--------------------------------------
हमें हिन्दी-विलापी ज़बानकारों की जरूरत नहीं है। ऐसे नकारे लोग कोई
दूसरे नहीं हैं; वे हम ही में से हैं यानी हिन्दीभाषाभाषी शोधक-अन्वेषक;
अध्यापक-प्राध्यापक, अकादमिक या राजभाषिक बुद्धि-सेनानी वगैरह-वगैरह
जिनकी चेतना और संस्कार दोनों में से हिन्दी-भाषा के प्रत्यय, प्रतिमा,
अनुभव, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, संवेदन इत्यादि सब के सब गायब हो चुके
हंै। इन दिनों हिन्दी-प्रदेशों में अंग्रेजी को ही ज्ञान के गहन प्रकाश
के रूप में देखने का चलन बढ़ा है। इसे भूख-निवारण, कुण्ठा-निवारण,
बेराजगार-मुक्ति, भाषाई-प्रतिरूप, चेतना-विकास और संस्कृति-बोध की
वास्तविक, एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ कसौटी मानकर प्रचारित-प्रसारित करने
वाले हमहीं-आपहीं जैसे ज्ञान-आयोगिया लोग हैं।
क्या इस सचाई को हम झुठला सकते हैं कि आजादी के इत्ते बर्षों बाद भी
भारत में बनी अंग्रेजी की एक
भी धारावाहिक, वृत्तचित्र, सिनेमा आदि ने भारतीय जनमानस को
आलोडि़त-आन्दोलित करने में सफलता हासिल नहीं की है। कितने लोग मानेंगे कि
अंग्रेजी में प्रकाशित किसी पुस्तक ने भारतीय मन की सामूहिक अभिव्यक्ति
की दिशा में अकल्पित अथवा अप्रत्याशित दखल देने का जिम्मा उठाया है।
दरअसल, हम भूल जाते हैं कि अंग्रेजी भाषा में तैयार उत्पाद, साहित्य,
तकनीक, प्रौद्योगिकी इत्यादि को भारतीय बाजार में बेचा-खपाया जा सकता है;
लेकिन, लोगों में प्रतिरोधी संचेतना पैदा करने की कूव्वत अपनी भाषा को
छोड़कर दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकती है। फिर ऐसा क्यों है कि यशोगान
उसी भाषा का, जयगान उसी भाषा का, दर्शन-साहित्य सम्बन्धी पिच्छलग्गूपन
उसी भाषा का, ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी आकर्षण उसी भाषा का हमारे
मन-मस्तिष्क पर काबिज़ है। अंग्रेजी को प्रायोजित ढंग से नम्बर वन या
सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं जबकि दुनिया भर में
ज्ञान की इकलौती भाषा वही नहीं है? आखिर ऐसी स्थिति क्योंकर है; यह
हम-सबके लिए निःसन्देह विचारणीय है? क्योंकि यह हमारी मातृभाषा हिन्दी के
लिए ही नहीं, अपितु देश की उन सभी भाषाओं के लिए यक्ष प्रश्न है जो अपनी
भाषा को लेकर सवाल खड़े करना चाहते हैं, सोचना, विचारना और खुले रूप से
संवाद करना चाहते हैं।
वर्तमान समय की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हिन्दी के अकादमिक जगत के
लोग इस मुद्दे पर प्रायः सार्थक कम बोलते हैं; घिसी-पिटी बातों को
दुहराते ज्यादा हैं। दरअसल, हमारी भाषा के जानकारों के पास स्पष्ट समझ और
निष्पक्ष नेतृत्व का संकट गहरा है। भाषिक अभिव्यक्ति के लिए शब्द-भण्डार
विपुल मात्रा में उपलब्ध हंै; लेकिन, सहृदय ज्ञान-संचारकों,
वात्र्ताकारों, मार्गदर्शकों की भारी कमी है। मौजूदा स्थिति यह है कि जो
विद्धान हैं वे चुप हैं। वे प्रायः अपनी विद्वता के आलोक में ही विचरते
रहते हैं-‘अजगर करे न चाकरी...’ के दर्शन के साथ। लेकिन जो नई पीढ़ी के
हमारे जैसे भाषाई शावक हैं वे संभाव्य-चेतना से बिल्कुल खाली नहीं हैं।
हम विद्यार्थीजन इस कमी को पाटने की दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं। हम
