Saturday, December 4, 2010

उपभोक्ता-मन और विज्ञापन बाज़ार की उत्तेजक दुनिया

राजीव रंजन प्रसाद

विज्ञापन को बाज़ार में उत्पाद-प्रक्षेपण का सशक्त साधन माना जा चुका है। इसका मुख्य लक्ष्य उपभोक्ता की प्रतिष्ठा और जीवन-स्तर में अभिवृद्धि करना है। भारतीय संदर्भों में विज्ञापन सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का महत्त्वपूर्ण कारक है। वर्तमान में विज्ञापन और पूँजी दोनों एक दूसरे के पूरक अथवा पर्याय हो चुके हैं। बगैर विज्ञापन के आधुनिक पूँजीवाद का विस्तार या उसके आधिपत्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज विज्ञापन ही तय करने लगे हैं कि कोई विचार, सेवा या उत्पाद बाज़ार के हिसाब से बिक्री योग्य है भी या नहीं। पूँजीवाद पोषित इस नवसाम्राज्यवादी विश्व में विज्ञापन का उत्तरोत्तर बढ़ता कारोबार सन् 2020 तक 2 ट्रिलियन डाॅलर हो जाने की उम्मीद है।1 सिर्फ भारत में विज्ञापन का कुल अनुमानित बाज़ार 8000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। दो मत नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को शीर्षाेन्मुखी करने में ‘विज्ञापन युक्ति’ अनंत संभावनाओं से भरा-पूरा क्षेत्र है। ‘एड गुरु’ के नाम से मशहूर प्रहलाद कक्कड़ की मानें तो “जनसंचार माध्यमों का इस्तेमाल करके अपने उत्पाद की पहुंच लोगों तक बनाए रखने के उद्देश्य के मद्देनजर कंपनियों का विज्ञापन बजट बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि कॉर्पोरेट जगत विज्ञापन को खर्च की बजाए निवेश मानता है।”2 डाॅ0 डरबन के शब्दों में इसे युक्ति कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा क्योंकि ‘‘इसके अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आ जाती हैं जिनके अनुसार दृश्यमान अथवा मौखिक सन्देश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व-निश्चित विचारों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से संशोधित किए जाते हैं।’’3
विज्ञापन अपनी स्वाभाविकता में ‘Larger than life’ होता है; कुछ निर्धारित मानदंड हैं, जैसे कि उसका प्रमुख लक्ष्य किसी सेवा या उत्पाद के विषय में परिचय कराना है। अगर कोई विज्ञापन अस्पष्ट है, तो वह अपने उत्पाद का सही परिचय नहीं करा पाएगा। विज्ञापन हर वर्ग-समूह को संप्रेषित करने योग्य होना चाहिए। किसी भी किस्म की पेचीदगी या उलझाव पाठक के मन-चित्त पर उल्टा प्रभाव डाल सकती है। उपयुक्त बचाव यही है कि विज्ञापन सही, सटीक, आकर्षक एवं विषय केन्द्रित हो। विज्ञापन के लिए चार चीजों की अनिवार्यता होती है-1) विक्रय की वस्तु 2) विज्ञापन का माध्यम 3) संभावित क्रेता 4) उस क्रेता को आकर्षित-उत्प्रेरित करने का लक्ष्य।
इन तत्त्वों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो तथ्य सामने आते हैं; वो यह कि विज्ञापन में गहरी मनोवैज्ञानिकता अन्तर्निहित होती है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की वृत्तियों को विज्ञापन के माध्यम से
किसी निश्चित दिशा में उद्बुद्ध, उत्तेजित और उत्प्रेरित किया जाता है। मनुष्य की जिज्ञासा तथा उत्सुकता को जाग्रत तथा शमित करने की दिशा में विज्ञापन के कथ्य को सक्रिय किया जाता है। मनुष्य की सुरक्षा-वृत्ति, सुख-सुविधा-वृत्ति, खाद्य-वस्त्रादि के प्रति लोभ-मोह की वृत्ति, साहसिकता-वृत्ति, संचय-वृत्ति, खेल-वृत्ति आदि का मनोवैज्ञानिक स्तर पर विज्ञापन अच्छी तरह दोहन करते हैं।
