Monday, June 30, 2014

आम-आदमी की वास्तविक ज़िन्दगी को ‘रील लाइफ’ न माने


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29 जून को 'हिन्दुस्तान' समाचारपत्र में प्रकाशित सम्पादकीय ‘सरकार को सिनेमा मत बनाइए’ के सन्दर्भ में

आदरणीय शशि शेखर जी,
प्रधान सम्पादक,
हिन्दुस्तान समाचारपत्र।

आजकल मल्टीप्लेक्स सिनेमा संस्कृति फल-फूल रही है। लेकिन आम-आदमी उसका हिस्सा नहीं है। सामान्य रहबसर से कटी हुई नवढ़ा पीढ़ी जो कि विशेषतः सुविधा-सम्पन्न वर्ग से ‘बिलांग’ करती है; को यह रंग-ढंग सर्वाधिक सुहाता है। उसकी जेब में रुपल्ली कितना, कैसे, क्यों और कहाँ से आती है....यह पड़ताल करने का विषय मेरा नहीं है। परन्तु यह सचाई है कि इस पीढ़ी के ऊपर घर-परिवार के लिए कमाने की जिम्मेदारी नहीं है। यह नवढ़ा पीढ़ी अक्सर सपनों के ख़्वाबगाह में जीती है और थोड़ी-सी भी मुसीबत गले पड़ने पर टूट कर जार-जार बिलखने लगती है। बाज़ार इस पीढ़ी के लिए सबसे माकूल चारागाह है जहाँ वह हर हफ़्ते पार्टी-सार्टी कर सकता है; लव-शव-डेटिंग की प्लानिंग कर सकता है; वह सब सुख-सुविधा और ऐश्वर्य भोग सकता है जिसकी इज़ाजत उसके पर्स, एटीएम, क्रेडिट कार्ड आदि देते हैं।

खैर! यह मामूली-सी बात हिन्दुस्तान समाचारपत्र के प्रधान सम्पादक शशि शेखर को नहीं पता हो, यह सोचना अपनेआप में ही अजीब लगता है। ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र में 29 जून को ‘आजकल’ स्तंभ से प्रकाशित अपने सम्पादकीय ‘सरकार को सिनेमा मत बनाइए’ के आखि़री पैरे में आप सूत्रनुमा लहजे में कहते हैं-‘‘आशय यह है कि केन्द्र सरकार मल्टीप्लेक्स में लगा हुआ सिनेमा नहीं है, जिसे पहले शो, पहले दिन या पहले हफ़्ते की कमाई से नापा-जोखा जाए। नरेन्द्र मोदी ने कुंभकर्णी नींद में सोए प्रशासन को जगा दिया है। वह और उनके सहयोगी दिन-रात एक किए हुए हैं। थोड़ा इंतजार कीजिए। सत्ता-नायकों को भी सही परिणाम देने के लिए समय की दरकार होती है।’’

आप सही हैं। लेकिन इंतजार से पहले सत्ता-नायकों की ठीक-ठीक पहचान होनी भी जरूरी है। याद कीजिए...17 मई, 2014 को लिखी हुई अपनी ‘बाॅटम स्टोरी’ जिसका आपने बड़ी सूझ-बूझ से शीर्षक डाला था-‘नरेन्द्र मोदी के नए अवतार ने तोड़े तमाम सियासी मिथक’। यह स्टोरी पूरी तरह ‘जादूई यथार्थवाद’ के प्रभाव और रौ में लिखी हुई लगती है या फिर ‘भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला’ के भक्ति-भाव में रंगी-डूबी हुई। आपने ‘स्पीन डाक्टर्स’ की भूमिका जैसे लगते तेवर में लिखा है-‘‘यहाँ भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के कमाल पर भी नज़र डालनी होगी। आडवाणी ने उनके सत्तारोहण पर सरेआम उम्मीद जताई थी कि वे 2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का परचम फहरायेंगे। सिंह ने समूचे सिंहत्व के साथ असम्भव को सम्भव कर दिखाया। इसीलिए इस बार मतदाता ने खुद के सारे बंधन तोड़ डाले हैं। इस बार वोट देश के लिए डाले गए न कि सूबाई, साम्प्रदायिक, भाषाई या जातीय आग्रहों के लिए।’’

यह पत्रकारीय अनुभव की साफ-सूथरी, निष्पक्ष अथवा वस्तुनिष्ठ आकलन-मूल्यांकन नहीं है। आपने ‘सिंह के सिंहत्व’ की भाषिक शब्दावली दुराग्रह/पूर्वग्रह के साथ प्रयोग में लाया है ताकि ‘मोदी के मोदीत्व’ वाले प्रभाव का ‘काउंटर’ किया जा सके। अन्यथा, आपके सुर अगली ही पंक्ति में शंकालु न हो जाते-‘‘नरेन्द्र मोदी ने भी शुरुआती रुझानों में जीत का रंग चोखा होता देख ट्वीट किया-‘भारत की विजय। अच्छे दिन आने वाले हैं।’ क्या वाकई?’’ द्वंद्व ठीक है, अंतर्विरोध सही है; लेकिन चरित्र में दुहरापन या विरोधाभास से बचना नितान्त जरूरी है। जिन शंकाशास्त्रियों यानी ‘कुछ लोगों’ को लक्ष्य कर आपने यह सम्पादकीय लिखा है यह बात उनके सन्दर्भ में भी सौ टके वाजिब और खरी मानी जाएगी।

एक और बात आपने अपनी सम्पादकीय में ‘पहले मारे सो मीर’ मुहावरा प्रयोग में लाया है। बचपन में हम भी ‘जो पहले खाई सोई राजा’ के ललक संग थाली से कवर उठाते थे। लेकिन अब उस बचकानेपन से ज़िन्दगी नहीं जी या गुजारी जा सकती है। आपने ठीक कहा है कि जंग जीतने के लिए हालात से लोहा लेना पड़ता है। बकौल आप-‘‘बरसों बाद ऐसा हुआ है, जब जाति, धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय और भाषाओं के आग्रह पीछे छूट गए। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और असम से अरब सागर तक लोगों ने वोट की शक्ल में उन्हें अपनी उम्मीदों का अक्षय-पत्र सौंपा। आशा है कि वह बिना समय गंवाए देश की जन-भावनाओं के अनुरूप काम करेंगे।....नरेन्द्र मोदी को मनमोहन सिंह से कंपकंपाती अर्थव्यवस्था मिली है, पर निराश होने की जरूरत नहीं है।’’

आप यहीं नहीं रूकते हैं। आपको पता है कि देश की स्थिति नाजुक है। बीमार व्यक्ति के लिए ‘इमरर्जेंसी’ का अर्थ तत्काल राहत होता है। अर्थात् ‘फास्ट रिलिफ’ बिना किसी लेकिन, किन्तु, परन्तु के। तभी तो आप अपने सम्पादकीय(18 मई, 2014) में सच को कुछ इस तरह नमूदार करते हैं-‘‘यकीनन, नरेन्द्र मोदी को तेजी से अपना एजेण्डा लागू करना होगा। महंगाई और बेरोजगारी लोगों को जीने नहीं दे रही, नए रोजगार सृजित नहीं हो रहे और ऊपर से रुपए की गिरावट ने हमारी अर्थव्यवस्था को बेहाल कर रखा है। अनेक राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें हैं। उनका सहयोग हासिल करना भी एक चुनौती होगी। उम्मीद है, मोदी का अनुभव और दृढ़ संकल्प उनकी राह हमवार करेगा। हालांकि, इस सबके लिए नरेन्द्र मोदी के पास समय बहुत कम है। हमारे देश की युवा पीढ़ी बेताब है। सोशल मीडिया जिस तरह उनका मोह बढ़ाता है, वैसे ही उसे भंग भी कर देता है। फिर अगले कुछ महीनों में हरियाणा, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर में चुनाव होने हैं। ये चुनाव उनकी पहली अग्निपरीक्षा होगी।’’

भारतीय जनता बेहद धीरजधर्मी है। वह अपनी ज़िन्दगी को ‘रील लाइफ’ नहीं मानती है। उसे बख़ूबी पता है कि-‘‘दिल्ली की सत्ता सदन में बैठे शख्स के हाथ में जादू की छड़ी होती है, जिसे वह हिलाएगा और महंगाई सहित सारी दिक्कतें दूर हो जाएगी।’’ दरअसल, सारी दिक्कत उन कथित बौद्धिक विशेषज्ञों और राजनीतिक विश्लेषकों के साथ हैं जिन्हें पहली बात बोलना नहीं आता और जो बोलते हैं उसका दूरगामी, ठोस एवं निर्णायक कोई अर्थ नहीं होता। फिलहाल, आप अपनी सोच को नई सरकार की धारा में बेवज़ह बहने से रोकें। आप इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि-‘‘आत्मप्रशंसा और खुशामद राजनेताओं की सबसे बड़ी शत्रु हैं।’’(01 जून, 2014) मोदी सरकार बनने के एक माह के भीतर आपने सम्पादकीय पृष्ठ पर आने वाली अपनी  तस्वीर का ‘पोज-पोजिशन’ बदला दिया है.....शशि शेखर जी, हमें पुराना वाला सम्पादक चाहिए जो चुनाव-पूर्व ‘आओ राजनीति करें’ की घोषणा करता है; तदुपरान्त ‘अब राजनीति ख़त्म, काम शुरू’ करने जैसी पत्रकारीय भूमिका का विधान रचता है; यदि वह ‘सिंह के सिंहत्व’ या ‘मोदी के मोदीत्व’ की राजनीति में फँस गया, तो फिर इन राजनीतिक शख़्सियतों का नीर-क्षीर मूल्यांकन कौन करेगा?

यदि आप इस पत्र को प्रकाशन योग्य समझें, तो मुझे अपनी ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ सम्बन्धी मूल्य एवं प्रतिबद्धता को आपका वास्तविक संबल और सहयोग प्राप्त हो सकेगा। आशा है, आप स्वस्थ एवं सानंद होंगे।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005

Wednesday, June 25, 2014

नदी और चिड़ियाँ


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(देव-दीप के लिए)

चिडियाँ हीक भर
पानी पीती है
और नदी चिड़ियाँ के बोल सुन
तृप्त होती है अन्दर तक

नदी जिसने हर ताप को सह कर
सीखा है ठंडा रहना
कल-कल मृदु-भाव से बहना
बाधाओं से लड़ना...चुनौतियों से टकराना
उसी भाँति चिड़ियाँ ने जाना है
आदमखोर मनुष्यों के जमात से बचना
मौसम के बयार के विपरीत
आकाश में उड़ना...अंतधर््यान हो जाना

देव-दीप, आदमी की तरह
अधिक जानने और कुछ भी न करने से
कितना अच्छा है!
नदी और चिड़ियाँ होना....?

