Friday, May 8, 2020

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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(मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव)
एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर विचार करता हूँ, तो पाता हूँ कि श्रम हमारे मनुष्य होने की पहचान है, अपना सर्वोत्तम हासिल है। इस हासिल का सौन्दर्य अनोखा है, तो सुगंध लाजवाब। इस श्रम ने मुझे क्या कुछ नहीं दिया-अब और तमन्ना शेष नहीं। अपनी तरह उन सब श्रमशीलों को यह सब मिले जो मुझे मिला।
मेरा स्पष्ट मानना है कि कामगार के प्रति बरती गई उपेक्षा दुनिया का सबसे जघन्तम अपराध है। हर सत्ता या सरकार जब श्रमिकों की हत्या करती है, तो इसके एवज में अपने भौतिक-विलासों में अनावश्यक बेलबूटों का इज़ाफा कर लेती है। वह श्रमिकों की मौत को शहादत नहीं मानती, उन्हें शहीद की कोटि क्या मनुष्य की कोटि में डालने का उपक्रम भी नहीं करती है। मजदूरों की मौत पर वह फौरी घोषणा करती है। चलताऊ रवैया अपनाती है। क्या आपने कहीं सुना है कि मजदूरों की रहस्यमयी मौत पर सीबीआई जाँच की घोषणा हुई? दुनिया के इतिहास में श्रमिक सबसे बेजार और बेहाल कोटियाँ हैं जिनके कार्य-क्षमता का पुरस्कार उनको बराबरी के हिसाब से नहीं दिया जाता है। उनकी मौत पर सरकारी नौकरी नहीं दी जाती है, पैसे कितने मिलते होंगे-औने-पौने और क्या!
अब अध्यापकीय ज्ञान का चतुराईपूर्वक इस्तेमाल करें, तो मैं कहूँगा कि मुझे रस्किन का कहा जमता है कि-‘कार्य ही उपासना है।’ ऐसी बहुत-सी बातें मैं कह सकता हूँ-मौलिक अथवा भोगी हुई नहीं; बल्कि पढ़ी हुई, अध्ययन के बरास्ते ओढ़ी-बिछायी गई। मैं बहुत कुछ कह सकता हूँ क्योंकि भाषानिपुण और लिखने का उस्ताद हूँ।
जो मैं कहने जा रहा हूँ, वह यह कि-श्रम का सौन्दर्य सदा एक नवीन वस्तु का निर्माण करता है। श्रमिक इस क्रिया द्वारा प्रकृति का अनुकरण नहीं करता, वरन् अपनी स्वतन्त्र इच्छा का इस्तेमाल करता है। कार्ल माक्र्स ने यूरोपीय दृष्टि में श्रम की महत्ता और उसके कालसापेक्ष वस्तुस्थिति को हरसंभव शब्दबद्ध करने का प्रयत्न किया है। उसके मुताबिक, अभावग्रस्त व्यक्ति सामन्ती युग में दासवत पूर्णपराधीन रहकर अपना श्रम कार्य करता रहा; फिर बेगार के रूप में उससे बलात् श्रम कराया गया। मध्ययुग में वह निर्माता कार्मिक के रूप में श्रम के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन करता था। इस काल में उसे यदा-कदा अपनी कलात्मक भावना की अनुभूति होती थी। किंतु यह स्पष्ट है कि वह अपने श्रम का स्वेच्छया, स्वतंत्र; उपयोग करने में असमर्थ था। वर्तमान में घोर पूँजीवादी युग है। अब मनुष्य का श्रम पण्य या जिन्स (काॅमोडिटी) के रूप में विक्रय की वस्तु होकर रह गया। इस शोषणमूलक व्यवस्था में उसे अपनी ‘पाँचों ज्ञानेन्द्रियों सहित भुगतान’(पे विद् आॅल देयर फाइव सेन्सेज) करना पड़ता है।
हर श्रमिक पूँजीवाद में मशीन का एक पूर्जा बनकर जीता है। वह अपनी इच्छा के प्रतिकूल श्रम के लिए बाध्य किया जाता है। बाज़ार में उसके श्रम की माल की तरह बिक्री होती है। वह इस प्रकार पराधीन और व्यक्तित्वहीन हो कर जीता है। कई सिद्धान्तकारों में हेनरी ब्रेवरमैन का काम महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कंप्यूटर-क्रांति और औद्योगिक प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर उसके उपयोग से मज़दूर वर्गों पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया है। उनका कहना है कि, ‘‘कंप्यूटरीकरण के साथ मशीनों का सांख्यकीय नियंत्रण श्रम-प्रक्रियाओं को तोड़कर उन्हें यांत्रिक दुहराव का काम बना देता है। इस क्रम में श्रम ज्यादा उत्पादक हो जाता है, लेकिन उसकी कीमत घट जाती है। निश्चित रूप से यह पूँजीपति-वर्ग के लिए मुनाफ़ादेह होता है। तकनीकी क्षमताएँ विशुद्ध से ‘जानकारी की आवश्यकता’(स्किल्स होल्डर्स) के आधार पर वितरित होती है। तथाकथित ज्ञान उद्योग इस विभाजन और पदानुक्रम को और तेज करता है और मशीन की सत्ता को स्थापित करके श्रमिकों के शोषण को बढ़ावा देता है और इस क्रम में मज़दूर को इंसान भी नहीं रहने देता।"
