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(आसन्नप्रसवा: मोदी आने वाला है)
1) क्या हम भारतीय लोकतंत्र के किसी नवप्रवत्र्तनकारी युग में प्रवेश कर रहे है?ं
2) क्या एफडीआई, सेज, अधिग्रहण, कब्जा, दमन, निर्वासन, विस्थापन, पलायन इत्यादि शब्द अपनी घृणतम परिकल्पनाओं, अमानुषिक परिभाषाओं एवं विध्वंसकारी व्यवहार-प्रणालियों से सदा-सर्वदा के लिए विदा हो जाएंगे?
3) नमो-नमो द्वारा लाये जा रहे अच्छे दिन गुणात्मक रूप से पिछली सरकारों के क्रियाकलाप से भिन्न और मूल्यपरक होंगे?
3) यदि भिन्न और मूल्यवान हंै तो किन अर्थो में?
4) क्या मोदी-कार्यकाल में लोग अधिक खुशहाल, सुरक्षित और भविष्योनुमुखी चेतना से लैश होंगे?
5) क्या विभिन्न तरह के समाजों में व्याप्त गैर-बराबरी ख़त्म हो जाएगी?
6) क्या कथित विकास का रूढ़ अर्थ बदलेगा और यह सिर्फ मध्यवर्ग के विकास तक ही सीमित नहीं होगा?
7) क्या हाशिए पर रहने वाली दुनिया की अधिकांश आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार(गारंटीनुमा झाँसा नहीं) आसानी से उपलब्ध होगा?
8) क्या भारतीय जनतंत्र को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और सब जगह शांति और भाईचारे का माहौल बन सकेगा?
9) क्या हम इस तरह आदर्श लोकतंत्र के युग में प्रवेश करेंगे जिसमें सत्ता की बागडोर वास्तव में जनता के हाथ में होगी?
10) क्या नई सरकार विदेशी वर्चस्ववादी ताकतों के साथ सही तालमेल बिठाने अथवा वैश्विक राजनीति में सार्थक भागीदारी का नाम लेकर ऐसा कुछ भी नहीं करेगी जो सम्पूर्ण भारतीय जनता के लिए घातक अथवा खतरनाक हो?
महानुभावगण, ज्यादा हूमचिए अथवा चुमकिए मत। इन सवालों से टकराइए। यह तय जानिए की अगली लोकसभा चुनाव में हम युवाओं की तादाद आगे होगी और बढ़ी हुई होगी। जबकि आपका चेहरा और आपके लाव-लश्कर पीछे होंगे। हम भारतीय युवाओं का ‘विजन 2020’ तक पहुँचना सुनिश्चित है। आज हम कद्दावर नहीं हैं; लेकिन कल हमारा कद वही नहीं होगा जो आज है। हमारे सवाल कल भी इतने ही सामान्य नहीं होंगे; जैसे आज हैं। हम कल की तारीख़ में आज से अधिक सजग, सचेत और चेतस होंगे। अतः हमारा आज केन्द्र में न होना आपकी आँख में है। कल आपका केन्द्र से बाहर होना हमारी लय-सुर-ताल में शामिल होंगे...यदि आपने उपर्युक्त सवालों से बचने की कोशिश की। इनसे मुँह चुराना ही आपने अपना ‘राजधर्म’ समझा। यदि आपके आने के बाद भी भविष्य की राजनीति ने अपना चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला, तो तय मानिए जनाब! आपकी तो छुट्टी ही हो गई।
इस युवा समय में युवाओं के सामूहिक स्वर से टकराने की ताकत/कुव्वत किसी में नहीं है। आज तक राजनीतिक पार्टियाँ, सत्तासीन सरकारें, कारपोरेट जगत, बहुराष्ट्रीय कंपनिया, अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार, प्रभुत्त्वशाली शक्तियाँ इत्यादि हाहाकरी मुद्रा में हैं, तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय लोकतंत्र में ज़मीनी समझ के राजनीतिक युवाओं को राजनीति में शामिल ही नहीं होने दिया जाता है। खैर! अभी हम ऊपर पूछे गए सवालों पर लौटते हैं। ये बुनियादी और सबसे अहम सवाल हैं। इन सवालों को