Friday, June 20, 2014

पत्राचार राजीव और NBT आॅनलाइन के बीच

NBT ऑनलाइन को चाहिए कॉपी एडिटर/सीनियर कॉपी एडिटर

नवभारतटाइम्स.कॉम को उपसंपादक (कॉपी एडिटर) और वरिष्ठ उपसंपादक (सीनियर कॉपी एडिटर) की जरूरत है। एनबीटी अपने लिए ऐसे साथी चाहते हैं जिन्हें काम का अनुभव हो। एनबीटी को फ्रेशर से भी कोई परहेज नहीं है, बस उनके मानकों पर खरा उतरे। जर्नलिजम में डिप्लोमा या डिग्री जरूरी नहीं लेकिन आज की पत्रकारिता क्या है, इसकी जानकारी उन्हें होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में उनकी पत्रकारिता की दुनिया सिर्फ मोदी-राहुल-कांग्रेस-बीजेपी तक सीमित न हो बल्कि आसपास की हर खबर की भी उनको समझ हो।
हिंदी ऐसी हो कि आम पाठकों को समझ में आए और श्रीमती को श्रीमति न लिखता हो। अंग्रेज़ी का ज्ञान इतना कि सही-सही ईमेल लिख पाए और इंग्लिश से हिंदी में अनुवाद कर पाए। अंग्रेजी के शब्दों से नफरत न करता हो और डॉक्टर को डाक्टर न लिखता हो।
टेक्नॉलजी से जो न घबराता हो। टि्वटर और फेसबुक जिसके लिए दूसरी दुनिया के शब्द न हों। और इनस्क्रिप्ट/फनेटिक कीबोर्ड के अनुसार टाइप करना जानता हो।
अगर आप ऐसे हैं तो अपना रेज़्युमे (जी हां, इसे रिज़्यूम नहीं कहते) इस ईमेल अड्रेस- nbtonline@timesinternet.in पर 13 जून 2014 तक भेज दें। साथ में किसी भी पसंदीदा टॉपिक पर 500-700 शब्दों में एक लेख भी भेजें। लेख मंगल फॉन्ट में होगा तो सुविधा होगी वरना साथ में फॉन्ट भी भेजें। कुछ जानना हो तो भी इसी अड्रेस पर मेल करें। रेज़्युमे भेजने के लिए ईमेल का सब्जेक्ट रखें- copy editor/senior copy editor.
एनबीटी के लिए नए साथी की उम्र 25-28 के आसपास हो। अच्छे कैंडिडेट के लिए दो साल का ग्रेस हो सकता है।
आखिर में एक ज़रूरी बात। भूलकर भी किसी की सिफारिश न लगवाएं। ऐसा होते ही आपकी ऐप्लिकेशन 101 पर्सेंट रद्द हो जाएगी। न सिर्फ इस बार के लिए बल्कि हमेशा के लिए।
(साभार :  नवभारतटाइम्स.कॉम)
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 Wed, Jun 4, 2014 at 12:18 PM
सम्बन्धित को सम्बोधित
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महोदय/महोदया,

‘अच्छे कैंडिडेट’ होने की स्थिति में क्या आप अच्छे कैंडिडेट को दो वर्ष
से अधिक का ग्रेस(अच्छा किया, यदि हिन्दी में 'छूट' शब्द  लिखते तो समझ
में नहीं आता अच्छे कैंडिडेट को) दे सकते हैं? आजकल रेज़्युमे के नाम पर
लोग लाम-लिफाफा(यदि भारत के किसी गाँव-कस्बे में पैदा हुए हों, तो इस
शब्द के अर्थ से अवगत होंगे) बहुत करते हैं। क्या बिना रेज़्युमे भेजे भी
इस पद के लिए आवेदन किया जा सकता है?

एक और ज़रूरी बात। यदि आप बुरा न मानने वाले प्राणी हों, तो आपको बताऊँ कि
कृप्या आप अपने शब्दों के प्रयोग में एकरूपता बरतें;
यथा-अंग्रेजी/अंग्रेज़ी/इंग्लिश। अन्यथा आप भी श्रीमती को श्रीमति लिखने
या डाॅक्टर को डाक्टर लिखने वाले ‘महानुभाव’ ही अंततः साबित होंगे। अंत
में मैं अपनी ओर से आपके सेहत और प्रसन्नता के लिए ईश्वर से 101 प्रतिशत
कामना करता हूँ। सिर्फ इस बार के लिए नहीं हमेशा के लिए।

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221 005
मो0- 07376491068
ई-मेल: rajeev5march@gmail.com

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Fri, Jun 20, 2014 at 5:59 PM 
नमस्ते,
रेज़्युमे के आधार पर यहां कोई निर्णय नहीं होता। सारी परख साथ में भेजे गए
लेख के आधार पर ही होती है। और वह लेख चोरी का है या मौलिक, इसको जांचने के
तरीके भी हमारे पास हैं। यदि इसके बावजूद कोई धोखेबाज़ लिखित परीक्षा के लिए
चुन लिया जाए तो भी वह हमारे यहां होनेवाले टेस्ट में तो पकड़ा ही जाएगा।
आपने कोई लेख नहीं भेजा इसलिए मैंने सोचा कि आपके पत्र के आधार पर ही आपकी
भाषा की परख कर लूं। आपने अंग्रेज़ी और अंग्रेजी के अंतर को देखा, इसके लिए
धन्यवाद। लेकिन अंग्रेज़ी और इंग्लिश एकसाथ नहीं लिखे जा सकते, इससे मैं सहमत
नहीं। एक ही स्टोरी में आप आरोप भी लिख सकते हैं और इल्ज़ाम भी। एक ही शब्द
बार-बार आने से पाठक को बोरियत होती है।
यदि आपने कृपया को कृप्या और आपकी सेहत और प्रसन्नता की जगह आपके सेहत और
प्रसन्नता नहीं लिखा होता तो मैं आपको इस पत्र के आधार पर ही लिखित परीक्षा
के लिए बुला लेता।
संपादक
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 Fri, Jun 20, 2014 at 11:10 PM
आदरणीय सम्पादक,
‘नवभारत टाइम्स’

महोदय,

जवाब प्रेषित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद! इस प्रत्युत्तर को मैं अपने
शोध-कार्य से सम्बन्धित अध्यायी-अनुभाग ‘हिन्दी समाचारपत्रों द्वारा बरती
जाने वाली भाषाई संवेदनशीलता’ के अन्तर्गत सुरक्षित रख रहा हूँ। आप ने
मेरी शाब्दिक भूलों के लिए जो दण्ड दिया है, मैं उसका निश्चय ही पात्र
हूँ। अपने इस कृत्य के लिए मैं माफ़ी माँगता हूँ। भविष्य में ऐसी भूल
दोबारा न हो, इसके लिए मैं हरसंभव सावधानी बरतने की चेष्टा करूँगा। आशा
है, आप स्वस्थ एवं सानंद होंगे।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद

Thursday, June 19, 2014

आम-आदमी


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रोटी बनाने के लिए
जितनी गूँथीं जाती हैं आटा
भात बनाने के लिए
जितनी धोई जाती है चावल
घर भर के अंदाज से
जितनी काटी जाती है तरकारी थाल में
राजीव, आम आदमी को हर रोज
अपने लिए उतना ही जीना चाहिए
बाकी चिंताएँ छोड़कर कल पर....!
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-राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, June 17, 2014

मेरी गौरेया

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पढ़ती है गौरेया
कहाँ अक्षर.....?
लिखती है गौरेया
कहाँ लिपि.....?
भाषा और माध्यम की भेद भी
कहाँ जानती है गौरेया?
मेरी गौरेया
नहीं माँगती है दाना-पानी के सिवा कुछ भी ‘एक्स्ट्रा’
अपने लिए, खुद के लिए
पिछले 12 सालों से मेरी गौरेया
मेरे साथ है
और मैं अपनी गौरेया से बेफिक्र
सुबह से शाम तक
आरम्भ से अनन्त तक
लस्त-पस्त हूँ
अक्षर, लिपि और भाषा में
आज गौरेया ने पिराते मन से कहा है-
यह बियाबान जंगल
जिससे तुम आदमी होने की तमीज सीखते हो
जार दो, फेंक दो, बहा दो पानी में
और उड़ चलो आकाश में
उस असली राह पर
जहाँ रोशनाई रहती है
अनन्त...अनन्त....अनन्त बनी हुई!!

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-राजीव रंजन प्रसाद

Saturday, June 14, 2014

अज्ञेय : बच रही जो बात


बात है
चुकती रहेगी
एक दिन चुक जायेगी ही बात!

जब चुक चले तब
उस बिन्दु पर
जो मैं बचूँ
(मैं बचूँगा ही!)
उसको मैं कहूँ-
इस मोह में अब और कब तक रहूँ?
चुक रहा हूँ मैं।

स्वयं जब चुक चलूँ
तब भी बच रहे जो बात-
(बात ही तो रहेगी!)
उसी को कहूँ!
यह संभावना-यह नियति कवि की सहूँ।

एक याचक पिता का पत्र अपने पुत्र के नाम

प्रिय दीप,

आज देव के साथ नहीं अकेले तुमसे संवाद करना चाहूँगा। 10वीं पास किए 16 साल हो गये। उतनी ही जितनी कि उम्र में हाईस्कूल पास किया था। स्कूल टाॅप किया था। बेरोजगारी अंतिम सचाई है उसी तरह जिस तरह आज डाॅक्टर ने कहा है कि तुम बिना ‘हियरिंग मशीन’ के नहीं सुन सकते। एक हफ़्ते की भागदौड़ और जाँच रिपोर्ट के बाद यह पता चलना बेहद दुःखद है कि मेरा बेटा साफ आवाज़ साफ-साफ बोलने पर भी बिना कान में मशीन लगाये नहीं सुन सकता है। रोई तुम्हारी मम्मी दिन भर। और मैं। अवाक्। हतप्रभ। कितना अनसुना किया। अपनी कैरियर बनाने के गुमान में तुम्हारा भविष्य दाँव पर लगा दिया। तुम्हारे जन्म वाले दिन मैं बीएचयू में प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता का बतौर विद्यार्थी होने के नाते ‘हाॅस्टल फीस’ जमा कर रहा था। हमारे और तुम्हारे बीच अनुपस्थिति, रिक्तता, शून्यता इत्यादि ढेरों रही। जब एम. ए. का गोल्ड मेडल तुम्हारे गले में डाला तो तुम्हारी माँ ने कहा था-‘यह खाने के लिए नहीं दे देगा, इसे निहार-निहार कर आदमी पेट नहीं पाल सकता है, ज़िदगी भर खुश नहीं रह सकता है।’ मैं सुनता किसकी हूँ तुम्हारी माँ का भी नहीं सुना। आज डाॅक्टरी पर्ची में कहा गया है कि-‘आपका बच्चा बिना हियरिंग मशीन के आपको सामान्य बच्चों की तरह कभी नहीं सुन सकता है।’

दीप, इस बार 25 जुलाई को तुम सात वर्ष के हो जाओगे। लेकिन, मैं अभी तक बिना काम-धंधा का हूँ। जिस काम में खुद को रोप रखा हूँ उसकी कोई कीमत नहीं है। बीएचयू की वैकेंसी साल भर पहले निकली थी जिसमें मेरा होना लोगों ने कहा तय है...लेकिन यह कब होगा यही बस तय नहीं है। मेरे बच्चे, अब यह सब बर्दाश्त नहीं होता। अकादमिक दुनिया में बड़ी महीन राजनीति चली जाती है। सत्य और ईमान की बात करना ही आजकल शिक्षा का उद्देश्य है। उसे अमली जामा पहनाने और पहनने वाले गायब हैं। शिगूफ़े में ज़िदगी कटती है। हवाओं में ‘अच्छे दिन’ का बवण्डर नाचता है।....ज़िदगी ऐसे ही चलती जाती है। यही आज का सच है और तुम्हारा पिता भी इसी सच का शिकार है।

दीप, मैंने सबके लिए बहुत कुछ किया। लेकिन गिनती शून्य। कठघरे में मैं; मेरा मनोबल, संकल्प, दृढ़इच्छाशक्ति, साहस और आत्मविश्वास है। मैंने 1999 ई. से लिखना शुरू किया। दिल्ली प्रेस की पत्रिका ‘सुमन सौरभ’ में दो दर्जन कहानियाँ प्रकाशित हुई। सोचा, हम दुनिया बदलने के लिए लिख रहे हैं। मेरा स्वयं को इस राह पर रखना कितना महँगा पड़ा है, इसका सिला तुम्हें भी भुगतना पड़ रहा है। अपने काम के प्रति जवाबदेह रहने वाला लड़का आज अपने लिखे-पढ़े का ही शिकार है। मेरे चारों ओर पत्र-पत्रिकाओं के कतरन उड़ रहे हैं-सुमन-सौरभ, सरस सलिल, मुक्ता, सबलोग, मीडिया विमर्श, कादम्बिनी, समकालीन तीसरी दुनिया, समकालीन जनमत, समागम, परिकथा, अक्षर पर्व, नव निकष, प्रभात ख़बर, जनसत्ता.....!

