Tuesday, April 30, 2013

भारतीय सिनेमा@सौ बरस


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आज का सिने-दर्शक एड़ा नहीं है। वह सभ्यजनीन है। वह ज़माना गया जब सिनेमा-हाॅल में हुल्लड़-हल्ला मचते थे। अब तो जवां दिल अपनी विपरीतलिंगी के साथ ‘छोकरा जवान....,’ गाना परदे पर सुनते हैं और ‘आउच’ तक नहीं कहते। सिनेमा पिछले सौ बरस में बदल गया है काफी कुछ। निर्देशन से अभिनय तक। पटकथा से संवाद तक। गीत-संगीत से आइटम गाने तक। सिनेमा ने भारतीय सिने-जगत में नए समाजशास्त्र और अर्थ-शास्त्र को जन्म दिया है।

राजीव रंजन प्रसाद की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा@सौ बरस’ के लिए थोड़ा इन्तज़ार और सही। कुल दस अध्यायों में बँटी यह पुस्तक आपको पढ़ने का आमन्त्रण देती है....आप पूरा पढ़ पाएंगे या नहीं यह तो आपके और रजीबा के कमेस्ट्री पर निर्भर है।

तब तक कहिए-‘वाह! रजीबा वाह!’:

भारतीय सिनेमा@सौ बरस
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देखिए संभावित अध्यायों का सिलसिलेवार क्रम:

1. निर्देशन@सौ बरस

2. पटकथा@सौ बरस

3. गीत-संगीत@सौ बरस

4. संवाद@सौ बरस

5. अभिनय@सौ बरस

6. फिल्म-मेकिंग तकनीक@सौ बरस

7. सिने-भाषा@सौ बरस

8. सिने-थियेटर@सौ बरस

9. सिने-मार्केट@सौ बरस

10. सिने-दर्शक@सौ बरस

Thursday, April 25, 2013

मानव-मस्तिष्क


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मानव-शरीर में मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली अद्भुत है। यह हमारे भीतरी जीवन का ब्राह्माण्ड है। मानव-मस्तिष्क जितना क्षमतावान है उतना ही ऊर्जावान भी है। यह ऊर्जा जब भीतर रहती है तो इसका कायान्तरण होता है और जब बाहर निकसती है तो इसका वाक् में रूपान्तरण हो जाता है। जिस तरह बाँसुरी में कोई ध्वनि पूर्व-प्रक्षेपित नहीं होती, उसी तरह हमारे शरीर में ध्वनि कहीं नहीं है। ध्वनि का शरीर द्वारा अनुरक्षण संभव भी नहीं है। वह तो हमारे भीतर की ऊर्जा है जो वागेन्द्रियों के माध्यम से वाक् बनकर प्रस्फुटित होती है। जैसे एक बाँसुरी-वादक एक ओर अपने मुख से हवा के ऊपर दाब बनाता है, तो दूसरी ओर, बासुँरी के विभिन्न संरध्रों को अपने सन्तुलित हाथ से छेड़ता-छोड़ता है; और इस तरह गति के विशेष आरोह-अवरोह से वह सुरमिश्रित ध्वनियों को जन्म देता है। इस दृष्टि से मानव उच्चरित-ध्वनियों पर विचार करंे तो यहाँ भी वही प्रक्रिया दुहरायी जाती है जिसका प्रस्तोता स्वयं मस्तिष्क होता है। मानव-मस्तिष्क की विलक्षणता का आलम यह है कि इसमें क्षण-प्रतिक्षण लौकिक-परालौकिक चमत्कार घटित होते है। यदि वे प्रकट हो लिए तो यह हमारे व्यक्तित्व, व्यवहार, चिन्तन, दृष्टि, विचार आदि का हिस्सा है। अन्यथा यह एक रहस्य की भाँति हमारे चेतन-अवचेतन अथवा अर्द्धचेतन में सुसुप्त अवस्था में दबे/पडे़/जमे रहते हैं।

रंगीन देश की उदास परीकथाएँ


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भारत में परीकथाएँ कही-सुनी जाती हंै।

पर उदास परीकथाएँ? यह तो कहने-सुनने में ही अजीब लग रहा है।

पाठक महोदय! आप इस घनचक्कर में नहीं पड़े। देश में सबकुछ रंगीन है। या कहें कि रंगीनीयत ही आज हम भारतीयों का भाग्य-विधाता है। रंगीन न होना फुहड़ और बेशुऊर होना है। आजकल तो लोग आँख पर रंगीन चश्मे भी पायजामे की तरह पहनते हैं। जब जी चाहा.....खोल दिया जरबन की तरह।

