अब अख़बार बेचने में लगे हैं ‘मैगी मसाला’ |
अब अच्छी बातें कहने का चलन ख़त्म हो गया, गन्दी बात साधिकार कहे जाने का युग है। बाज़ार के विरोध में मुँह खोलना आसान नहीं है। लेकिन जिसने मुक्तिबोध के कहे को साधा है-‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे मंदिर और मठ’; उसके लिए यह सब करना खुद से हीक भर मुहब्बत करना है....खैर!
बात हिन्दुस्तान समाचारपत्र की है। यह वही समाचारपत्र है जिसने हाल ही में अपने लोकप्रिय परिशिष्ट ‘अनोखी’ के साथ ‘मैगी मसाला’ मुफ़्त में देना शुरू किया है। कोई अतिरिक्त कीमत नहीं। बिल्कुल निःशुल्क। यानी अब विज्ञापन सिर्फ उत्पाद को देख कर एक बार ‘ट्राई’ कर लेने का मनुहार भर नहीं कर रहा है, बल्कि उस उत्पाद को सीधे आपके हाथों में सौंप रहा है।
टूर कवरेज फाॅर कैश |
दरअसल, हाल के दिनों में अख़बारों ने सामान बेचने का नया तरीका ईजाद किया है। वे अपने पाठकों को मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने घेरे में लेने लगे हैं। पाठक मोहित और चमत्कृत है कि उसे अख़बार यह परामर्श दे रहा है कि आपके शहर का कौन-सा कोचिंग सेन्टर अच्छा है; उसके विभिन्न परीक्षाओं में परिणाम कैसे रहे हैं? आपकी पहुँच इन शिक्षण-संस्थानों तक आसानीपूर्वक कैसे हो? यह सब ऐसे परोक्ष माध्यम हैं जो अख़बार में पढ़ने पर विज्ञापन नहीं लगते हैं, लेकिन होते ये ‘पेड न्यूज़’ ही हैं। यदि आप इन सब ख़बरों को पढ़ते हुए चिढ़ते नहीं हैं; यदि इन ख़बरों से आपके बच्चे का भविष्य सुनहला हो रहा है, यदि आप इन ख़बरों को पढ़कर अपनी ज़िन्दगी को पहले से अधिक खुशनुमा, आसान और महत्तवपूर्ण बना पा रहे हैं तो निश्चय ही अख़बारी तरक्की के इन नये तौर-तरीके का स्वागत किया जा सकता था; लेकिन, यहाँ मामला ठीक उलट है। आइए, इस बिन्दु पर थोड़ा ठहरकर पुनर्विचार करें।
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