दीप, मेरा कमरा इतने पत्र-पत्रिकाओं और किताबों से भरा है कि यदि उसी में मुझे ढाँक-तोप कर फूँक दिया जाये, तो राम नाम सत्य हो जाएगा। खैर! मैंने अपने काम में गुणवत्ता की हमेशा मान रखी, जितनी मेरी क्षमता है। लोग कहकहे लगा सकते हैं, लेकिन मेरे समक्ष खड़ा होकर कुतर्क करने की हैसियत किसी में नहीं है। मैं जो जानता हूँ और जितना जानता हूँ, उस पर स्वस्थ बहस कर सकता हूँ। लेकिन, ज़िदगी सिर्फ बहस-मुबाहिसे, वाद-विवाद संवाद, चिन्तन-विमर्श से नहीं चला करती है। उसके लिए यथार्थवादी दृष्टिकोण और अंतःदृष्टि के अतिरिक्त भी चीजें जुटानी पड़ती है। पौआ और पाँवपूजी के लिए अपने को तैयार करना पड़ता है। आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ने वालों की बहुत बुरी गत होती है....मेरी भी हो रही है; लेकिन, मुझे अपनी शर्तों के अलावा किसी के शर्तों पर जीना पसंद नहीं है। मेरे लिए शायद! जीना इसी का नाम है। अपने बारे में मैं और कुछ नहीं कहना चाहता हूँ। तुम मुझे सही समझो या ग़लत; मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ और मुझे तुम्हारी दी हर सजा कबूल है।

तुम और देव चीरंजीवी होवो, यशस्वी होवो; शुभकामना!

तुम्हारा अकमासुत पिता
राजीव  

कुछ भी नहीं होता अचानक, यूँ ही


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आप को भूख न लगी हो
और खाना खाने के बारे में सोचने लगे
आप को ज्वर न हो
और डाॅक्टर दिखाने लगे बढ़ा हुआ तापमान
आप को उबकाई न आ रही हो
और लोग आपके मुँह के आगे छान दे कटोरे

प्रिय राजीव,
कुछ भी नहीं होता अचानक, यूँ ही
फाॅल्ट होने पर ही समस्या उत्पन्न होती है
रास्ता गड़बड़ होने पर ही ‘रूट डाइवज्र्ड’ होता है
मामला बिगड़ने पर ही हाथापाई की नौबत आती है
आप सच बोलें और लोग उस पर विश्वास न करें
यह भी तभी होता है जब आप बोलते हैं बिलावजह या बेवज़ह

प्रिय राजीव,
कुछ भी नहीं होता अचानक, यूँ ही
कि आप भाषा में गाते रहे और लोग कान न दें।

Monday, June 9, 2014

थोड़ा इनके ‘डिटेलिंग’ पर ध्यान दें:

शैक्षणिक संस्थानों के गिरमिटया मज़दूर नहीं हैं शोध-छात्र!

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‘‘....उस(कोई भी हो सकता है, यहाँ मोहनदास) का पूरा संघर्ष एक बेगानी धरती पर एक अनजाने और आम-आदमी का संघर्ष था। हर विस्थापित आदमी को, चाहे वह अपने देश में हो या विदेश में, संघर्ष करना पड़ता है भले ही देशकाल की दृष्टि से परिमाण या गुणात्मकता में अन्तर हो। हर कोई अपने जीवन में एक निर्धारित, अनिर्धारित या अल्प निर्धारित उद्देश्य की तरफ बढ़ने का उद्यम करता है। उसके लिए त्याग करता है, पीड़ाएँ सहता है, आकांक्षाएँ पालता है। जो भी संभव हो, जरूरी, गैर-जरूरी सबकुछ करता है।....’’

यह अंश गिरिराज किशोर लिखित पुस्तक ‘पहला गिरमिटिया’ का है। गाँधी जी के दक्षिण अफ्रीका में बिताए हुये जीवन पर केन्द्रित इस उपन्यास की चर्चा पर्याप्त मात्रा में हुई है। आप इस किताब से अवश्य परिचित होंगे। यहाँ यह उद्धरण उन शोध-छात्रों के निमित प्रस्तुत है जो अपने अकादमिक अभिलक्ष्यों की प्राप्ति हेतु वह हर टिटिमा(जो भी संभव हो, जरूरी, गैर-जरूरी सबकुछ) करते हैं जिसका किया जाना साँस लेने, भोजन करने, पानी पीने, टहलने-घूमने अथवा बातचीत-बहस आदि में शामिल होने की माफ़िक ही अनिवार्य/अपरिहार्य बनाये जा चुके हैं।..........(जारी...,)


(‘रजीबा को गुस्सा क्यों आता है?’ पांडुलिपि से साभार)

शोध-पत्र : भारतीय लोकतंत्र में जातिवादी सामन्ती सोच है, सीमान्त के लिए मानवीय सोच नहीं है.....!!!

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भारत में लोकतंत्रनुमा सामन्ती रियासत है। इस रियासत में पाँचसाला चुनाव होते हैं। लेकिन, इन प्रान्तीय/राष्ट्रीय चुनावों में जनता की वास्तविक हिस्सेदारी क्या है और कैसी है? यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। सचाई की धरातल पर थोड़ा नैतिक मनोभाव से विचार करें, तो भारतीय जन सामन्तशाही के कुचक्र में इस कदर फँसे हैं कि उन्हें चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दे रहा है। पार्टियाँ सत्ता के केन्द्र में लगातार बदलती रहती हैं, लेकिन गाँधी के ‘अन्तिम जन’ की स्थिति में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होता है। दरअसल, राजनीति में वंशवाद विषबेल की तरह पनपा हुआ है। यह वंशपूजक विधान भारतीय लोकतंत्र का स्थायी भाव या कि चरित्र बन चुका है। कुनबापरस्ती अथवा भाई-भतीजावाद की यह प्रवृत्ति इस कदर खतरनाक है कि इससे हमारी समष्टीय स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मानवीय गुण लगातार चोटिल हो रहे हंै।

सन् 47 में स्वाधीन हुए भारतीय लोकतंत्र में आज भी अर्थ अथवा शक्ति-सम्पन्न जातियों का वर्चस्व है। इस नाजायज़ चैधराहट को राजनीतिक शह मिले होने के कारण देश की बहुसंख्य पिछड़ी एवं दलित जातियाँ तमाम तरह की यातानाओं-अत्याचारों की शिकार है। एक बड़ी आबादी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से मरहूम है; बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है, वह पलायित है, विस्थापित है अथवा खनाबदोश जनजातियों की भाँति किसी प्रकार अपना गुज़र-बसर करने को अभिशप्त हैं। लेकिन, लोकतंत्र के अहाते में पौ फटते नहीं दिखाई दे रहे हैं। दुर्भावनाग्रस्त और श्रेष्ठताग्रंथि की शिकार जातियाँ आर्थिक-सामाजिक मजबूती के स्तर पर पूरी तरह फीट-फाट हैं। अतएव, राजतंत्र का शासकीय बर्ताव उदीयमान है। अच्छे लोगों के ‘अच्छे दिन’ अच्छे से गुज़र रहे हैं।

यह कहना बेहद सालता है, किन्तु सचाई यही है कि देश में आज भी 85 प्रतिशत सीमान्त किसान बदहाली की राह पर हैं। उनकी भूमि पर कब्जा केवल 1.5 हेक्टेयर है। उन्हें कोई ऋण नहीं देता है। वे बाज़ार तक नहीं पहुँच पाते हैं और जब बाज़ार पहुँचता है, तो वहाँ बैठे दलाल और मुनाफाख़ोर सक्रिय हो जाते हैं। नतीजतन, वास्तविक मूल्य उस किसान को कभी नहीं मिल पाता है। इसलिए जहाँ किसानों की अपनी ज़मीन भी है, वहाँ भी वे बंधुआ मजदूरों की तरह काम कर रहे हैं। दरअसल, आज राजनीति न्यूनतम आज़ादी और सुविधा की शर्त पर अपने विरोधी को ज़िन्दा रखने का एक शातिराना उपक्रम चलाए हुए है। वर्तमान समय में भारतीय जनता आर्थिक विषमता एवं सामाजिक भेदभाव की मनोदशा एवं मनःस्थिति से पीड़ित है। स्वातंन्न्योत्तर भारत में जनतांत्रिक सत्ता की स्थापना का जो खेल हुआ; उसका लाभ सवर्णवादियों और सामन्तवादियों को छोड़कर दूसरे वर्ग के लोगों को सायासतः होने ही नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ है कि लोकतंत्र का हालिया सूरत बदहाली के भावमुद्रा में जड़बंध है। सवर्णवादी लोगों ने कार्यिक स्तर पर अवाम के लिए समान नीति-निर्देशक तत्त्व बनाए हुये हैं; लेकिन अपने लिए ‘बेयाॅण्ड दि बाउण्ड्री’ बहुत सी सहूलियतों की लम्बी-चैड़ी फ़ेहरिस्त कायम कर रखी है।

सन् 1990 ई. में भारत में नवउदारवाद की आँधी में घोर जातिवादी कमण्डल की पकड़ ढीली हुई, तो मंडल कमीशन को सुगबुगाने का समय मिल गया। सामाजिक वर्चस्व की एकतरफा दीवारें दरकने लगी। मंडल के विरोध की तक़रीरे गढ़ी गई; लेकिन मूल समस्या कुछ और थी जिससे निपटने के लिए इस मुद्दे को अपने हाल पर ज्यों का त्यों छोड़ दिया गया; और इस तरह ‘आरक्षण’ का बोतलबन्द जिन्न बाहर निकला और इस तरह आमजन में उपेक्षित लोगों को भी सरकारी कुर्सीयों पर बैठने का अधिकार हासिल हो गया। उन दिनों सबसे गम्भीर संकट जातिवादी लोकतंत्र के लिए यह उत्पन्न हुआ कि अब पूँजी सत्ता को केन्द्रीय महत्त्व का विषयवस्तु माने जाने लगा। इसके जवाबी कार्रवाई के बतौर कुछ अनैतिक/असामाजिक जातदारों ने पागल हाथी टाइप वहशी ‘शार्प-शूटरों’ को पालना शुरू कर दिया।बाद में इन पोसुआ हैवानों की टोली लोकतंत्र के सेहत के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुईं। ...और इस तरह भारत में ‘राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण’ बतौर मुहावरा एक नारे की तरह चर्चित हो गया।

वर्तमान राजनीति में बाहुबलियों/दागियों की घुसपैठ जिन वजहों से हुई है; वस्तुतः उनमें एक बड़ी वजह ‘सत्ता-सम्पन्न जातदारों’ के मन में समाया हुआ ‘असुरक्षा बोध’ और ‘आत्महीनता की स्थिति’ है। भ्रष्टाचार उसी की अंदरूनी प्रवृत्ति और अभिव्यक्ति है। दरअसल, राजनीति में घुसी यह जातदारी प्रवृत्ति मौजूदा चुनाव(लोकसभा चुनाव-2014) में जिस तरह आलोकित-प्रलोकित हुई है; उसे देखते हुए भविष्य की राजनीति का जो खाका मन-मस्तिष्क में बनता है; वह बेहद खौफ़नाक और दहशतज़दां है। कहने को तो हमें ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा ख़ूब लुभा रहा है; लेकिन, वास्तविकता में यह सिर्फ और सिर्फ प्रवंचना साबित होने वाला है...और कुछ नहीं। यदि मेरी यह राय ग़लत साबित होती है, तो समझिए ...सिंहासन खाली हो चुकी है और जनता उस पर आसीन हो गई है!!!