यत्नपूर्वक और पूरे मनोयोग से अपनी भाषा में स्वस्थ और सार्थक जवाब देने
के लिए कटिबद्ध और संकल्परत हैं। स्मरण रहे, हम फिल्मी अंदाजे-बयाँ की
तरह तड़क-भड़क से भरपूर मनोरंजनयुक्त कार्यक्रम करने के हामी नहीं हैं;
हम भाषाई विचार-विमर्श के स्तर पर सतही और बासी चिन्तन सामग्री भी नहीं
परोसना चाहते हैं। वास्तव में, हम किसी भाषा-विशेष के सन्दर्भ में कोई
राजनीतिक नारा या जुमला उछालने की बजाए अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा
में बात करने को पूरी शिद्त और शाइस्तगी के साथ इच्छुक हैं। हमारा मुख्य
ध्येय निज संकल्प, चिन्तन, दूरदृष्टि, देसी ज्ञान, देसी आधुनिकता, लोक
कला, योजना, तकनीक, प्रौद्योगिकी, इंटरनेट इत्यादि के बहुआयामी तथा समग्र
प्रयोग-प्रसार के माध्यम से हिन्दी भाषा को समुन्नत, विकासशील और
सार्वदेशिक ज्ञान-मीमांसा का क्षेत्र में सर्वतोमुखी घोषित करना है। हम
पूरी ताकत से उस आन्तरिक-बाह्î संक्रमण को अपनी संज्ञानात्मक बोध, चेतना,
व्यक्तित्व और व्यवहार से अलग कर देना चाहते हैं जो ज्ञान की भाषा होने
की बजाए वर्चस्व और प्रभुत्त्व की महिमामण्डित भाषा बनती जा रही है।
यह आवश्यक है क्योंकि आज पूरी दुनिया बाज़ार पूँजीकरण के दबाव और चपेट में
है। हमें ‘पेट्रोडाॅलर’ और ‘मार्केट कैप’ से दबते रुपए की तरह अपनी भाषा
को शिकस्त खाने नहीं देना है। हम रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस विचार से
पूर्णतया सहमत हैं जिसका आह्वान उन्होंने उस दौर में किया था जब
देशकाल-परिवेश औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ा था-‘‘मैंने बहुत दुनिया देखी
है। ऐसी भाषाएँ हैं जो हमारी भाषाओं से कहीं कमजोर हैं परन्तु उनके
बोलनेवाले अंग्रेजी विश्वविद्यालय नहीं चलाते। हमारे ही देश में ये लोग
परमुखापेक्षी हैं...देशी भाषाओं को कच्चे युवकों की जरूरत है। लग पड़ोगे,
तो सब हो जाएगा। हिन्दी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को
प्रकट करने का प्रयत्न करना होगा। क्यों नहीं होगा? मैं कहता हूँ जरूर
होगा।’’
भी धारावाहिक, वृत्तचित्र, सिनेमा आदि ने भारतीय जनमानस को
आलोडि़त-आन्दोलित करने में सफलता हासिल नहीं की है। कितने लोग मानेंगे कि
अंग्रेजी में प्रकाशित किसी पुस्तक ने भारतीय मन की सामूहिक अभिव्यक्ति
की दिशा में अकल्पित अथवा अप्रत्याशित दखल देने का जिम्मा उठाया है।
दरअसल, हम भूल जाते हैं कि अंग्रेजी भाषा में तैयार उत्पाद, साहित्य,
तकनीक, प्रौद्योगिकी इत्यादि को भारतीय बाजार में बेचा-खपाया जा सकता है;
लेकिन, लोगों में प्रतिरोधी संचेतना पैदा करने की कूव्वत अपनी भाषा को
छोड़कर दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकती है। फिर ऐसा क्यों है कि यशोगान
उसी भाषा का, जयगान उसी भाषा का, दर्शन-साहित्य सम्बन्धी पिच्छलग्गूपन
उसी भाषा का, ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी आकर्षण उसी भाषा का हमारे
मन-मस्तिष्क पर काबिज़ है। अंग्रेजी को प्रायोजित ढंग से नम्बर वन या
सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं जबकि दुनिया भर में
ज्ञान की इकलौती भाषा वही नहीं है? आखिर ऐसी स्थिति क्योंकर है; यह
