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मानव-शरीर में मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली अद्भुत है। यह हमारे भीतरी जीवन का ब्राह्माण्ड है। मानव-मस्तिष्क जितना क्षमतावान है उतना ही ऊर्जावान भी है। यह ऊर्जा जब भीतर रहती है तो इसका कायान्तरण होता है और जब बाहर निकसती है तो इसका वाक् में रूपान्तरण हो जाता है। जिस तरह बाँसुरी में कोई ध्वनि पूर्व-प्रक्षेपित नहीं होती, उसी तरह हमारे शरीर में ध्वनि कहीं नहीं है। ध्वनि का शरीर द्वारा अनुरक्षण संभव भी नहीं है। वह तो हमारे भीतर की ऊर्जा है जो वागेन्द्रियों के माध्यम से वाक् बनकर प्रस्फुटित होती है। जैसे एक बाँसुरी-वादक एक ओर अपने मुख से हवा के ऊपर दाब बनाता है, तो दूसरी ओर, बासुँरी के विभिन्न संरध्रों को अपने सन्तुलित हाथ से छेड़ता-छोड़ता है; और इस तरह गति के विशेष आरोह-अवरोह से वह सुरमिश्रित ध्वनियों को जन्म देता है। इस दृष्टि से मानव उच्चरित-ध्वनियों पर विचार करंे तो यहाँ भी वही प्रक्रिया दुहरायी जाती है जिसका प्रस्तोता स्वयं मस्तिष्क होता है। मानव-मस्तिष्क की विलक्षणता का आलम यह है कि इसमें क्षण-प्रतिक्षण लौकिक-परालौकिक चमत्कार घटित होते है। यदि वे प्रकट हो लिए तो यह हमारे व्यक्तित्व, व्यवहार, चिन्तन, दृष्टि, विचार आदि का हिस्सा है। अन्यथा यह एक रहस्य की भाँति हमारे चेतन-अवचेतन अथवा अर्द्धचेतन में सुसुप्त अवस्था में दबे/पडे़/जमे रहते हैं।
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