आइए, उस पर इस शोध-पत्र के अन्तर्गत विवेकसम्मत एवं वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार करें...!



(...शेष फिर कभी)

Sunday, June 8, 2014

सत्यजीत रे का सिनेमाई दौर और भारतीय हिन्दी सिनेमा

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बात ‘अप्पू त्रयी’ से भी शुरू की जा सकती है। लेकिन मैं आपके कहे हिसाब से शुरू करूं, यह कद्रदानी अभी तक मैंने नहीं सीखी है। सो, अपने रंग-रोगन के साथ जरा प्रवेश करें भारत में बनने वाले फिल्मों के स्टुडियों में। आजकल अधिकतर सिनेमा मटरगश्ती के टमाटर हैं।(पान सिंह तोमर, लंच बाॅक्स, हाइवे....जैसी फ़िल्में को मत गिनाइए, प्लीज) जरा मजाकिया टोन में कहें तो-‘होंठ रसीले...तेरे होंठ रसीले' वाले तर्ज पर। आप उन्हीं में गला तर कीजिए; लेकिन उनसे मन भरूआ जाए, तो जरा इन फिल्मों की ‘डिटेलिंग’ भी देखिए....! यहां महज उस दुनिया के चंद तरई भर पेश हैं, सारा आकाश आप ही का है...यात्रा कीजिए न!
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बांबे टाकीज द्वारा बनाई गई ‘अछूत कन्या’ (1936) फिल्म ने भारतीय समाज के एक कटु सत्य को बखूबी पेश किया था। लोगों ने इसे खूब पसंद किया। सभी जानते हैं कि राष्ट्रवादी आंदोलन में जब सामाजिक मुक्ति का स्वर मुखर होने लगा तब ‘अछूत कन्या’ बनी। इसी तरह प्रभात फिल्म कंपनी द्वारा ‘दुनिया न माने’ बनाई गई। उन दिनों महाराष्ट्र में अधेड़ व्यक्तियों द्वारा किशोरी बालाओं से विवाह रचाने का चलन आम था। सामाजिक चेतना उत्पन्न करने वाली प्रभात फिल्म कंपनी की यह क्रांतिकारी फिल्म थी। ‘अमृत-मन्थन’ को भी हम याद कर सकते हैं। इसमें नरबलि के विरोध में आवाज उठाई गई थी। समाज को सार्थक संदेश देने वाली ऐसी फिल्में केवल शुरूआती दशक में ही नहीं बनीं। बल्कि, लगातार ऐसी फिल्में आती रही हैं। चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ (1946) में कामगारों और मालिकों के संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया था। आगे के दशकों में वी. शान्ताराम, विमल राय, राजकपूर, गुरुदत्त ने ऐसी फिल्मों को नई ऊंचाई प्रदान की। सुजाता (1959) में विमल राय ने देविका रानी से अधिक प्रामाणिक अछूत कन्या (नूतन) को प्रस्तुत किया। ‘बंदनी’, ‘आवारा’, ‘जागते रहो’, ‘मदर इंडिया’ आदि कई उदाहरण हैं। बीसवीं शताब्दी में भारत तेजी से बदलता रहा। लगातार भारतीय समाज खुद को नए सांचे में ढालता गया। ऐसे में सिनेमा का बदलना लाजमी हो जाता है, जो हुआ भी। हां यह सच है कि बदलाव में सिनेमा गांव, समाज से कटकर कुछ ज्यादा ही व्यावसायिक हो गया और लोगों की रूचि को विकृत भी करने लगा। फिर भी ‘मृत्युदंड’, ‘भूमिका’, ‘अर्थ’, ‘आक्रोश’, ‘पार’, ‘आंधी’, ‘बाज़ार’, ‘मिर्च-मसाला’, ‘निःशब्द’, ‘रेनकोट’  जैसी फिल्में आती रहीं। वैसे तो हिन्दी की समानान्तर फिल्मों ने कई बेहतरीन उदाहरण सामने रखे हैं। किन्तु इसका दायरा हमेशा सीमित ही रहा। ये फिल्में आम लोगों में कम ही लोकप्रिय हो पाईं। गुलजार की पंजाब के आतंकवाद पर आधारित फिल्म ‘माचिस’ हमें कई कोणो से सोचने पर मजबूर करती है। गोविंद निहलानी ने नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर लिखे महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ पर एक फिल्म बनाई। यह इतिहास के ताजातरीन दौर के प्रसंग का पुनर्चित्रण है। ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’, ‘हासिल’ और ‘यहां’ जैसी फिल्में आती रहीं। ऐसा महसूस होता है कि प्रवृत्तिगत राजनीति के दबाव से अब सिनेमा मुक्त होने की कोशिश में है। राजनीति के नए आयामों को छूने की जिम्मेदारी अब नई पीढ़ी के फिल्मकारों के जिम्मे अधिक है। वी. शांताराम द्वारा 1942-43 के आस-पास ‘पड़ोसी’ फिल्म बनाई गई थी। इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी। पुराने लोग बतलाते हैं कि 1948 में जब ‘पड़ोसी’ भागलपुर के चित्रपट सिनेमा हाल में लगी तो शहर में हो रहे दंगे समाप्त हो गए थे। वैसे तो बाजार का दवाब यहां भी रहा। किन्तु, निर्माताओं ने इस रंग के साथ कभी खिलवाड़ नहीं किया। ‘बाम्बे’, ‘मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर’, ‘दामुल’ जैसी फिल्में इसकी बेहतरीन उदाहरण हैं। विमल राय, गुरुदत्त, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, सईद मिर्जा की कई फिल्में इसकी प्रमाण हैं।

बाज़ारू तरक्की के साये में ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र

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अब अख़बार बेचने में लगे हैं ‘मैगी मसाला’


अब अच्छी बातें कहने का चलन ख़त्म हो गया, गन्दी बात साधिकार कहे जाने का युग है। बाज़ार के विरोध में मुँह खोलना आसान नहीं है। लेकिन जिसने मुक्तिबोध के कहे को साधा है-‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे मंदिर और मठ’; उसके लिए यह सब करना खुद से हीक भर मुहब्बत करना है....खैर!

बात हिन्दुस्तान समाचारपत्र की है। यह वही समाचारपत्र है जिसने हाल ही में अपने लोकप्रिय परिशिष्ट ‘अनोखी’ के साथ ‘मैगी मसाला’ मुफ़्त में देना शुरू किया है। कोई अतिरिक्त कीमत नहीं। बिल्कुल निःशुल्क। यानी अब विज्ञापन सिर्फ उत्पाद को देख कर एक बार ‘ट्राई’ कर लेने का मनुहार भर नहीं कर रहा है, बल्कि उस उत्पाद को सीधे आपके हाथों में सौंप रहा है।
टूर कवरेज फाॅर कैश
इसी तरह ‘हिन्दुस्तान’ अख़बार ने अपने पाठकों के छुट्टियों का विशेष ख्याल रखते हुएख़बरनुमा टूर-पैकेज प्रस्तुत किया है। इस ख़बर में विभिन्न ट्रैवेल्स कंपनियों का फोन-पता टिपा हुआ है; साथ में उनके विशेष पैकेज को भी बढ़ी सधी हुई भाषा में विशेष रिपोर्ट के रूप में छापा है। इसे पढ़कर सामान्य पाठक भले आहत हो; लेकिन संभ्रान्त कहे जाने वाले लोगों के लिए यह घर बैठे मनचाहा वस्तु पा लेने जैसा है।

दरअसल, हाल के दिनों में अख़बारों ने सामान बेचने का नया तरीका ईजाद किया है। वे अपने पाठकों को मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने घेरे में लेने लगे हैं। पाठक मोहित और चमत्कृत है कि उसे अख़बार यह परामर्श दे रहा है कि आपके शहर का कौन-सा कोचिंग सेन्टर अच्छा है; उसके विभिन्न परीक्षाओं में परिणाम कैसे रहे हैं? आपकी पहुँच इन शिक्षण-संस्थानों तक आसानीपूर्वक कैसे हो? यह सब ऐसे परोक्ष माध्यम हैं जो अख़बार में पढ़ने पर विज्ञापन नहीं लगते हैं, लेकिन होते ये ‘पेड न्यूज़’ ही हैं। यदि आप इन सब ख़बरों को पढ़ते हुए चिढ़ते नहीं हैं; यदि इन ख़बरों से आपके बच्चे का भविष्य सुनहला हो रहा है, यदि आप इन ख़बरों को पढ़कर अपनी ज़िन्दगी को पहले से अधिक खुशनुमा, आसान और महत्तवपूर्ण बना पा रहे हैं तो निश्चय ही अख़बारी तरक्की के इन नये तौर-तरीके का स्वागत किया जा सकता था; लेकिन, यहाँ मामला ठीक उलट है। आइए, इस बिन्दु पर थोड़ा ठहरकर पुनर्विचार करें।

Friday, June 6, 2014

मैं आपकी झुलनी बजाऊँ...यह मुझसे नहीं होगा

 बीएचयू ‘रिक्रूटमेंट एण्ड असेसमेन्ट सेल’ को निम्न जवाब भेजे एक वर्ष हो गया। लेकिन, इस सम्बन्ध में न मुझे कोई जवाब मिला और न ही साक्षात्कार हेतु बुलावा-पत्र ही प्राप्त हुआ। प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता विषय के अन्तर्गत विज्ञापित सहायक प्राध्यापक पद के लिए बतौर आवेदक मैंने हरसंभव प्रतीक्षा किया। आपको भी लग रहा है न कि अब बहुत हो गया....छोड़ दिया जाए। एक झटके में पाँच पूर्ण हुए अध्यायों को ‘डिलीट’ कर उन्हें फिर से लिखना शुरू किया जा सकता है; वनस्थली विद्यापीठ को अपनी जरूरी ‘नोटिंग’ लगाकर उन्हीं  शर्तो के आलोक में साक्षात्कार हेतु बुलाने का आग्रह किया जा सकता है, तो फिर यह क्यों नहीं?