विज्ञापन उपभोक्ता-मन के अंतस पर किस प्रकार का प्रभाव डालते हैं, इसकी पड़ताल करते हुए डाॅ0 सुवास कुमार आगे कहते हैं-‘‘विज्ञापन का सम्बन्ध विशेष रूप से मनुष्य के चक्षुन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय से होता है। शब्दों(लिखित और ध्वनित) तथा छवियों(चित्रों श्वेत-श्याम अथवा रंगीन) की विज्ञापन में सर्वप्रमुख भूमिका होती है। यहाँ भाषा और विज्ञापन का आपस में द्विविध सम्बन्ध होता है। पहला, भाषा की उच्चारणगत, प्रतीकात्मक, संरचनागत विशेषताओं से विज्ञापन प्रभावित होते हैं। यानी उनका प्रभावकारी उपयोग करते हैं। दूसरा, विज्ञापनों के द्वारा प्रयुक्त भाषा-रूपों में कभी-कभी तीव्र मौलिकता दिखाई देती है जिनसे भाषा भी अन्तःबह्îि दोनो रूपों में प्रभावित होती है।’’4
आज तकनीक और प्रौद्योगिकी के उन्नत प्रभाव ने हर व्यक्ति को विज्ञापनों की इंद्रजालिक दुनिया में प्रवेश होने के लिए बाध्य कर दिया है। जनमाध्यमों के नानाविध रूपों में फैलाव जिसे आजकल तकनीकी भाषा में अभिसरण(Convergence)कहा जा रहा है, की वजह से आमजन के मानस पर विज्ञापन का गहरा प्रभाव पड़ा है। औद्योगिक उत्पादों को बाज़ार-रणनीति के बल पर आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से विकासशील देशों में पाटा जा रहा है। इस तरह से विश्व की सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है। उनकी सृजनशीलता का ह्रास हो रहा है और पश्चिमोन्मुख बहुराष्ट्रीय संस्कृति अपना आधिपत्य कायम कर रही है। इस निरंतर और तेज परिवर्तन से बहुराष्ट्रीय सत्तातंत्र का विश्व के सांस्कृतिक बाज़ार पर नियंत्रण की प्रक्रिया भी उतनी ही तेज होती जा रही है।
ख्यातनाम पत्रकार संजय द्विवेदी की दृष्टि में ‘‘बाजार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारतीय बाजार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाजार अब सिर्फ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन चीजों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है।’’5
अतएव, समाज में बाज़ारवाद की वर्चस्वशाली संस्कृति तेजी से विकसित हुई है। लोगों को उपभोक्ता बनाने की होड़ मची है। विज्ञापनकत्र्ताओं के निशाने पर हैं-मध्यवर्ग, किशोर-किशोरियाँ, कामकाजी महिलाएँ, पुरुष तथा बच्चे। मीडियाविद् सुभाष धूलिया इसका सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-‘‘वैश्वीकरण के साथ-साथ जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की खोज में बाज़ार युद्ध में उतरीं तो विज्ञापनों का भी युद्ध प्रारंभ हो गया। हर उत्पाद की मार्केटिंग के लिए विज्ञापन-रणनीति महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिकांश विज्ञापन उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन वस्तुओं का बाज़ार शहरी मध्यवर्ग ही होता है जिनके पास नए उत्पाद खरीदने के लिए अतिरिक्त क्रय-शक्ति है। विज्ञापन-उद्योग की मीडिया पर निर्भरता इसकी प्रोग्रामिंग को भी प्रभावित करती है। अधिकांश विज्ञापन-संदेश अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों के लिए होते हैं। मीडिया की विज्ञापन-उद्योग पर भारी निर्भरता के कारण वही प्रोग्राम इसकी प्राथमिकता में शुमार होते हैं जो अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों में लोकप्रिय हों या लोकप्रिय बना दिए गए हों।’’6
