Wednesday, June 8, 2016

मोदी का ‘पाॅवर इमेज’ और अमेरिकी-भारत


व्यापारिक हित-लाभ में पारस्परिकता और पूरक सहयोग-समर्थन का होना अनिवार्य है। आर्थिक मसले को वैश्विकता के दायरे में देखना और अपनाना मुनासिब है; लेकिन इसका लिहाफ़ लेकर किसी की क्रूरता, बर्बरता और अमानुषिक कार्रवाईयों के खि़लाफ न बोलना वाज़िब नही कहा जा सकता है। अमेरिका में हजारों अच्छाइयाँ हैं और हम उसकी सराहना करते हैं; पर अमरिकी मूलप्रवृत्ति में शामिल कुछ बुराइयाँ इतने घातक-विध्वंसक हैं जिन्हें अमेरिकी सीनेटरों के तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच नहीं खोने देना चाहिए। 
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राजीव रंजन प्रसाद


अमेरिका भारत से बाहर एक संयुक्त राष्ट्र है। भारतीय प्रधानमंत्री कल वहीं थे। हमने उन्हें वहाँ से अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना। उनके कहन का अंदाज सधा हुआ था और वे सुस्थिर चित्त के साथ रणनीतिक राजनीति का काबिलेतारीफ वक्तव्य देते नजर आए। इन दिनों भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा से अमेरिका परिचित है। इस सम्बन्ध को अमेरिकी संसद ने भारतीय प्रधानमंत्री के पूरे भाषणकाल के दौरान तालियों से तवज्जों दी। यह भारतीय प्रधानमंत्री के ‘पाॅवर इमेज’ का ही मिसाल है कि अमेरिकी सीनेटर एवं मौजूद गणमान्य लोग भाषण के दौरान कई मर्तबा अपनी सीट से खड़े होकर भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए दिखे।  

प्रभावशाली नेता की छवि में नरेन्द्र मोदी बिल्कुल फीट बैठते हैं। वे इस घड़ी सवा अरब आबादी के इकलौते ऐसे नेता हैं जो अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष को ‘माई फ्रेंड ओबामा’ कहते हैं। यह भारतीय काबीलियत की दृढ़ता है जो अपने समवय से मित्रवत व्यवहार करता है। पर क्या अमेरिका भारत की ही तरह का लोकतंत्र है? क्या अमेरिकी भारतीयों की ही तरह के समानधर्मा लोग हैं? क्या भारतीय सनातनता और इतिहासबोध में घुलीमिली चिंतन, दर्शन, वैचारिकी, सोच, दृष्टि आदि सबकुछ समान हैं? क्या इस गतिशील दुनिया के दोनों समान पाये(स्तंभ) हैं? क्या वहाँ के सैनिक भारतीय निष्ठा और आस्था के अनुरूप ही सैन्य कार्रवाईयों के अंजाम दे रहे हैं? जब इन प्रश्नों से जूझेंगे, तो लगेगा कि फर्क आसमान और ज़मीन का है। फिर क्यों भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी जनतंत्र को भारतीय जनतंत्र के बराबर मान एवं कह रहे थे? क्या हमें दूसरों के चालाकियों के आगे आलोचना के विवेक को ध्वस्त कर लेना चाहिए? क्या हमें सम्बन्धों की ईमानदारी दर्शाने के लिए किसी के बुरे आचरण-बर्ताव को नजरअंदाज कर देना चाहिए? क्या पूरी जिंदगी एक समझौते के सिवा कुछ नहीं है जिसमें अपना-अपना हितलाभ साधना ही हमारे मनुष्य होने का वास्तविक शब्दार्थ है? 

यूँ तो भारतीय नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी लाजवाब हैं। उनकी अदाएँ लुभाती हैं, तो बातें एक नाटकीय रोमांच पैदा करती है। वे जब वाक्य उच्चरते हैं, तो उस वाक्यपद में शामिल शब्द नृत्य करते मालूम देते हैं। यह सब एक क्षण के लिए मंत्रमुग्ध करता हुआ मालूम देता है। पर भारतीय प्रधानमंत्री कोई जादूगर नहीं है और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता एक फिल्मी कलाकार। भारतीय प्रधानमंत्री का मंच दूसरा है जहाँ से रूमानी लटके-झटके की अपेक्षा नहीं की जाती है। दरअसल, भारतीय प्रधानमंत्री हमारे राष्ट्र का अगुवा है, नेतृत्वकर्ता है। उसके व्यक्तित्व-व्यवहार में सवा अरब की जनता सांस लेती है, आकार पाती है। यही नहीं जनता की छवि भी भारतीय प्रधानमंत्री के माध्यम से ही सर्वत्र उजागर होती है। ऐसे में भारतीय प्रधानमंत्री अपनी चेतना में अनुस्यूत आलोचकीय दृष्टि को दरकिनार कैसे कर सकते हैं? व्यापारिक मंडल से पहले हमारी सामाजिक दुनिया तथा घर-संसार है जिसका बचा होना और हरा-भरा होना अनिवार्य है। अर्थात् व्यापारिक हित-लाभ में पारस्परिकता और पूरक सहयोग-समर्थन का होना अनिवार्य है। आर्थिक मसले को वैश्विकता के दायरे में देखना और अपनाना मुनासिब है; लेकिन इसका लिहाफ़ लेकर किसी की क्रूरता, बर्बरता और अमानुषिक कार्रवाईयों के खि़लाफ न बोलना वाज़िब नही कहा जा सकता है। अमेरिका में हजारों अच्छाइयाँ हैं और हम उसकी सराहना करते हैं; पर अमरिकी मूलप्रवृत्ति में शामिल कुछ बुराइयाँ इतने घातक-विध्वंसक हैं जिन्हें अमेरिकी सीनेटरों के तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच नहीं खोने देना चाहिए। 
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