Tuesday, December 21, 2010

कांग्रेसी अनावरण का सवा सौ साल


‘इस बार’ में अगली बार...पढे़

खुफिया ख़बरों की महाखोज और विकीलीक्स


चर्चित केबलगेट काण्ड के सूत्रधार जूलियन असांजे चौतरफा विवादों से घिरे हैं। विकीलीक्स खुलासे के बाद से भूमिगत हो गए असांजे पर स्वीडन में यौन-शोषण का कथित आरोप है। दिसंबर के दूसरे सप्ताह असांजे ब्रिटेन के एक थाने में खुद चलकर आए जहाँ उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। असांजे के वकील मार्क स्टीफ़न्स ने लंदन उच्च न्यायालय के उस फैसले का स्वागत किया है जिसमें कोर्ट असंाजे को 2 लाख पाउंड के मुचलके पर रिहा करने को तैयार है। इस दौरान असांजे को न केवल अपना पासपोर्ट कोर्ट को सौंपना होगा बल्कि एक इलेक्ट्रीक टैग भी पहनना आवश्यक होगा। पिछले दिनों असांजे ने अपनी माँ क्रिस्टीन को जेल में एक लिखित बयान सौंपा जिसमें अमरीका की लोकतंत्र विरोधी रवैए और अन्यायपूर्ण साजिशों के प्रति आगाह किया गया है।
कथित यौन-आरोपों के लिए जेल में नज़रबंद 39 वर्षीय असांजे विकीलीक्स द्वारा खुलासा किए जाने के बाद से ही अमरीकी निशाने पर हैं। स्वीडन ने अमरीकी दबाव को देखते हुए इंटरपोल से संपर्क किया है जिसके तहत असांजे के प्रर्त्यपण की मांग की जा रही है। उधर असांजे की वेबसाइट विकीलीक्स को अमरीकी ऑनलाइन सेवा देने वाली कंपनी अमेजन ने अपने सर्वर से हटा दिया है। इससे पूर्व भी साइबर वर्ल्ड से विकीलीक्स को हटाने के तमाम प्रयास किए जा चुके हैं। अमरीकी सरकार के दबाव में कैलिफोर्निया के इंटरनेट होस्टिंग फर्म एवरीडीएनएम ने विकीलीक्स को अपने सर्वर से हटा दिया, लेकिन कुछ ही समय बाद यह साइट स्विट्जरलैण्ड स्थित होस्टिंग फर्म के सहयोग से फिर ऑनलाइन हो गई। इन तमाम परेशानियों के बीच जूलियन असांजे को दुनिया का सबसे चर्चित व्यक्ति यानी ‘पर्सन ऑफ दि ईयर’ चुना गया है। टाइम मैगजीन के अनुसार असांजे ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को पछाड़ते हुए यह ख़िताब हासिल किया है। क्या ओबामा सही मायने में पिछड़ गए हैं? यह देखा जाना अभी शेष है।
असांजे की पहचान एक आस्ट्रेलियाई मूल के पत्रकार, प्रकाशक और इंटरनेट विशेषज्ञ की है। 2006 में असांजे ने विकीलीक्स वेबसाइट को लांच किया जिसका उद्देश्य कंप्यूटर हैकर्स द्वारा प्राप्त सुचनाओं को सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए उजागर करना था। कारपोरेट-तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और अन्य अनियमितताओं को सार्वजनिक करना विकीलीक्स की पहली प्राथमिकता है। अपनी वेबसाइट की प्रतिबद्धता के बारे में बताते हुए असांजे खुद कहते हैं-‘हर नागरिक को सच जानने और अपनी राय व्यक्त करने का पूरा अधिकार है। चाहे वह कुटनीतियों का ही मामला क्यों न हो। यह अमेरिका के ऊपर है कि वह अपना रवैया बदले।’
हाल के दिनों में जिस तरह असांजे ने 2.5 लाख से अधिक के खुफिया एवं गोपनीय दस्तावेजों को इंटरनेट पर उजागर किया है उससे अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अजीबोगरीब स्थिति का सामना करना पडा है। सफाई देने के लिए उन राष्ट्रों से सीधे संवाद और संपर्क की भी नौबत आन पड़ी जिन देशों के नाम खुलासे में शामिल थे।
अमरीकी माफीनामे से पूरी दुनिया संतुष्ट हो या न हो किंतु भारतीय शासन को अमरीका की यह तरकीब बेहद जँची है। फिलहाल भारतीय सरकार असांजे के इस खुलासे को कोई खास महत्त्व नहीं दे रही है। भारत में अमेरिकी राजदूत टिमोथी जे0 रोमर ने दिल्ली को भरोसा दिलाया है कि अमरीका दुनिया में भारत के वैश्विक नेतृत्व की दिशा में उभरती छवि का स्वागत करता है। इस बाबत अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन खुलासे के बाद आए मोड़ को यह कहकर शांत करने में जुटी हैं कि अमेरिका का सम्बन्ध अपने मित्र राष्ट्रों से पूर्ववत बना रहेगा। साथ ही हिलेरी क्लिंटन का यह भी कहना है कि विकीलीक्स का हालिया खुलासा अन्तरराष्ट्रीय समुदाय पर हमले के रूप में है। आगे वह यह कहने से भी नहीं चूक रही हैं कि असांजे द्वारा सार्वजनिक किया गया दस्तावेज अमरीका द्वारा साझी समस्याओं को हल करने की दिशा में दूसरे देशों के साथ चल रहे प्रयासों को कमजोर करने की कवायद है। विदेश मामलों के भारतीय कूटनीतिज्ञ हिलेरी क्लिंटन के इस कथन से काफी हद तक सहमत है।
बहरहाल, विकीलीक्स की चर्चा जोरों पर है। पूरी दुनिया में विकीलीक्स के खुलासे को आधार बनाकर राजनीति हो रही है। पाकिस्तानी मीडिया में मनगढंत ख़बरें छापी जा रही हैं तो खुद अमेरिका के प्रतिष्ठित अख़बारों में शुमार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ खुफिया सूचनाओं के भेदन पर आधारित ख़बरें लगातार प्रकाशित कर रहा है। अन्य देशों में ब्रिटेन का अख़बार ‘द गार्डियन’ और जर्मनी का ‘डेर स्पीगेल’ अमेरिकी राजनयिकों की पोल खोलने में जुटे हैं। लीक हुई ख़बरें लोगों के पास जिस तरह आ रही हैं, वो बेहद दिलचस्प हैं-‘हामिद करजई एक पागल और बेहद कमजोर इंसान’, ‘मरियल और दब्बू है रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव’, ‘जोखिम से डरती हैं एंजेला मार्केल’, ‘शारीरिक और मानसिक संताप का शिकार है उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग इल’ ‘संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद का भारत स्वघोषित दावेदार’।
ये ख़बरे कितनी महत्त्वपूर्ण और गोपनीय किस्म की हैं। इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए, लेकिन प्रथम द्रष्टया इन ख़बरों से मनबढ़ अमेरिका का दोमुँहापन और उसके राजनयिक सम्बन्धों का दोहरापन पहली बार रहस्योद्घाटित हुआ है, यह सोचना मूर्खता है। विकीलीक्स ने अपने खुलासे में जो बाते कहीं हैं, उससे सारी दुनिया पूर्वपरिचित है। फर्क सिर्फ इतना है कि जिन चीजों को हम अभी तक पीठ पीछे स्वीकारते आए थे आज वह सारी दुनिया के सामने है। इस संदर्भ में विकीलीक्स का यह दावा कि उसके पास करीब 10 लाख से अधिक सूचनाएँ सुरक्षित हैं, दुनिया को भरमाने की साजिश भी हो सकती है। यानी एक ऐसी रणनीति जिससे पूरी दुनिया की हमदर्दी भी हासिल हो ले और अमरीकी शासन पर उसका ‘ब्लैकमेलिंग’ का सिक्का भी जम सके। अन्यथा जो असांजे जनहित का हवाला देकर खुफिया ख़बरों के सार्वजनिक किए जाने के पैरोकार हैं, वे अतिमहत्त्वपूर्ण गोपनीय दस्तावेजों को अपने पास छुपाकर दुनिया को क्या बताना चाहते हैं? देखा यह भी जाना चाहिए कि असांजे अमरीका के खिलाफ जितना मुखर दिखते हैं उनके साक्ष्य या खुलासे उतने ताकतवर नहीं हैं कि अमरीकी शासन और अन्तरराष्ट्रीय राजनयिक सम्बन्धों की चूले हिल जाए। ऐसे में विकीलीक्स का दावा छलावा भी हो सकता है। अतएव, चीन की यह आशंका बिल्कुल निर्मूल नहीं कही जा सकती है जिसमें उसने विकीलीक्स के खुलासे में अमरीकी सरकार की मिलीभगत और संलिप्तता को अहम किरदार माना है।
विकीलीक्स के साथ काम कर चुके ‘क्रिप्टोम’ कंपनी के संस्थापक जॉन यंग जो पिछले दस सालों से इस तरह के रहस्योद्धघाटन में सक्रिय रहे हैं, ने विकीलीक्स के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘विकीलीक्स का मुख्य ध्येय और मकसद धन कमाना है और यह भाड़े के सिपाहियों से बेहतर नहीं है।’ जॉन यंग की बात इसलिए भी गौरतलब है कि वह खुद भी इससे पहले हजारों ऐसे दस्तावेज नेट पर जारी कर अमरीकी सरकार से पंगा ले चुके हैं। उनके द्वारा सार्वजनिक दस्तावेजों में इराक में मारे गए अमेरिकी सैनिकों के फोटोग्राफ, ब्रिटिश गुप्तचर संस्था एमआई6 के एजेंटों की सूची और इराक युद्ध में हताहत हुए चार हजार लोगों का ब्यौरा प्रमुख है। यानी कि आज जिस तरह के संघर्ष और खतरे से विकीलीक्स दो-चार है, जॉन यंग की कंपनी ‘क्रिप्टोम’ सन् 2007 में इन तमाम अमरीकी साजिशों एवं प्रताड़ना की भुक्तभोगी रह चुकी है।
खैर, इसे आस्ट्रेलियाई मूल के जूलियन असांजे की खासियत ही कही जाएगी कि उन्होंने बहुत कम दिनों में ही काफी शोहरत और प्रसिद्धि जुटा ली। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2008 में असांजे को ‘इकोनॉमिस्ट फ्रिडम ऑफ एक्सप्रेशन अवार्ड’ दिया गया। वहीं वर्ष 2010 में उन्हें ‘सैम एडम्स अवार्ड’ मिला।
यही नहीं अमेरिका की ख्यातनाम पत्रिका ‘उटने रिडर’ ने उन्हें दुनिया को बदल देने वाले पचीस दूरद्रष्टा व्यक्तित्व में शुमार किया तो दूसरी ओर ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने उन्हें 50 प्रभावशाली लोगों में 23वें स्थान पर रखा। जूलियन असांजे के पिछले कारनामों और अर्जित उपलब्धियों को गौर से देखने पर आश्चर्य होता है कि जिस असांजे को अमरीकी मीडिया इतना महत्त्व दे रही थी वह अचानक ही अमरीका के लिए खतरा या शत्रु कैसे बन गया? असांजे को इतनी छूट कैसे मिली की वह डिजिटल साम्राज्यवाद का अमरीकी किला ढाहने में कामयाब हो जाए? यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि पूरा माहौल विकीलीक्स की छवि में चमक जरूर पैदा करता है लेकिन अमरीकी शासन इससे आतंकित या भयाक्रांत है, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। हाँ, इतना अवश्य है कि इस घटनाक्रम के बाद पूरे विश्व को ‘सूचना युद्ध’ के संभावित खतरे का भान हो गया है। साथ ही सूचना-समाज के संदर्भ में प्रयुक्त चर्चित शब्दावली ‘साइबर स्पेस’ की निजता और वैधता के सुरक्षा सम्बन्धी मसले पर प्रश्नचिन्ह् खड़े हो गए हैं।
फिलहाल इस पूरे प्रकरण में मीडिया उस व्यक्ति को नजरअंदाज करने की भारी भूल कर रहा है जिसका नाम ब्रेडले मैनिंग है। बगदाद में एक सैन्य शिविर में तैनात 7 महीनों से कैद मैनिंग जिसका जल्द ही कोर्ट मार्शल किए जाने की तैयारी चल रही है, अमरीकी सेना का खुफिया विश्लेषक रह चुका है। मैनिंग ने सारी सूचनाओं को यह जानते हुए कि ये गोपनीय हैं असांजे को सौंपा क्योंकि उसका मानना है कि विकीलीक्स सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकताओं की आजादी का प्रतीक है। मैनिंग ने विकीलीक्स को सूचनाओं का जो जखीरा सौंपा वह महज 1.6 गीगाबाइट के एक टेक्सट फाइल में कैद थी। विश्व भर के अमरीकी दूतावासों से वाशिंगटन को भेजी जाने वाली ये वही सूचनाएँ थीं जिनमें 12 देशों मसलन, पाकिस्तान, अर्जेण्टिना, यमन, सऊदी अरब सहित जी-4 के सदस्य राष्ट्रों के नाम शामिल हैं। मैनिंग ने इन गोपनीय सूचनाओं को गुप्त तरीके से हैक कर विकीलीक्स वेबसाइट को सौंप दिया ताकि विश्व के सामने युद्धोन्मादी अमरीका का असली
नवसाम्राज्यवादी चेहरा सामने आ सके। मैनिंग ने शासन विरोधी यह कृत्य मानवीय दायित्वबोध के तहत किया था। आज की तारीख़ में असांजे की रिहाई को लेकर पूरी दुनिया से आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं। यह वैश्विक पहल ठीक है लेकिन हमें ब्रेडले मैनिंग की सुध भी लेनी चाहिए जो अमरीकी कैद में है। आज दुनिया की निगाह भले ब्रेडले मैनिंग पर केन्द्रित न हो किंतु अमरीकी असलियत को उजागर करने में उसका योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
अतः यह ठीक है कि आज विकीलीक्स विश्वचर्चित नामों में शुमार है। लोग उसके संस्थापक-संपादक जूलियन असांजे को सत्य का प्रहरी और लोकतंत्र का उपासक मान रहे हैं। नामचीन हस्तियाँ ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर अदालत में असांजे की रिहाई के समर्थन में लामबंद होती दिख रही है। किंतु उस शख़्स को भूल जाना भी उचित नहीं कहा जा सकता है जो आज अमरीकी कैद में गुमनाम जिंदगी जीने को अभिशप्त है। जनहित में सूचनाओं को सार्वजनिक किए जाने की वजह से ब्रेडले मैनिंग को सजा का हकदार मानना वास्तव में व्यक्ति स्वातंत्र्य और मानवाधिकार का हनन है, इस ओर भी दृष्टि जाए तो ही श्रेयस्कर है।