यह लक्षित-समाज विज्ञापन को लेकर कितना आग्रही है, इसका अंदाजा इस अपील से परिलक्षित है-”Advertising brings you the good things of life.” उदाहरणार्थ-‘रेडियो विक्ट्री’ पर चलने वाला ‘रेस ट्रैक’ कार्यक्रम कार निर्माताओं के प्रयोजन से दिखाया जाता है जबकि ‘कैपिटल रेडियो’ पर ‘हल्लाबोलू’ कार्यक्रम किशोरवय को ध्यान में रखकर प्रसारित करना विज्ञापन-अभियान का ताकतवर पक्ष है। इसी तरह ‘कौन बनेगा करोड़पति’ को लेकर एक रिपोर्ट आई है कि केवल एसएमएस और फोन के जरिए 65 करोड़ रुपए का मुनाफा मोबाइल कंपनियों को हुआ और चैनलों के विज्ञापन में इससे कई गुना वृद्धि दर्जं की गई है। असल में ऐसे कार्यक्रमों के अंत में एसएमएस से राय भेजने की दरकार करोड़ों का व्यवसाय खड़ा करने का जरिया है। इस आधार पर दर्शकों के विभिन्न वर्गों की संवेदनाओं को पैसे में भुनाया जाता है।
यह ज्ञात तथ्य है कि भारत में बीस वर्ष से कम उम्र के युवा वर्ग की आबादी लगभग 45 करोड़ है जो यूरोप के किसी भी देश या अमेरिका या आस्ट्रेलिया की आबादी से कहीं ज्यादा है। इस 45 करोड़ की आबादी में करीब साढ़े दस करोड़ युवा 15 से 19 वर्ष के बीच हैं और 10 से 14 वर्ष के बीच की उम्र के युवाओं की आबादी 11 करोड़ से अधिक है। यह एक ऐसी उम्र है जब ये किशोरवय न तो इतने व्यस्क होते हैं कि अपना निर्णय खुद ले सकें और न इतने छोटे होते हैं कि इनके निर्णय इनके लिए माँ-बाप करें। बाल-मनोविज्ञान के जानकार रंजीत वर्मा के अनुसार, ‘‘कारपोरेट जगत अपनी रुचि थोपने की बजाय इस उम्र के उपभोक्ताओं की रुचि-अभिरुचि को ध्यान में रखकर उत्पाद तैयार करने लगे हैं। उन्हें पता है कि थोड़ी-सी भी चूक उन्हें बाजार से बाहर फेंक सकती है। सबसे बड़ी परेशानी युवा-वर्ग की दबी अभिव्यक्ति के कारण होती है। आज भी इस पीढ़ी के लिए खुलकर विचार रखना कठिन है। हर घटना या पंसद-नापसंद में पूरा परिवार सम्मिलित रहता है। वैसे भी उन उत्पादों की खपत यहाँ बहुत मुश्किल है जिन्हें अभिभावकों की सहमति नहीं प्राप्त हो क्योंकि अभिभावक का सोच ही समाज का सोच है।’’7
लब्बोलुआब यह है कि पूंजीवाद की मार से आज बच्चे भी नहीं बच पाए हैं। विज्ञापनों में महिलाओं के बाद सर्वाधिक प्रयोग बच्चों का ही हो रहा है। इन्हें जान-बूझ कर लक्ष्य बनाया जा रहा है। इसके पीछे की वजहें साफ हैं। पहला तो यह कि इससे बाल मस्तिष्क पर आसानी से प्रभाव छोड़ना संभव हो पाता है। दूसरी वजह यह है कि अगर बच्चे किसी खास ब्रांड के उत्पाद के उपभोक्ता बन जाएँ तो वे उस ब्रांड के साथ लंबे समय तक जुड़े रह सकते हैं। कुछ विज्ञापन तो बच्चों के अंदर हीनभावना भी पैदा कर रहे हैं। बच्चों के मन में यह बात बैठाई जा रही है कि विज्ञापित वस्तु का प्रयोग करना ही आधुनिकता है। अगर वे उसका प्रयोग नहीं करेंगे तो पिछडे़ समझे जाएंगे। कुछ विज्ञापनों के जरिए बच्चों की मानसिकता को भी बड़ों के समान बनाने की कुचेष्टा की जा रही है। जान-बूझ कर बच्चों से जुड़े विज्ञापनों में सेक्सुअल पुट डाला जा रहा है।
