सफल भी होते हैं; ऐसे लोगों को हम ज़िन्दादिल शख़्स कह उनके आगे सर नवाते हैं। उदाहरण कई-कई हो सकते हैं। जैसे-कोई उदारमना व्यक्तित्व का हो सकता है, तो कोई महामना। पण्डित मदन मोहन मालवीय जी स्वयं उदाहरण हैं जिनका व्यक्तित्व विराट चेतना, विशाल हृदय और विमल मन से आपूरित था। धैर्यवान, सयंमशील, उग्र, निंदक, आलसी, ईष्र्यालु आदि-आदि मनोवृत्ति-अभिवृत्ति के लोग भी होते हैं जिनके सम्पर्क-संगति में आते ही हमारा दिमागी एंटीना/एरियल उनके बारे में ख़बरें देने लग जात हैं। उद्दीपन, संवेदन, प्रत्यक्षीकरण और आत्माधारणा जैसी मनोवैज्ञानिक शब्दावली इसीलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वे हमारे मनोजगत और मनोचेतना को देखते ही पढ़ लेने में अव्वल हैं।
ध्यातव्य है कि चारित्रिक गुण हमारे व्यक्तित्व का अहम भाग है। इसके माध्यम से व्यक्तित्व को काफी हद तक जाना-समझा जा सकता है। जब किसी के काम को मौलिक कहा जाता है, तो यह मौलिकता कहीं बाहर से आरोपित अथवा प्रक्षेपित नहीं होती हैं, बल्कि यह उस व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का अंग-उपांग होती हैं जो उसका प्रयोक्ता होती हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व का आन्तरिक गुणधर्म है जो भिन्न-भिन्न कई रूपों में देखने को मिलती हैं। यथा-अंतःमुखी व्यक्तित्व, बाह््यमुखी या विकासोन्मुखी व्यक्तित्व। दरअसल, खाना, पीना, सोना, रोना, हँसना, बोलना इत्यादि को जिस तरह मनोविज्ञानियों ने मुलप्रवृत्ति कहा है; उसी तरह व्यक्तित्व हमारे जीवन का सूचक/संकेतक है। व्यक्तित्व स्वाभाविक जीवन-प्रणाली की अभिव्यक्ति है। यह चेतना का वास्तविक और मूर्त स्वरूप है। व्यक्तित्व को जानने के लिए अगर हम जिज्ञासा की खुरपी लगाएँ, तो आश्चर्यजनक चीजें प्राप्त होंगी। हम यह जानकर चकित होंगे कि-‘‘मानव का निर्माण पाँच पदार्थों से हुआ है। प्रथम तो उसे भौतिक शरीर मिला है जो अन्नमय कोष है। दूसरे उसे प्राणवायु प्राप्त हुई है, वही प्राणमय कोष है। तीसरे उसे मन प्राप्त हुआ है। उसी को मनोमय कोष कहा जाता है। चैथे उसे बुद्धि मिली है जो विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत आती हैं और पाँचवें उसे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं जिनके द्वारा वह आन्नदोपभोग करता है। अतः ये ही अन्नदमय कोष हैं। इस तरह हमारा मानव-शरीर जिसे व्यावहारिक भाषा में व्यक्तित्व कहा जा रहा है उक्त पाँचों कोषों से मिलकर पंचकोष के रूप में समन्वित है।
व्यक्तित्व या भौतिक-शरीर से सम्बन्धित यह व्याख्या भारतीय दृष्टिकोण से सम्बन्धित है। उपनिषदों में वर्णित इन प्रामाणिक तथ्यों को पश्चिमी विद्वान, विज्ञानी, शिक्षाशास्त्री सभी स्वीकार करते हैं; लेकिन इन्हें हम मानना तो दूर ‘आउटडेटेड नाॅलेज’ कह इस पूरे ज्ञान-मीमांसा से ही पल्ला झाड़ ले रहे हैं। दूसरी तरफ ज्ञान-तकनीकी की पश्चिमी विचारधाराएँ जिन्हें हम अंग्रेजी पोथियों में पढ़ने को बाध्य हैं; के प्रति हमारा दृष्टिकोण प्रायः बिल्कुण भिन्न किस्म का होता है। उदाहरणार्थ-पानी की यौगिकीय-संरचना के बारे में वैज्ञानिक जब यह कहते हैं कि-जल के कण मूलतः 2 भाग हाइड्रोजन और 1 भाग आॅक्सीजन से मिलकर बने हैं; तो हमें प्रथम द्रष्टया घोर आश्चर्य होता है। हम सेाचते हैं-पानी के कणों को कैसे अलग-अलग विभाजित किया जा सकता है? चूँकि यह वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में यह रूढ़-कथन है; इस कारण एक सीमा के बाद हम अधिक जिरह नहीं करते हैं। न्युटन की गति नियम हो या आइंस्टीन की सापेक्षिकता का सिद्धान्त; हम इन्हें वैज्ञानिक सत्य कह कर स्वीकार कर लेते हैं प्रायः। ऐसा क्यों है कि हम इन प्रस्थापनाओं के भीतरी खण्डों को अलग-अलग न देखते हुए भी उसे सच मान लेने को बाध्य होते हैं? उस पर जरूरी तर्क-वितर्क नहीं करते हैं? कई बार द्वंद्व या आन्तरित असंगति उत्पन्न होने की स्थिति में भी चिन्तन करने को उद्धत नहीं होते हैं? या फिर चिन्तन की प्रतिमाएँ इतनी सघन नहीं होती हैं कि वे इन सिद्धान्तों से सीधे टकराने की चुनौती मोल ले सकें।