Sunday, December 19, 2010

महामना परिसर से बिसरे सुरेन्द्र मोहन


किसी व्यक्ति को बनाने में विश्वविद्यालयी शिक्षा और परिवेश का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। समाजद्रष्टा सुरेन्द्र मोहन जी सबल उदाहरण हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने उन्हें छात्र-जीवन में गढ़ा और एक प्रखर समाजवादी चिंतक के रूप में पहचान दी, यह कह लेना उचित है। लेकिन..., उनके निधन की सूक्ष्म-ख़बर(माइक्रो न्यूज़) अख़बार में तैरती हुई उड़न-छू हो ली किंतु सर्व विद्या के परिसर को भान तक न हुआ। आयोजनों-समारोहों की बीसियों करतब करते विश्वविद्यालय को इस कर्मयोगी के जाने से भले कोई फर्क न पड़ा हो लेकिन महामना की वे प्रस्तर मूर्तियाँ जो परिसर में यत्र-तत्र-सर्वत्र जमीन से उठी हुई आसमान में टंगी हैं, सुरेन्द्र मोहन जी के जाने से ग़मजदा हैं, विश्वास मानिए। फिलहाल इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी की हैसियत से मनस्वी सुरेन्द्र मोहन जी को सादर नमन!

Saturday, December 18, 2010

राहुल के कहे पर कोहराम

राहुल गांधी के बयान ने एक बार फिर भाजपा जैसी धर्मान्वेषी विपक्षी पार्टी के जुबान पर मिर्ची रगड़ दिया है। राहुल गांधी का अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर से यह कहना कि ‘हिन्दू चरमपंथी समूहों की बढ़त भारत के लिए लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी समूहों की गतिविधियों से बड़ा खतरा पैदा कर सकती है’ बिल्कुल मुनासिब है। लेकिन कांग्रेस महासचिव का यह बयान कांग्रेस के लिए स्वीकारना और खारिज करना दोनों मुश्किल है। वैसे भी बिहार चुनाव में लुटी-पिटी कांग्रेस आजकल राजनीतिक रार लेने से बचना ही फायदेमंद समझ रही है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में विपक्ष ने उसका जो गत बना डाला है वह देखने लायक है। दरअसल, कांग्रेस इस वक्त ‘बौनाग्रंथी’ से शिकार है। अंदरूनी कलह और प्रांतीय राजनीति में ढीली पड़ती केन्द्रीय बागडोर ने कांग्रेसी महारथियों के मानसिक दशा को बिगाड़ दिया है। राहुल खुद अपनी बात पर टीके रहने वाले नहीं हैं। उनके व्यक्तित्व में वो ‘स्टेण्डेबल पार्टिकल्स’ ही नहीं है कि वे सच को सच के रूप में आजमाते रहने का दृढ़संकल्पित साहस दिखा सके। ऐसे में मोर्चे पर तैनात स्पिन डॉक्टर राजनीतिक गुगली फेंकते दिख तो रहे हैं लेकिन ‘नो बॉल’ के लहजे में। खैर, अब जनता जागरूक है। उसे भरमाना आसान नहीं रहा। जद(यू)-भाजपा गठबंधन सरकार को बिहार में जीत मिली है तो उसके सशर्त मायने भी हैं। नीतीश सरकार का पैर फिसला नहीं की डूबने की संभावना सौ-फीसदी है। यानी कि भारतीय जनता चाहे वह बिहार की हो या गुजरात की हिन्दुत्ववाद का साम्प्रदायिक चेहरे को खारिज कर चुकी है। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की राजनीति को ‘हिन्दुत्ववादी’ लिहाफ या आवरण मंे लिपटा देखना बेवकुफी है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी की जयजयकार की मुख्य वजह बातें कम काम ज्यादा है। मोदी प्रजातांत्रिक पूँजीवाद के घोर-समर्थक हैं। आर्थिक विकास का जो मॉडल वह गुजरात में लागू कर रहे हैं। उससे सिर्फ औद्योगिक घरानों का ही हित नहीं सध रहा है बल्कि जनता को भी अनेकों फायदे मिल रहे हैं। विकास, शांति, सुरक्षा और न्याय का मॉडल चाहे बिहार में हो या उड़ीसा, झारखण्ड या कि गुजरात-महाराष्ट्र में। जनता का सौ-फीसदी समर्थन साथ होगा, निश्चय जानिए। जनता तब कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट या राइट में भेद नहीं करती है।