युवा पत्रकार हिमांशु शेखर तल्ख़ लहजे में कहते हैं-‘‘आज विज्ञापनों के चकाचैंध द्वारा बचपन को छीने लेने की पूरी तैयारी हो चुकी है। ऐसा लगता है। आज हालत यह है कि बच्चे किसी उत्पाद के लिए नहीं बल्कि खास ब्रांड के उत्पाद के लिए अपने अभिभावकों से जिद्द कर रहे हैं। इस वजह से अभिभावकों को परेशानी उठानी पड़ रही है। यह विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव ही है कि बच्चों में विज्ञापनों में काम करने की ललक भी बढ़ती जा रही है। इसका नकारात्मक प्रभाव उनकी पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता है। आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कई अभिभावक भी अपने बच्चे को विज्ञापन फिल्मों में देखना चाह रहे हैं। इसके लिए वे बाकायदा बच्चों को अभिनय का प्रशिक्षण भी दिलवा रहे हैं। इस बुरे चलन से कम उम्र में ही बच्चों के मन में पैसे के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा हो रहा है। यह विज्ञापन का एक बड़ा दुष्परिणाम है।’’8
हमें भूलना नहीं चाहिए कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हर औद्योगिक घराना अपने उत्पाद की ‘इंस्टैंट पब्लिसिटी’ चाह रहा है। इस प्रक्रिया में विज्ञापन उपयुक्त जरिया है, जो हजारों-लाखों उपभोक्ताओं के सामने एक साथ किसी वस्तु या उत्पाद की गुणवत्ता, उसके इस्तेमाल के फायदे तथा बाजार में उपलब्धता सम्बन्धित तमाम ब्यौरे प्रस्तुत कर देता है। विज्ञापन हर आदमी के लिए एक समान महत्व रखते हों, यह जरूरी नहीं है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विज्ञापन के माध्यम से प्राप्त हो रही सूचना या संदेश से व्यक्ति बिल्कुल अप्रभावित रह जाए। क्योंकि जब किसी उत्पाद या आकृति का विज्ञापन द्वारा व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण करता है तब एक विशिष्ट क्षण में जो पूर्ण प्रत्यक्षीकरण होता है और जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, वे काफी सीमित होती हैं। एक मत के अनुसार ‘‘हमारे अंदर केन्द्रीय स्नायु संस्थान पर इन सूचनाओं की ‘फिल्टरिंग’ होती है। कुछ चीजें ग्रहण नहीं की जातीं लेकिन वे अस्थाई भण्डार में डाल दी जाती हैं। जब कभी आगे हमें इससे सम्बन्धित कुछ देखने का मौका मिलता है तो हम अस्थाई भण्डार की सूचनाएँ काम में ले लेते हैं या ये अनजाने ही अवचेतन रूप से हमारी प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करने लगती हैं।’’9
विज्ञापन सम्बन्धी प्रत्यक्षीकरण की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति के चारो तरफ कई प्रकार की उत्तेजनाएँ प्रवाहित होती रहती हैं। व्यक्ति इन सभी उत्तेजनाओं में से कुछ का ही चयन करता है जिसे कई प्रकार के बाह्î एवं आंतरिक अवधान प्रभावित करते हैं। बाह्î वातावरणीय कारक उत्तेजना की तीव्रता, विषमता, आकार, आवृति, गति, नवीनता एवं पहचान आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। अवधान के आंतरिक कारकों में अधिगम, अभिप्रेरणा, व्यक्तित्व, सामाजिकता, सूचना संसाधन आदि महत्त्वपूर्ण है। आज के संदर्भों में संचार माध्यम विज्ञापन हेतु खुलकर किसी वस्तु/उत्पाद विशेष के लिए ‘छवि निर्माण सिद्धांत’ का इस्तेमाल करते हैं। इस सिद्धांत की मान्यता है कि संचार माध्यम समाज की मानसिकता को गहराई