ऐसे लोग सभ्य देश की राजधानियों में रहते हैं। बड़े होते नगरों में। महानगरों में। इनकी चहारदिवारियाँ ऊँची और सलीकेदार हैं जिसमें बजता है-24x7....‘मेरा मन डोला...मेरा तन डोला...’। इनकी ख़बरें ‘लाइव’ नहीं होती।

‘हिडेन कैमरे’ पहले ही उनसे सब डील कर चुके होते हैं-सीक्रेट.....सीक्रेट...सीक्रेट।

और सच सिगरेट की तरह जलता रहता है। ईमानदारी को लोग सच के राख हो जाने तक साथ रखते हैं...फिर ज़मीन पर फेंक अपने पैरों से मसल देते हैं।

पाठक महोदय! बफर और बुफर के इस ज़माने में परीकथाओं की बात....ऊपर से तुर्रा यह कि उदास परीकथाओं की बात। अजीब है। हास्यास्पद। दौ कौड़ी की और घटिया हैं। रजीबा यह कहते हुए पसर जाता है बिस्तर पर।

उदास परीकथाएँ दरवाजे पर दस्तक देती है। रजीबा उदास कदमों से उठता हँू। उदासी के साथ दरवाजा खोलता हँू-‘‘आ गई तुम!’’

रजीबा के होंठो पर मुसकान ठहर जाती है। उदास परीकथाएँ सौत की तरह उसे ताड़ लेती है।

‘‘मैं उदास परीकथाएँ हँू....किप आॅन सैडनेस....सैड....सैड....सैड’।

रजीबा को भूल जाने के लिए कहा जाता है। अपनी ही खुशियों को....मुसकान को भूल जाने के लिए। उसकी आँखें लाल होती है। धड़कन तेज। सोचता है....उदास परीकथाएँ तुम भी। तुमने भी मुझे भूल जाने के लिए कह दिया। क्या-क्या भूलँू। यह कि हम 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद हुए। एक आज़ाद मुल्क में पैदा हुए हैं। जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था आज के राजनीतिक-भूगोल में ज़िन्दा है। यह कि भारत एक शान्तिप्रिय देश है। यहाँ के लोग उच्च जीवन-मूल्यों में विश्वास करते हैं। यहाँ सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियाँ हैं जो सब पाप धोती हैं....मन को निर्मल और हृदय को पापमुक्त बनाती हैं।

उदास परीकथाएँ महामौन धारण करती हैं। यह भी किसी अट्टाहास से कम नहीं है।

रजीबा को लगता है। उदास परीकथाएँ उसे नंगा कर चुकी हैं। नंगई आज भारत-विभूषित शब्द है। परिचित और बेहद प्रचलित।

तभी अचानक रजीबा के चारों तरफ से रेत उड़ने लगते हैं। रेत पानी के बिना बेऔकात होते हैं। रजीबा जानता है। पानी के बिना रेत के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं होता है-‘रहिमन पानी राखिए....बिन पानी सब सुन’। अधिसंख्य भारतीय मुट्ठी में लेकर छोड़ दिए गये रेत हैं। वैसे रेत जो अपने से होकर गुजरे हर पदचिह्न को अपने शरीर पर अंकित करते हैं....लेकिन उनसे होकर गुजर गए लोगों के लिए उनका अंकित-मूल्य हमेशा शून्य ही होता है। सरकारें बदलती हैं। निज़ाम बदलते हैं। लोकशक्ति, सत्ता और सरकार बदलती है। लेकिन वह कभी नहीं बदलता है जिसे बदलने का दावा करके ये चन्द लोग मजा मार रहे हैं। अपनी रंगीनियत पर इतरा रहे हैं। अपने जैसे कुते पाल रहे हैं। उसी की तरह भूँक रहे हैं।

उदास परीकथाएँ रजीबा के भीतर चल रहे इन चीजों को ताड़ लीं हैं। बोली कुछ नहीं। क्या बोलती वों? उन्हें जो सुनना था...रजीबा की निगाहें उसे अभी ढूंढ रही थीं।

(.....फिलहाल थोड़ा लिखना ज्यादा समझना)

Tuesday, April 23, 2013

हस्तिनापुर


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लाओ थाल
पूजन की सामग्री
रोरी, कपूर, घी और रुई