Saturday, December 11, 2010

कल की तारीख़ में आज लिखा गया ख़त


प्रिय देव रंजन,
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में तुम्हारे दाखिले से प्रसन्न हूँ। यह तुम्हारे श्रम की सिद्धि है। संतुष्टिपूर्वक आगे और अच्छा करो, शुभकामना। तुम्हारी माँ बता रही थी वहाँ तुम्हारे साथ में एक लड़की रह रही है। हिन्दी में धाराप्रवाह बोलती है। वह तो उस बाला पर मोहित है। चलो, सावधानीपूर्वक मैत्री का निर्वाह करना। इन दिनों दीप रंजन कविता लिखने में मगन है। तुम जानते ही हो कि उसका जी जरूरतमंद लोगों की सेवा करने में ज्यादा लगता है। वह बोलता भले कम है, लेकिन उसकी चुप्पी में ढेरों कोलाहल, हलचल और किस्म-किस्म की आवाजें शामिल है। आजकल कनिषा से उसकी खूब बन रही है। दोनों को संग-साथ खुश देख खुशी होती है। तुम्हारी माँ को भी कोई शिकायत नहीं। हमदोनों को पता है कि तुमदोनों अपनी जिंदगी हमारे सलाह-सुझाव के बगैर भी बेहतर तरीके से जीने का गुर सीख चुके हो। दरअसल, खुद से तय मानदण्डों के माध्यम से मिली कामयाबी आदमी को ज्यादा सफल साबित करती है।

तमाम घरेलू संपन्नता के बावजूद तुम्हारी माँ को तुम्हारे ई-मेल का इंतजार रहेगा।
तुम्हारा पिता
राजीव रंजन प्रसाद
01/11/2029

Tuesday, December 7, 2010

गश्ती पर लौटे काशी के 'भोकाली जांबाज'


धमाका हुआ तो ये सो नहीं रहे थे. डयूटी पर तैनात थे. बीड़ी-हुक्का भी नहीं पी रहे थे. ठण्ड में चाय की तलब भी इन्हें नहीं सता रही थी. फिर ये क्या कर रहे थे? काशीवासी यह सवाल इनसे पूछ रहे हैं. जवाब तो ये देंगे ही देंगे, पर आज ये क्या करिश्मा करते दिख रहे हैं? उस पर एक चलती नज़र...,