से प्रभावित करते हैं। इन माध्यमों के स्थूल तथा दीर्घकालीन प्रभाव की जाँच करते हुए संचारशास्त्री गेर्बनर स्पष्ट संकेत करते हैं कि ‘‘विज्ञापन के माध्यम से दिखाए जा रहे अनजाने प्रतीक, छवियाँ, और सन्देश जनमानस में निरन्तर पैठते जाते हैं। शानदार इमारतें, बहुमूल्य पोशाकें, कीमती खिलौने, चाॅकलेट और महंगे विद्युत उपकरणों की इच्छा जगाकर टेलीविज़न निर्धन लोगों की मानसिकता से खिलवाड़ करता है। वास्तव में ये प्रस्तुत अयथार्थ दर्शकों/श्रोताओं/पाठकों के मन में चकाचैंध भरे भड़कीले स्वप्नलोक की सृष्टि करता है जो वास्तविक जगत से परे है।’’10
ध्यातव्य है कि विज्ञापनकत्र्ता किसी भी विज्ञापन का निर्माण ‘लक्षित समूह’(Target Audience) को ध्यान में रख कर ही करता है। कागज पर छपे विज्ञापन भले मूक हों, पर प्रभाव में मारक तीर का काम करते हैं। न चाहते हुए भी पाठक विज्ञापन के चित्र, रंग-संयोजन, भाषिक कलात्मकता या ‘ब्रांड नेम’ के प्रति खिंचा चला आता है। उसकी आँखें यकायक ठहर जाती हैं। वस्तुतः ब्राण्ड केवल नाम नहीं हैं। दरअसल, एक ‘ब्राण्ड’ विशिष्ट उत्पाद की पहचान एवं उसका प्रतिनिधित्व करता है। ब्राण्ड उपभोक्ताओं के दिमाग में उत्पाद की छवि है कि वे उत्पाद के बारे में क्या सोचते हैं या महसूस करते हैं? आज प्रसिद्ध ब्राण्ड/कंपनियों में ‘कोकाकोला’, ‘डिज्नी’, ‘आईबीएम’, ‘इंटेल इनसाइड’, ‘जी. ई.’, ‘मेक डोनाल्ड’, ‘मर्क’, ‘माइक्रोसाॅफ्ट’, ‘नोकिया’, ‘टोयोटा’, मोजरवियर, टाटा, अमूल, रेमण्ड, एल. जी., सैमसंग प्रमुख हैं। मीडिया दार्शनिक मार्शल मैकलुहान इस संदर्भ में स्पष्ट कहते हैं कि ‘‘मीडिया आरोपित संदेश अपने उपभोक्ताओं की इन्द्रियों पर आक्रमण करते हैं, उसे नियंत्रित एवं संचालित करते हैं और अंततः उसे इच्छित दिशा-विशेष में ठेलने लगते हैं। इस प्रक्रिया व स्थिति का लाभ ‘निजी निगमों’ अथवा ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों’ को होता है क्योंकि उपभोक्ता अपनी आँखें और कान मीडिया को सौंप देता है।’’11
इस तरह एक सफल विज्ञापन इंसान की स्वाभाविक अंतःवृत्ति यानी उसके अंदरूनी इच्छा को जगाने का काम करती है। खरीदार या उपभोक्ता को अमुक वस्तु या चीज को लेने के लिए राजी करती है। आजकल उत्पाद को अधिक से अधिक आकर्षक और बिकाऊ बनाने के लिए तमाम तरह के उपक्रम रचे जा रहे हैं। विज्ञापन में उत्तेजक देहभाषा और कम-नपे पारदर्शी पोशाक के साथ युवतियों को खुद उत्पाद बनाकर बेचना बाज़ारू चलन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। इस बारे में रामशरण जोशी की टिप्पणी गौरतलब है-‘‘भड़काऊ शारीरिक मुद्राओं के प्रसारण द्वारा ग्राहकों को लुभाने का अर्थ है विज्ञापित वस्तुओं को बेचना। पूँजीवाद के लिए प्रत्येक चीज ‘कमोडिटी’ होती है, चाहे वह जैव हो या अजैव, विचार रहे या विज्ञापन। भूमंडलीकरण के कारण मीडिया में यह प्रवृत्ति अराजक स्थिति तक पहुँचती जा रही है। पूँजीवाद का काम एक यह भी होता है कि पुराने मिथों को तोड़ना और नए मिथों को गढ़ना। इसलिए विज्ञापन माध्यम मोहक जीवन शैलियों का मिथ ऐसे लोगों को परोसता है जो संक्रमण काल के दौर में हैं, अतीत से मुक्त होकर आधुनिकता में लिप्त होने के लिए छटपटा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि विज्ञापन सम्बन्धों के रूप एवं स्तर का निर्धारण कर रहे हैं; माता-पिता व संतान और प्रेमी व प्रेमिका के बीच सम्बन्धों का आधार विज्ञापित वस्तुएँ बन रही हैं।’’12