रगड़ो चन्दन
सिलौट पर कुछ देर
और लेप दो माथे पर

जलाओ कपूर
उस जलती जवाला में
करो मेरा आरती

रूको! आर्यपुत्री
मुझ लेने दो संकल्प
करने दो स्तुति

आहुति से पूर्व
तर्पण का गीत गाने दो
श्वास को चलने दो अविराम

हे! जगति
जरा अपनी तर्जनी से
दो ऊष्मा मेरे गालों को

ओह! कुमारनयनि
थपथपाओ पीठ
भुजाओं को फड़कने दो

हाँ प्रिये!
अब होने दो विदा
मत बाँधो अपने प्रेमपाश में

सुनो! सुप्रज्ञा
छोड़ो, मत छेड़ो
विरहिणी तान-अनुतान

देवी! लोकमंगला
चलने दो अवगाहन-क्रिया
अश्रुपात न करो सूर्यास्त पर

ओ माँ!
मैं फिर जन्म लूँगा
तुम्हारी ही कोख से

अरी! माँ, इस बार
मुझे तंदुरुस्त पैदा करना
शारीरिक रुग्णता खतरनाक है

उससे भी खतरनाक है
लोगों का यह समझना कि
मैं हस्तिनापुर के लिए अयोग्य हँू

जबकि जो योग्य हैं
बन गए हैं धृतराष्ट
हस्तिनापुर में अंधो का साम्राज्य है।

Monday, April 22, 2013

नीम का दतवन


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(देव-दीप के लिए......,)

डाॅक्टर, वैद्य, नीम-हकीम
सबको पसन्द दतवन नीम।

दाँत की रोशनी, हो डीम
सब सुझाए दतवन नीम।

दाँत-कीटाणु, करे तमाम
ऐसा पीड़ाहारी दतवन नीम।

स्वाद में तिकछ, थोड़ा तितापन
तब भी फलदायक दतवन नीम।

नहीं पसन्द था कभी मुझको
डंठल-बंठल दतवन नीम।

दाँत दिखाता जब कोई झकझक
याद है आता दतवन नीम।ं

Sunday, April 21, 2013

देखो बिरनी उड़ी-उड़ी


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(देव-दीप के लिए......,)

उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी
लाल-पीली घुली-मिली
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
नन्ही-प्यारी बिरनी, उड़ी-उड़ी

फुर्तीले होते जिसके डंक
भयभीत होते राजा-रंक
उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

देखती जिधर चीनी-गुड़
बिरनी जाती बार-बार मुड़
उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

बड़े जतन से करती काम
धुन में रहना उसका विश्राम
उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

बिरनी सबसे हिलमिल रहती
आसमान में झिलमिल करती
उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

संगी-साथी, दोस्त और यार
बिरनी करती सबसे प्यार
उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
देखो बिरनी, उड़ी-उड़ी

उड़ी-उड़ी भाई, उड़ी-उड़ी
नन्ही-प्यारी बिरनी, उड़ी-उड़ी

Thursday, April 18, 2013

रजीबा ने पौने चार लाख का सलाना पैकेज ठुकराया


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जनसंचार और पत्रकारिता विषय में NET/JRF क्वालिफाई रजीबा जो इस घड़ी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में शोधरत है; ने एक निजी हिन्दी मीडिया संस्थान में सहायक प्राध्यापक पद के लिए दिए जा रहे पौने चार लाख सलाना पैकेज की पेशकश को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि-‘मैं वैसे लोगों के साथ कतई काम नहीं कर सकता जिन्हें आईपीएल के खिलाड़ियों तक का मोल-भाव लिस्ट नहीं मालूम है। ऐसे खिलाड़ियों की जानदार रिर्पोटिंग का गुर विद्यार्थी जिस गुरु से सीखेंगे; उसकी सैलरी न्यूनतम कितनी होनी चाहिए? इसकी तमीज तो आपके जैसे मीडिया संस्थान को अवश्य पता होना चाहिए।’’

Monday, April 15, 2013

वक़्त की हथेली में तल्ख़ लम्हें, जि़न्दगी ख़ुशनुमा


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ग़ज़ल-संग्रह: वक्त की हथेली में
ग़ज़लकार   : हातिम जावेद
प्रकाशक      : अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4
     शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-
     ग़्ााजियाबाद-201005(उ.प्र.)
मूल्य ः रुपए 200।


मेरी यह गुज़ारिश कि-‘आप इस ग़जल-संग्रह को अवश्य पढ़े।’ ख़ालिस दोस्ताना इल्तज़ा नहीं है। और न ही किसी औपचारिकता का निर्वाह। यह तो उस रूह की आवाज़ है जो इस संग्रह को पढ़ते हुए सहृदय पाठक के मन में पैबस्त हो जाती है; हर्फ-दर-हर्फ, रूमानी कम रूहानियत के साथ अधिक। एक मुक़म्मल रचना अपनी भाषा के स्वभाव, भाव-भंगिमा, कहन-शैली, रचना-विधान और मुहाविरा से पाठकीय पहचान हासिल करती है। वैसे भी उर्दू काव्यभाषा में अर्थ-क्षमता बोलचाल के मुहावरे से उपजती है, न कि कवियों द्वारा विकसित विशिष्ट बिम्ब-विधान से। दोनों में फ़र्क भी है। मुहाविरा कहा जाता है, बिम्ब कहा नहीं जाता बनाया जाता है।

