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आज का सिने-दर्शक एड़ा नहीं है। वह सभ्यजनीन है। वह ज़माना गया जब सिनेमा-हाॅल में हुल्लड़-हल्ला मचते थे। अब तो जवां दिल अपनी विपरीतलिंगी के साथ ‘छोकरा जवान....,’ गाना परदे पर सुनते हैं और ‘आउच’ तक नहीं कहते। सिनेमा पिछले सौ बरस में बदल गया है काफी कुछ। निर्देशन से अभिनय तक। पटकथा से संवाद तक। गीत-संगीत से आइटम गाने तक। सिनेमा ने भारतीय सिने-जगत में नए समाजशास्त्र और अर्थ-शास्त्र को जन्म दिया है।
राजीव रंजन प्रसाद की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा@सौ बरस’ के लिए थोड़ा इन्तज़ार और सही। कुल दस अध्यायों में बँटी यह पुस्तक आपको पढ़ने का आमन्त्रण देती है....आप पूरा पढ़ पाएंगे या नहीं यह तो आपके और रजीबा के कमेस्ट्री पर निर्भर है।
तब तक कहिए-‘वाह! रजीबा वाह!’:
भारतीय सिनेमा@सौ बरस
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देखिए संभावित अध्यायों का सिलसिलेवार क्रम:
1. निर्देशन@सौ बरस
2. पटकथा@सौ बरस
3. गीत-संगीत@सौ बरस
4. संवाद@सौ बरस
5. अभिनय@सौ बरस
6. फिल्म-मेकिंग तकनीक@सौ बरस
7. सिने-भाषा@सौ बरस
8. सिने-थियेटर@सौ बरस
9. सिने-मार्केट@सौ बरस
10. सिने-दर्शक@सौ बरस
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