जबकि हमारे यहाँ शास्त्रार्थ की संस्कृति हजारों वर्ष पहले तक मौजूद थीं। आज तो उनका जिक्र भी फ़साने में नहीं। आज की नवपीढ़ी को इस सत्य से साक्षात्कार कराना बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जैसा है कि हमारी परम्परा आज तक जीवित इसलिए नहीं है कि हम एक महान परम्परा के नागरिक हैं; बल्कि इसलिए कि हमारी सांस्कृतिक क्रियाशीलता में परिवर्तनीयता के गुण विद्यमान हैं। भारतीय ज्ञान-परम्परा नवीनताओं को हमेशा समय के कोख में ढोती है और उसे उपयुक्त अवधि के पश्चात जन्मती भी है, बशर्ते नवीन-धारा अपनी प्रकृति और चेतना में दीर्घजीवी हो। आज यह कसौटी हमारी आधुनिक भारतीय चित्तवृत्ति से गायब हैं जो सचमुच तकलीफदेह है और चिन्ताजनक भी।
इसके विपरीत पश्चिमी ज्ञानतंत्र या अकादमिक जगत से जुड़े लोग अच्छी से अच्छी चीज को हमेशा ‘काउंटर’ करते हैं। वे यह मानने के लिए न तो बाध्य होते हैं और न ही किए जाते हैं कि फलांना सत्य सार्वभौमिक सत्य है या कि उनमें परिष्कार/परिवर्धन की चेष्टा समय की फ़िजूलखर्ची है। भारतीय शिक्षालयों में ऐसी अध्यापकीय हिदायतें अटी पड़़ी हैं। वस्तुतः पश्चिमी शोधक भीतरी प्रयोग को लेकर पगलाए होते हैं। कई नई खोजें तो इसी पागलपन की देन हैं। ऐसे सुधीजनों के प्रति निःसंदेह हमारी कृतज्ञता व्यक्त होनी ही चाहिए जिन्होंने अपनी इस तर्क-वितर्क की चेतना से समय के पूरे ‘पैराडाइम’ को ही बदल देने का लाभकारी उपक्रम किया है। पश्चिमी अनुसन्धानकत्र्ताओं की इन चेष्टाओं पर निसार होने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपने दरो-दीवार के भूगोल, रंग, आकार, प्रकृति, भाषा और ज़ुबान भूल जाएँ। संवादी रूप में अपनी भाषा को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले व्यक्तित्व को ही खो दें सदा-सर्वदा के लिए।
बहरहाल, आज हम पश्चिमी जगत के उस दौर को अपना सार्थक अतीत मानने को अभिशप्त हैं, जो औद्योगिकीकरण के बाद उपनिवेश की खोज में विकसित हुई साम्राज्यवादी सत्ता का ज्ञानोदय-काल है। गोरे अंग्रेजे मैकाले की काली शिक्षा नीति आज भी प्रभावी और बेखटक प्रयोग में है, तो सिर्फ इसलिए कि स्वाधीन भारत की चेतना अपनी भाषा से कटकर उस भाषा से संयुक्त हो गई है जो अधिनायकवादी प्रवृत्ति और वर्चस्व की नीति से परिचालित है। स्मरण रहे, सीखने की भाषा अपनी या परायी नहीं होती है, लेकिन अपनी मर्म, वेदना, संवेदना, मौन और चिन्तन की भाषा परायी कैसे हो सकती है? जिस तरह हम अपनी जान को किसी बीमा-कम्पनी के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं, वैसे ही अपनी भाषा को अपनी ही ज़बान से बेदखल कर देना कहाँ की और कैसी समझदारी है? यह एक यक्ष प्रश्न है जिस पर भावुक विलाप करने की जगह वस्तुपरक संवाद-विमर्श की आवश्यकता है। वर्तमान भाषा-बोध की कमी और हिन्दी भाषा को लेकर फैलाई गई भ्रामक संकीर्णता के बाबत साहित्यकार प्रभाकर श्रोतिय दो-टूक कहते हैं-‘‘यह आर्थिक प्रभुत्त्ववाद अपने बहुत बड़े और महीन संजाल से मनुष्य के मन, बुद्धि, संवेग, इच्छा, यहाँ तक कि उसकी राष्ट्रीय राजनीति और व्यवस्थाओं को भी नियंत्रित कर रहा है; साहित्य, संस्कृति और भाषा का, मनुष्य के मन में नए ढंग से अर्थांतर और मूल्यांतर कर रहा है; प्रतिरोध और विद्रोह की आवाज़ों को तत्काल बिकने वाले साहित्य की ऊँची कीमत पर माँग से कुचल रहा है। घटिया साहित्य की विपुलता से वह विचारशील और गहरे साहित्य को विस्थापित कर रहा है। सब कुछ इतनी नफ़ासत और क्रमिक प्रक्रिया से होता है कि पाठक-मन को जरा धक्का न लगे।’’
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