शांत रहे, बनारस में शांति कायम है

Saturday, December 4, 2010

उपभोक्ता-मन और विज्ञापन बाज़ार की उत्तेजक दुनिया

राजीव रंजन प्रसाद

विज्ञापन को बाज़ार में उत्पाद-प्रक्षेपण का सशक्त साधन माना जा चुका है। इसका मुख्य लक्ष्य उपभोक्ता की प्रतिष्ठा और जीवन-स्तर में अभिवृद्धि करना है। भारतीय संदर्भों में विज्ञापन सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का महत्त्वपूर्ण कारक है। वर्तमान में विज्ञापन और पूँजी दोनों एक दूसरे के पूरक अथवा पर्याय हो चुके हैं। बगैर विज्ञापन के आधुनिक पूँजीवाद का विस्तार या उसके आधिपत्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज विज्ञापन ही तय करने लगे हैं कि कोई विचार, सेवा या उत्पाद बाज़ार के हिसाब से बिक्री योग्य है भी या नहीं। पूँजीवाद पोषित इस नवसाम्राज्यवादी विश्व में विज्ञापन का उत्तरोत्तर बढ़ता कारोबार सन् 2020 तक 2 ट्रिलियन डाॅलर हो जाने की उम्मीद है।1 सिर्फ भारत में विज्ञापन का कुल अनुमानित बाज़ार 8000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। दो मत नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को शीर्षाेन्मुखी करने में ‘विज्ञापन युक्ति’ अनंत संभावनाओं से भरा-पूरा क्षेत्र है। ‘एड गुरु’ के नाम से मशहूर प्रहलाद कक्कड़ की मानें तो “जनसंचार माध्यमों का इस्तेमाल करके अपने उत्पाद की पहुंच लोगों तक बनाए रखने के उद्देश्य के मद्देनजर कंपनियों का विज्ञापन बजट बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि कॉर्पोरेट जगत विज्ञापन को खर्च की बजाए निवेश मानता है।”2 डाॅ0 डरबन के शब्दों में इसे युक्ति कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा क्योंकि ‘‘इसके अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आ जाती हैं जिनके अनुसार दृश्यमान अथवा मौखिक सन्देश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व-निश्चित विचारों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से संशोधित किए जाते हैं।’’3
विज्ञापन अपनी स्वाभाविकता में ‘Larger than life’ होता है; कुछ निर्धारित मानदंड हैं, जैसे कि उसका प्रमुख लक्ष्य किसी सेवा या उत्पाद के विषय में परिचय कराना है। अगर कोई विज्ञापन अस्पष्ट है, तो वह अपने उत्पाद का सही परिचय नहीं करा पाएगा। विज्ञापन हर वर्ग-समूह को संप्रेषित करने योग्य होना चाहिए। किसी भी किस्म की पेचीदगी या उलझाव पाठक के मन-चित्त पर उल्टा प्रभाव डाल सकती है। उपयुक्त बचाव यही है कि विज्ञापन सही, सटीक, आकर्षक एवं विषय केन्द्रित हो। विज्ञापन के लिए चार चीजों की अनिवार्यता होती है-1) विक्रय की वस्तु 2) विज्ञापन का माध्यम 3) संभावित क्रेता 4) उस क्रेता को आकर्षित-उत्प्रेरित करने का लक्ष्य।
इन तत्त्वों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो तथ्य सामने आते हैं; वो यह कि विज्ञापन में गहरी मनोवैज्ञानिकता अन्तर्निहित होती है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की वृत्तियों को विज्ञापन के माध्यम से
किसी निश्चित दिशा में उद्बुद्ध, उत्तेजित और उत्प्रेरित किया जाता है। मनुष्य की जिज्ञासा तथा उत्सुकता को जाग्रत तथा शमित करने की दिशा में विज्ञापन के कथ्य को सक्रिय किया जाता है। मनुष्य की सुरक्षा-वृत्ति, सुख-सुविधा-वृत्ति, खाद्य-वस्त्रादि के प्रति लोभ-मोह की वृत्ति, साहसिकता-वृत्ति, संचय-वृत्ति, खेल-वृत्ति आदि का मनोवैज्ञानिक स्तर पर विज्ञापन अच्छी तरह दोहन करते हैं।
विज्ञापन उपभोक्ता-मन के अंतस पर किस प्रकार का प्रभाव डालते हैं, इसकी पड़ताल करते हुए डाॅ0 सुवास कुमार आगे कहते हैं-‘‘विज्ञापन का सम्बन्ध विशेष रूप से मनुष्य के चक्षुन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय से होता है। शब्दों(लिखित और ध्वनित) तथा छवियों(चित्रों श्वेत-श्याम अथवा रंगीन) की विज्ञापन में सर्वप्रमुख भूमिका होती है। यहाँ भाषा और विज्ञापन का आपस में द्विविध सम्बन्ध होता है। पहला, भाषा की उच्चारणगत, प्रतीकात्मक, संरचनागत विशेषताओं से विज्ञापन प्रभावित होते हैं। यानी उनका प्रभावकारी उपयोग करते हैं। दूसरा, विज्ञापनों के द्वारा प्रयुक्त भाषा-रूपों में कभी-कभी तीव्र मौलिकता दिखाई देती है जिनसे भाषा भी अन्तःबह्îि दोनो रूपों में प्रभावित होती है।’’4
आज तकनीक और प्रौद्योगिकी के उन्नत प्रभाव ने हर व्यक्ति को विज्ञापनों की इंद्रजालिक दुनिया में प्रवेश होने के लिए बाध्य कर दिया है। जनमाध्यमों के नानाविध रूपों में फैलाव जिसे आजकल तकनीकी भाषा में अभिसरण(Convergence)कहा जा रहा है, की वजह से आमजन के मानस पर विज्ञापन का गहरा प्रभाव पड़ा है। औद्योगिक उत्पादों को बाज़ार-रणनीति के बल पर आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से विकासशील देशों में पाटा जा रहा है। इस तरह से विश्व की सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है। उनकी सृजनशीलता का ह्रास हो रहा है और पश्चिमोन्मुख बहुराष्ट्रीय संस्कृति अपना आधिपत्य कायम कर रही है। इस निरंतर और तेज परिवर्तन से बहुराष्ट्रीय सत्तातंत्र का विश्व के सांस्कृतिक बाज़ार पर नियंत्रण की प्रक्रिया भी उतनी ही तेज होती जा रही है।
ख्यातनाम पत्रकार संजय द्विवेदी की दृष्टि में ‘‘बाजार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारतीय बाजार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाजार अब सिर्फ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन चीजों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है।’’5
अतएव, समाज में बाज़ारवाद की वर्चस्वशाली संस्कृति तेजी से विकसित हुई है। लोगों को उपभोक्ता बनाने की होड़ मची है। विज्ञापनकत्र्ताओं के निशाने पर हैं-मध्यवर्ग, किशोर-किशोरियाँ, कामकाजी महिलाएँ, पुरुष तथा बच्चे। मीडियाविद् सुभाष धूलिया इसका सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-‘‘वैश्वीकरण के साथ-साथ जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की खोज में बाज़ार युद्ध में उतरीं तो विज्ञापनों का भी युद्ध प्रारंभ हो गया। हर उत्पाद की मार्केटिंग के लिए विज्ञापन-रणनीति महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिकांश विज्ञापन उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन वस्तुओं का बाज़ार शहरी मध्यवर्ग ही होता है जिनके पास नए उत्पाद खरीदने के लिए अतिरिक्त क्रय-शक्ति है। विज्ञापन-उद्योग की मीडिया पर निर्भरता इसकी प्रोग्रामिंग को भी प्रभावित करती है। अधिकांश विज्ञापन-संदेश अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों के लिए होते हैं। मीडिया की विज्ञापन-उद्योग पर भारी निर्भरता के कारण वही प्रोग्राम इसकी प्राथमिकता में शुमार होते हैं जो अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों में लोकप्रिय हों या लोकप्रिय बना दिए गए हों।’’6
यह लक्षित-समाज विज्ञापन को लेकर कितना आग्रही है, इसका अंदाजा इस अपील से परिलक्षित है-”Advertising brings you the good things of life.” उदाहरणार्थ-‘रेडियो विक्ट्री’ पर चलने वाला ‘रेस ट्रैक’ कार्यक्रम कार निर्माताओं के प्रयोजन से दिखाया जाता है जबकि ‘कैपिटल रेडियो’ पर ‘हल्लाबोलू’ कार्यक्रम किशोरवय को ध्यान में रखकर प्रसारित करना विज्ञापन-अभियान का ताकतवर पक्ष है। इसी तरह ‘कौन बनेगा करोड़पति’ को लेकर एक रिपोर्ट आई है कि केवल एसएमएस और फोन के जरिए 65 करोड़ रुपए का मुनाफा मोबाइल कंपनियों को हुआ और चैनलों के विज्ञापन में इससे कई गुना वृद्धि दर्जं की गई है। असल में ऐसे कार्यक्रमों के अंत में एसएमएस से राय भेजने की दरकार करोड़ों का व्यवसाय खड़ा करने का जरिया है। इस आधार पर दर्शकों के विभिन्न वर्गों की संवेदनाओं को पैसे में भुनाया जाता है।
यह ज्ञात तथ्य है कि भारत में बीस वर्ष से कम उम्र के युवा वर्ग की आबादी लगभग 45 करोड़ है जो यूरोप के किसी भी देश या अमेरिका या आस्ट्रेलिया की आबादी से कहीं ज्यादा है। इस 45 करोड़ की आबादी में करीब साढ़े दस करोड़ युवा 15 से 19 वर्ष के बीच हैं और 10 से 14 वर्ष के बीच की उम्र के युवाओं की आबादी 11 करोड़ से अधिक है। यह एक ऐसी उम्र है जब ये किशोरवय न तो इतने व्यस्क होते हैं कि अपना निर्णय खुद ले सकें और न इतने छोटे होते हैं कि इनके निर्णय इनके लिए माँ-बाप करें। बाल-मनोविज्ञान के जानकार रंजीत वर्मा के अनुसार, ‘‘कारपोरेट जगत अपनी रुचि थोपने की बजाय इस उम्र के उपभोक्ताओं की रुचि-अभिरुचि को ध्यान में रखकर उत्पाद तैयार करने लगे हैं। उन्हें पता है कि थोड़ी-सी भी चूक उन्हें बाजार से बाहर फेंक सकती है। सबसे बड़ी परेशानी युवा-वर्ग की दबी अभिव्यक्ति के कारण होती है। आज भी इस पीढ़ी के लिए खुलकर विचार रखना कठिन है। हर घटना या पंसद-नापसंद में पूरा परिवार सम्मिलित रहता है। वैसे भी उन उत्पादों की खपत यहाँ बहुत मुश्किल है जिन्हें अभिभावकों की सहमति नहीं प्राप्त हो क्योंकि अभिभावक का सोच ही समाज का सोच है।’’7
लब्बोलुआब यह है कि पूंजीवाद की मार से आज बच्चे भी नहीं बच पाए हैं। विज्ञापनों में महिलाओं के बाद सर्वाधिक प्रयोग बच्चों का ही हो रहा है। इन्हें जान-बूझ कर लक्ष्य बनाया जा रहा है। इसके पीछे की वजहें साफ हैं। पहला तो यह कि इससे बाल मस्तिष्क पर आसानी से प्रभाव छोड़ना संभव हो पाता है। दूसरी वजह यह है कि अगर बच्चे किसी खास ब्रांड के उत्पाद के उपभोक्ता बन जाएँ तो वे उस ब्रांड के साथ लंबे समय तक जुड़े रह सकते हैं। कुछ विज्ञापन तो बच्चों के अंदर हीनभावना भी पैदा कर रहे हैं। बच्चों के मन में यह बात बैठाई जा रही है कि विज्ञापित वस्तु का प्रयोग करना ही आधुनिकता है। अगर वे उसका प्रयोग नहीं करेंगे तो पिछडे़ समझे जाएंगे। कुछ विज्ञापनों के जरिए बच्चों की मानसिकता को भी बड़ों के समान बनाने की कुचेष्टा की जा रही है। जान-बूझ कर बच्चों से जुड़े विज्ञापनों में सेक्सुअल पुट डाला जा रहा है।
युवा पत्रकार हिमांशु शेखर तल्ख़ लहजे में कहते हैं-‘‘आज विज्ञापनों के चकाचैंध द्वारा बचपन को छीने लेने की पूरी तैयारी हो चुकी है। ऐसा लगता है। आज हालत यह है कि बच्चे किसी उत्पाद के लिए नहीं बल्कि खास ब्रांड के उत्पाद के लिए अपने अभिभावकों से जिद्द कर रहे हैं। इस वजह से अभिभावकों को परेशानी उठानी पड़ रही है। यह विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव ही है कि बच्चों में विज्ञापनों में काम करने की ललक भी बढ़ती जा रही है। इसका नकारात्मक प्रभाव उनकी पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता है। आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कई अभिभावक भी अपने बच्चे को विज्ञापन फिल्मों में देखना चाह रहे हैं। इसके लिए वे बाकायदा बच्चों को अभिनय का प्रशिक्षण भी दिलवा रहे हैं। इस बुरे चलन से कम उम्र में ही बच्चों के मन में पैसे के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा हो रहा है। यह विज्ञापन का एक बड़ा दुष्परिणाम है।’’8
हमें भूलना नहीं चाहिए कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हर औद्योगिक घराना अपने उत्पाद की ‘इंस्टैंट पब्लिसिटी’ चाह रहा है। इस प्रक्रिया में विज्ञापन उपयुक्त जरिया है, जो हजारों-लाखों उपभोक्ताओं के सामने एक साथ किसी वस्तु या उत्पाद की गुणवत्ता, उसके इस्तेमाल के फायदे तथा बाजार में उपलब्धता सम्बन्धित तमाम ब्यौरे प्रस्तुत कर देता है। विज्ञापन हर आदमी के लिए एक समान महत्व रखते हों, यह जरूरी नहीं है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विज्ञापन के माध्यम से प्राप्त हो रही सूचना या संदेश से व्यक्ति बिल्कुल अप्रभावित रह जाए। क्योंकि जब किसी उत्पाद या आकृति का विज्ञापन द्वारा व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण करता है तब एक विशिष्ट क्षण में जो पूर्ण प्रत्यक्षीकरण होता है और जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, वे काफी सीमित होती हैं। एक मत के अनुसार ‘‘हमारे अंदर केन्द्रीय स्नायु संस्थान पर इन सूचनाओं की ‘फिल्टरिंग’ होती है। कुछ चीजें ग्रहण नहीं की जातीं लेकिन वे अस्थाई भण्डार में डाल दी जाती हैं। जब कभी आगे हमें इससे सम्बन्धित कुछ देखने का मौका मिलता है तो हम अस्थाई भण्डार की सूचनाएँ काम में ले लेते हैं या ये अनजाने ही अवचेतन रूप से हमारी प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करने लगती हैं।’’9
विज्ञापन सम्बन्धी प्रत्यक्षीकरण की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति के चारो तरफ कई प्रकार की उत्तेजनाएँ प्रवाहित होती रहती हैं। व्यक्ति इन सभी उत्तेजनाओं में से कुछ का ही चयन करता है जिसे कई प्रकार के बाह्î एवं आंतरिक अवधान प्रभावित करते हैं। बाह्î वातावरणीय कारक उत्तेजना की तीव्रता, विषमता, आकार, आवृति, गति, नवीनता एवं पहचान आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। अवधान के आंतरिक कारकों में अधिगम, अभिप्रेरणा, व्यक्तित्व, सामाजिकता, सूचना संसाधन आदि महत्त्वपूर्ण है। आज के संदर्भों में संचार माध्यम विज्ञापन हेतु खुलकर किसी वस्तु/उत्पाद विशेष के लिए ‘छवि निर्माण सिद्धांत’ का इस्तेमाल करते हैं। इस सिद्धांत की मान्यता है कि संचार माध्यम समाज की मानसिकता को गहराई से प्रभावित करते हैं। इन माध्यमों के स्थूल तथा दीर्घकालीन प्रभाव की जाँच करते हुए संचारशास्त्री गेर्बनर स्पष्ट संकेत करते हैं कि ‘‘विज्ञापन के माध्यम से दिखाए जा रहे अनजाने प्रतीक, छवियाँ, और सन्देश जनमानस में निरन्तर पैठते जाते हैं। शानदार इमारतें, बहुमूल्य पोशाकें, कीमती खिलौने, चाॅकलेट और महंगे विद्युत उपकरणों की इच्छा जगाकर टेलीविज़न निर्धन लोगों की मानसिकता से खिलवाड़ करता है। वास्तव में ये प्रस्तुत अयथार्थ दर्शकों/श्रोताओं/पाठकों के मन में चकाचैंध भरे भड़कीले स्वप्नलोक की सृष्टि करता है जो वास्तविक जगत से परे है।’’10