इसीलिए विज्ञापन के बारे में कहा जाता है कि यह महज सूचना प्रेषण का साधन-मात्र नहीं है। एक मशहूर कथन है-‘विज्ञापन कला मस्तिष्क में होती है।’ ऐसा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि विज्ञापन एक किस्म का अतिरंजित यथार्थ है। इसके निर्माण और प्रस्तुति में रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का पुट तो होना ही चाहिए साथ में उपभोक्ता या खरीदार के अभिवृत्ति एवं मनोवृत्ति को प्रभावित करने सम्बन्धी गुण भी आवश्यक है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देखने की दृष्टि बदलने से वस्तु भी बदल जाती है। उपभोक्ता की दृष्टि में परिवर्तन हेतु कई कारक जिम्मेदार होते हैं जिसमें एक ‘एडा’(।प्क्।) सिद्धांत है जो ‘अटेंशन’, ‘इंटरेस्ट’, डिजायर’ और ‘एक्शन’ का समेकित रूप है। मनोवैज्ञानिक बेम के अनुसार ‘‘व्यक्ति अपनी ही मनोवृति, अनुभूति, भाव एवं संवेगों को सीधे समझने में असमर्थ होता है। वह अपने व्यवहारों के प्रेक्षण के आधार पर उस परिस्थिति को अधिक समझता है जहाँ उससे सम्बन्धित आंतरिक संकेत अस्पष्ट होते हैं।’’13
प्रथमतः विज्ञापन किसी वस्तु/उत्पाद के विषय में सूचना देने के साथ ही उसके उद्देश्यों की व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। प्रतिस्पर्धा की स्थिति में इसके लिए यह आवश्यक है कि यह उस वस्तु को विरल और विशिष्ट प्रकार का सिद्ध करे। इसी गुण के कारण विज्ञापन-प्रयोजन को चिंतन, अनुभूति और कार्य-व्यापार की निबद्ध प्रणाली मानते हैं जिसके अन्तर्गत विज्ञापन के उद्देश्य को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है ताकि उपभोक्ता को यह प्रणाली एक सामान्य हिस्से के रूप में दिखे। इस प्रवृत्ति में वृद्धि की वजह से आजकल विज्ञापनों में उत्पाद एक तरह से अप्रासंगिक हो चला है। इस बाबत प्रसिद्ध संचारशास्त्री रेमण्ड विलियम्स कहते हैं-‘ आज विज्ञापनदाता सीधे बिंबों और सपनों का सहारा ले रहा है। इस तरह के विज्ञापनों के जरिए एक पूरी जीवनशैली रची जाती है जो मुख्यतः एक मायालोक के इर्द-गिर्द विचरण करती है। किसी एक उत्पाद की अनुशंसा करने की बजाए इस तरह के मायालोक का सृजन करना सभी विज्ञापनदाताओं के हित में है।’’14 यदि हम व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से बात करें, तो व्यावसायिकता के प्रभाव ने विज्ञापन संबंधित नैतिक प्रश्नों को दरकिनार करना प्रारंभ कर दिया है। अब विज्ञापन कल्पना और सृजन की प्रस्तुति भर नहीं रह गई है अपितु यह ब्रांड और ग्लैमर्स की दूधिया रोशनी से सनी एक ऐसी छवि बनने लगी है, जिसमें वास्तविकता गुम हो कर रह जाती है। अब लोग उत्पाद और उत्पादक से ज्यादा इस बात से प्रभावित होने लगे हैं कि इसे बेच कौन रहा है अर्थात इसका ब्रांड अम्बेस्डर कौन है? पहले तो केवल फिल्मी सितारों की विज्ञापन में पूछ थी। अब क्रिकेट आइकाॅन धोनी से लेकर टेनिस सनसनी सानिया तक की धूम है। यानी बाजार की नई अवधारणा लोभ और स्वार्थ आधारित मुनाफे पर केन्द्रीत है। मशहूर मीडिया विश्लेषक रेमण्ड विलियम्स के शब्दों में कहें तो, ‘‘विज्ञापन के माध्यम से ‘बिक्री’ की वरीयता पर जोर देना स्वाभाविक लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह एक प्रकार की विकृति है। कुछ लोग अभ्यस्त हो चुके हैं। दरअसल, संसार को देखने का यह तरीका सही और स्वाभाविक इसलिए लगता है कि हमने अपने कद को घटाकर इन अविवेकी लोगों के समान कर लिया है।’’15
पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं। दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता। अगर विज्ञापन में खूनखराबे वाले दृश्य हों तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता। यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है। आयोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए। इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे। बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था। दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई। उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फीसदी ज्यादा है। यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुकाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फीसदी अधिक देखी गई। निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फीसदी कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुकाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फीसदी कम हो जाती है। इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी। क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे। चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे।
शोध/सर्वे तथा विश्लेषण से ज्ञात सच्चाई से अवगत होने के बाजजूद विज्ञापनों में हिंसा और कामुकता वाले दृश्यों को धड़ल्ले से दिखाया जाता है। इस संदर्भ में प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री एडवर्ड चैंबरलिन ने 1933 में ही बाजार के सच को उजागर करती हुई महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ए थियरी आफ मोनोपोलिस्टिक कंपीटिशन’ में लिखा था, ”वह युग खत्म हो गया जब हर उत्पाद के ढेरों निर्माता होते थे। और उनके बीच घोर प्रतिद्वंद्विता होती थी। इसकी वजह से प्रत्येक उत्पाद अपनी गुणवत्ता को सुधारने के लिए सक्रिय होता था, ताकि वह ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर सके।”16
आज से सात दशक पहले की गई यह व्याख्या विज्ञापन के मौजूदा परिदृश्य पर बिलकुल सटीक बैठती है। आज गुणवत्ता की बजाए जोर किसी भी तरह से ग्राहक को उत्पाद के मायाजाल में फांसने का है। इसके लिए पहले पैकिंग को आकर्षक बनाया गया। फिर उसे बेचने के लिए ‘नारी देह’ की नुमाइश की जाने लगी जो स्वयं भी एक वस्तु/उत्पाद के रूप में विज्ञापित होती हैं। मीडिया जानकार आनंद प्रधान की दृष्टि में-’’ये विज्ञापन लगभग 1 अरब से ऊपर की आबादी वाले राष्ट्र की लोकवृत्ति की पहचान नहीं कराते बल्कि इसमें सिर्फ 15-20 करोड़ अमीर और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं का ही प्रतिनिधित्व करते हंै। इसमें केवल उनकी ही बात होती है और जब गरीबों एवं कमजोर वर्गों की बात होती भी है तो इन प्रभावशाली अमीर और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं के नजरिए से होती है।’’16
