Tuesday, September 22, 2015

हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य पर विद्यार्थियों से दो बात

रजीबा की क्लास

भारतीय परिक्षेत्र से बाहर और भारत के सभी क्षेत्रों में हिन्दी बोले जाने वाली एक संख्याबहुल भाषा है। संख्याबहुल मतलब जिसे बहुत सारे लोग बोलते हैं; अपने भाव, विचार एवं दृष्टि में बड़ी आसानी से बरतते हैं। यह सहजता हिन्दी भाषा की खूबसूरती है यानी प्राणतत्त्व। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिन्दी लिखावट और उच्चार दोनों में सादृश्यता रखती है। इस भाषिक वैशैष्टिय के कारण यह बेहद सुघड़ और सजीव हुआ करती है। देखिए, दुनिया की हर भाषा से मनुष्य की लगाववृत्ति जन्मजात होती है। भाषिक सामथ्र्य मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मना कूटीकृत होते हैं। भाषा-अर्जन की प्रवृत्ति मनुष्य में इसी कारणवश है। भाषा का शाब्दबोध एक अर्थपूर्ण इन्द्रधनुष रचता है। रूपबोध, रंगबोध, गंधबोध, ध्वनिबोध आदि का मूल कारण भाषा है। अनुभूति और अभिव्यक्ति में फांक, फर्क अथवा फेरफार को भाषा ही जतलाती है, संकेत करती है। भाषा दुविधा एवं द्वंद्व निवारण की दवा है। यह एक प्रयुक्तिजन्य औजार है, एक मानवसुलभ सुविधा है।

भाषा के माध्यम से मनुष्य प्रकृति के विभिन्न रूपों, प्रकृति की विभिन्न गतियों, प्रकृति की विभिन्न मुद्राओं का सफल अंकन करता है। लिपि एक जरूरी साधन है। दुनिया में भाषा की तरह लिपि भी अनेकानेक हैं। इसीलिए विद्वानों का कहना है कि लिपि की उत्पत्ति भाषा की उत्पत्ति से बहुत बाद में हुई। लिपि मानव समुदाय का महत्त्वपूर्ण आविष्कार है। लिपि की उत्पत्ति से पूर्व भावाभिव्यक्ति का दायरा बोलने और सुनने तक सीमित था। मनुष्य की उत्कट अभिलाषा रही होगी...तभी तो उसने सोचा कि उसके ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी भाव-विचार दूर-दूर तक पहुँचे और इन्हें भविष्य के लिए संचित किया जा सके, उनका संरक्षण किया जा सके। इस आवश्यकता की पूर्ति करना उनका लक्ष्य बन गया और आगे चलकर यही मनुष्य के लिपि के आविष्कार की प्रेरणा बनी।

पारिभाषिक रूप में लिपि को देखना चाहें, तो हम कह सकते हैं कि भाषा के उच्चाित रूप को निर्धारित प्रतीक चिह्नों के माध्यम से लिखित रूप देने का साध नही लिपि है अर्थात् भाषा के लिखने का ढंग लिपि है। लिपि मनुष्य द्वारा अपने भावों, विचारों, अनुभवों आदि को सम्पे्रषित करने का दूश्य माध्यम है। हम विश्व की विभिन्न भाषाओं और लिपियों को देखें, तो इनमें से कुछ इस रूप में वर्गीकृत की जा सकती हैं:
भाषा: लिपि
हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली ः देवनागरी
उर्दू, अरबी ः फ़ारसी, अरबी
पंजाबी ः गुरुमुखी
अंग्रेजी, फें्रच, स्पेनिश, जर्मन ः रोमन
रूस, बुल्गोरियन ः रूसी

हमें लिपि के सन्दर्भ में चर्चा करते समय इस बात को जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि अकेले भारत में अनेक लिपियाँ प्रचलित हैं, जैसे: देवनागरी, बांगला, तमिल, तेलुगु, मलयालम, गुरुमुखी आदि। इन लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। भारतीय विद्वानों का इस सम्बन्ध में जो दृष्टिकोण है....उसकी बात करें, तो ब्राह्मी के प्राचीनतम नमूने अर्थात् शिलालेख ईसा से 500 वर्ष पूर्व के प्राप्त होते हैं और 350 ईस्वी तक इसका यह स्वरूप प्रचलित रहा।

.......यह हरि अनंत, हरि कथा अनंता की तरह है; बाकी चर्चा फिर कभी। 

Friday, September 11, 2015

नवजागरण के अंतःद्वीप

--------------
(रजीबा की क्लास)

नवजागरण की असल ताकत का अंदाजा लगाने के लिए कुछ प्रवृत्तियों पर ध्यान देना आवश्यक है। यथा: 

ब्रह्मसमाज-सुधारवादी दृष्टिकोण, 
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र: देशज भाषा का प्रताप
आर्यसमाज-तार्किकता,
ज्योतिबा फुले-कर्मकाण्ड विरोध,
 विवेकानंद-आध्यात्मिक अन्तर्भावना का उद्बोधन
श्री अरविन्द: अतिमानस की सहजानुभूति
रवीन्द्रनाथ टैगोर: अंतःअनुशासनिक एवं अंतःप्रेरित राष्ट्रवाद
तिलक-तेजस्विता,
 गांधी-विनयशीलता,
 भगत सिंह-क्रांतिधर्मिता,
 प्रेमचन्द-गतिशील जीवनदृष्टि,
अम्बेडकर-अस्पृश्यता निवारण 

उपर्युक्त चुनिंदा कारकों को बौद्धिक दृष्टि से ‘अंडरस्टिमिट’ किया जाना अमानुषिक होने का परिचायक है। अतः आइए इस पर समग्र विचार-दृष्टि से बात करें। हम प्राचीन परम्परा के पोषण में प्रवृत्त (अंध)तत्वों अथवा सनातन धर्म के (अंध)अनुकरणकर्ताओं पर बिना गंगाजल उलीचे उन कारकों की पहचान करें जिससे नवजागरण की मुकम्मल पहचान बनी। बौद्धिक जागरण, स्वतन्त्रता की आकांक्षा, सुधारवादी दृष्टिकोण एवं लोककल्याणकारी वैचारिकी का उत्थान-उत्कर्ष सही मायने में संभव हुआ। इसके लिए आलोचकीय अनुशासन जरूरी है। विवेक-विक्षोभ की सम्यक् दृष्टि होना अनिवार्य है। अन्यथा फिसलन भरे मौजूदा ज़मीन पर गिर जाने अथवा कीचड़ से सन जाने का खतरा जबर्दस्त है। .... 

Tuesday, September 8, 2015

अध्यापक


......

एक घण्टे की कक्षा। आफ़त जबर्दस्त। विद्यार्थी चाव से सुनते हैं। उनके अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतराल है। बीच-बीच में बतियाने की कोशिश। उन्हे जानने का प्रयास। वह कुछ बोले, तो जानें। बाकी सब सुघड़। मनोरम। अति उत्तम। मैं छात्रों को नया दे पा रहा हूं, कह पा रहा हूं...यह बाद की बात है। लेकिन इतना सीखा कि अध्यापक बोलने से पहले अंतहीन कठिनाइयों से जूझना सीखता है। बिना सीखे वह सीखा ही नहीं सकता। कुछ दे ही नहीं सकता। 

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...