Wednesday, November 23, 2016

मेरी वाणी / देम्यान बेदनी

http://kavitakosh.org/kk/
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मैं गाता हूँ
किन्तु क्या मैं वास्तव में गाता हूँ

मेरी वाणी ने पहचानी
संघर्षों की दुर्दमताएँ
प्रत्येक पृष्ठ पर सीधी-सादी
हैं मेरी कविताएँ

चकाचौंध में मौन
मगन जो आनन्दों में
ऎसे चिकने-चुपड़े श्रोताओं के सम्मुख
वीणाओं की मीठी स्वर लहरी के नीचे
नहीं उठाता मैं अपनी कर्कश आवाज़ें
झिलमिल करते किसी मंच पर

मैं अपनी भर्रायी आवाज़ें वहाँ उठाता
जहाँ रोष ने
छल-छन्दों ने
अपना घेरा डाला
शापित भूतकाल ने अपने स्वर का
बे-हिसाब अनुचित उपयोग किया है

मैं नहीं मुलम्मा
कविता के प्रेरक तत्त्वों का
मेरी तीखी पैनी कविता
गढ़ी गई है श्रम के द्वारा

मेहनतकश लोगो
बस तुम मेरे हो
मेरी नाराज़ी का कारण
केवल तुम्हीं समझते हो
मैं सत्य मानता
वह निर्णय जो तुम देते हो

मेरी कविता कभी अवज्ञा
करती नहीं तुम्हारे मन के
भावों की
आशाओं की
मैं निष्ठा से सुनता रहता
हर धड़कन तेरे दिल की

अंग्रेज़ी से अनुवाद : रमेश कौशिक

वेरा पावलोवा की कविताएँ

वेरा अनातोलियेव्ना पावलोवा
जन्म: 4 मई 1963
उपनाम
वेरा पावलोवा
जन्म स्थान
मास्को, रूस
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आसमानी जानवर (1997), दूसरी भाषा (1998), चौथा सपना (2000), हाथ का सामान (2005), भाषा के उस किनारे पर (2009) आदि कुल 18 कविता-संग्रह
विविध
अब अमरीका में रहती हैं।
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निर्रथकता का अर्थ / वेरा पावलोवा

हम धनवान हैं
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताका-झाँकी करने में व्यस्त हैं ।

हम बतियाते हैं
उन चीज़ों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला
झरता जाता है धीरे-धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट -- मृतप्राय
चलो -- तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह

हाँकहना / वेरा पावलोवा

क्यों इतना छोटा है 
'हाँ' शब्द


इसे होना चाहिए
सबसे लम्बा
सबसे कठिन
ताकि तत्क्षण निर्णय न लिया जा सके
इसके उच्चारण का ।

ताकि बन्द न हो परावर्तन का पथ
और मन करे तो
बीच में रुका जा सके इसे कहते-कहते ।
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अपने दाँत / वेरा पावलोवा

अपने दाँत
चमका लिए हैं मैंने

आज का दिन
और मैं
बराबरी पर हैं अब
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एक वायस मेल है कविता / वेरा पावलोवा

एक वायस-मेल है कविता :
कहीं बाहर चला गया है कवि

बहुत मुमकिन है 
न आए कभी लौटकर

कृपया अपना सन्देश छोड़ें
गोली की आवाज़ के बाद ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल

Thursday, November 3, 2016

बकाया राशि

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राजीव रंजन प्रसाद
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दो दिन हो गए दीवाली बीते। चमक के घर का बरामदा अल्पना से आज भी सजा है। घर में कोई चहलकदमी नहीं। दोनों बच्चे आनु और मीनू भी नहीं दिख रहे।

पड़ोस के लोग चमक के बारे में कई तरह की बातें कर रहे थे। दीवाली के दिन वह दीवाली की खरीदारी करने शहर गया था। पत्नी और बच्चे भी उसके साथ थे। उस दिन वह सुबह से खुश था। इस बार खेत में अच्छी-खासी प्याज पैदा हुई थी। पिछले हफ्ते लोगों ने उसे प्याज को ट्रेक्टर पर लादकर शहर ले जाते हुए देखा था। उसने कईयों को बताया था कि दीवाली के दिन उसे वाजिब रुपए मिल जाएंगे। मेहनती चमक किसी का अपने ऊपर कर्ज नहीं रखता था। इसलिए मनोहर को उसने पहले से कह रखा था, ‘दीवाली के दिन भाई तुम्हारे पैसे दे दूँगा।’