ग़ज़लगो हातिम जावेद के इस संग्रह में यह शऊर जबर्दस्त है। अंतिका प्रकाशन से हाल ही में छप कर आई ग़ज़ल-संग्रह ‘वक्त की हथेली में’ को पढ़ना सुकूनदेह कम भीतर की कबकबाहट और बेचैनी को उन्मुक्त करना अधिक है। समकालीन अन्तर्विरोध और अन्तद्र्वंद्व दिमाग में परपराने लगते हैं एकदम अचानक-

‘‘शोखियाँ, क़हक़हे, महफि़लें, रौनकें।
 फ़ौज दंगाइयों की उठा ले गई।...

 रूह इंसानियत की तड़पती रही।
 लूटकर लाज ख़ूनी फ़ज़ा ले गई।।’’

आम-जि़न्दगी की लूट-खसोट; जल-जंगल-ज़मीन पर गैरों के धावे; अस्मत और अस्मिता पर चोट; उसूल, ईमान और तहज़ीब में आते फ़र्क/फाँक इत्यादि हमारी जि़न्दगी के नामुराद ज़ख्म-ओ-ज़लालत हैं जिन्हें हातिम जावेद मूक-बधिर नहीं छोड़ते हैं। वे अपने इस सद्यः प्रकाशित ग़जल-संग्रह में जि़न्दा शामिल करते हैं, कुछ यूँ-

‘‘ले गया चांदी के पंजों से कोई पर नोच कर।
 फड़फड़ा कर मेरी चाहत के कबूतर रह गए।।...

 ज़्ाातो-मज़हब की सियासत का नतीजा देखिए।
 चार सू ‘जावेद’ बर्बादी के मंजर रह गए।’’

हक़ीक़त का रूख हमेशा ज़मीनी होता है। दिमागी रसद-पानी भी वह अपनी मिट्टी से ही पाता है। हातिम जावेद जब अपने जेब को टटोलते हैं तो बीते खुशनुमा जि़न्दगी के कुछ तल्ख़ लम्हें भी बरबस ज़ेहन में खींची चली आती है:

‘‘ उम्र भर की वफ़ा का सिला ये दिया।
  क़ातिलों को हमारा पता दे गए।।...

  छीन कर मुझसे ‘जावेद’ आँखें मेरी।
  मेरे हाथों में वो आइना दे गए।।’’

पढ़ना जितना वाजि़ब है; वाजि़ब पढ़ना उससे कहीं अधिक जवाबदेहीपूर्ण। वैसे चुनौतीपूर्ण समय में जब सत्ता-सियासत ने आम-आदमी का फिक्र करना छोड़ दिया है, उलटे वह इंसानी चेतना और सामाजिक सह-अस्तित्व की उदात भावना को जमींदोज करने पर तूली है। हमें हातिम जावेद की तूलिका के ये अल्फ़ाज निःसन्देह महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं-

‘‘मुहब्बत, दोस्ती, ग़ैरत, देयानत छीन लेती है।
 न जाने और भी क्या-क्या सियासत छीन लेती है।।

मेरे ख़्वाबों को ताबीरें मयस्सर हों तो कैसे हों।
मेरी सारी कमाई तो ज़रूरत छीन लेती है।’’

मित्रो, हिन्दी ग़जल की समझ मेरी अभी पौधे के उम्र की है। लेकिन, इस ग़जल-संग्रह ने मुझे अपनी रौ में भीगोया जबर्दस्त। मेरे साथी लक्ष्मण प्रसाद जिनके भीतर संवेदना की ठेठ राग पलती है और जिनकी बोल अद्भुत लय पाकर जीवन्त हो जाती है अक्सर; को मैं जब यह गुनगुनाते सुनता हँू, तो अभिभूत हो जाता हँू-

‘‘दिल में फि़तना जगा दिया किसने?
 क़त्लो-ग़ारत सिखा दिया किसने??
 तुम तो फूलों से भी मुलायम थे।
 तुमको पत्थर बना दिया किसने??’’

मैं शुक्रगुज़ार हँू अपने हमराही लक्ष्मण प्रसाद जी का जिनके नेक इरादे ने मुझे इस पठनीय ग़जल-संग्रह से रू-ब-रू कराया। अपने मित्र को ग़र धन्यवाद भी कहना चाहूँ तो हातिम जावेद से ही दो पंक्ति उधार लेकर-

‘‘छू भी न सकंेगे तेरे नापाक इरादे।
‘जावेद’ के हमराह सदा माँ की दुआ है।।’’

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...