Sunday, June 19, 2016

वाह! रजीबा वाह!


Virtual Popularity :  Sign & Language Propaganda in Indian Politics
आँकड़ों से बात नहीं बनती, सूरत भी मिलनी चाहिए
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 सुनो नरेन्द्र! तेरा मन बदल रहा है...तेरा मन बढ़ रहा है

''नरेन्द्र तुम्हारे पास माँ है और जिसके पास अपनी कोख से पैदा करने वाली माँ ज़िंदा हो, वह अपनी भारत माता का हमेशा जय-जय करेगा। अगर नहीं कर सका, तो यह पूरे देश का दुर्भाग्य होगा।''


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मैं सत्ता का शरणार्थी नहीं हूँ, इसलिए मैं तुम्हारी भाषा बोलने के लिए बाध्य नहीं हूँ। पिछली सत्तासीन कांग्रेस को जनता ने बार-बार मौका देकर अपनी जीवनकाया बदलने की उम्मीद जताई। निराशा हाथ लगी। राजनीतिक उच्चाकांक्षा के धनी और जातीय भेदभाव के संचारक पार्टी की शक्ति और तरक्की गई तेल लेने। बचे तुम नरेन्द्र, तुम तो चाय वाले के बेटे थे न! फिर तुमने देश को फैशनपरस्ती के अंधमोड़ पर क्यों खड़ा कर दिया है। क्यों गंदगी को ढाँप-तोप कर तुम उस पर मखमली दावत खिलाने पर तुले हो। भीतरी सड़ांध से तुम्हें आज न कल सामना करना ही होगा। तुम्हारी यह प्रचार-गाड़ी जो तेरा तकनीकी-नेटवर्क चलाते हैं, तुम्हारा नाम सदैव आॅनलाइन रखने को तत्पर दिखते हैं। उनकी सैलरी बंद कर दो, तो अगल दिन से तुम्हारा नाम चैपट कर देंगे। कहाँ फँसे हो नरेन्द्र! अपने का बाहुबलि समझने की भूल नहीं करो और न ही महाबलि। 

इतना झूठ बोलने की बजाए सच स्वीकारो। स्वीकारों की भारत में शिक्षा एक धंधा है और तुम्हारे आने के बाद भी जारी है। स्वीकारो कि प्रत्येक पार्टी पहले जात ढूँढती है, फिर अपनों के फायदे के हिसाब से काम करती है। स्वीकारो कि महंगी चीजों पर टैक्स से आम-आदमी का जीवन नहीं सुधर रहा, बल्कि उन्हें और बदतर जीवन जीने पर विवश होना पड़ रहा है। नरेन्द्र आदमी की नियत को मत भाँपों बल्कि अपने विचार को जाहिर करो। तुम्हारे बोल में व्यंग्य का टोन अद्भुत है, उसे उचित एवं उपयुक्त ढंग से इस्तेमाल करो। देश की तस्वीर साझा करो, लेकिन वही जिसे देखकर आम-आदमी अपने होने का अहसास कर सके। 

नरेन्द्र, प्रचार और विचार में अंतर है। तुम प्रचारवान की तरह अपने को हर जगह छाए दिखना चाहते हो। यह भूल रहे हो कि आसमान में मेघ छाने की कीमत देनी पड़ती है, उसे बारिश बन बरसना पड़ता है। तुम तो सिर्फ वाहवाही में रहना चाहते हो। चीजें बदल रही है, आगे बढ़ रही है। यह बात जनता को कहने दो। तुम क्यों अपने मुँह-मियाँ-मिट्ठू बन रहे हो। नरेन्द्र तुम्हारे प्रवक्ता स्वांगधारी हैं। वे भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति के बार में बहुत कम जानते हैं। कला, साहित्य, पुरातत्त्व आदि के बारे में और भी कम। ऐसे प्रवक्ता तुम्हारी छवि का बेड़ागरक करने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। 