लेकिन चमक अचानक किसी को कुछ बताए बिना कहाँ चला गया। लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि अचानक ‘आकाश गिरने’ माफ़िक ख़बर फैल गई। सहज किसी को विश्वास न हुआ। चमक सपरिवार जान दे दिया था। उन सबकी लाश प्याज के ढेर में मिला।

बाज़ार समिति में ग्रामीणों की अफरातफरी मची थी। कोई कुछ कह नहीं पा रहा था। चमक ने मरने के लिए यही जगह क्यों चुना; यह बाद की बात थी। सवाल था जी-तोड़ मेहनत करने वाला युवा चमक मर क्यों गया। शहरी लोग बता रहे थे। वह दो दिन तक बिना कुछ खाए-पिए प्याज की ढेर के पास बच्चे और पत्नी के साथ पड़ा था। कोई खरीदार न मिल पाने के कारण प्याज ज्यों कि त्यों पड़ी थी।

अंततः चमक के बारे में यह बुरी ख़बर मिली। पुलिस ने बताया कि उसकी हथेली पर लिखा था-‘मनोहर का 1529 रुपया बाकी है मुझ पर’।
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नोट: इस कहानी के लेखक भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और उन्हें मासिक 60, 000 रुपए तनख्वाह मिलती है।

Tuesday, November 1, 2016

कविता : देखन में छोटन लागे, घाव करे गंभीर

विशेष सन्दर्भ: हिंदी कविता
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राजीव रंजन प्रसाद 
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कविता लघुता में विराट का दर्शन करा सकती है, यदि पाठक सहृदय हो। सहृदयता समष्टि की सोच है जिससे यह सृष्टि विराजमान है। भाव-संवेग द्वारा इस शब्दज संसार को अनुभूत एवं अभिव्यक्त करना कविता का धर्म है। यहाँ धर्म का अर्थ धारिता से है यानी ग्रहण करने की क्षमता से। आजकल यहीं हम सर्वाधिक चुक रहे हैं। हममें ग्रहणशीलता का आवेग तो दिखाई देता है; किन्तु उसकी उपयुक्त पात्रता नहीं है। सबसे बड़ा पेंच यह है कि कविता को हमने एक ढर्रे की तरह देखना शुरू कर दिया है। उसके आने की गति तीव्र है। अब चूँकि आने वाली हर चीज ‘कविता’ घोषित कर दी जा रही है; इस कारण समस्या बढ़ी हुई है। मुर्दा आलोचकों पास ज़बान है, लेखन की तबीयत नहीं। जब तक हम लेखन के माध्यम से आलोचनापरक प्रतिपाद्य नहीं प्रस्तुत करते; अच्छी और बुरी कविता के बीच अंतर कर पाना आसान नहीं होगा। 

लिहाजतन, 'बिकाऊ कवि' कई बार सहृदय आलोचकों के अभाव में कवि बना रहता है क्योंकि वह अपने ‘कवि’ होने की घोषणा करता है। आजकल हिंदी में ‘कवि’ ऐसे हैं। वे कवि होने का ‘टैग’, ‘लेबल’, ‘बैनर’ आदि लटकाए फिर रहे हैं; पर ऐसे धांसू/जुगाड़ू कवि भी पाठकों के न होने का रोना रोते हैं। ध्यान दें कि सहृदय पाठक अपनी चेतना में भावग्राही होता है। उसे जो बातें निक लगती है, उनकी वह तत्काल वाहवाही करता है; बकियों को खारिज कर देता है। अब खारिज होने वाले गरज के कवि ज्यादा हैं। ये गरजू कवि असली कवियों तक को ढाँक-तोप चुके हैं। यह स्थिति क्योंकर बनी, इसकी पड़ताल आवश्यक है।...  

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...