Friday, December 3, 2010

ख़बर में ख़बरची

आजकल मीडिया ज्यादा, शोख, बदमिज़ाज़ और नकचढे़ किस्म का हो चला है। कहने को तो जनमाध्यम है, पर लोगों से सरोकार लेशमात्र भी नजर नहीं आता। अगर होता
तो क्या बरखा दत्त और वीर सांघ्वी के नाम इस कदर उछाले जाते कि उनकी अपनी ही सफाई में बोलती बंद हो जाती। वैसे ये अकेले नहीं हैं। मेरी राय में, इनकी अकथ कहानी पर चर्चा करना फिजूल में इन नामचीन पत्रकारों को शोहरत भेंट करना है। किसी जमाने की मिशनधर्मी पत्रकारिता अपने मुख्य लक्ष्य से भटकते हुए आज सेक्स, हिंसा तथा हल्के व फुहड़ किस्म के मनोरंजन का ठेकेदार बन चुकी है। इमेजिन टीवी पर चल रहे ‘राखी का इंसाफ’ और कलर्स के ‘बिग-बॉस’ रियलिटी शो इसी श्रेणी के ख्याली-भूप हैं। लिहाजा, सैद्धांतिक मूल्य तथा नैतिक-बोध जैसी कोई स्पष्ट लक्ष्मण-रेखा दूर-दूर तक नजर नहीं आती, जिस से यह अनुमान लगाया जा सके कि हम कहाँ कौन सी भूल कर रहे हैं? हाल के नीरा वाडिया प्रकरण में पत्रकारों की मिलीभगत को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।
नये निर्धारित मानदंड के मुताबिक संपादकीय विशेषाधिकार प्रबंधकीय जिम्मेदारी के पाले में चला गया है। पद और रुतबा पाकर बौराए नौसिखिओं की कारगुजारियाँ कितनी भयावह और देश के लिए त्रासद है, यह हाल के घटना-संदर्भ में स्वतः व्याख्यायित है। आज मीडिया ने संपादकीय सत्ता एवं पत्रकारीय वजूद को खंडित-मंडित करते हुए पत्रकारिता के मूल-स्वर को ही विलुप्त कर डाला है। मैनजमेंट स्कूलों से प्रबंधन का गुर सीख मीडिया के उच्चतमपदों पर आसीन लोगों के लिए पत्रकारिता एक पैकेजिंग आइटम है जिसे कलात्मक ढंग से एक उत्पाद माफिक बेचा जाना है।
बता दूँ कि स्वाधीनता से ठीक पहले पत्रकारिता में ओज और सत्य के प्रति जो दृढ़ आग्रह दिखलाई पड़ता है। उसका अंशमात्र प्रभाव भी आज की पत्रकारिता में नहीं है। जनहित और जनकल्याण को अपना प्राथमिक दायित्व मानने वाली यह पत्रकारिता असल में गाँधी के ‘सर्वोदय पत्रकारिता’ का उदाहरण है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ भी महात्मा गाँधी के पक्ष का समर्थन करती दिखती हैं।
एक जमाने में दैनिक समाचार पत्र ‘आज’ सत्य के लिए अपना सर्वस्व आहूत कर देने का पक्षधर था। उसकी दृष्टि में समाचार-पत्र लोक महत्त्व का एक ऐसा संचार माध्यम है जिसका प्राथमिक कार्य और उद्देश्य लोगों में सूचना, शिक्षा एवं स्वस्थ मनोरंजन को अधिकाधिक विकसित करना होता है। यह आम से खास वर्ग तक एकसमान पहुँच को प्रदर्शित करने का उपयुक्त जरिया है। साथ ही पत्रकारिता समाज में जागरूकता और जागृति लाने का सशक्त हथियार भी है जो व्यक्ति की आंतरिक खूबसूरती को निखारते हुए उसे कला-साहित्य की बौद्धिक दुनिया से परिचित कराता है।
यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की संक्षेप में पड़ताल करें, तो हम पायेंगे कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृष्य में राष्ट्रीय चेतना का उभार 1857 के बाद से ही दिखाई देने लगता है. किंतु 19वीं शताब्दी के आखिरी दिनों में राजनीतिक बीजारोपण के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होती है। इसके बाद स्वतःस्फूर्त स्वराज और स्वाधीनता का आंदोलनकारी मुहिम जोर पकड़ लेता है। ब्रिटिश हुकूमत के साथ भारत का यह केवल राजनीतिक गतिरोध नहीं था, बल्कि यह तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की राष्ट्रीय जवाबदेही भी थी जिसका मकसद समवेत रूप से आजाद भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा तैयार करना था।
