Monday, April 15, 2013

वक़्त की हथेली में तल्ख़ लम्हें, जि़न्दगी ख़ुशनुमा


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ग़ज़ल-संग्रह: वक्त की हथेली में
ग़ज़लकार   : हातिम जावेद
प्रकाशक      : अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4
     शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-
     ग़्ााजियाबाद-201005(उ.प्र.)
मूल्य ः रुपए 200।


मेरी यह गुज़ारिश कि-‘आप इस ग़जल-संग्रह को अवश्य पढ़े।’ ख़ालिस दोस्ताना इल्तज़ा नहीं है। और न ही किसी औपचारिकता का निर्वाह। यह तो उस रूह की आवाज़ है जो इस संग्रह को पढ़ते हुए सहृदय पाठक के मन में पैबस्त हो जाती है; हर्फ-दर-हर्फ, रूमानी कम रूहानियत के साथ अधिक। एक मुक़म्मल रचना अपनी भाषा के स्वभाव, भाव-भंगिमा, कहन-शैली, रचना-विधान और मुहाविरा से पाठकीय पहचान हासिल करती है। वैसे भी उर्दू काव्यभाषा में अर्थ-क्षमता बोलचाल के मुहावरे से उपजती है, न कि कवियों द्वारा विकसित विशिष्ट बिम्ब-विधान से। दोनों में फ़र्क भी है। मुहाविरा कहा जाता है, बिम्ब कहा नहीं जाता बनाया जाता है।

ग़ज़लगो हातिम जावेद के इस संग्रह में यह शऊर जबर्दस्त है। अंतिका प्रकाशन से हाल ही में छप कर आई ग़ज़ल-संग्रह ‘वक्त की हथेली में’ को पढ़ना सुकूनदेह कम भीतर की कबकबाहट और बेचैनी को उन्मुक्त करना अधिक है। समकालीन अन्तर्विरोध और अन्तद्र्वंद्व दिमाग में परपराने लगते हैं एकदम अचानक-

‘‘शोखियाँ, क़हक़हे, महफि़लें, रौनकें।
 फ़ौज दंगाइयों की उठा ले गई।...

 रूह इंसानियत की तड़पती रही।
 लूटकर लाज ख़ूनी फ़ज़ा ले गई।।’’

आम-जि़न्दगी की लूट-खसोट; जल-जंगल-ज़मीन पर गैरों के धावे; अस्मत और अस्मिता पर चोट; उसूल, ईमान और तहज़ीब में आते फ़र्क/फाँक इत्यादि हमारी जि़न्दगी के नामुराद ज़ख्म-ओ-ज़लालत हैं जिन्हें हातिम जावेद मूक-बधिर नहीं छोड़ते हैं। वे अपने इस सद्यः प्रकाशित ग़जल-संग्रह में जि़न्दा शामिल करते हैं, कुछ यूँ-

‘‘ले गया चांदी के पंजों से कोई पर नोच कर।
 फड़फड़ा कर मेरी चाहत के कबूतर रह गए।।...

 ज़्ाातो-मज़हब की सियासत का नतीजा देखिए।
 चार सू ‘जावेद’ बर्बादी के मंजर रह गए।’’

हक़ीक़त का रूख हमेशा ज़मीनी होता है। दिमागी रसद-पानी भी वह अपनी मिट्टी से ही पाता है। हातिम जावेद जब अपने जेब को टटोलते हैं तो बीते खुशनुमा जि़न्दगी के कुछ तल्ख़ लम्हें भी बरबस ज़ेहन में खींची चली आती है:

‘‘ उम्र भर की वफ़ा का सिला ये दिया।
  क़ातिलों को हमारा पता दे गए।।...

  छीन कर मुझसे ‘जावेद’ आँखें मेरी।
  मेरे हाथों में वो आइना दे गए।।’’

पढ़ना जितना वाजि़ब है; वाजि़ब पढ़ना उससे कहीं अधिक जवाबदेहीपूर्ण। वैसे चुनौतीपूर्ण समय में जब सत्ता-सियासत ने आम-आदमी का फिक्र करना छोड़ दिया है, उलटे वह इंसानी चेतना और सामाजिक सह-अस्तित्व की उदात भावना को जमींदोज करने पर तूली है। हमें हातिम जावेद की तूलिका के ये अल्फ़ाज निःसन्देह महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं-

‘‘मुहब्बत, दोस्ती, ग़ैरत, देयानत छीन लेती है।
 न जाने और भी क्या-क्या सियासत छीन लेती है।।

मेरे ख़्वाबों को ताबीरें मयस्सर हों तो कैसे हों।
मेरी सारी कमाई तो ज़रूरत छीन लेती है।’’

मित्रो, हिन्दी ग़जल की समझ मेरी अभी पौधे के उम्र की है। लेकिन, इस ग़जल-संग्रह ने मुझे अपनी रौ में भीगोया जबर्दस्त। मेरे साथी लक्ष्मण प्रसाद जिनके भीतर संवेदना की ठेठ राग पलती है और जिनकी बोल अद्भुत लय पाकर जीवन्त हो जाती है अक्सर; को मैं जब यह गुनगुनाते सुनता हँू, तो अभिभूत हो जाता हँू-

‘‘दिल में फि़तना जगा दिया किसने?
 क़त्लो-ग़ारत सिखा दिया किसने??
 तुम तो फूलों से भी मुलायम थे।
 तुमको पत्थर बना दिया किसने??’’

मैं शुक्रगुज़ार हँू अपने हमराही लक्ष्मण प्रसाद जी का जिनके नेक इरादे ने मुझे इस पठनीय ग़जल-संग्रह से रू-ब-रू कराया। अपने मित्र को ग़र धन्यवाद भी कहना चाहूँ तो हातिम जावेद से ही दो पंक्ति उधार लेकर-

‘‘छू भी न सकंेगे तेरे नापाक इरादे।
‘जावेद’ के हमराह सदा माँ की दुआ है।।’’

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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