अगले प्रधानमंत्री बनने वाले व्यक्ति से हर वह भारतीय पूछना चाहेगा जो इस (अ)स्वाधीन भारत में दशकों से पीड़ित, शोषित और वंचित है। स्वयं को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाले नरेन्द्र मोदी विभिन्न मंचों से बराबर हुंकार भरते आये हैं। उनके कहे को जनता ने खारिज़ भी नहीं किया है। अतएव, यदि वे प्रधानमंत्री बन सके, तो जनता को इन सवालों का जवाब उन्हीं से और उनकी सरकार से ही चाहिए। दिल्ली में 49 दिन की सरकार बनाकर सबसे अधिक काम करने का डींग हाँकने वाले अरविन्द केजरीवाल से भी जनता की उम्मीद अभी चुकी नहीं है; बशर्ते वे जादूई यथार्थवाद की जगह यथार्थवाद की राजनीति के महत्त्व को समझने की काबीलियत अपने भीतर पैदा करें। अब हर सरकार को यह समझना ही होगा कि भारतीय जनता अब बिना किसी ‘लेकिन’, ‘किन्तु’, ‘परन्तु’ के अपना भला, हित और सर्वतोमुखी तथा टिकाऊ विकास चाहती है।
फिलहाल, नरेन्द्र मोदी की बात...क्योंकि इस घड़ी मीडियावी संसार में उन्हीं का आना तय माना जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनाये जाने की संभावना या कह लें आसार सबसे प्रबल हैं। कारण कि विजय शंखनाद के उद्घोषक नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनमानस अपनी इच्छाओं/आकांक्षाओं की (क्षति)पूर्तिकत्र्ता मान चुकी है। दशकों से लिजलिजी राजनीति की पैरहन बनी भारतीय जनता को यह भरोसा भी ‘नमो-नमो’ ने खुद ही दिलाया है। चाहे हम लाख-लिख इसे कांग्रंेस-विरोधी परिवर्तनकामी लहर होने का हवाला दें; किन्तु इसमें नरेन्द्र मोदी का व्यक्तिगत योग सर्वाधिक है। जनता ने उनके कहे को सुना है; उनकी बातों पर कान दी है और उसने अपनी आँखों से इस राजनीतिज्ञ में संकल्प, विकल्प और नेतृत्व का वास्तविक दमखम/साहस पहचानने-टटोलने की कोशिश की है।
यह सब हो सका है, क्योंकि जनता आज भ्रष्टाचार की जिस दलदल में फँसी है; वह व्यवस्थगत कुचक्र को जिस तरह झेल रही है; घोर निराशा और हताशा के जिस भँवर में वह ऊब-चूब कर रही है; उससे उबरने/निपटने के लिए अब उसे इसी तरह से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी, ऐसे ही निर्णय करने ही होंगे। दरअसल, जनता को पिछली सरकारों ने हद दरजे तक मुर्ख बनाया है। लेकिन, अब जनता को ‘उल्लू’ बनाना संभव नहीं है। इस बार जाति और धर्म के सिक्के खूब चले हैं, लेकिन वे कितने खोटे साबित हो गए हैं यह अबकी बार चुनाव परिणाम ही बताएगा। फिर भी, भारतीय जनता ने बिल्ली के गले में घंटी बाँध दी है।
कहना न होगा कि पिछली एनडीए सरकार ने भी भारतीय जन को बुरी तरह छला है। पाँच सालों तक शासनारूढ़ रही पार्टी ने वर्ष 2004 के चुनाव में जिस तरह ‘इंडिया शाइनिंग’ अथवा ‘भारत उदय’ का नारा/मुहावरा गढ़ा था; वह सिर्फ झूठ का पुलिन्दा ही साबित हुआ। इसी नाते उसके प्रचारवादी संस्कृति के जन-प्रबन्धक(स्पीन डाॅक्टर्स) मुँह के बल गिरे। जनता के बीच वादे चाहे कितने भी हवा-हवाई क्यों न किये जाते रहे हों, लेकिन, काम तो उसे अंततः ज़मीनी ही करना होता है। हमने देखा है कि एनडीए को अपनी इस प्रचारवादी राजनीतिक ढोंग का हर्जाना पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव में हार के रूप में दुबारा चुकाना पड़ा था। लिहाजा, वर्ष 2009 में विकल्पहीनता के भयानक दौर में जनता एक बार फिर यूपीए के कमजोर/अक्षम हाथों को ही थाम लेने को विवश और बाध्य दिखी। वाक्-बहादुर नरेन्द्र मोदी को ये सारे सबक निश्चय ही याद होंगे। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के लिए इस चुनाव में बहुमत से जीतना अब तक की भारतीय राजनीति का सबसे संवेदनशील क्षण होगा; जिसे एक व्यक्ति के बदौलत जीतने का सपना देखा एवं रचा-बुना गया है।
‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ या ‘मोदी आने वाला है’ का राग अलापने वालों को यह ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है कि लोकतंत्र में व्यक्तिवादी राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए; अगर ऐसी स्थिति है, तो तत्काल अन्य राजनीतिज्ञों को अपने व्यक्तित्व/चरित्र के सबलीकरण का महापाठ पढ़ने शुरू कर देने चाहिए।
इस बार जनता मोदी के पक्ष में है; ऐसा बिल्कुन नहीं है। दरअसल, भारतीय जनता झूठ/भ्रम के सीखचें को तोड़ना चाहती थी। वह टेलीविज़न के सच को ‘सच’ मानने को हरग़िज तैयार नहीं है। वह शहरी विकास के गोलमटोल दावे को भी नकार चुकी है। वह जानती है कि उसे सीने में दर्द हो और दवा दिल्ली को खिला दी जाए तो उससे उसका कोई फायदा होने वाला नहीं है। अतः आमजन अब सशर्त बदलाव, राहत, सुरक्षा, विकास, समृद्धि इत्यादि की माँग करती हुई एकजुट है। कथित तौर पर प्रचारतंत्र के बदौलत नरेन्द्र मोदी की छवि या चेहरा गढ़ने में मीडिया ने रात-दिन एक कर दिये हंै; उसने मोदी के चेहरे को इफ़रात प्रचार-खर्चे के शह पर जन-जन तक तक पहुँचाने का काम किया है; यह सब चाहे कितने भी सच हों जनता को इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है। भारत की नपुंसक होती भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने जिस ‘मिनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात की है; जनता का पूर्णविश्वास उस शब्दार्थ पर है। हाँ, उसका ‘डीएनए टेस्ट’ अभी बाकी है; लेकिन यह रास्ता जनता ने काफी सोच-समझकर और विवेकपूर्ण ढंग से चुना है। यह विश्वास मुझमें भी जगा है; क्योंकि मेरी दृष्टि में भी अब ढुलमुल रवैये की जगह यह समय कठोर निर्णय का है। युवा पीढ़ी ने इसी बिनाह पर मोदी का जबर्दस्त समर्थन किया है। इसमें कुछ अतिरेकी युवजन भी शामिल हैं जिनका मानस पिज्जा, चाऊमिन, बर्गर खाकर बना है या फिर पारंपरिक पुरोहिताई/पंडिताई के सामन्ती मानसिकता की उपज है। लेकिन, ऐसे हल्लाबोलू/सनकी युवाओं की तादाद कम है। हमें इनकी तबीयत दुरुस्त करने के लिए सकारात्म राजनीति की ताक़ीद करनी होगी। चलिए, यह पहलकदमी हम आज खुद ही से करें।
(आसन्नप्रसवा: मोदी आने वाला है)
प्रशंसा उलीचने से बचना आवश्यक |
2) क्या एफडीआई, सेज, अधिग्रहण, कब्जा, दमन, निर्वासन, विस्थापन, पलायन इत्यादि शब्द अपनी घृणतम परिकल्पनाओं, अमानुषिक परिभाषाओं एवं विध्वंसकारी व्यवहार-प्रणालियों से सदा-सर्वदा के लिए विदा हो जाएंगे?
3) नमो-नमो द्वारा लाये जा रहे अच्छे दिन गुणात्मक रूप से पिछली सरकारों के क्रियाकलाप से भिन्न और मूल्यपरक होंगे?