ध्यातव्य है कि इस दौर की पत्रकारिता महज सूचना-स्रोत का अथाह सागर न हो कर जनचेतना, जनवाणी और जनसमृद्धि का विकासमान प्रतीक मानी जा चुकी थी। नामों की फेहरिस्त में प्रमुखता से शामिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भटृ, प्रताप नारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेष शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, तिलक और गाँधी ऐसे पत्रकार थें, जिनके लिए मुनाफे की बात कौमी एजेंडे के आगे तुच्छ और अस्वीकार्य थी। लेकिन आज पत्रकारिता में फायदे की बात सर्वोपरि है। आप चाहे कितने भी कशल, दक्ष और सक्षम क्यों न हो? आपकी पूछ तभी होगी, जब आप अखबारी संस्थान को मोटी आय उपलब्ध कराने में सफल हांे। अन्यथा आप से बेहतर कई जन अपने भरे-पूरे रिज्यूम के साथ लाइन में खड़े हैं।
कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में अखबारी दफ्तर अब हाईटेक बन चुका है। अब पहले माफिक एक कोठरीनुमा जगह से अखबार निकालना संभव नहीं है। वह दौर बीत गया जब घाटे का सौदा जानकर भी पत्र या पत्रिका निकालने की एक अदद कोशिश होती थी। श्रमजीवी पत्रकार की भूमिका निभाते हुए औने-पौने मेहनताना पर संपादक और पत्रकार बनने की होड़ मची रहती थी। जबकि अब संपादक या उपसंपादक का मतलब एक ढंग का बंगला, लग्जरी कार और अत्याधुनिक सामानों की पूरी फौज साथ होना है। महत्त्वाकांक्षी संपादक या पत्रकार अब सुविधाभोगी हो गया है। समय ने शहरी जीवनशैली को इतना बदल दिया है कि मीडियाकर्मी इन सब चीजों से कट कर रह ही नहीं सकता है।
गौरतलब है कि आज के मीडियाकर्मियों की खुद की परेशानी और तकलीफ कम नहीं है। चौबीसों घंटे वह काम करने का दबाव झेल रहा है। नौकरी हर पल एक चैलेंज सामने रखती है। व्यावसायिकता के बवंडर ने उसकी व्यक्तिगत सोच, विवेक और दृष्टि को मानों सोख लिया है। उस पर हर कीमत पर सबसे पहले ख़बर हासिल करने का दबाव है। ऐसी खबर जिसके अंदर हंगामा खड़ा कर सकने की कुव्वत हो तथा बहुतांश लोगों कि उसमें दिलचस्पी हो। क्योंकि आमआदमी की हकीकत दिख-दिखाकर और उसे बार-बार दुहरा कर उन्हें अपना बिजनेस चौपट नहीं करना है।
अतएव, सिर्फ यह कह चुप्पी साध लेना कि आज की पत्रकारिता नीलाम हो रही है या फिर हाशिए पर ठेली जा रही है, तर्कसंगत नहीं है। निःसंदेह पत्रकारिता द्वारा पूर्व-स्थापित मानदंडों में बदस्तूर गिरावट जारी है तथा ख़बरों में मानवीय सोच, संवेदना और दिशा-दृष्टि का पूर्णतः अभाव है; फिर भी हमें मीडिया के अंदर के ‘पॉलिटिक्स’ को नए तरीके से समझने की जरूरत है। अंदरूनी समीकरण को जब तक दुरुस्त नहीं किया जाता हम मीडिया पर आक्षेप या आरोप मढ़कर खुश अवश्य हो सकते हैं, किंतु सार्थक उपाय ढूँढ पाना बेहद मुश्किल है। अतः आधुनिक पत्रकारिता के खिलाफ हल्लाबोल किस्म का प्रोपगेंडा फैलाने की बजाय इस बारे में पूरी गंभीरता के साथ सोचा जाना ही श्रेयस्कर है। हमें इस व्यवस्था के अंदर काम कर रहे लोगों की मजबूरियों पर भी दृष्टिपात करना होगा जिनके लिए हाल और हालात ने ऐसी परिस्थितियाँ रच दी है कि उसकी मुखालफत कर कोई भी पत्रकार या मीडियाकर्मी एक ढंग का ठौर ठिकाना हासिल नहीं कर सकता है। मेरी अपनी राय में, केवल आदर्ष बाँचने से किसी को मुकम्मल छत नसीब हो जाए, ऐसा हरगिज संभव नहीं हैं। लोभ-स्वार्थ, घृणा-महत्वाकांक्षा तथा झूठ-फरेब से भरे इस दौर में मीडिया के अंदर स्वस्थ-सृजन हो, इसके लिए सरकारी प्रयास, समर्थं ढाँचा, बेहतर वेतनमान, पारदर्शी कानून और स्वैच्छिक अचारसंहिता भी तो जरूरी है।

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...