हम-सबके लिए निःसन्देह विचारणीय है? क्योंकि यह हमारी मातृभाषा हिन्दी के
लिए ही नहीं, अपितु देश की उन सभी भाषाओं के लिए यक्ष प्रश्न है जो अपनी
भाषा को लेकर सवाल खड़े करना चाहते हैं, सोचना, विचारना और खुले रूप से
संवाद करना चाहते हैं।
वर्तमान समय की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हिन्दी के अकादमिक जगत के
लोग इस मुद्दे पर प्रायः सार्थक कम बोलते हैं; घिसी-पिटी बातों को
दुहराते ज्यादा हैं। दरअसल, हमारी भाषा के जानकारों के पास स्पष्ट समझ और
निष्पक्ष नेतृत्व का संकट गहरा है। भाषिक अभिव्यक्ति के लिए शब्द-भण्डार
विपुल मात्रा में उपलब्ध हंै; लेकिन, सहृदय ज्ञान-संचारकों,
वात्र्ताकारों, मार्गदर्शकों की भारी कमी है। मौजूदा स्थिति यह है कि जो
विद्धान हैं वे चुप हैं। वे प्रायः अपनी विद्वता के आलोक में ही विचरते
रहते हैं-‘अजगर करे न चाकरी...’ के दर्शन के साथ। लेकिन जो नई पीढ़ी के
हमारे जैसे भाषाई शावक हैं वे संभाव्य-चेतना से बिल्कुल खाली नहीं हैं।
हम विद्यार्थीजन इस कमी को पाटने की दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं। हम
यत्नपूर्वक और पूरे मनोयोग से अपनी भाषा में स्वस्थ और सार्थक जवाब देने
के लिए कटिबद्ध और संकल्परत हैं। स्मरण रहे, हम फिल्मी अंदाजे-बयाँ की
तरह तड़क-भड़क से भरपूर मनोरंजनयुक्त कार्यक्रम करने के हामी नहीं हैं;
हम भाषाई विचार-विमर्श के स्तर पर सतही और बासी चिन्तन सामग्री भी नहीं
परोसना चाहते हैं। वास्तव में, हम किसी भाषा-विशेष के सन्दर्भ में कोई
राजनीतिक नारा या जुमला उछालने की बजाए अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा
में बात करने को पूरी शिद्त और शाइस्तगी के साथ इच्छुक हैं। हमारा मुख्य
ध्येय निज संकल्प, चिन्तन, दूरदृष्टि, देसी ज्ञान, देसी आधुनिकता, लोक
कला, योजना, तकनीक, प्रौद्योगिकी, इंटरनेट इत्यादि के बहुआयामी तथा समग्र
प्रयोग-प्रसार के माध्यम से हिन्दी भाषा को समुन्नत, विकासशील और
सार्वदेशिक ज्ञान-मीमांसा का क्षेत्र में सर्वतोमुखी घोषित करना है। हम
पूरी ताकत से उस आन्तरिक-बाह्î संक्रमण को अपनी संज्ञानात्मक बोध, चेतना,
व्यक्तित्व और व्यवहार से अलग कर देना चाहते हैं जो ज्ञान की भाषा होने
की बजाए वर्चस्व और प्रभुत्त्व की महिमामण्डित भाषा बनती जा रही है।
यह आवश्यक है क्योंकि आज पूरी दुनिया बाज़ार पूँजीकरण के दबाव और चपेट में
है। हमें ‘पेट्रोडाॅलर’ और ‘मार्केट कैप’ से दबते रुपए की तरह अपनी भाषा
को शिकस्त खाने नहीं देना है। हम रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस विचार से
पूर्णतया सहमत हैं जिसका आह्वान उन्होंने उस दौर में किया था जब
देशकाल-परिवेश औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ा था-‘‘मैंने बहुत दुनिया देखी
है। ऐसी भाषाएँ हैं जो हमारी भाषाओं से कहीं कमजोर हैं परन्तु उनके
बोलनेवाले अंग्रेजी विश्वविद्यालय नहीं चलाते। हमारे ही देश में ये लोग
परमुखापेक्षी हैं...देशी भाषाओं को कच्चे युवकों की जरूरत है। लग पड़ोगे,
तो सब हो जाएगा। हिन्दी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को
प्रकट करने का प्रयत्न करना होगा। क्यों नहीं होगा? मैं कहता हूँ जरूर
होगा।’’
No comments:
Post a Comment