Friday, May 30, 2014

‘अच्छे दिन’ गाने वालों का कुनबा और राजघाट के गाँधी

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   ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र ने मंत्रिमण्डल के नक्शे को छापा, तो मन में संदेह के हूक दोहरे हो लिए। ‘अच्छे दिन’ के नारे और मुहावरे टेलीविज़न से गायब हैं; अब ये समाचारों पत्रों के गरदन पर भी आसीन नहीं दिख रहे। हाँ, अलीबाग(महाराष्ट्र) और बंदायूँ(उत्तर प्रदेश) से बुरी ख़बरें हहाती हुई अवश्य आ रही हैं। लोगबाग इसे लेकर कुहराम भी मचा रहे हैं। ‘फास्ट ट्रैक’ निर्णय होने के आसार हैं। आमजन जो रोज इस तरह की बद्तर घटनाओं को देखने-सुनने का आदी हो गया है वह भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुरंग खुदवाते देख रहा है; जिसका मकसद है कि वे अपने प्रधानमंत्री आवास से निकले तो सीधे एयरपोर्ट पहुँचे। शायद! संसद भी पातालमार्गी(अंडरग्रांउड शिफ्ट) हो जाए, तो अचरज नहीं है। इस देश में सरकार और उसका भीतरी तंत्र कारपोरेट इत्र-फुलेल से गमक-दमक रहा है।  आमआदमी के भिनभिनाते-बजबजाते ज़िन्दगी से पिछली बार किसी को दरकार नहीं था; अबकी बार देखिए गुरु, मोदी सरकार किन-किन के दिन फेरने वाले हैं? 

 


मुझे कल तक अपनी चिन्ता भी सताती थी, अब तो वह भी नहीं; क्योंकि अबकी बार सीने पर गोली खाने जैसा स्टंट करना बेवकूफी होगी; ‘अच्छे दिन’ गाने वाले गुलाब फूल छिड़क गए वह क्या कम है? फिलहाल, मेरी सूरत और सीरत न देखिए। मुझसे मेरा नाम और पहचान न पूछिए। बल्कि इस बार गठित अपने मंत्रीमण्डल का हाल-ए-हकीकत देखिए और अन्दाजिए कि क्या आपके वाकई अच्छे दिन आने वाले हैं? अगर हाँ, तो जनता-जनार्दन खुश रहिए, मस्त रहिए।


गोकि जनता-जनार्दन से आशय यहाँ उनसे नहीं है जिनके पास ज़मीन-जायदाद इफ़रात है; उनसे भी नहीं है जिन्हें महीने की अंतिम तारीख को भारी मात्रा में एकमुश्त तनख़्वाह मिलते हैं। यहाँ बात उन सम्पन्न परिवारों के सन्दर्भ में भी नहीं है जिनके बच्चे ‘एन्ड्रायड’ मोबाइल पर वीडियो फिल्मस देखते हैं और अपनी ही माँ को ‘काऊ वुमैन’ कहकर चिढ़ाते हैं। माफ कीजिएगा, यहाँ जनता-जनार्दन का अर्थ उन नवजौवनों से भी नहीं है जो पार्टी-रेस्तरां अथवा डिस्कोथिक में क्रान्तिकारी चे-ग्वेरा का टी-शर्ट पहने हुए नृत्य करते तो दिखते हैं; लेकिन, इस शख़्सियत के बारे में जानने की इच्छा रखने पर उनके मुँह से एक बकार तक नहीं निकलती है। दरअसल, यहाँ जनता-जनार्दन का अर्थ संकुचित नहीं है; उसका दायरा सीमित नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि यहाँ बातें उनलोगों के बारे में की जा रही है जो अपने श्रमबल से अपनी तकदीर और तदबीर बदलने का स्वप्न देखते हैं; जिनके यहाँ पैदा होने वाली सन्तानों में प्रतिभा, योग्यता, दक्षता, प्रवीणता इत्यादि बेशुमार होते हैं, लेकिन ‘बुरे दिन’ के प्रस्तावकों ने उन्हें कभी इस काबिल नहीं समझा होता है कि उन्हें भी वे तमाम सुविधाएँ मुहैया कराई जाए जिनका संगबहनी बनकर कोई भी होनहार-बीरवान बन सकता है।


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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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