नरेन्द्र भेड़ियाधसान नेताओं की खेप को कांग्रेस ने पैदा किया; और पार्टियों ने पाला-पोसा। बीजेपी ने भी यही किया। लेकिन नरेन्द्र तुम जैसा लीडर भी यही सब करे, ठीक नहीं है। सोचकर देखो। फुरसत के क्षण में खुद से संलाप करो। सोचो, आज से पाँच साल बाद किन लोगों के बीच तुम्हें जाना है। ‘आई कैन डू इट’ कहना है। उस जनता की नब्ज़ टटोलो, नरेन्द्र जो इस घड़ी बीमार है। महंगाई की मार से बेहाल है। नौकरियों के लिए सड़कों पर जार-जार है, लड़कियाँ सामाजिक-प्रशासनिक सुरक्षा के लिए तुम्हारा मुँह जोह रही हैं। माताएँ तुमसे अपने बच्चों की बीमारी ठीक कराने वास्ते अपने सरकारी अस्पताल में दुरुस्त व्यवस्था माँग रही है। नरेन्द्र तुम्हारी तैयारी प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए व्यावहारिक होने चाहिए। करोड़ों रुपए जारी करने मात्र से पीड़ित लोगों तक वे नहीं पहुँच जाते हैं। अपने कथन और प्राप्त परिणाम में मेल दिखाओ। यह बताओ कि किन-किन लोगों ने बिना इंटरव्यू दिए नौकरी पा ली। उनका नाम, सम्पर्क-सूत्र, मोबाइल साझा करो। लाभुक जनता का नाम, स्थान, पता और दूरभाष आॅनलाइन लेकर आओ। हेल्पलाइन नम्बर लाओ। सीधे अपने को लिखने को कहो। खुद को सम्बोधित कर लिखे लोगों की शिकायत का निपटारा यथाशीघ्र करने की कोशिश करो। शिकायतकर्ता से यह जानने का प्रयास करो कि क्या वह हमारे कार्रवाई और सेवा से संतुष्ट है। सिर्फ लिखे/छापे दस्तावेज में निपटारा ठीक नहीं है। और आजकल यही तेजी से हो रहा है। मैं स्वयं भुक्तभोगी हूँ।

नरेन्द्र, तुम शाखा के आदमी हो, संघ के सुपात्र हो। तुम्हें दया, करुणा, प्रेम, सद्भावना कूट-कूट कर भरी होनी चाहिए। याद रखो, नरेन्द्र तुम जनता का सम्मान करो...वह तुम्हे इज़्जत बख्शेगी; लेकिन जनता के साथ छल किया, तो वर्तमान को इतिहास बदलते देर नहीं लगती। नरेन्द्र, इतिहास का मतलब समझते हो न!


भारत में भ्रष्टाचार है क्योंकि लिखा-पढ़ी का सारा काम अंग्रेजी में होता है यानी अधिसंख्य जनता को न समझ में आने वाली भाषा में

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मैंने बस यह कहा
और मुझे उन्होंने खूब मारा
मैंने वजह पूछा?
और उन्होंने मुझे फिर मारा
मैं वजह जानने खातिर
बार-बार पूछता रहा
और वे मुझे लगातार मारते रहे

एक क्षण
मैं खामोंश
मेरी ज़बान जिबह हो गई

अफसोस! कि इस पूरे वाकये का
किसी पर कोई असर नहीं पड़ा
दुनिया अपनी रौ में बजती रहे
अविराम, अविचल, अखटक....

पृथ्वी ढलान पर है, संझावत का दीया जला दे रे, मीत!



मीत, माटी से प्रेम अधपका नहीं है रे,
अधखिला नहीं है पुष्पों की झुंड में गीत गाना
मीत, जंगल से प्रेम जंगली होना नहीं है रे......!

खेत से पानी ओरा जाना
हीक भर न भर पाना पशुओं का पेट
गर्लफ्रंड का घुमने खातिर खखनने से
मीत, बहुत ज्यादा खतरनाक है रे.....!

यात्रा पर निकले पंक्षियों का बिला जाना
जाकर अपने देश को न लौट पाना
दीवाल पर जमे काई के न उतरने से
मीत, बहुत ज्यादा खतरनाक है रे.....!

बच्चों की पीपीहरी में शामिल
हवा का अचानक गुम हो जाना
डिस्कोथिक में आवाज़ के परपराने से
मीत, बहुत ज्यादा खतरनाक है रे.....!

अँधीली बयार का जोर-दाब से बहना
और नदी के देह का पीला हो जाना
गर्भवती स्त्री का खून कमती होने से
मीत, बहुत ज्यादा खतरनाक है रे.....!

शब्द में लिखना आसान होकर भी
अपनी भाषा के मिठास को गँवा देना
नई दुल्हन का मेकअप ख़राब होन से
मीत, बहुत ज्यादा खतरनाक है रे.....!

 पृथ्वी ढलान पर है, संझावत का दीया जला दे रे, मीत!