i. Details of significant conribution to knowledge :
1.    सूचनावान-पीढ़ी => ज्ञानवान पीढ़ी
मेरी दृष्टि में भारतीय अकादमिक जगत के शैक्षिक-सांस्कृतिक गतिकी का यथार्थवादी दृष्टिकोण से मूल्यांकन-विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान सदी सूचना-सदी है। सूचना-आधिक्य अथवा सूचनाक्रान्त स्थिति में विभ्रम होना तय है। भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन में संलग्न लोगों पर इसी सूचनावान-पीढ़ी को ज्ञानवान-पीढ़ी बनाने की महती जिम्मेदारी है यद्यपि यह चुनौतीपूर्ण कार्य है। 

2.    ज्ञान का व्यावहारिक अनुप्रयोग:
मेरे लिए ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द पर आधृत चिन्तन-दृष्टि है। प्रत्येक मनुष्य के अन्तर्मन में विद्यमान ये वे अभिकारक हैं जो हमारे भीतर विषय-विशेष से सम्बन्धित ज्ञान को उद्बुद्ध, उद्दीप्त और उद्भासित करते हैं। ज्ञान, कर्म और अर्थ की पारस्परिक अन्तक्र्रिया द्वारा ही इस व्यावहारिक जगत का संचालन होता है। अतः मन, वाणी और कर्म का एकान्वयी होना और विशिष्ट प्रयोजनमूलक क्षेत्र में संकल्पबद्ध गति से ज्ञान का व्यावहारिक अनुप्रयोग है।

3.    अन्तर-अनुशासनिक एवं नवाचार आधारित शिक्षा:
21वीं शताब्दी में शिक्षा के मानदण्ड तेजी से बदले हैं; विचारों का अन्तरराष्ट्रीयकरण हुआ है, तो दूसरी ओर अन्तर-सांस्कृतिक कार्यकलापों में भी खासे परिवर्तन हुए हैं। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी(I&CT) की लहर और तरंग(संचारविद् आल्विन टाॅफ्लर के शब्दों में ‘Thied Wave’) वर्तमान समय की सबसे बड़ी सचाई है। कंप्यूटर, इंटरनेट और वेबसाइटों की तिकड़ी ने पारम्परिक शिक्षा के ज्ञान-अभिकेन्द्रों के समक्ष जबर्दस्त चुनौती पेश की है। यहाँ ध्यान देने योग्य विषय यह है कि नवाचार(innovation) आधारित इस पेशकश ने मानवीय-कौशल का प्रबन्धन कुशलतापूर्वक किया है। आज जनमाध्यम की सत्ता या कि प्रभुतत्त्व निर्विवाद रूप से ग्राह्î है।

4.    नवोन्मेष आधारित शोध-अनुसन्धान में अभिवृद्धि:
किसी भी विषय या अनुशासन के ज्ञान-दायरा में संवृद्धि के लिए शोध या अनुसन्धान-कार्य जरूरी है।  ज्ञान के नये सन्दर्भों का प्रादुर्भाव या कि ज्ञान के पुराने सन्दर्भो का नवीनीकरण इसी प्रक्रिया से संभव है। भारत में उच्च शिक्षा विशेषतया मानविकी क्षेत्र में शोध-अनुसंधान की स्थिति और दशा औसत से निम्न कोटि की है। अतः वर्तमान शोध-परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन की दिशा में चिन्तन अपरिहार्य है। द्रष्टव्य है कि शोध-प्रक्रिया के अन्तर्गत सूचनाओं, आँकड़ों अथवा जानकारियों को संकलित/संगृहीत किया जाना शोधकार्य का अनिवार्य हिस्सा है; किन्तु यह किसी शोध-अनुसन्धान का संभावित निष्कर्ष नहीं है। वर्तमान शैक्षिक-परिवेश में संभावित और समयानुरूप बदलाव से ही उच्च शिक्षा के वर्तमान धरातल पर ज्ञान के नए प्रारूप विकसित एवं सृजित किए जा सकते हैं। अतः शोध-कार्य एवं शोध-प्रविधि के स्तर पर नवोन्मेषी(innovative) एवं अन्तर-अनुशासनिक(interdisciplinary) अभिगम को अपनाया जाना महत्त्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में इन पर पूरी संजीदगी और सहृदयता के साथ विचार किया जाना चाहिए।

ii. Evidence of being activity engaged in research or innovation or in teaching methods or production of teaching material :

मैं अपने 'पत्रकारिता एवं जनसंचार' विषय के बहुआयामी अध्ययन-क्षेत्र और लेखन-कार्य से गहरी संवेदना, दृढ़इच्छाशक्ति एवं सक्रियता के साथ सम्बद्ध रहा हूँ। राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं एवं आॅनलाइन वेबपत्रों में मेरा रचनात्मक योगदान लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ रहा है। समसामयिक मुद्दों, घटनाओं, चर्चित आयोजनों, रचनात्मक गतिविधियों इत्यादि में मेरी सदैव सहभागिता रहती है। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि मेरे शोधकार्य का प्रस्तावित विषय अन्तर-अनुशासनिक प्रकृति का है। अतएव, मेरे शोधाध्ययन एवं लेखन-सम्बन्धी कार्यक्षेत्र का कैनवास विस्तृत और व्यापक जनसमूह से सम्बन्धित है। मैं अपने लेखन-कार्य के अन्तर्गत संचार और पत्रकारिता विषय के अतिरिक्त राजनीति, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान, कला, दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति इत्यादि की अर्थच्छटाओं और जीवनानुभवों को प्रतिबिम्बित या पुनःरचित करने की हरसंभव चेष्टा करता हँू। यह मेरे अकादमिक विचार-सरणि और चिन्तन-प्रक्रिया का हिस्सा है। अन्यत्र उल्लिखित शोध-पत्रों के अतिरिक्त इस दिशा में मेरे कार्य एवं कतिपय प्रकाशित लेख/आलेख के शीर्षक एवं प्रकाशन सम्बन्धी विवरण निम्नांकित हैं:
1.    देखने हम भी गए थे...तमाशा न हुआ     ः समकालीन तीसरी दुनिया; मार्च, 2013 अंक।
2.    अमरीकी इरादों का डीएनए टेस्ट जरूरी    ः सबलोग; जुलाई, 2011।
3.    प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए     ः कादम्बिनी; जुलाई, 2011।
4.    बिहार का जनादेश                      : सबलोग; जनवरी, 2011।
5.    कोरिया बनाम कोरिया,
       अमेरिका की बढ़ती दखलंदाजी             : जनमत; दिसम्बर, 2010।


iii. Experience of Industry/NGOs or Professional Field which should include innovation and/or Research Development:

वर्तमान समय में मैं पूर्णकालिक शोधकार्य में संलग्न हँू। संचार क्रान्ति और वैश्वीकरण के अधुनातन दौर में जनसंचार माध्यम ऐसा व्यवहार क्षेत्र है जिसमें हिन्दी की विभिन्न प्रयुक्तियाँ देखी जा सकती है। अब यह स्थापित हो चुका है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रयुक्त हिन्दी भाषा में वे सभी अवयव हैं जो हिन्दी के व्यवहार क्षेत्रों में प्रायः प्रयुक्त होते हैं। किसी भी स्तरीय हिन्दी समाचार पत्र में राजनीतिक, प्रशासनिक, व्यावसायिक, वाणिज्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, पारिभाषिक, कृषि, साहित्यिक, सांस्कृतिक आदि प्रमुख प्रयुक्तियों के साथ ही सम्पादकीय, सम्पादक के नाम पत्र, रूपक, खेलकूद समाचार, फिल्म समीक्षा, विज्ञापन, शेयर आदि की विशिष्ट लेखन शैलियाँ भी परिलक्षित की जा सकती हैं।

यदि मुझे इस पाठ्यक्रम के शैक्षणिक-प्रकार्य का हिस्सा बनने का सुअवसर मिलता है तो मेरी प्राथमिकताएँ निम्नांकित होंगी:
 
(क) टेलीविज़न, रेडियो, फिल्म कंप्यूटर और नवमाध्यम से सम्बन्धित गम्भीर अध्ययन-अध्यापन और वे अछूते विषय जो वर्तमान सूचना-सदी में अपनी निर्णायक भूमिका के लिए जाने जा रहे हैं; से सम्बन्धित विषय-पत्र को आरंभ किए जाने सम्बन्धी योजना को प्रस्तावित करना। इससे विद्यार्थियों में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के सूचना-प्रकम को समझने में हरसंभव मदद मिल सकेगी तथा वे जनमाध्यम आधारित अनुप्रयुक्त संचार के महत्त्व और विशिष्टता को भी जान सकेंगे।

(ख) उन सर्जनात्मक गतिविधियों को अधिकाधिक प्रोत्साहन प्रदान करना जिनसे विद्यार्थियों के आन्तरिक व्यक्तित्व का विकास संभव हो सके तथा उनमें सामाजिक-संवेदनशीलता और मानवीय चेतना से सम्बन्धित शीलगुण में परिवर्तनकामी अभिलक्षण विकसित हो सकें।

(ग) उन प्रयासों को संवलित करना जिनसे विद्यार्थियों में हिन्दी भाषा के प्रयोग एवं प्रयुक्ति से सम्बन्धित स्वाभाविक रुझान, जिज्ञासा और ज्ञान-अभिरुचि की भावना को जाना जा सके तथा उन्हें विकसित करने की दिशा में आवश्यक पहलकदमी की जा सके। 

(घ) ‘कक्षा अन्तक्र्रिया’ के व्यावहारिक पक्ष पर सैद्धान्तिक गहराई के साथ-साथ ध्यान केन्द्रित करना। इसके लिए सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी में विद्यार्थियों की दक्षता में अभिवृद्धि पर विशेष ध्यान आकृष्ट करना।  

Wednesday, June 4, 2014

कुल टिटिमा एक अदद नौकरी के वास्ते

सिक्किम विश्वविद्यालय
विज्ञापन सं.:SU/NT/ADVT/2013-14/512, dated 7th June, 2013.
पद नाम: सहायक प्राध्यापक
विषय: जनसंचार एवं पत्रकारिता   
श्रेणी: अत्यन्त पिछड़ी जाति


दिनांक: 13 फरवरी, 2014

सम्बन्धित को सम्बोधित
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महोदय/महोदया,

मैं, राजीव रंजन प्रसाद, वर्ष 2010 में ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय के अन्तर्गत राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा कनिष्ठ शोध अध्येयता(NET/JRF) उपाधि के साथ उत्तीर्ण कर चुका हँू। इससे पूर्व मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ही प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) विषय से परास्नातक उत्तीर्ण किया है। अपनी कक्षा में सर्वोच्च प्राप्तांक(लगभग 70 प्रतिशत) प्राप्तकर्ता होने के कारण मुझे विश्वविद्यालय ने ‘स्वर्ण पदक’ से सम्मानित किया है। इस समय मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ‘संचार और मनोभाषिकी’(युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में) शोध-शीर्षक से अपना अन्तर-अनुशासनिक शोधकार्य कर रहा हूँ। यह ध्यानाकर्षण-पत्र सिक्किम केन्द्रीय विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञापन संख्या:SU/NT/ADVT/2013-14/512 दिनांक 7 जून, 2013  के अन्तर्गत सहायक प्राध्यापक पद हेतु मिले साक्षात्कार-पत्र के सन्दर्भ में संकेतित है।