निष्कर्षतः विज्ञापन उपभोक्ता-मन को अपनी बहाव में बहा ले जाने वाला सशक्त हथियार है जिसका मुख्य लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण किसी उत्पाद/वस्तु की बिक्री को सुनिश्चित करना है। कला समीक्षकों की राय में-‘‘विज्ञापन के विकसित इस नए प्रारूप ने उत्तर आधुनिक नए परिस्थितियों को रचा है। इसने कला को देखने-समझने के पूरे ढाँचें को बदल दिया है। आज नए मीडिया का अधिकतर हिस्सा डिजिटल की ओर उन्मुख है। तकनीकी विकास में हुए विस्फोट ने कलाओं की सीमाओं को ख़त्म कर दिया है।’’17 यह रद्दोबदल न केवल इलेक्ट्राॅनिक संचार-जगत में हुआ है, अपितु रेडियो, समाचार-पत्र, ब्रोशर, होर्डिंग, पम्पलेट आदि सभी जनमाध्यम तीव्र बदलाव की चपेट में हैं। पूंजीतंत्र द्वारा निर्देशित-नियंत्रित इस पद्धति को आज भारतीय समाज इस कदर आत्मसात कर चुका है; मानों यह हमारे जीवनशैली की कुदरती अनिवार्यता हो। वास्तव में विज्ञापन को मानवीय स्वाभाव और व्यवहार को इच्छित-दिशा में ले जाने वाला एक प्रायोजित प्रक्रम भी माना जाना चाहिए जो प्रारंभ में किसी एक खास समुदाय/वर्ग को सम्बोधित होता है, किंतु सार्वजनिकीकरण के बाद विज्ञापन पूरे जनमानस पर एकसमान आकर्षण और प्रभाव छोड़ सके, यही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है।
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1. कालजयी, किशन(संपादक); आलेख ‘कुछ बातें: इनसाइड लाइव’, ‘सबलोग’, मासिक पत्रिका, अगस्त-सितम्बर 2010, पृ0 सं0 9।
2. http://webkhabar.com/news.php?cat=9
3. जैन, (प्रो0) रमेश; जनसंचार विश्वकोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृ0 9।
4. कुमार, (डाॅ0) सुवास; हिन्दी: विविध व्यवहारों की भाषा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2007, पृ0 सं0 72।
5 http://www.swatantraawaz.com/sanjay_diwedi.htm
6. धूलिया, सुभाष; सूचना क्रांति की राजनीति और विचारधारा, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001, पृ0 सं0 17।
7. आलेख ‘युवाओं पर बाज़ार की नजर है’, ‘कादम्बिनी’, सं0 मृणाल पाण्डेय, मासिक पत्रिका, अक्तूबर 2007, पृ0 सं0 19।
8. http://www.bhartiyapaksha.com/?p=44299. भानावत, (डाॅ0) संजीव(संपादक); संचार के सिद्धांत, जनसंचार केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, संस्करण 2003, पृ0 176।
10. वही, पृ0 198।
11. बिष्ट, पंकज(संपादक); आलेख ‘संतोष और असुरक्षा के साये में’, समयांतर, मासिक पत्रिका, फरवरी 2011, पृ0 10।
12. यादव, राजेन्द्र(संपादक); चालाक और हमलावर मीडिया, ‘हंस’, मासिक पत्रिका, जनवरी 2007, पृ0 सं0 133।
13. भानावत, (डाॅ0) संजीव(संपादक); संचार के सिद्धांत, जनसंचार केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, संस्करण 2003, पृ0 183।
14. विलियम्स, रेमण्ड; ‘संचार माध्यमों का वर्ग-चरित्र’, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम हिन्दी संस्करण 2000, पृ0 स0 86।
15. वही।
16. बिष्ट, पंकज(संपादक); आलेख ‘समाचार उद्योग में बढ़ता संकेन्द्रण’, समयांतर, मासिक पत्रिका, फरवरी 2011, पृ0 29।
17. कुमार, विनय; रविवारी अंक, जनसत्ता, 23 जनवरी, 2011।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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