Saturday, June 18, 2016

स्मार्ट फोन नहीं, तो सौरी!


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आजकल मार्केट के खूब काॅल आते हैं। एक काॅल आया कि आपके लिए हमारे पास ये-ये स्कीम है और उसका वे-वे फायदे हैं। बस आपको करना यह है कि अपने स्मार्ट फोन से सारा काम कर लेना होगा।

मैंने कहा, मेरे पास स्मार्टफोन नहीं है।

जवाब मिला, ‘क्या!!!’

फोन कट गया। फिर नहीं आया।

मेरा मुँह कद्दू हो गया। स्मार्ट फोन नहीं, तो क्या खाक स्टेटस। फेसबुक/ट्वीटर पर अकांउट नहीं तो झंड इटेलेक्चुअल।

ओह! सौरी, मैं तो बाज़ार की तरह भावनाओं का दोहन करने लगा। मेरे पास मोबाइल है, माइक्रोमेक्स की। कीमत एक हजार पचास रुपए।

मुझे स्मार्टफोन की जरूरत नहीं।

कृपया आप भी मुझे यह सोचकर कभी न फोन करें कि मेरे पास स्मार्टफोन है। वैसे भी आपको मेरी जरूरत क्यों हो, जरूरत तो पूरे देश को स्मार्टफोन की है।



Saturday, June 11, 2016

फ़िल्म अलीगढ़: सचाई के बाहर और भीतर बहुत कुछ

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राजीव रंजन प्रसाद
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सच के चश्मदीद नहीं होते; और हुए तो उन्हें आजकल सिरफिरा माना जाता है। यह बात सटीक बैठती है जब फिल्म अलीगढ़ ख़त्म होने की पगडंडी पर अपना आखिरी दृश्य दिखा रही होती है। ‘70 एम.एम.’ के परदे पर आप सबकुछ आँख के सामने घटित होता हुआ देखते हैं जबकि निगाहें जितनी जल्दी हो इस सच से बाहर आने के लिए शोर मचाने लगती हैं। किसी ने खूब कहा है,-‘गोली मार भेजे में...भेजा शोर करता है!’ 



ध्यान दें, अलीगढ़ शहर में सन् 1877 में नींव पड़ी एक ऐसे काॅलेज की जिसे 1920 ई. के बाद से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाने लगा। इसकी बुनियाद सर सैय्यद अहमद खान ने रखी। नाम दिया,-‘मोहम्मडन आंग्लो ओरियंटल काॅलेज’। 468 एकड़ भूभाग में फैले इस विश्वविद्यालय में पुराने-नए मिलाकर 300 पाठ्यक्रम चलते हैं। तथ्य अपने होने का सच बाँचते हैं कि इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न राज्यों से ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया से पढ़ने आने वालों की कुल तादाद करीब 28 हजार है जिन्हें तकरीबन एक हजार से अधिक प्राध्यापक(गिनती में 1342) की देख-रेख में पढ़ने का सुअवसर प्राप्त होता है। यूँ तो अकादमिक रवैयों और भारतीय विश्वविद्यालयों के कर्मकाण्ड से जो लोग परिचित हैं उनके समक्ष उच्च शिक्षा की बानगी पेश करने की जरूरत नहीं है। तब भी यह कहना आवश्यक है कि इन विश्वविद्यालयों में जो लोग भलमनसाहत के साथ पढ़ना-पढ़ाना चाहते हैं; उनकी स्थिति नाजुक, तो जिंदगी कमोबेश नारकीय बनी हुई है। ईमानदारी के कपोत उड़ाने वाले अक्सर दंडित और प्रताड़ित होते हैं, जबकि ईमानदारी का स्वांग रचते हुए कबूतरबाजी-कला में पारंगत लोगों की सरेआम चाँदी है, खुलेआम नाम, प्रतिष्ठा और सम्मान है। 