साक्षात्कार-पत्र में निर्देशित सूचना के अनुसार मुझे दिनांक 24 फरवरी, 2014 को अपराह्न 1 बजे; कचंनजंघा मैनेजमेंट ब्लाॅक; सिक्किम विश्वविद्यालय में उपस्थित होना है। मैं इस सन्दर्भ में अपनी ओर से यह कहना चाहता हूँ कि मेरी अभिरुचि एवं सक्रियता अन्तर-आनुशासनिक अनुसन्धान एवं अकादमिक गतिविधियों में पूर्णकालिक है। इसके अतिरिक्त मैं विशेषतः समसामयिक घटनाओं, मुद्दों, समस्याओं इत्यादि के वस्तुपरक विवेचन-विश्लेषण एवं तथ्य-आधारित जनमत-निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी बनता रहा हूँ। यह संलग्नता मेरे पत्रकारीय योग्यता एवं प्रशिक्षित व्यक्तित्व का व्यावहारिक प्रकार्य है जिसकी मूल चेतना मैंने अपनी मातृभाषा हिन्दी से ग्रहण अथवा अर्जित की है। अतएव, मैं साक्षात्कार के अन्तर्गत भाषा-विभेद के बिन्दु पर किसी प्रकार की कोई बात नहीं करना चाहता हूँ। पिछले वर्ष अकादमिक संसार(उच्च शिक्षा के क्षेत्र में) में मेरा अभी तक का पहला साक्षात्कार हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुआ; किन्तु मुझे हिन्दी भाषा का योग्य आवेदक होने के कारण अंतिम रूप से चयनित नहीं किया गया जबकि अंग्रेजी भाषा में दक्ष/प्रवीण/निष्णात एक भी आवेदक मेरी बराबरी की योग्यता नहीं रखते थे। खैर! मैंने इस साक्षात्कार हेतु ‘पाॅवर प्वांइट’ प्रस्तुति  की अपनी तैयारी पूरी कर ली है। इस प्रस्तुति का मुख्य लक्ष्यार्थ वर्तमान देशकाल, परिवेश एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में ‘पत्रकारिता एवं जनसंचार’ विषय की उपयोगिता एवं उपादेयता को सर्वतोमुखी एवं सार्वभौमिक बनाने वाले कारकों को चिन्हित करना है। यथा-आई.सी.टी., डिजिटलाइजे़शन, वर्चुअलाइज़ेशन, इनोवेशन, इंटेलेक्चुअल्स प्रोपर्टी राइट, डेवलपमेंट सपोर्ट कम्यूनिकेशन, काॅरपोरेट कम्यूनिकेशन, वूमेन्स डेवलपमेन्ट एण्ड इम्पाॅवरमेन्ट, यूथ, कल्चर एण्ड एजुकेशन इत्यादि।

वर्तमान ज्ञान-प्रणाली, शैक्षणिक क्रियाकलाप, अन्तर-अनुशासनिक अनुसन्धान-कार्य एवं नवाचार आधारित कौशल-निर्माण की समस्त पद्धतियों पर समग्रतापूर्वक विचार करते हुए देखें, तो आज का शिक्षा-तंत्र अपने बाहरी-भीतरी स्वरूप एवं संरचना में आमूल बदलाव की सर्वथा एवं सर्वोचित माँग करता दिखाई दे रहा है। विशेषतया विचार, चिन्तन, तर्क, अनुसन्धान इत्यादि क्षेत्रों में मौलिक संकल्पना एवं संप्रत्यय का सर्वथा अभाव है। हिन्दीभाषी विद्यार्थी/शोधार्थी होने के नाते हमारे पास सीमित संसाधन एवं अकादमिक मदद मौजूद है; लेकिन यह हमारी अनन्त संभावनाओं की राह में मुख्य बाधा नहीं है। अतः मैं इस पद के लिए अपनी भूमिका को इन्हीं अर्थों में जीवंत एवं अनिवार्य मानता हूँ। 

मैं यह आशा एवं उम्मीद करता हूँ कि उपर्युक्त सूचनाओं/जानकारियों के आलोक में आपके द्वारा मुझे ‘पाॅवर प्वांइट’(पी.पी.टी.) प्रस्तुति की अनुमति सहर्ष प्रदान की जाएगी। 
एतदर्थ मैं आपका सदा आभारी रहूँगा।                   

संलग्न: कवर लेटर; ‘पी.पी.टी.’ प्रजेंटेशन फाइल।

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद

वरिष्ठ शोध अध्येता,
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता,
हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी-221005।
ईमेल: rajeev5march@gmail.com

I WANT TO SCAPE FROM BANARAS HINDU UNIVERSITY!!!


"मैं बेवकूफ हँू, मैं ख़राब हूँ....लेकिन आपलोगों में से एक नहीं हूँ......!"

वीरा कितनी सही कहती है:
थैंक्यू फ़िल्म ‘हाइवे’

26 मई को मोदी को मिली भरपूर कवरेज, पर रेल दुर्घटना पर क्यों रहे मौन...


http://samachar4media.com/media-covered-the-swearing-in-ceremony-of-narendra-modi-as-prime-minister-but-not-covered-up-train-accident-on-may-26.html
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राजीव रंजन प्रसाद
मीडिया शोधार्थी, हिंदीविभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी
उस दिन तारीख थी-26 मई, 2014, नरेन्द्र मोदी जी प्रधानमंत्री पद का शपथ लेने वाले थे। यह खबर बहुत बड़ी थी। मीडिया के भाव (कीमत) उस रोज बढ़े हुए थे। अतः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने संयुक्त अभियान चलाते हुए ‘गोरखधाम एक्सप्रेस’ के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर को नजरअंदाज कर दिया। सूचनापट्टी पर एकाध लाइन आई भी, तो महज सांकेतिक। लेकिन, पाठकबहुल पत्रिकाओं को क्या हुआ? ये पत्रिकाएं तो पाठकों द्वारा खूब पढ़ी और सराही जाती हैं। पाठक-वर्ग का उन पर अगाध विश्वास भी कायम है।......

Tuesday, June 3, 2014

काॅरपोरेट पत्रिकाएँ : अमानुषिकता की सुनहरी(?) इबारतें


26 मई, 2014 नरेन्द्र मोदी जी प्रधानमंत्री पद का शपथ लेने वाले थे। यह ख़बर बहुत बड़ी थी। मीडिया के भाव(कीमत) उस रोज बढ़े हुए थे। अतः इलेक्टाॅनिक मीडिया ने संयुक्त अभियान चलाते हुए ‘गोरखधाम एक्सप्रेस’ के दुर्घटनाग्रस्त होने की ख़बर को नज़रअन्दाज कर दिया। सूचनापट्टी पर एकाध लाइन आई भी, तो महज़ सांकेतिक। लेकिन, पाठकबहुल पत्रिकाओं को क्यों लकवा मार गया? ये पत्रिकाएँ तो पाठकों द्वारा खूब पढ़ी और सराही जाती हैं। पाठक-वर्ग का उनपर अगाध विश्वास भी कायम है।

नज़र दौड़ाइए:

आउटलुक    1-15 जून, 2014; सम्पादक: नीलाभ मिश्र
इंडिया टुडे    1-11 जून, 2014; प्रधान सम्पादक: अरुण पुरी
शुक्रवार        30 मई से 05 जून, 2014: ‘हिन्दी का श्रेष्ठ समाचार साप्ताहिक’ पत्रिका; सम्पादक: उदय सिन्हा
तहलका        1-15 जून, 2014:: ‘स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्भीक’ पत्रिका; कार्यकारी सम्पादक: संजय दुबे
गवर्नेंस नाउ    1-15 जून, 2014: ‘सुशासन की आवाज़’ की पत्रिका; सम्पादक: अजय सिंह
यथावत        1-15 जून, 2014: ‘वाद-विवाद-संवाद’ की पत्रिका; रामबहादुर राय

इन पत्रिकाओं के ताज़ातरीन अंक चमचमाते पृष्ठ और खूबसूरत रंगो/रेखांकनों/दृश्यों से अटे पड़े हैं। इस वक्त शब्दों की सुनहरी इबारते सबसे ज्यादा अमानुषिक प्रतीत हो रही हैं। यह साफ दिख रहा है कि इन काॅरपोरेट पत्रिकाओं का मुनाफा चाहे जनतंत्र की बलि देकर या कि नर-बलि दे कर ही क्यों न पूरी हो, वो इस रवायत को बदलने के हामी कतई नहीं हैं। गोरखधाम एक्सप्रेस के बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त होने की ख़बर उपर्युक्त पत्रिकाओं में से किसी में भी नहीं है।

बंधुवर, होने या न होने से काफी फर्क पड़ता है: पत्रकारिता की शुचिता इसी से तय होती है: संकल्प, साहस, और विवेक की चेतना इसी पत्रकारीय-मूल्य में फलित होते हैं। कईयो से मैंने पूछा, तो उनका जवाब था-‘अरे! टेलीविज़न पर देख लिया न! हो गया। रोज तो कांड-ए-कांड हो रहा है। आप भी लगते हैं फ़ालतू का मग़जमारी करने।’ मैं हतप्रभ। अवाक्। आश्चर्यचकित। हम ऐसे कैसे होते जा रहे हैं। मीडियावी लिजलिजापन पसर रहा है। वह हमें आॅक्टोपस की तरह अपनी बलशाली भुजाओं में जकड़ हमारे छाती पर मूंग दल रहा है।
और हम यह राग गा रहे है-

'हम न मरैं मरिहै संसारा, हमकौ मिला जिआवनहारा'। 


कबीर की उक्त पंक्ति भले किसी और अर्थ-सन्दर्भ में हो। मुझे यहाँ इसका प्रयोग उचित लग रहा है। क्या हमारा इन बिन्दुओं पर सोचना नाहक है? क्या ऐसी ख़बरों को जानबूझकर काॅरपोरेट पत्रिकाओं द्वारा तरजीह न दिए जाने के मसले को उठाना बेवकूफी है? दो दर्जन लोगों की इस ट्रेन हादसे में मौत हो गई और सैकड़ों घायल हैं; इस बारे में चिन्ता जाहिर करना उल्टे मेरा ही किसी का ‘टाइम वेस्ट’ करना है? इस दुर्घटना में जिस तरह की लापरवाही होने के संकेत मिल रहे हैं; क्या उसे सामान्य मान रहने देना चाहिए? सब चुप हैं, लेकिन यह चुप्पी बेहद ख़तरनाक है।

आपकी तकलीफ बढ़ेगी.... इस घड़ी आप आना हाथ जगन्नाथ करने में मशगूल हैं,  लेकिन मैं आपसे आग्रह/निवेदन कर रहा हूँ कि मामला चाहे हत्या-बलात्कार का हो या दुर्घटना-आपदा का; यदि मौजूदा पत्रकारिता ऐसे मौके पर मानवीय रुख नहीं अपनाती है; संवेदनशीलता के जरूरी क्षण में भी वह अकर्मण्य बनी रहती है, तो निश्चय जानिए मौत के मुँह में जाने की अबकी बारी हम सबकी है.....! कवि रघुवीर सहाय की कविता के शीर्षक ‘हँसो, हँसो, जल्दी हँसो’ की तर्ज़ पर कहें, तो-‘चेतोे, चेतोे, जल्दी चेतो’।


Monday, June 2, 2014

सबै भूमि गोपाल की

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लिखने के हमें पैसे नहीं मिलते। और न ही लिखे को अपने हित-मित्रों में तवज्ज़ो, प्रतिक्रिया या फिर ऐसे ही लिखते जाने के लिए संबल। ‘सबलोग’ के दिसम्बर अंक में यह आलेख प्रकाशित हुआ। अगले माह के जनवरी अंक में ‘आम आदमी पार्टी के यूपी कनेक्शन’ के सम्बन्ध में लिखा; पर किसी की नज़र न पड़ी। बड़ी मेहनत से ‘आम आदमी पार्टी’ के नीतिगत खामियों और विचारधारा में दृष्टिगत त्रुटियों को रेखांकित करते हुए ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ को एक आलेख भेजा; किन्तु वह अंतिम समय में प्रकाशित नहीं किया जा सका। खैर!!!



