Thursday, April 25, 2013

रंगीन देश की उदास परीकथाएँ


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भारत में परीकथाएँ कही-सुनी जाती हंै।

पर उदास परीकथाएँ? यह तो कहने-सुनने में ही अजीब लग रहा है।

पाठक महोदय! आप इस घनचक्कर में नहीं पड़े। देश में सबकुछ रंगीन है। या कहें कि रंगीनीयत ही आज हम भारतीयों का भाग्य-विधाता है। रंगीन न होना फुहड़ और बेशुऊर होना है। आजकल तो लोग आँख पर रंगीन चश्मे भी पायजामे की तरह पहनते हैं। जब जी चाहा.....खोल दिया जरबन की तरह।

ऐसे लोग सभ्य देश की राजधानियों में रहते हैं। बड़े होते नगरों में। महानगरों में। इनकी चहारदिवारियाँ ऊँची और सलीकेदार हैं जिसमें बजता है-24x7....‘मेरा मन डोला...मेरा तन डोला...’। इनकी ख़बरें ‘लाइव’ नहीं होती।

‘हिडेन कैमरे’ पहले ही उनसे सब डील कर चुके होते हैं-सीक्रेट.....सीक्रेट...सीक्रेट।

और सच सिगरेट की तरह जलता रहता है। ईमानदारी को लोग सच के राख हो जाने तक साथ रखते हैं...फिर ज़मीन पर फेंक अपने पैरों से मसल देते हैं।

पाठक महोदय! बफर और बुफर के इस ज़माने में परीकथाओं की बात....ऊपर से तुर्रा यह कि उदास परीकथाओं की बात। अजीब है। हास्यास्पद। दौ कौड़ी की और घटिया हैं। रजीबा यह कहते हुए पसर जाता है बिस्तर पर।

उदास परीकथाएँ दरवाजे पर दस्तक देती है। रजीबा उदास कदमों से उठता हँू। उदासी के साथ दरवाजा खोलता हँू-‘‘आ गई तुम!’’

रजीबा के होंठो पर मुसकान ठहर जाती है। उदास परीकथाएँ सौत की तरह उसे ताड़ लेती है।

‘‘मैं उदास परीकथाएँ हँू....किप आॅन सैडनेस....सैड....सैड....सैड’।

रजीबा को भूल जाने के लिए कहा जाता है। अपनी ही खुशियों को....मुसकान को भूल जाने के लिए। उसकी आँखें लाल होती है। धड़कन तेज। सोचता है....उदास परीकथाएँ तुम भी। तुमने भी मुझे भूल जाने के लिए कह दिया। क्या-क्या भूलँू। यह कि हम 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद हुए। एक आज़ाद मुल्क में पैदा हुए हैं। जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था आज के राजनीतिक-भूगोल में ज़िन्दा है। यह कि भारत एक शान्तिप्रिय देश है। यहाँ के लोग उच्च जीवन-मूल्यों में विश्वास करते हैं। यहाँ सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियाँ हैं जो सब पाप धोती हैं....मन को निर्मल और हृदय को पापमुक्त बनाती हैं।

उदास परीकथाएँ महामौन धारण करती हैं। यह भी किसी अट्टाहास से कम नहीं है।

रजीबा को लगता है। उदास परीकथाएँ उसे नंगा कर चुकी हैं। नंगई आज भारत-विभूषित शब्द है। परिचित और बेहद प्रचलित।

तभी अचानक रजीबा के चारों तरफ से रेत उड़ने लगते हैं। रेत पानी के बिना बेऔकात होते हैं। रजीबा जानता है। पानी के बिना रेत के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं होता है-‘रहिमन पानी राखिए....बिन पानी सब सुन’। अधिसंख्य भारतीय मुट्ठी में लेकर छोड़ दिए गये रेत हैं। वैसे रेत जो अपने से होकर गुजरे हर पदचिह्न को अपने शरीर पर अंकित करते हैं....लेकिन उनसे होकर गुजर गए लोगों के लिए उनका अंकित-मूल्य हमेशा शून्य ही होता है। सरकारें बदलती हैं। निज़ाम बदलते हैं। लोकशक्ति, सत्ता और सरकार बदलती है। लेकिन वह कभी नहीं बदलता है जिसे बदलने का दावा करके ये चन्द लोग मजा मार रहे हैं। अपनी रंगीनियत पर इतरा रहे हैं। अपने जैसे कुते पाल रहे हैं। उसी की तरह भूँक रहे हैं।

उदास परीकथाएँ रजीबा के भीतर चल रहे इन चीजों को ताड़ लीं हैं। बोली कुछ नहीं। क्या बोलती वों? उन्हें जो सुनना था...रजीबा की निगाहें उसे अभी ढूंढ रही थीं।

(.....फिलहाल थोड़ा लिखना ज्यादा समझना)

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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