एक विश्वविद्यालय की किलेबंदी में घटने वाली एक ऐसी ही हौलनाक घटना की सचबयानी है-फ़िल्म ‘अलीगढ’। यह कहानी जिनके ऊपर ‘बेस्ड’ है। वह हैं, डाॅ. श्रीनिवास रामचन्द्र सिरास। पेशे से प्रोफेसर डाॅ. सिरास आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष और मराठी साहित्य के ‘स्काॅलर’ थे। नागपुर विश्वविद्यालय से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और मराठी भाषा में ‘डाॅक्टरेट’ की उपाधि भी। एक दिन डाॅ. सिरास अपने कलाई की नस काट लेते हैं और वे अपने ही घर में मृत पाए जाते हैं। डाॅ. सिरास न्याय के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी, कानूनन जीते; लेकिन अपनी चोटिल स्वाभिमान और आत्मसम्मान के आगे वह हार गए। सच की कुरेद कितनी तकलीफ़देह और भयावह होती है; यह इस फिल्म को देखकर ही समझा जा सकता है। डाॅ. सिरास ने खुदकुशी करने का निर्णय जिस तरीके से और जिस समय लिया; वह समझने के लिए दिमाग नहीं दिल की जरूरत पड़ती है और यह तभी संभव है जब हम इस फ़िल्म के किरदार से तादाकार भाव स्थापित कर लें, समानुभूति के स्तर पर संजीदगी के सच को अपनी आँखों में ढलक जाने दें। पूरी तौर पर खुदकुशी करने से पूर्व डाॅ. सिरास ने जो पल जिया और जैसे जिया; वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए हँसी-ठ्ठा का खेल नहीं हो सकता है। इस नज़रिए से फ़िल्म ‘अलीगढ़’ को देखते हुए दर्शक का कलेजा एकबारगी मुँह को आ जाता है; अपनेआप के भरोसे में मन-दिल दहल उठता है।  


मनोज वाजपेयी की किरदारी से जो लोग वाकिफ़ हैं, उनके लिए यह फिल्म बेमिसाल है। वह सिर्फ इस नाते नहीं कि.....


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Wednesday, June 8, 2016

मोदी का ‘पाॅवर इमेज’ और अमेरिकी-भारत


व्यापारिक हित-लाभ में पारस्परिकता और पूरक सहयोग-समर्थन का होना अनिवार्य है। आर्थिक मसले को वैश्विकता के दायरे में देखना और अपनाना मुनासिब है; लेकिन इसका लिहाफ़ लेकर किसी की क्रूरता, बर्बरता और अमानुषिक कार्रवाईयों के खि़लाफ न बोलना वाज़िब नही कहा जा सकता है। अमेरिका में हजारों अच्छाइयाँ हैं और हम उसकी सराहना करते हैं; पर अमरिकी मूलप्रवृत्ति में शामिल कुछ बुराइयाँ इतने घातक-विध्वंसक हैं जिन्हें अमेरिकी सीनेटरों के तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच नहीं खोने देना चाहिए। 
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राजीव रंजन प्रसाद


अमेरिका भारत से बाहर एक संयुक्त राष्ट्र है। भारतीय प्रधानमंत्री कल वहीं थे। हमने उन्हें वहाँ से अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना। उनके कहन का अंदाज सधा हुआ था और वे सुस्थिर चित्त के साथ रणनीतिक राजनीति का काबिलेतारीफ वक्तव्य देते नजर आए। इन दिनों भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा से अमेरिका परिचित है। इस सम्बन्ध को अमेरिकी संसद ने भारतीय प्रधानमंत्री के पूरे भाषणकाल के दौरान तालियों से तवज्जों दी। यह भारतीय प्रधानमंत्री के ‘पाॅवर इमेज’ का ही मिसाल है कि अमेरिकी सीनेटर एवं मौजूद गणमान्य लोग भाषण के दौरान कई मर्तबा अपनी सीट से खड़े होकर भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए दिखे।  

प्रभावशाली नेता की छवि में नरेन्द्र मोदी बिल्कुल फीट बैठते हैं। वे इस घड़ी सवा अरब आबादी के इकलौते ऐसे नेता हैं जो अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष को ‘माई फ्रेंड ओबामा’ कहते हैं। यह भारतीय काबीलियत की दृढ़ता है जो अपने समवय से मित्रवत व्यवहार करता है। पर क्या अमेरिका भारत की ही तरह का लोकतंत्र है? क्या अमेरिकी भारतीयों की ही तरह के समानधर्मा लोग हैं? क्या भारतीय सनातनता और इतिहासबोध में घुलीमिली चिंतन, दर्शन, वैचारिकी, सोच, दृष्टि आदि सबकुछ समान हैं? क्या इस गतिशील दुनिया के दोनों समान पाये(स्तंभ) हैं? क्या वहाँ के सैनिक भारतीय निष्ठा और आस्था के अनुरूप ही सैन्य कार्रवाईयों के अंजाम दे रहे हैं? जब इन प्रश्नों से जूझेंगे, तो लगेगा कि फर्क आसमान और ज़मीन का है। फिर क्यों भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी जनतंत्र को भारतीय जनतंत्र के बराबर मान एवं कह रहे थे? क्या हमें दूसरों के चालाकियों के आगे आलोचना के विवेक को ध्वस्त कर लेना चाहिए? क्या हमें सम्बन्धों की ईमानदारी दर्शाने के लिए किसी के बुरे आचरण-बर्ताव को नजरअंदाज कर देना चाहिए? क्या पूरी जिंदगी एक समझौते के सिवा कुछ नहीं है जिसमें अपना-अपना हितलाभ साधना ही हमारे मनुष्य होने का वास्तविक शब्दार्थ है? 