भारत में भूमि-वितरण का मसला बड़ा पेचीदा है। इस सम्बन्ध में सुसंगत अथवा समकोण आधारित व्यवस्था का सर्वथा अभाव है। मनुष्य-भूमि अनुपात की यह असमान स्थिति भयावह और कई रूपों में तो अत्यन्त विद्रूप है। भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी विवाद या विदेशी भूमि खरीद(विशेष आर्थिक क्षेत्र) का हालिया अनुभव काफी बुरा रहा है। यह सरकारी-तंत्र की नाक़ामियत और शासकीय अतिवादिता का ‘आॅरिजनल डिसक्लाॅज़र’ है। मामला चाहे यूपी के भट्टा-पारसौल का हो या फिर उड़िसा के नियमागिरी का; जन-प्रतिनिधियों की पहुँच बाद में संभव होती है; जबकि काॅरपोरेट घरानांे एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रदान किया गया राज्यादेश(अधिकृत आदेश) वहाँ पहले सेंधमारी कर जाता है। हरित क्रान्ति का लिहाफ लेकर अपनी पीठ थपथपाने वाले महाबोलिसीय-सेवकों को आज के हाल-हालात के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
  
पिछले लोकसभा चुनाव के करीब आई एक रिपोर्ट में प्रोफेसर उत्स पटनायक ने यह रेखांकित करते हुए कहा था कि वर्ष 1942-43 में बंगाल के भयंकर अकाल के दौरान प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता आज की तुलना में कहीं ज्यादा थी। इस रिपोर्ट पर कान न देने वाली वर्तमान कांग्रेस सरकार इस बार ‘भूख अब इतिहास बनेगी’ नारे के साथ चुनावी मैदान में है। यह कितनी लज्जाजनक बात है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक केन्द्र सरकार तब पारित कर रही है, जब उसके पास कहने मात्र को गिने-चुने दिन शेष बचे हैं। ‘नमो नमामि‘ का राग अलापने वाली भाजपा का हाल-ए-हक़ीकत भी कमोबेश यही है। ‘गुजरात वाइब्रंेट’ में दिखावे और छलावे का ‘वाइब्रेशन’ अधिक है; स्थिरता एवं गतिशीलता का आपसी समन्वय न्यूनांश। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अपने तमाम दावे के बावजूद गुजरात सम्पन्न राज्यों की सूची में शामिल नहीं है। अन्य पार्टियों की स्थिति इससे भी बद्तर है। उनकी राजनीतिक भूमिका, महत्त्व और प्रासंगिकता दोलक में लटके उस टंगने की तरह हो चली है जो जाता दोनों पाटों के शीर्ष तक है; लेकिन, ठहरता/टिकता कहीं नहीं है।

इस घड़ी पूरा देश राजनीतिक अवसरवाद का शिकार है। ज़मीनी मुद्दे गायब हैं, और जो चर्चें में हैं उसका लोक-मन और लोक-जीवन से लेना-देना कुछ भी नहीं है। इसके बावजूद ज़मीन के सबसे ऊपरी टीले(संसद) पर काबिज़ यही लोग हैं, हाथ यही हिला रहे हैं; कमल यही खिला रहे हैं; साइकिल यही चला रहे हैं; हाथी यही कूदा रहे हैं; यहाँ तक कि ‘आप’ में भी हम शामिल नहीं हैं। हम सिर्फ संज्ञा और सर्वनाम से नवाज़े जा रहे शब्द हैं। इन शब्दों के प्रयोग में भी सत्ता की राजनीति है; अर्थतंत्र का अर्थबोध-निरोधक खेल है। युगचेतना के कवि धूमिल की सीधी किन्तु सधी भाषा में कहें, तो-‘‘उन्होंने कभी किसी चीज को/सही जगह नहीं रहने दिया है/न संज्ञा/न विशेषण/न सर्वनाम/एक समूचा और सही वाक्य/टूटकर बिखर गया है/उनका व्याकरण इस देश की/शिराओं में छिपे हुए कारकों का हत्यारा है.../वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं/उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है’’ 

इस कठिन घड़ी में लोकचेत्ता विनोबा भावे को याद किया जाना स्वाभाविक है। भावे ने भूदान और ग्रामदान के माध्यम से जो सामाजिक-आर्थिक मैत्री और क्रान्तिकारिता शुरू की थी; वह आज पूरी तरह निष्फल हो चुकी है। लिहाजा, वर्ष 1990 के उत्तरार्द्ध में हजारों किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। आन्ध्रप्रदेश के एक अकेले जिले अनन्तपुर में वर्ष 1997 से वर्ष 2009 के दौरान 2400 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। कहना न होगा कि भीमकाय नई गैर-बराबरी पहले से मौजूद असमानता को और बढ़ाने का काम कर रही है। एक शोधक-अन्वेषक की हैसियत से यदि हम औपनिवेशिक काल के दस्तावेजों को खुरचें, तो यह साफ हो जाएगा कि ब्रिटिश शासनकाल में पूँजी का इस्तेमाल ज़मीन के स्वामित्व की खरीद के लिए किया जाता था। धनी लोग ऊँची ब्याज दर पर छोटे और मझोले किसानों को कर्ज देते थे और कर्ज की राशि चुकता न कर पाने की हालत में वे उन्हें अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल कर देते थे। परिणामतः नया धनिक वर्ग ज़मीन का स्वामी बनता गया और दूसरी तरफ छोटा और मझोला किसान भूमिहीन होता गया। इसके अलावा सामंती जमींदारों द्वारा भूमि के स्वामित्व से सम्बन्धित जातीय प्रभुत्व जो सामंती प्रभुत्व के मुकाबले कहीं ज्यादा गहरे जड़ जमाये हुए था; ने गाँव में रहने वाली जनता के जीवन को और भी दारुण बना दिया।

आजादी के पश्चात कई राज्यों ने जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया जो कि अंग्रेजी शासन के दरम्यान सामंती ताकत के रूप में फले-फूले थे। उन्मूलन होने के बाद लोगों में यह आस जगना स्वाभाविक ही था कि ज़मीन के बड़े हिस्से को जमींदारों के चंगुल से मुक्त होने के बाद उनका पुनर्वितरण किया जाएगा। आसार तो यह भी थे कि इस प्रथा के उन्मूलन होने से रैयतों पर कोई अतिरिक्त भार नहीं पड़ने वाला है जो उप-करों और किरायों के रूप में जमींदार पहले वसूला करते थे। लेकिन भूमि-वितरण का सही तरीका नहीं अपनाए जाने से फायदा सिर्फ उन रैयतों को हुआ जो मध्यवर्ती जातियों से आते थे। इससे निचली जाति के बटाईदारों और मजदूरों के विशाल भूमिहीन वर्ग को कोई फायदा नहीं हुआ। नतीजतन, भूमि सुधारों को कार्यान्वित करने का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य जो ग्रामीण समाज में आर्थिक और सामाजिक न्याय की स्थापना करना भी था; पूरा नहीं किया जा सका।

रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘भारत: गाँधी के बाद’ में इस बाबत गहरी तफ़्तीश की है। वे जिक्र करते हुए कहते हंै कि-‘‘उनकी भलाई भूमि सुधार के दूसरे चरण से ही संभव हो सकती थी जहाँ एक तय सीमा से ज्यादा ज़मीन रखने पर सीलिंग(पाबन्दी) लगा दी जाती और अतिरिक्त ज़मीन भूमिहीनों में बाँट दी जाती। यह एक ऐसा काम था जिसे सरकार करने में अक्षम थी या फिर अनिच्छुक थी।’’ जबकि गाँधी इस अनिवार्य जरूरत पर जोर देते हुए अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज्य’ में इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हैं-‘‘प्रत्येक प्राणी को भोजन पाने का अधिकार है। मेरी राय में भारत के प्रत्येक व्यक्ति को पूरा काम मिलना चाहिए, ताकि वह अपना जीवन-निर्वाह भली-भाँति कर सके। और यह ध्येय सर्वत्र तभी सिद्ध किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जन-साधारण के हाथों में हों। ये साधन सब मनुष्यों के लिए उसी तरह बिना मूल्य सुलभ होने चाहिए, जिस तरह ईश्वर की उत्पन्न की हुई हवा और पानी सबके लिए सुलभ हैं या होने चाहिए। दूसरों का शोषण करने के लिए इन साधनों को व्यापार की वस्तु नहीं बनाना चाहिए। उन पर किसी देश, राष्ट्र अथवा समूह का एकाधिकार अन्यायपूर्ण माना जाना चाहिए। इस सादे सिद्धान्त की उपेक्षा करने से ही वह गरीबी और कंगाली पैदा हुई है, जो आज हम न केवल अपने इस अभागे देश में परन्तु संसार के अन्य भागों में भी देख रहे हैं।’’

संत विनोबा भावे ने इस समस्या से सन्दर्भित ज़मीनी पहलकदमी शुरू की थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भूमिहीनता की समस्या को उन्होंने अपने तरीके से हल करना चाहा। विनोबा ने जो तरीका अपनाया वह यह कि बड़े जोत वाले किसानों को स्वेच्छापूर्वक कुछ ज़मीने छोड़ देने के लिए मनाया जाए। सन् 1951 में भावे ने उस वक्त के कम्युनिष्टों के प्रभाव वाले तेलंगाना इलाके में पैदल यात्रा की। पोचमल्ली गाँव में उन्होंने वहाँ के जमींदार रामचंद रेड्डी को सौ एकड़ ज़मीन देने के लिए राजी कर लिया। इस घटना ने इसे देशव्यापी अभियान में बदलने को प्रेरित किया जिसे ‘भू-दान’ आन्दोलन कहा गया। स्वयंसिद्ध संकल्प की तरह शुरू किए गये इस आन्दोलन को विनोबा अपने अथक प्रयास से सफल बनाने में जुटे रहे। उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गाँवों की यात्रा कर लगभग 1200 एकड़ भूमि प्राप्त की।