ध्यातव्य है कि विज्ञापनकत्र्ता किसी भी विज्ञापन का निर्माण ‘लक्षित समूह’(Target Audience) को ध्यान में रख कर ही करता है। कागज पर छपे विज्ञापन भले मूक हों, पर प्रभाव में मारक तीर का काम करते हैं। न चाहते हुए भी पाठक विज्ञापन के चित्र, रंग-संयोजन, भाषिक कलात्मकता या ‘ब्रांड नेम’ के प्रति खिंचा चला आता है। उसकी आँखें यकायक ठहर जाती हैं। वस्तुतः ब्राण्ड केवल नाम नहीं हैं। दरअसल, एक ‘ब्राण्ड’ विशिष्ट उत्पाद की पहचान एवं उसका प्रतिनिधित्व करता है। ब्राण्ड उपभोक्ताओं के दिमाग में उत्पाद की छवि है कि वे उत्पाद के बारे में क्या सोचते हैं या महसूस करते हैं? आज प्रसिद्ध ब्राण्ड/कंपनियों में ‘कोकाकोला’, ‘डिज्नी’, ‘आईबीएम’, ‘इंटेल इनसाइड’, ‘जी. ई.’, ‘मेक डोनाल्ड’, ‘मर्क’, ‘माइक्रोसाॅफ्ट’, ‘नोकिया’, ‘टोयोटा’, मोजरवियर, टाटा, अमूल, रेमण्ड, एल. जी., सैमसंग प्रमुख हैं। मीडिया दार्शनिक मार्शल मैकलुहान इस संदर्भ में स्पष्ट कहते हैं कि ‘‘मीडिया आरोपित संदेश अपने उपभोक्ताओं की इन्द्रियों पर आक्रमण करते हैं, उसे नियंत्रित एवं संचालित करते हैं और अंततः उसे इच्छित दिशा-विशेष में ठेलने लगते हैं। इस प्रक्रिया व स्थिति का लाभ ‘निजी निगमों’ अथवा ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों’ को होता है क्योंकि उपभोक्ता अपनी आँखें और कान मीडिया को सौंप देता है।’’11
इस तरह एक सफल विज्ञापन इंसान की स्वाभाविक अंतःवृत्ति यानी उसके अंदरूनी इच्छा को जगाने का काम करती है। खरीदार या उपभोक्ता को अमुक वस्तु या चीज को लेने के लिए राजी करती है। आजकल उत्पाद को अधिक से अधिक आकर्षक और बिकाऊ बनाने के लिए तमाम तरह के उपक्रम रचे जा रहे हैं। विज्ञापन में उत्तेजक देहभाषा और कम-नपे पारदर्शी पोशाक के साथ युवतियों को खुद उत्पाद बनाकर बेचना बाज़ारू चलन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। इस बारे में रामशरण जोशी की टिप्पणी गौरतलब है-‘‘भड़काऊ शारीरिक मुद्राओं के प्रसारण द्वारा ग्राहकों को लुभाने का अर्थ है विज्ञापित वस्तुओं को बेचना। पूँजीवाद के लिए प्रत्येक चीज ‘कमोडिटी’ होती है, चाहे वह जैव हो या अजैव, विचार रहे या विज्ञापन। भूमंडलीकरण के कारण मीडिया में यह प्रवृत्ति अराजक स्थिति तक पहुँचती जा रही है। पूँजीवाद का काम एक यह भी होता है कि पुराने मिथों को तोड़ना और नए मिथों को गढ़ना। इसलिए विज्ञापन माध्यम मोहक जीवन शैलियों का मिथ ऐसे लोगों को परोसता है जो संक्रमण काल के दौर में हैं, अतीत से मुक्त होकर आधुनिकता में लिप्त होने के लिए छटपटा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि विज्ञापन सम्बन्धों के रूप एवं स्तर का निर्धारण कर रहे हैं; माता-पिता व संतान और प्रेमी व प्रेमिका के बीच सम्बन्धों का आधार विज्ञापित वस्तुएँ बन रही हैं।’’12
इसीलिए विज्ञापन के बारे में कहा जाता है कि यह महज सूचना प्रेषण का साधन-मात्र नहीं है। एक मशहूर कथन है-‘विज्ञापन कला मस्तिष्क में होती है।’ ऐसा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि विज्ञापन एक किस्म का अतिरंजित यथार्थ है। इसके निर्माण और प्रस्तुति में रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का पुट तो होना ही चाहिए साथ में उपभोक्ता या खरीदार के अभिवृत्ति एवं मनोवृत्ति को प्रभावित करने सम्बन्धी गुण भी आवश्यक है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देखने की दृष्टि बदलने से वस्तु भी बदल जाती है। उपभोक्ता की दृष्टि में परिवर्तन हेतु कई कारक जिम्मेदार होते हैं जिसमें एक ‘एडा’(।प्क्।) सिद्धांत है जो ‘अटेंशन’, ‘इंटरेस्ट’, डिजायर’ और ‘एक्शन’ का समेकित रूप है। मनोवैज्ञानिक बेम के अनुसार ‘‘व्यक्ति अपनी ही मनोवृति, अनुभूति, भाव एवं संवेगों को सीधे समझने में असमर्थ होता है। वह अपने व्यवहारों के प्रेक्षण के आधार पर उस परिस्थिति को अधिक समझता है जहाँ उससे सम्बन्धित आंतरिक संकेत अस्पष्ट होते हैं।’’13
प्रथमतः विज्ञापन किसी वस्तु/उत्पाद के विषय में सूचना देने के साथ ही उसके उद्देश्यों की व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। प्रतिस्पर्धा की स्थिति में इसके लिए यह आवश्यक है कि यह उस वस्तु को विरल और विशिष्ट प्रकार का सिद्ध करे। इसी गुण के कारण विज्ञापन-प्रयोजन को चिंतन, अनुभूति और कार्य-व्यापार की निबद्ध प्रणाली मानते हैं जिसके अन्तर्गत विज्ञापन के उद्देश्य को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है ताकि उपभोक्ता को यह प्रणाली एक सामान्य हिस्से के रूप में दिखे। इस प्रवृत्ति में वृद्धि की वजह से आजकल विज्ञापनों में उत्पाद एक तरह से अप्रासंगिक हो चला है। इस बाबत प्रसिद्ध संचारशास्त्री रेमण्ड विलियम्स कहते हैं-‘ आज विज्ञापनदाता सीधे बिंबों और सपनों का सहारा ले रहा है। इस तरह के विज्ञापनों के जरिए एक पूरी जीवनशैली रची जाती है जो मुख्यतः एक मायालोक के इर्द-गिर्द विचरण करती है। किसी एक उत्पाद की अनुशंसा करने की बजाए इस तरह के मायालोक का सृजन करना सभी विज्ञापनदाताओं के हित में है।’’14 यदि हम व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से बात करें, तो व्यावसायिकता के प्रभाव ने विज्ञापन संबंधित नैतिक प्रश्नों को दरकिनार करना प्रारंभ कर दिया है। अब विज्ञापन कल्पना और सृजन की प्रस्तुति भर नहीं रह गई है अपितु यह ब्रांड और ग्लैमर्स की दूधिया रोशनी से सनी एक ऐसी छवि बनने लगी है, जिसमें वास्तविकता गुम हो कर रह जाती है। अब लोग उत्पाद और उत्पादक से ज्यादा इस बात से प्रभावित होने लगे हैं कि इसे बेच कौन रहा है अर्थात इसका ब्रांड अम्बेस्डर कौन है? पहले तो केवल फिल्मी सितारों की विज्ञापन में पूछ थी। अब क्रिकेट आइकाॅन धोनी से लेकर टेनिस सनसनी सानिया तक की धूम है। यानी बाजार की नई अवधारणा लोभ और स्वार्थ आधारित मुनाफे पर केन्द्रीत है। मशहूर मीडिया विश्लेषक रेमण्ड विलियम्स के शब्दों में कहें तो, ‘‘विज्ञापन के माध्यम से ‘बिक्री’ की वरीयता पर जोर देना स्वाभाविक लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह एक प्रकार की विकृति है। कुछ लोग अभ्यस्त हो चुके हैं। दरअसल, संसार को देखने का यह तरीका सही और स्वाभाविक इसलिए लगता है कि हमने अपने कद को घटाकर इन अविवेकी लोगों के समान कर लिया है।’’15
पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं। दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता। अगर विज्ञापन में खूनखराबे वाले दृश्य हों तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता। यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है। आयोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए। इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे। बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था। दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई। उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फीसदी ज्यादा है। यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुकाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फीसदी अधिक देखी गई। निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फीसदी कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुकाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फीसदी कम हो जाती है। इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी। क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे। चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे।
शोध/सर्वे तथा विश्लेषण से ज्ञात सच्चाई से अवगत होने के बाजजूद विज्ञापनों में हिंसा और कामुकता वाले दृश्यों को धड़ल्ले से दिखाया जाता है। इस संदर्भ में प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री एडवर्ड चैंबरलिन ने 1933 में ही बाजार के सच को उजागर करती हुई महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ए थियरी आफ मोनोपोलिस्टिक कंपीटिशन’ में लिखा था, ”वह युग खत्म हो गया जब हर उत्पाद के ढेरों निर्माता होते थे। और उनके बीच घोर प्रतिद्वंद्विता होती थी। इसकी वजह से प्रत्येक उत्पाद अपनी गुणवत्ता को सुधारने के लिए सक्रिय होता था, ताकि वह ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर सके।”16
आज से सात दशक पहले की गई यह व्याख्या विज्ञापन के मौजूदा परिदृश्य पर बिलकुल सटीक बैठती है। आज गुणवत्ता की बजाए जोर किसी भी तरह से ग्राहक को उत्पाद के मायाजाल में फांसने का है। इसके लिए पहले पैकिंग को आकर्षक बनाया गया। फिर उसे बेचने के लिए ‘नारी देह’ की नुमाइश की जाने लगी जो स्वयं भी एक वस्तु/उत्पाद के रूप में विज्ञापित होती हैं। मीडिया जानकार आनंद प्रधान की दृष्टि में-’’ये विज्ञापन लगभग 1 अरब से ऊपर की आबादी वाले राष्ट्र की लोकवृत्ति की पहचान नहीं कराते बल्कि इसमें सिर्फ 15-20 करोड़ अमीर और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं का ही प्रतिनिधित्व करते हंै। इसमें केवल उनकी ही बात होती है और जब गरीबों एवं कमजोर वर्गों की बात होती भी है तो इन प्रभावशाली अमीर और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं के नजरिए से होती है।’’16
निष्कर्षतः विज्ञापन उपभोक्ता-मन को अपनी बहाव में बहा ले जाने वाला सशक्त हथियार है जिसका मुख्य लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण किसी उत्पाद/वस्तु की बिक्री को सुनिश्चित करना है। कला समीक्षकों की राय में-‘‘विज्ञापन के विकसित इस नए प्रारूप ने उत्तर आधुनिक नए परिस्थितियों को रचा है। इसने कला को देखने-समझने के पूरे ढाँचें को बदल दिया है। आज नए मीडिया का अधिकतर हिस्सा डिजिटल की ओर उन्मुख है। तकनीकी विकास में हुए विस्फोट ने कलाओं की सीमाओं को ख़त्म कर दिया है।’’17 यह रद्दोबदल न केवल इलेक्ट्राॅनिक संचार-जगत में हुआ है, अपितु रेडियो, समाचार-पत्र, ब्रोशर, होर्डिंग, पम्पलेट आदि सभी जनमाध्यम तीव्र बदलाव की चपेट में हैं। पूंजीतंत्र द्वारा निर्देशित-नियंत्रित इस पद्धति को आज भारतीय समाज इस कदर आत्मसात कर चुका है; मानों यह हमारे जीवनशैली की कुदरती अनिवार्यता हो। वास्तव में विज्ञापन को मानवीय स्वाभाव और व्यवहार को इच्छित-दिशा में ले जाने वाला एक प्रायोजित प्रक्रम भी माना जाना चाहिए जो प्रारंभ में किसी एक खास समुदाय/वर्ग को सम्बोधित होता है, किंतु सार्वजनिकीकरण के बाद विज्ञापन पूरे जनमानस पर एकसमान आकर्षण और प्रभाव छोड़ सके, यही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है।
...................................
1. कालजयी, किशन(संपादक); आलेख ‘कुछ बातें: इनसाइड लाइव’, ‘सबलोग’, मासिक पत्रिका, अगस्त-सितम्बर 2010, पृ0 सं0 9।
2. http://webkhabar.com/news.php?cat=9
3. जैन, (प्रो0) रमेश; जनसंचार विश्वकोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृ0 9।
4. कुमार, (डाॅ0) सुवास; हिन्दी: विविध व्यवहारों की भाषा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2007, पृ0 सं0 72।
5 http://www.swatantraawaz.com/sanjay_diwedi.htm
6. धूलिया, सुभाष; सूचना क्रांति की राजनीति और विचारधारा, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001, पृ0 सं0 17।
7. आलेख ‘युवाओं पर बाज़ार की नजर है’, ‘कादम्बिनी’, सं0 मृणाल पाण्डेय, मासिक पत्रिका, अक्तूबर 2007, पृ0 सं0 19।
8. http://www.bhartiyapaksha.com/?p=44299. भानावत, (डाॅ0) संजीव(संपादक); संचार के सिद्धांत, जनसंचार केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, संस्करण 2003, पृ0 176।
10. वही, पृ0 198।
11. बिष्ट, पंकज(संपादक); आलेख ‘संतोष और असुरक्षा के साये में’, समयांतर, मासिक पत्रिका, फरवरी 2011, पृ0 10।
12. यादव, राजेन्द्र(संपादक); चालाक और हमलावर मीडिया, ‘हंस’, मासिक पत्रिका, जनवरी 2007, पृ0 सं0 133।
13. भानावत, (डाॅ0) संजीव(संपादक); संचार के सिद्धांत, जनसंचार केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, संस्करण 2003, पृ0 183।
14. विलियम्स, रेमण्ड; ‘संचार माध्यमों का वर्ग-चरित्र’, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम हिन्दी संस्करण 2000, पृ0 स0 86।
15. वही।
16. बिष्ट, पंकज(संपादक); आलेख ‘समाचार उद्योग में बढ़ता संकेन्द्रण’, समयांतर, मासिक पत्रिका, फरवरी 2011, पृ0 29।
17. कुमार, विनय; रविवारी अंक, जनसत्ता, 23 जनवरी, 2011।