यूँ तो भारतीय नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी लाजवाब हैं। उनकी अदाएँ लुभाती हैं, तो बातें एक नाटकीय रोमांच पैदा करती है। वे जब वाक्य उच्चरते हैं, तो उस वाक्यपद में शामिल शब्द नृत्य करते मालूम देते हैं। यह सब एक क्षण के लिए मंत्रमुग्ध करता हुआ मालूम देता है। पर भारतीय प्रधानमंत्री कोई जादूगर नहीं है और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता एक फिल्मी कलाकार। भारतीय प्रधानमंत्री का मंच दूसरा है जहाँ से रूमानी लटके-झटके की अपेक्षा नहीं की जाती है। दरअसल, भारतीय प्रधानमंत्री हमारे राष्ट्र का अगुवा है, नेतृत्वकर्ता है। उसके व्यक्तित्व-व्यवहार में सवा अरब की जनता सांस लेती है, आकार पाती है। यही नहीं जनता की छवि भी भारतीय प्रधानमंत्री के माध्यम से ही सर्वत्र उजागर होती है। ऐसे में भारतीय प्रधानमंत्री अपनी चेतना में अनुस्यूत आलोचकीय दृष्टि को दरकिनार कैसे कर सकते हैं? व्यापारिक मंडल से पहले हमारी सामाजिक दुनिया तथा घर-संसार है जिसका बचा होना और हरा-भरा होना अनिवार्य है। अर्थात् व्यापारिक हित-लाभ में पारस्परिकता और पूरक सहयोग-समर्थन का होना अनिवार्य है। आर्थिक मसले को वैश्विकता के दायरे में देखना और अपनाना मुनासिब है; लेकिन इसका लिहाफ़ लेकर किसी की क्रूरता, बर्बरता और अमानुषिक कार्रवाईयों के खि़लाफ न बोलना वाज़िब नही कहा जा सकता है। अमेरिका में हजारों अच्छाइयाँ हैं और हम उसकी सराहना करते हैं; पर अमरिकी मूलप्रवृत्ति में शामिल कुछ बुराइयाँ इतने घातक-विध्वंसक हैं जिन्हें अमेरिकी सीनेटरों के तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच नहीं खोने देना चाहिए। 
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Monday, June 6, 2016

वे जो जिंदा जलने से बच गए मथुरा में


मथुरा के ताजा अपराधी रामवृक्ष के प्रति सहानुभूति सही नहीं कही जा सकती है, लेकिन जो हजारों लोग उसके साथ बताए जा रहे हैं-वे कौन हैं और कहाँ अब जाएँगे इस बारे में तफ्तीश हो। ऐसी घटनाओं का पूरा परिप्रेक्ष्य सामने लाना मीडिया का धर्म है और यह बताना भी कि रामवृक्ष जैसे लोग एक दिन में इतना खुंखार नहीं बनते बल्कि हमारी खामोशी घर में बारूद की परवरिश किया करती हैं.... 
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राजीव रंजन प्रसाद
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मीडिया अब उनकी खोज-पड़ताल और शिनाख़्त में जुटी है जो रामवृक्ष के साथ थे। हम भी चाहते हैं कि बात सिर्फ रामवृक्ष की क्यों हो? बात उनकी क्यों नहीं की जानी चाहिए जो मथुरा में रामवृक्ष के साथ सत्याग्रही बनने को बाध्य थे। क्यों और कैसे विवश किया जाता रहा उन्हें? वे वहाँ कैसी जिंदगी जी रहे थे और क्यों? बड़ा सवाल यह है कि इस देश में कैसे मासूम और निर्दोष लोगों को गुलामों की तरह रखा जाता है। ऐसी वैचारिकी के प्रणेता जिसे पूरी मीडिया आंतक का पर्याय कह रही है, वह उसके जुर्म के खिलाफ़ आज ही क्यों मुँह खोल रही है? मथुरा की पत्रकारिता क्यों अब तक लकवाग्रस्त रही? क्यों इस इलाके में हजारों लोग इंसानों से बदतर जिंदगी जी रहे थे जबकि उनका सरगना एसी कमरे में हथियारबंद दस्तों के साथ रहा करता था? मीडिया सच का सिरा न पकड़े पूरा सच सामने लाए, यह जरूरी है।