आज की तारीख़ में हम अपने सांस्कृतिक चेतना के स्वाभाविक विकास-प्रक्रिया से बुरी तरह कटे हुए हैं। कहने का आशय यह है कि औपनिवेशिक परिवेश में आयातित और नकली तकनीकों पर विशेष जोर देने के कारण हम उस ज्ञान से भी वंचित होते जा रहे हैं जिसे हमने सदियों के प्रयोग और कौशल से हासिल किया था। जैसे, इस्पात का उत्पादन, चिकित्सा-पद्धति, दस्तकारी-कार्य, हस्तकला एवं कुटीर उद्योगों पर आधारित ज्ञानबीज से हम महरूम होते जा रहे हैं। ध्यान देने योग्य है कि अन्तरराष्ट्रीय पूँजी ने साम्राज्यवादी घुसपैठ की प्रक्रिया में चूँकि देशी कृषि और उद्योगों को तहस-नहस कर दिया है इसलिए श्रम का अन्तरराष्ट्रीयकरण हो गया है और इस क्रम में दुनिया भर में बेकार मज़दूरों की भारी फ़ौज खड़ी हो गई है। महानगरों में मज़दूरों की भीड़ जमा करने की जरूरत के अनुसार इन नए उपनिवेशों की बेकारी की इस फ़ौज से मज़दूर लिए और निकाले जाते हैं। सब जानते हैं कि यह काम अनगिनत उप-अनुबंधों और निकाल-बाहर करने की प्रणालियों के आधार पर किया जाता है, जिसमें दुनिया के अल्पविकसित हिस्सों के सस्ते श्रम वाले क्षेत्रों में विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं का निर्यात शामिल है। इस तरह श्रम-बाज़ार का भी कायाकल्प हो गया है। पहले मज़दूरों की चेतना की एकजुटता के लिए ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो!’ का नारा लगाया जाता था, अब खा़ालिस संघ और संगठन हैं। मज़दूर, मज़दूरों के स्वर और उनकी सामूहिक ताकत नदारद है।
आज सत्ता वर्ग-केन्द्रित न होकर, विविध समुदायों या जातीय अस्मिताओं की बहुलतावादी सत्ता-संरचनाओं के नेटवर्क जैसी चीज हो गयी है। लिहाजतन, औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक हालात में संस्कृति को ‘मनुष्य के निज की दुनिया के बाज़ार’ में बदला गया है। प्राजंलि बंधु अपनी पुस्तक ‘भारतीय प्रसार माध्यमः विदेशी पूँजी के गुलामी का दौर’ में ए. शिवनन्दन की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी को दर्ज़ करते हैं, ‘‘पूँजी को अब पहले की तरह जीवित श्रम की आवश्यकता नहीं रह गई है। किसी ख़ास जगह पर खा़स समय पर मज़दूरों की निश्चित तादाद की जरूरत नहीं रह गई है, अब श्रमिक उस आधार पर संगठित नहीं हो सकते। उन्होंने अपनी पकड़ खो दी है और इस क्रम में जो उनकी राजनीतिक हैसियत, रुतबा और पहचान थी उन्हें भी खो जाने दिया है।’’ ऐसी नाज़ुक परिस्थिति में गाँधी की सोच पर पानी फिर जाना स्वाभाविक है। वे कहते हैं, ‘‘सब अपने ही श्रम की रोटी खाएँ तो बीमारी, अकाल और धनी-निर्धन की समस्या नगण्य हो जाएगी। अपने श्रम की रोटी में अधिक स्वाद होता है।’’ जरा विचार करें कि आज की तारीख़ में ‘संतोषम् परं सुखम्’ या ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के आदर्श मूल्य किस करवट बैठ सकतो हैं।
आजकल श्रम की रोटी खाने वालों को मौत भेंट की जा रही है। यह विडम्बना है जिसमें हम सब क्रूर और विद्रूप हँसी हँस रहे हैं। वे मर रहे हैं और उनके मरने पर हम हँस रहे हैं, या बेरहम किस्म की मौन बरत रहे हैं। रघुवीर सहाय की आत्मा को साक्षी मान कहें, तो-‘हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!’ या कि अज्ञेय जी को स्मरण कर लें जो कहते हैं-‘मौन भी एक अभिव्यंजना है’।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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