Friday, December 3, 2010

ख़बर में ख़बरची

आजकल मीडिया ज्यादा, शोख, बदमिज़ाज़ और नकचढे़ किस्म का हो चला है। कहने को तो जनमाध्यम है, पर लोगों से सरोकार लेशमात्र भी नजर नहीं आता। अगर होता
तो क्या बरखा दत्त और वीर सांघ्वी के नाम इस कदर उछाले जाते कि उनकी अपनी ही सफाई में बोलती बंद हो जाती। वैसे ये अकेले नहीं हैं। मेरी राय में, इनकी अकथ कहानी पर चर्चा करना फिजूल में इन नामचीन पत्रकारों को शोहरत भेंट करना है। किसी जमाने की मिशनधर्मी पत्रकारिता अपने मुख्य लक्ष्य से भटकते हुए आज सेक्स, हिंसा तथा हल्के व फुहड़ किस्म के मनोरंजन का ठेकेदार बन चुकी है। इमेजिन टीवी पर चल रहे ‘राखी का इंसाफ’ और कलर्स के ‘बिग-बॉस’ रियलिटी शो इसी श्रेणी के ख्याली-भूप हैं। लिहाजा, सैद्धांतिक मूल्य तथा नैतिक-बोध जैसी कोई स्पष्ट लक्ष्मण-रेखा दूर-दूर तक नजर नहीं आती, जिस से यह अनुमान लगाया जा सके कि हम कहाँ कौन सी भूल कर रहे हैं? हाल के नीरा वाडिया प्रकरण में पत्रकारों की मिलीभगत को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।
नये निर्धारित मानदंड के मुताबिक संपादकीय विशेषाधिकार प्रबंधकीय जिम्मेदारी के पाले में चला गया है। पद और रुतबा पाकर बौराए नौसिखिओं की कारगुजारियाँ कितनी भयावह और देश के लिए त्रासद है, यह हाल के घटना-संदर्भ में स्वतः व्याख्यायित है। आज मीडिया ने संपादकीय सत्ता एवं पत्रकारीय वजूद को खंडित-मंडित करते हुए पत्रकारिता के मूल-स्वर को ही विलुप्त कर डाला है। मैनजमेंट स्कूलों से प्रबंधन का गुर सीख मीडिया के उच्चतमपदों पर आसीन लोगों के लिए पत्रकारिता एक पैकेजिंग आइटम है जिसे कलात्मक ढंग से एक उत्पाद माफिक बेचा जाना है।
बता दूँ कि स्वाधीनता से ठीक पहले पत्रकारिता में ओज और सत्य के प्रति जो दृढ़ आग्रह दिखलाई पड़ता है। उसका अंशमात्र प्रभाव भी आज की पत्रकारिता में नहीं है। जनहित और जनकल्याण को अपना प्राथमिक दायित्व मानने वाली यह पत्रकारिता असल में गाँधी के ‘सर्वोदय पत्रकारिता’ का उदाहरण है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ भी महात्मा गाँधी के पक्ष का समर्थन करती दिखती हैं।
एक जमाने में दैनिक समाचार पत्र ‘आज’ सत्य के लिए अपना सर्वस्व आहूत कर देने का पक्षधर था। उसकी दृष्टि में समाचार-पत्र लोक महत्त्व का एक ऐसा संचार माध्यम है जिसका प्राथमिक कार्य और उद्देश्य लोगों में सूचना, शिक्षा एवं स्वस्थ मनोरंजन को अधिकाधिक विकसित करना होता है। यह आम से खास वर्ग तक एकसमान पहुँच को प्रदर्शित करने का उपयुक्त जरिया है। साथ ही पत्रकारिता समाज में जागरूकता और जागृति लाने का सशक्त हथियार भी है जो व्यक्ति की आंतरिक खूबसूरती को निखारते हुए उसे कला-साहित्य की बौद्धिक दुनिया से परिचित कराता है।
यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की संक्षेप में पड़ताल करें, तो हम पायेंगे कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृष्य में राष्ट्रीय चेतना का उभार 1857 के बाद से ही दिखाई देने लगता है. किंतु 19वीं शताब्दी के आखिरी दिनों में राजनीतिक बीजारोपण के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होती है। इसके बाद स्वतःस्फूर्त स्वराज और स्वाधीनता का आंदोलनकारी मुहिम जोर पकड़ लेता है। ब्रिटिश हुकूमत के साथ भारत का यह केवल राजनीतिक गतिरोध नहीं था, बल्कि यह तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की राष्ट्रीय जवाबदेही भी थी जिसका मकसद समवेत रूप से आजाद भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा तैयार करना था।
ध्यातव्य है कि इस दौर की पत्रकारिता महज सूचना-स्रोत का अथाह सागर न हो कर जनचेतना, जनवाणी और जनसमृद्धि का विकासमान प्रतीक मानी जा चुकी थी। नामों की फेहरिस्त में प्रमुखता से शामिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भटृ, प्रताप नारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेष शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, तिलक और गाँधी ऐसे पत्रकार थें, जिनके लिए मुनाफे की बात कौमी एजेंडे के आगे तुच्छ और अस्वीकार्य थी। लेकिन आज पत्रकारिता में फायदे की बात सर्वोपरि है। आप चाहे कितने भी कशल, दक्ष और सक्षम क्यों न हो? आपकी पूछ तभी होगी, जब आप अखबारी संस्थान को मोटी आय उपलब्ध कराने में सफल हांे। अन्यथा आप से बेहतर कई जन अपने भरे-पूरे रिज्यूम के साथ लाइन में खड़े हैं।
कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में अखबारी दफ्तर अब हाईटेक बन चुका है। अब पहले माफिक एक कोठरीनुमा जगह से अखबार निकालना संभव नहीं है। वह दौर बीत गया जब घाटे का सौदा जानकर भी पत्र या पत्रिका निकालने की एक अदद कोशिश होती थी। श्रमजीवी पत्रकार की भूमिका निभाते हुए औने-पौने मेहनताना पर संपादक और पत्रकार बनने की होड़ मची रहती थी। जबकि अब संपादक या उपसंपादक का मतलब एक ढंग का बंगला, लग्जरी कार और अत्याधुनिक सामानों की पूरी फौज साथ होना है। महत्त्वाकांक्षी संपादक या पत्रकार अब सुविधाभोगी हो गया है। समय ने शहरी जीवनशैली को इतना बदल दिया है कि मीडियाकर्मी इन सब चीजों से कट कर रह ही नहीं सकता है।
गौरतलब है कि आज के मीडियाकर्मियों की खुद की परेशानी और तकलीफ कम नहीं है। चौबीसों घंटे वह काम करने का दबाव झेल रहा है। नौकरी हर पल एक चैलेंज सामने रखती है। व्यावसायिकता के बवंडर ने उसकी व्यक्तिगत सोच, विवेक और दृष्टि को मानों सोख लिया है। उस पर हर कीमत पर सबसे पहले ख़बर हासिल करने का दबाव है। ऐसी खबर जिसके अंदर हंगामा खड़ा कर सकने की कुव्वत हो तथा बहुतांश लोगों कि उसमें दिलचस्पी हो। क्योंकि आमआदमी की हकीकत दिख-दिखाकर और उसे बार-बार दुहरा कर उन्हें अपना बिजनेस चौपट नहीं करना है।
अतएव, सिर्फ यह कह चुप्पी साध लेना कि आज की पत्रकारिता नीलाम हो रही है या फिर हाशिए पर ठेली जा रही है, तर्कसंगत नहीं है। निःसंदेह पत्रकारिता द्वारा पूर्व-स्थापित मानदंडों में बदस्तूर गिरावट जारी है तथा ख़बरों में मानवीय सोच, संवेदना और दिशा-दृष्टि का पूर्णतः अभाव है; फिर भी हमें मीडिया के अंदर के ‘पॉलिटिक्स’ को नए तरीके से समझने की जरूरत है। अंदरूनी समीकरण को जब तक दुरुस्त नहीं किया जाता हम मीडिया पर आक्षेप या आरोप मढ़कर खुश अवश्य हो सकते हैं, किंतु सार्थक उपाय ढूँढ पाना बेहद मुश्किल है। अतः आधुनिक पत्रकारिता के खिलाफ हल्लाबोल किस्म का प्रोपगेंडा फैलाने की बजाय इस बारे में पूरी गंभीरता के साथ सोचा जाना ही श्रेयस्कर है। हमें इस व्यवस्था के अंदर काम कर रहे लोगों की मजबूरियों पर भी दृष्टिपात करना होगा जिनके लिए हाल और हालात ने ऐसी परिस्थितियाँ रच दी है कि उसकी मुखालफत कर कोई भी पत्रकार या मीडियाकर्मी एक ढंग का ठौर ठिकाना हासिल नहीं कर सकता है। मेरी अपनी राय में, केवल आदर्ष बाँचने से किसी को मुकम्मल छत नसीब हो जाए, ऐसा हरगिज संभव नहीं हैं। लोभ-स्वार्थ, घृणा-महत्वाकांक्षा तथा झूठ-फरेब से भरे इस दौर में मीडिया के अंदर स्वस्थ-सृजन हो, इसके लिए सरकारी प्रयास, समर्थं ढाँचा, बेहतर वेतनमान, पारदर्शी कानून और स्वैच्छिक अचारसंहिता भी तो जरूरी है।