हमारा यह जानने का हक है कि रामवृक्ष ने सरकार के कितनी संपत्ति हड़प कर रखा है? काले धन कितनी मौजूद है? साथ ही उसका अधिकतम बैंक बैलेंस कितना है? इस पूरे घटनाक्रम की दुखद पहलू यह है कि यह पूरी कहानी मीडिया की भाषा और आवाज़ में एकतरफा बाँची जा रही है, ऐसे में वह दिन दूर नहीं जिसमें सबका मारा जाना, बंधक हो जाना, आतंकी हो जाना, अपराधी हो जाना तय है। मिनटों में पूरी दुनिया किसी के खि़लाफ भर-भर मुँह बोलने लग सकती है। उसके लिए खतरनाक तरीके से जुमले की भाषा में प्रहार कर सकती है। एक आदमी के सनकीपन की सजा हजारों लोग भुगते यह इंसाफ नहीं है। यदि लोग खाने-पीने-रहने की व्यवस्था होने के कारण उस जगह को स्वेच्छा से चुन रहे थे, तो यह भी सरकारी लीला पर किसी तोहमत से कम नहीं है। फिलहाल खुशहाल उत्तर प्रदेश का नारा देने वालों और राग अलापने वाले शर्म करें! 

यह देखा जाना जरूरी है कि वे कौन लोग कौन थे जो अनुयायी की वेश में रामवृक्ष के साथ थे। क्या उन्होंने यह रहवास स्वेच्छा से चुना था? क्या उन सबका(सिर्फ रामवृक्ष का नहीं) राजनीतिक ‘कनेक्शन’ जबर्दस्त था। उनके बेटे-बेटियाँ करोड़पति और हर तरीके के सुख-सुविधा से सम्पन्न थे। जो लोग इतनी तादाद में रामवृक्ष के साथ थे वे अपनी पूरी जिंदगी इस तरह दाँव पर रखकर ऐसे गुर्गों में किन वजहों से शामिल थे या हो रहे थे? 

जबतक इन सवालों का हम जवाब नहीं ढूंढ लेते, तबतक भारत में जारी ऐसे अवैध और गोपनीय नरसंहारों का पता नहीं चल सकता। यह सच है कि इस देश में लोग ग़लत देखने और सुनने का आदी हो चुके हैं। वह ताबड़तोड़ ख़बर-दर-ख़बर देख रहे हैं। लेकिन इस त्रासदी की भयावहता का असली पता तब चलता है जब इसकी निष्पक्ष आलोचना, आंकलन और विश्लेषण की जाती है। आज मीडिया में ‘फटाफट न्यूज़’ दिखाने का रिवाज़ है। इस नए चलन में ‘न्यूज’ क्या, कब, कौन, कहाँ, कैसे, क्यों, कबतक, किसतरह आदि प्रश्नों से टकराने की जगह बस उसे सूचित मात्र कर देती है। इसतरह मीडिया का आधुनिक सूचनाशास्त्र संचार की नई राजनीति को पाल-पोस रही है। इस राजनीति में लोकतांत्रिक विधान की गरदन कट गई है; न्यायालय बिना सिर के रेंग रही है; भ्रष्ट व्यक्तित्व की सरकार चुने जाने, राज करने और हट जाने की प्रक्रिया में पूरी तरह फिट हैं। 

आजकल हर अपराध एक अभिनय है। हर खेल मनोरंजन है। कुछ आदमी अपने जीने के लिए अपने जैसों को निवाला बना रहे हैं। मीडिया अपने पर भूखमरी न छाए, इसलिए वह भ्रष्ट तंत्र के तलवे में मालिश कर रही है। कुकुरमुतों की तरह चाट रही है। ऐसे ख़बरों को देख-सुनकर हमें अब घिन नहीं आती शायद! हमें पता है कि हम ही कौन दूध से धुले हैं.....

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...