उत्तर भारत विशेषतया बिहार और उत्तर प्रदेश में भूदान के प्रभाव अत्यन्त असरकारी साबित हुए। अपने इस भूदान यज्ञ के मार्फत विनोबा ने 40 लाख एकड़ से अधिक की ज़मीनें प्राप्त की। गाँधी के अनुयायी और प्रथम सत्याग्रही के रूप में प्रसिद्धि पाये विनोबा के लिए यह सबकुछ कर पाना इतना आसान नहीं था। वे इस बात से अवगत थे कि साधारण नागरिक में जन-सेवा की भावना ढँकी-छिपी होती है। लोकहित की प्रेरणा उनके लिए हमेशा प्रधान नहीं हुआ करती है। उन्हें इस बात का भी पूरा भान था कि दुर्बल हृदय द्रव्य के लोभ को पूरी तरह नहीं छोड़ सकता, इसलिए उसके मन की उड़ान अधिक से अधिक दान तक ही हो सकती है। त्याग की बात शायद! ही वह सोच सके। अतः यह आवश्यक था कि जनमानस को स्वैच्छिक दान के लिए उद्बुद्ध/प्रेरित किया जाये। उन्हें यह बतलाया जाये कि-जीवन भी बाँटों, मृत्यु भी बाँटों, गरीबी भी बाँटों, अमीरी भी बाँटों, काम भी बाँटों, आराम भी बाँटों, मालकियत भी बाँटों, मिल्कीयत भी बाँॅटों। विनोबा का भूदान आन्दोलन स्व-प्रेरणा के ऐसे ही प्रतिबद्ध आश्वासन और वैचारिक-योग से निर्मित हुआ था। इस आन्दोलन में सामाजिक-आर्थिक विकेन्द्रीकरण की सार्वभौम चेतना एवं जन-राग व्याप्त थी। जैसा कि दादा धर्माधिकारी मानते थे-‘‘विनोबा ने हमारी बुद्धि में इस बात का एक प्रत्यय पैदा कर दिया कि सत्ता-निरपेक्ष और शस्त्र-निरपेक्ष आर्थिक क्रान्ति की प्रक्रिया हो सकती है। गाँधी ने जिन सिद्धान्तांे को राजनीतिक क्षेत्र में लागू करने की चेष्टा की, जिनके लिए स्वदेशी और ग्रामोद्योगों का प्रतिपादन किया और अस्पृश्यता-निवारण जैसे मूल्यों के लिए हमें झाड़ू जैसे प्रतीक दिए, उन सारे मूल्यों को एक बुनियाद देने के लिए और उन्हें आर्थिक क्रान्ति के साथ जोड़ने के लिए विनोबा ने एक नए आन्दोलन का उपक्रम इस देश में किया, जिसे हम ‘भूदान-यज्ञ आन्दोलन’ कहते हैं।’’

सन् 1953 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण इस भूदान-यज्ञ का हिस्सा बने। भूदान आन्दोलन के महत्त्व और सार्थकत्त्व को सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा कि-‘‘भूदान आन्दोलन राज्य को अधिकृत करने के लिए किसी राजनीतिक दल का निर्माण करना नहीं चाहता है और न स्वयं इसका रूप लेना चाहता है। इसका लक्ष्य लोगों को यह समझाना है कि राज्य जो करता है या नहीं करता है; उससे स्वतंत्र होकर अपने जीवन में क्रान्ति करें और इस प्रक्रिया के द्वारा समाज में क्रान्ति करें। भूदान स्वयं तीव्र और गहन रूप से एक राजनीतिक आन्दोलन है। जो आन्दोलन मनुष्यों में और समाज में ऐसी पूर्ण क्रान्ति करना चाहता है, वह अराजनीतिक नहीं हो सकता। परन्तु, वह ऐसी राजनीति है जो दलों, चुनावों, संसदों एवं सरकारों की राजनीति नहीं, जनता की राजनीति है। वह राजनीति नहीं, लोकनीति है जैसा कि विनोबा कहते हैं। भूदान का अंतिम लक्ष्य एक दलमुक्त लोकतंत्र का निर्माण करना है।’’

यह सही है कि विनोबा भावे का यह मिशनरी निर्माण-कार्य बाद के कुछ वर्षों में शिथिल पड़ता हुआ दिखाई दिया। वजह यह कि विनोबा के इस याज्ञिक आन्दोलन को अंदरूनी खामियों और विसंगतियों ने सदा-सर्वदा के लिए लील लिया। शुरू में उनके इस कार्य को राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। कई लोगों ने इसे हिंसक क्रान्ति का गाँधीवादी विकल्प तक कहा। लेकिन, बाद का आकलन और परिणाम उतना उत्साहजनक नहीं था। भूदान प्रारूप के आलोचकों का कहना था कि दान में मिली ज़मीनों का वितरण ठीक ढंग से नहीं किया जा सका। जिससे अधिकतर ज़मीन भूमिहीनों तक कभी पहुँच ही नहीं पाई और कई सालों के बाद धीरे-धीरे उसे उसके मूल मालिकों को ही लौटा दिया गया। इसके अलावा भूदान में जो ज्यादातर ज़मीनें प्राप्त हुई थीं वह रेतीली और पथरीली थी जो खेती करने लायक नहीं थी। कई ज़मीने ऐसी भी थीं जो विवादों और मुकदमेबाजी के घेरे में फँसी थी। इस तरह, भूदान आन्दोलन की ज़मीन पर शुरू हुई सामाजिक-आर्थिक क्रान्तिधर्मिता एक भव्य नाकामयाबी के अन्तर्गत समाप्त होती दिखाई देती है। इस पराभव में सरकार की पंचवर्षीय योजना भी काफी हद तक जिम्मेदार थी। आर्थिक-पैमाइशकार भूमि-समस्या की स्थिति से निपटने के लिए शासन-व्यवस्था को नए-नए तरीके सुझा रहे थे; जिनमें से एक था-‘उत्पादन, वितरण और विनिमय’ के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाना।

साठ के दशक में कठिनाई और संघर्ष के जिस मार्ग पर विनोबा ने कदम बढ़ाया था, वह निश्चय ही प्रभावी और दूरगामी परिणाम दिखाने वाला था; लेकिन, उसकी संभावनाएँ परिसीमित थीं। दूरद्रष्टा भावे भूदान आन्दोलन की सीमाओं को पहचान चुके थे। अतः उन्होंने ग्रामदान के नए संकल्प-व्रत को ठान लिया। अब उनका सारा जोर लोगों को स्वावलम्बी बनाने पर केन्द्रित हो चुका था। उन्हें सैकड़ों गाँव ग्रामदान के रूप में मिले थे। अतः उन्हें यह विश्वास हो चला था कि देश के गाँव यदि स्वावलम्बी बन जाते हैं और विधायक कार्य करने वालों की शक्ति वहाँ पर उपयोग होता है, तो सारे देश में प्रचण्ड निष्ठा पैदा हो जायेगी और सभी आक्षेपों अथवा उपहासों से वे लोग बरी हो जाएँगे। उन दिनों जयप्रकाश नारायण जो कि विनोबा के भूदान आन्दोलन को ज़मीनी नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। बाद के दिनों में भूदान के नए विकल्प के बारे में सोच रहे थे। उनका स्पष्ट मानना था कि-‘‘देश में मनुष्य-भूमि का जो अनुपात है और जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उसे देखते हुए ग्रामीण आबादी यदि केवल भूमि पर निर्भर रहेगी तो कृषि के विकास के बावजूद वह उत्तरोत्तर निर्धन बनती जाएगी। इसलिए औद्योगिकरण का घनिष्ठ सम्बन्ध कृषि से जुडना चाहिए, ताकि प्रत्येक गाँव या कम से कम प्रत्येक लघु ग्राम-समूह, कृषि-औद्योगिक समुदाय केवल गेहूँ और धान, फल और सब्जी, ईख और कपास का ही प्रसोधन नहीं करेगा; बल्कि रेडियो, साईकिल के पुर्जों, छोटे यंत्रों, विद्युत-सामग्रियों आदि वस्तुओं का जिनकी आवश्यकता क्षेत्र में हो सकती है, निर्माण भी करेगा। ऐसा होने से, नगर और गाँव के बीच बढ़ती हुई खाई कम होगी तथा नगरीकरण की बुराईयाँ भी घटेंगी।’’

ग्राम-स्वराज एवं सर्वोदय से जुड़े उपर्युक्त प्रणेताओं के भूमि-वितरण सम्बन्धी प्रयास भले ही नाक़ाफी साबित हुए हों; किन्तु समग्रता में देखें, तो सामुदायिक-सामूहिक असंतोष, दबाव, विरोध, प्रतिरोध, संघर्ष, ज्वार आदि की जो हस्तक्षेपकारी भूमिका आज के लोक-समाज और लोक-जीवन में उजागर दिख रही है; उसकी पूर्वपीठिका किसी न किसी रूप में भूदान और ग्रामदान के मूल्यों में विद्यमान है। विनोबा भावे की भावभूमि या मनोभूमि पर जो मंत्र टंका था; वह था-‘सबै भूमि गोपाल की।’ विनोबा महात्मा गाँधी के अनुयायी या सत्याग्रही मात्र नहीं थे। वे अपने समय के वास्तविक सार्थवाह थे। इस घड़ी हमारे सामने मुख्य संकट ऐसे सार्थवाह की अनुपस्थिति ही है। आज की तारीख़ में जब ‘रूकेगी नहीं मेरी दिल्ली’ का राजनीतिक राग अलापा जा रहा है; मन-मस्तिष्क में विनोबा के इन विचारों का कौंधना स्वाभाविक है-‘‘हिन्दुस्तान को स्वराज्य तो मिला, पर गाँवों को क्या लाभ हुआ? लंदन से दिल्ली में सत्ता आयी और कुछ बम्बई(अब मुंबई), मद्रास(अब चेन्नई) भी पहुँची, पर अभी तक वह गाँव में नहीं पहुँच पायी। दिल्ली में सूर्योदय होगा, तो क्या गाँवों में अन्धेरा रहेगा? यह कौन कबूल करेगा?’’

अतः वर्तमान समय की गाढ़ी चुनौतियों के मद्देनज़र हमें इस बिन्दु पर ठहरकर सोचना ही होगा कि-‘‘हमारे जीवन को नियंत्रित कर रही व्यवस्था अपने मोहरों को बड़ी ही चतुराई से खेलती है-ऐसी चतुराई के साथ कि हमारा सारा क्रोध तथा असंतोष किसी भी ढंग से अपनी स्थिति सुरक्षित बनाए रखने में ही बिखर जाता है। हमें अक्सर बताया जाता है कि हमारी आर्थिक समस्याओं की मूल जड़ हमारी बढ़ रही जनसंख्या, उत्पादकता में अरुचि, प्रतियोगी भावना का अभाव, निरक्षरता तथा जड़ता में निहित है। इस सारे प्रचार का मुख्य लक्ष्य हमें यह विश्वास दिलाने में है कि हम लोग स्वभाव से ही दायित्वहीन हैं तथा हमारी अनुशासनहीनता को नियंत्रित करने के लिए राजनीतिक सत्ता के और भी अधिक केन्द्रीयकरण की आवश्यकता है। राष्ट्र की अखण्डता, प्रभुसत्ता तथा स्वतंत्रता के बारे में कई प्रकार की आशंकाएँ जगाकर हमें यह अहसास कराया जाता है कि जो भी शासकों के साथ सक्रिय संगठित असहमति व्यक्त करने की हिमाकत करेगा उसे तो अनुशासन के नाम पर ही निपटा दिया जाएगा।’’

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...