आँकड़ों में अख़बार पढ़ता पाठक

एआईआर (एवरेज इश्यू रीडरशिप) के मुताबिक हिंदी के टॉप टेन अखबारों में ‘दैनिक जागरण’, ‘दैनिक भास्कर’ और ‘हिन्दुस्तान’ पहले तीन पायदानों पर बने हुए है. सर्वे के मुताबिक, टॉप टेन अखबारों में आठवें नंबर तक रैंकिंग में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इस बार ‘प्रभात खबर’ दसवें नंबर से उछलकर नौवें नंबर पर पहुंचने में सफल रहा है. पिछली बार टॉप टेन कटेगरी से बाहर रहे ‘हरिभूमि’ ने टॉप टेन में वापसी की है.

‘दैनिक जागरण’ 1 करोड़ 59 लाख 50 हजार की रीडरशिप के साथ पहले नंबर पर जिसके पाठक संख्या में इस तिमाही में 25 हजार की बढ़ोतरी हुई है। टाप टेन में शामिल अखबारों में दैनिक जागरण की बढ़ोतरी संख्या सबसे कम रही है.
दूसरे स्थान पर रहे ‘दैनिक भास्कर’ ने 1 करोड़ 34 लाख 88 हजार की रीडरशिप के साथ जागरण के नजदीक पहुंचने की स्थिति में है. आँकड़ों में बढ़ोतरी 1 लाख 85 हजार की है जो दूसरी तिमाही में पाठक संख्या के मामले में 1 करोड़ 33 लाख 3 हजार थी.
‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने एक बार फिर छलांग लगाते हुए पिछली बार की ही तरह तीसरे पायदान पर रहा। ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ की पाठक संख्या 1 करोड़ 8 लाख 39 हजार पहुंच गई है जो पिछली संख्या
से 6 लाख 96 हजार अधिक है. यह बढ़ोतरी सभी अखबारों से ज्यादा है. दूसरी तिमाही के समय हिन्दुस्तान की पाठक संख्या 1करोड़ 1लाख 43 हजार थी.
चौथे स्थान पर रहे ‘अमर उजाला’ ने इस बार भी पुराना ओहदा बरकरार रखा है. तीसरी तिमाही के नतीजों के मुताबिक उसकी पाठक संख्या 85 लाख 83 हजार पहुंच गई है. 64 हजार की बढ़ोत्तरी के साथ चौथा स्थान पाए इस अखबार की दूसरी तिमाही के दौरान पाठक संख्या 84 लाख 17 हजार रही थी.
‘राजस्थान पत्रिका’ 72 लाख 17 हजार की पाठक संख्या सहित पांचवें नंबर पर बना हुआ है. तीसरी तिमाही में उसके रीडरशिप में 3 लाख 17हजार की बढ़ोत्तरी हुई है. जो हिन्दुस्तान के बाद सबसे ज्यादा है. दूसरी तिमाही के दौरान पत्रिका की रीडरशिप 69 लाख रही थी.
‘पंजाब केसरी’ छठे नंबर पर तो ‘नवभारत टाइम्स’ सातवें नंबर पर अपना कब्जा बरकरार रखा है। ‘नई दुनिया’ नंबर आठ पर काबिज है, वहीं ‘प्रभात ख़बर’ एक पायदान ऊपर चढ़ते हुए नौवें नंबर पर आ गया है. ‘हरिभूमि’ एक बार फिर टॉप टेन में फिर से जगह बनाने में कामयाब रहा है. दूसरी तिमाही में हरिभूमि को टॉप टेन से बाहर होना पड़ गया था. स्रोत: आईआरएस क्यू 1-3, 2010

उस रात हुआ क्या था...?


तारीख़ 2 दिसबंर 1984। रविवार की रात्रि का आखिरी पहर कि अचानक से लोगों में खलबली मच गई। हर रूह काँपती दिखी। हर शख़्स भयग्रस्त। खाँसी और दम घुटने से तड़फड़ाती साँसंे राहत का ठौर ढूँढने का प्रयत्न कर रही थीं। हवा में उस रात जहरीली गैस घुल गई थी। फ़िजा में मृत्यु की परछाईंयाँ तैरने लगी थी। क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या बच्चा सभी इस काल के घेरे में फँसे थे। आदम जब़ान से मरहूम जानवरों की तो और बुरी गत थी। ठंड से कंपकंपाती रात में भी लोग बदहवास सड़कों पर दौड़ लगा रहे थे। शोर, कोलाहल और चीख-चिल्लाहट से सारा वातावरण सना था। मौत का बवंडर कहाँ से कैसे उठा? यह तहक़ीकात करने की किसी के पास फुरसत नहीं थी। सभी जल्द से जल्द शहर की परिधि से दूर चले जाने की फ़िराक में थे। अफ़सोस हजारों जान उसी ओर दौड़ लगा रहे थे, जहाँ मृत्यु का अदृश्य फंदा टंगा था। मुक-बधिर बना प्रशासन गहरी नींद में सोया था। सही राह बताने के बजाय निरीह आवाम को जानबूझकर मौत के कुएँ में धकेला जा रहा था, चाहे कोई मरता है तो मरे अपनी बला से।
तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बयानी जो सच सामने आया, वह भरोसमंद व्यवस्था की पोल खोल कर रख देता है-‘‘ शहर के हालात को देखकर मैंने तुरंत मुख्यमंत्री से बात करने की कोशिश की। लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका। मैं बिना देर किए मुख्यमंत्री आवास पहुँचा। वहाँ भी मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं हो सकी। उस घड़ी बार-बार संपर्क करने के बाद भी स्थानीय थानों से कोई जवाब नहीं मिल रहा था। तब मैंने खुद लोगों के बीच जाने का फैसला किया। शहर में निकला, तो हर तरफ मातम की काली छाया थी। लोग भाग रहे थे, खाँस रहे थे और हांफ-हांफ कर गिर रहे थे।’’
सचमुच बेहद डरावना था यह मंजर। देखते ही देखते झीलों का शहर विषैले मिथाइल आइसो सायनाइट के चपेट में तिल-तिल मरने लगा था। यह करतूत भोपाल की यूनियन कार्बाइड कारखाने की थी, जिससे रिसी जहरीली गैस ने पलक झपकते हजारों लहलहाती ज़िंदगियाँ उजाड़ डालीं। यह महज दुर्घटना भर नहीं थी। सामूहिक नरसंहार था यह। अचानक शहर में कफन की माँग बढ़ गई थी। चहुँओर लाशें ही लाशें। हर तरफ मातम और विलाप। उनींदी प्रशासन और बेतुकी सरकार किंकर्तव्यविमूढ़। दिलासे और आश्वासन की खुराक पीड़ितों के लिए किसी काम के काबिल नहीं थे। इस हादसे ने 8000 लोगों को फौरन चट कर लिया था। आज यह आँकड़ा 22,000 के पार जा चुका है। लाखों लोग बेचारगी में चुप भले हों, पर उस त्रासदी की प्रेतछाया आज भी उनके कुनबे-परिवार के लिए मौत से बद्तर ज़लालत परोस रही है। उन्हें तुरंत प्रभाव से इलाज की सख़्त जरूरत है। पर सत्तासीन सरकार हो या नौकरशाह अफसरशाही। सबकी ठाठ अलग है। पूँजी की गिरफ़्त में जकड़े भारतीय भूगोल का अमेरिकापरस्त राग नया नहीं है। कसूरवार अमेरिकन कंपनी को ‘क्लीन चीट’ दिया जाना तो महज़ बानगी भर है।
सुनने में अज़ीबोगरीब भले लगता हो, लेकिन सच यही है। मुआवजे की राशि और पीड़ितों की व्यथा-कथा सब यों ही निपटा लिए गए। बाद में कार्बाइड कंपनी को अमेरिकी कंपनी डाऊ कैमिकल्स ने अधिग्रहीत कर लिया। सरकार मौन रही। क्योंकि उसे इस ख़ामोशी से अपना हित सधता दिखता है। वैश्विक मानचित्र पर उसे भावी शक्तिमान राष्ट्र होने का अमेरिकन सर्टिफिकेट मिलता है। उसके पूँजीपति घराने ‘टाइम्स’, ‘न्यूज़वीक’ और ‘फोर्ब्स’ जैसे अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं के कवर-पेज पर पदस्थापित होते हैं। यह हिसाब स्वयं को ‘इंडिया शाइनिंग’ का राग अलापने के लिए है, भोपाल गैस पीड़ितों की गुहार सुनने के लिए नहीं। तीन माह तक जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन के बावजूद दिल्ली मौन साधे रही।
कैसी अनोखी़ विडंबना है कि हमारा देश दिल्ली-मुबंई-बंगलौर को देखकर समृ़द्ध प्रतीत होता है। उसे छोटे शहरों की पीड़ा से कोई वास्ता नहीं। राजधानी की तक़दीर-मुकद्दर बदलने को आमदा राष्ट्र महज एक खेल के लिए करोड़ों स्वाहा और अरबों का वारा-न्यारा कर रहा है। हमने देखा कि किस तरह सरकार ने राष्ट्रमंडल खेल पर जी खोलकर पैसे लुटाया।। गुरेज़ इस खेल के आयोजन से नहीं। सवाल राष्ट्र के नीति-नियंताओं से है। लोकतंत्र की बाजू पकड़ आम-आदमी से आरजू-मिन्नत करने वाले उन सत्तासीन लोगों से हैं, जो हर हादसे के बाद एहतियातन इंतज़ाम की रवायत रचते हैं। हताहत लोगों को हर हाल में इंसाफ दिलाने की दुहाई देते हैं। पर ये घोषणाएँ आमआदमी के लिए कभी भरोसेमंद साबित नहीं होती हैं।
आप आश्चर्य करेंगे कि भोपाल गैस त्रासदी का ख़ौफ आज भी मिटा नहीं। और न ही जहरीली गैस का असर ख़त्म हुआ है। वहाँ आज भी बच्चे विकलांग पैदा होते हैं। माँओं के दूध में विशाक्त पदार्थ घुला है। मशहूर फोटोग्राफर रघु राय ने भोपाल गैस त्रासदी के 20 वर्ष पूरे होने पर दिए एक साक्षात्कार में खुलासा किया था कि ‘‘मैं सोचता था कि अब 19-20 साल बाद क्या बचा होगा वहाँ। लेकिन वहाँ जाकर मुझे ताज्जुब हुआ कि आज भी वहाँ लोग मर रहे हैं, क्योंकि जिनके शरीर में कम गैस गई थी, उनके फेफड़े प्रभावित हो गए, उनका हृदय क्षतिग्रस्त हो गया और उसका कोई इलाज नहीं है।’’ मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के जाँच रिपोर्ट भी इसी बात की पुष्टि करते हैं।
लेकिन राजनीतिक चोंचलेबाज अपनी ऊंटपटांग हरकत से बाज नहीं आ रहे। पिछले साल कार्बाइड कंपनी के दौरे पर आये वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने परिसर की मिट्टी को उठाकर नाटकीय तौर पर कहा था, ‘‘देखो, मैंने इसे छू लिया। कहाँ कुछ हुआ मुझे। यह मिट्टी अब जहरीली नहीं रही।’’ यह तो यही हुआ कि सल्फास की पैकेट को मुट्ठी में बंद कर कहिए कि इसका ज़हर उतर चुका है। इस बात की काट मशहूर पर्यावरणविद् सुनीता नारायण की सीएसई यानी ‘सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवॉयरर्मेण्ट’ रिपोर्ट ने उजागर की। इस विश्वसनीय संस्था के मुताबिक कार्बाइड के कारखाने से तकरीबन साढ़े तीन किलोमीटर दूर की बस्तियों के भी भूमिगत जल में भारतीय मानक से चालीस गुना ज्यादा कीटनाशक है। इनमें पारा, क्लोरीनेटेड बेंजीन जैसे जहरीले तत्त्व हैं। जबकि फैक्ट्री परिसर में भारतीय मानक से 561 गुना ज्यादा कीटनाशक मौजूद हैं।
सरकार की मंशा इस गैस त्रासदी को भूल जाने की है। वह बरसी के मौके पर दिखावटी आह-ऊह से काम चलाने की चालाकी में है। वह नहीं चाहती कि इस मसले पर अमेरिकी कंपनी को और घसीटा जाए। वह अमरिका संग बढ़ते नजदीकी रिश्तों के मद्देनजर इस भीषणतम घटना को तिलांजलि देने से भी नहीं चूक रही है। अफ़सोस की केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय की भी परवाह नहीं की जिसमें एक लाख पीड़ितों के बीमा कराने संबंधी सुझाव शामिल थे। केन्द्र सरकार ने सिर्फ 47 करोड़ डॉलर को बतौर हर्जाना स्वीकार कर कंपनी को दोषमुक्त घोषित कर दिया है।
हमारी मंशा अमेरिकन कंपनी को बेवजह कसूरवार ठहराने की नहीं है। दोषी कंपनी पर लांछन मढ़ना गैरवाज़िब होता, अगर यह महज दुघर्टना होती। दरअसल, भोपाल काफी पहले से ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा था। एक सजग पत्रकार राजकुमार केसवानी की इस बाबत 16 जून 1984 को एक शोधपरक लेख ‘जनसत्ता’ में छपा था, जिसका शीर्षक ही था, ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’। इससे पूर्व उनका एक लेख 17 सितंबर 1982 को ‘रपट साप्ताहिक’ में छपा जिसका शीर्षक था, ‘बचाइये हुजूर, इस शहर को बचाइए’। यह पत्रकार की स्वयं भुगती पीड़ा की उपज थी। दिसंबर 1981 में कार्बाइड फैक्ट्री में काम करने वाले करीबी मित्र मोहम्मद अशरफ़ की फॉस्जीन गैस से हुई मौत को उन्होंने गंभीरता से लिया। साल भर की खोजी तफ़्तीश से जो चीजें सामने आई। उसे उन्होंने काफी मशक्कत के बाद 1982 में विधानसभा में भी उठवाया। लेकिन यह मसला घोर लापरवाही की भेंट चढ़ गया।
आज भी हम नहीं चेते हैं। हम खुद मौत के आगोश में कब घसीट लिए जाएं, कुछ अता-पता नहीं। हमारा शहर पूरी तरह सुरक्षित है, इस बात की गारंटी भला कौन देगा? भोपाल की गैस त्रासदी भी पहली वारदात नहीं थी और न ही पिछले साल ही इंदौर में हुई दो मजदूरों की मौत दूसरी घटना। 5 अक्तूबर 1982 को भी यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में गैस का रिसाव हुआ था। आस-पास के अंतःवासियों को अस्पताल ले जाने तक की नौबत पैदा हो गई थी। अक्सर हम भूल जाते हैं कि हर बड़ी घटना छोटी-छोटी घटनाओं के पूर्वाभ्यास के बाद ही विस्फोटित होती हैं। लेकिन न तो सरकारी अमला कुछ पुख़्ता करने की सोचता है और न स्थानीय प्रशासन के पास इतनी दूरदर्शिता है कि वह ऐसी त्रासदी से निपटने के लिए कोई ठोस पहल या उपाय कर सके।
सवाल मौज़ूं है, तो क्या हम इसी तरह बेमौत मारे जाते रहेंगे? हमारी जिंदगी से ऐसा घिनौना खिलवाड़ यों ही बदस्तूर जारी रहेगा? आखिर हम खशफ़हमी के चिराग तले कब तक अपनी आवाज को गले के भीतर घोंटते रहेंगे? अपनी चारदिवारी की ताकत को कब तक पैमाना मान इत्मिनान की सांस लेंगे? क्या भोपाल त्रासदी एक शहर विशेष की दुर्घटना थी? क्या यह केवल गरीबों को ही मौत का दावत देने निकली थी? क्या
इसने शहर के धनाढ्य तबके को दर्द और कराह नहीं दी? नहीं, यह पीड़ा सार्वजनिक और सभी वर्ग-समुदाय के लिए एक समान थी। इस दौरान पूरा देश हिल गया था। फिर इसके खि़लाफ भोपाल गैस पीड़ितों को ही क्यों आंदोलन और मुहिम जारी रखना चाहिए? पूरा देश इसके लिए एकजुट क्यों नहीं? हर शहर, जहाँ इस तरह की कंपनियाँ अपना कारोबार कर रही हैं, उन्हें सही तरीके से काम करने के लिए क्यों न मजबूर किया जाए? पर्यावरण में विषैले तत्त्व घोल आम-आदमी का जीवन नरक करते ऐसे औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर तत्काल प्रभाव से रोक और अंकुश क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए?
ऐसा किया जाना बेहद जरूरी है, ताकि भविष्य अतीत से सबक ले सके। वह काली तारीख़ फिर से नमूदार न हो। हवा में आफत और बेचैनी न हो। यों तो हमारी उम्मीदें रोज दरकती और टूटती हैं। बावजूद इसके हमें उम्मीद है कि हम उस काली लहर को इतिहास के उस काली रात तक ही नज़रबंद रखेंगे, जिसने कभी न याद करने योग्य ऐतिहासिक वारदात और खौफनाक मंजर को अंजाम दिया था।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...