3) यदि भिन्न और मूल्यवान हंै तो किन अर्थो में?
4) क्या मोदी-कार्यकाल में लोग अधिक खुशहाल, सुरक्षित और भविष्योनुमुखी चेतना से लैश होंगे?
5) क्या विभिन्न तरह के समाजों में व्याप्त गैर-बराबरी ख़त्म हो जाएगी?
6) क्या कथित विकास का रूढ़ अर्थ बदलेगा और यह सिर्फ मध्यवर्ग के विकास तक ही सीमित नहीं होगा?
7) क्या हाशिए पर रहने वाली दुनिया की अधिकांश आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार(गारंटीनुमा झाँसा नहीं) आसानी से उपलब्ध होगा?
8) क्या भारतीय जनतंत्र को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और सब जगह शांति और भाईचारे का माहौल बन सकेगा?
9) क्या हम इस तरह आदर्श लोकतंत्र के युग में प्रवेश करेंगे जिसमें सत्ता की बागडोर वास्तव में जनता के हाथ में होगी?
10) क्या नई सरकार विदेशी वर्चस्ववादी ताकतों के साथ सही तालमेल बिठाने अथवा वैश्विक राजनीति में सार्थक भागीदारी का नाम लेकर ऐसा कुछ भी नहीं करेगी जो सम्पूर्ण भारतीय जनता के लिए घातक अथवा खतरनाक हो?
महानुभावगण, ज्यादा हूमचिए अथवा चुमकिए मत। इन सवालों से टकराइए। यह तय जानिए की अगली लोकसभा चुनाव में हम युवाओं की तादाद आगे होगी और बढ़ी हुई होगी। जबकि आपका चेहरा और आपके लाव-लश्कर पीछे होंगे। हम भारतीय युवाओं का ‘विजन 2020’ तक पहुँचना सुनिश्चित है। आज हम कद्दावर नहीं हैं; लेकिन कल हमारा कद वही नहीं होगा जो आज है। हमारे सवाल कल भी इतने ही सामान्य नहीं होंगे; जैसे आज हैं। हम कल की तारीख़ में आज से अधिक सजग, सचेत और चेतस होंगे। अतः हमारा आज केन्द्र में न होना आपकी आँख में है। कल आपका केन्द्र से बाहर होना हमारी लय-सुर-ताल में शामिल होंगे...यदि आपने उपर्युक्त सवालों से बचने की कोशिश की। इनसे मुँह चुराना ही आपने अपना ‘राजधर्म’ समझा। यदि आपके आने के बाद भी भविष्य की राजनीति ने अपना चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला, तो तय मानिए जनाब! आपकी तो छुट्टी ही हो गई।
इस युवा समय में युवाओं के सामूहिक स्वर से टकराने की ताकत/कुव्वत किसी में नहीं है। आज तक राजनीतिक पार्टियाँ, सत्तासीन सरकारें, कारपोरेट जगत, बहुराष्ट्रीय कंपनिया, अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार, प्रभुत्त्वशाली शक्तियाँ इत्यादि हाहाकरी मुद्रा में हैं, तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय लोकतंत्र में ज़मीनी समझ के राजनीतिक युवाओं को राजनीति में शामिल ही नहीं होने दिया जाता है। खैर! अभी हम ऊपर पूछे गए सवालों पर लौटते हैं। ये बुनियादी और सबसे अहम सवाल हैं। इन सवालों को अगले प्रधानमंत्री बनने वाले व्यक्ति से हर वह भारतीय पूछना चाहेगा जो इस (अ)स्वाधीन भारत में दशकों से पीड़ित, शोषित और वंचित है। स्वयं को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाले नरेन्द्र मोदी विभिन्न मंचों से बराबर हुंकार भरते आये हैं। उनके कहे को जनता ने खारिज़ भी नहीं किया है। अतएव, यदि वे प्रधानमंत्री बन सके, तो जनता को इन सवालों का जवाब उन्हीं से और उनकी सरकार से ही चाहिए। दिल्ली में 49 दिन की सरकार बनाकर सबसे अधिक काम करने का डींग हाँकने वाले अरविन्द केजरीवाल से भी जनता की उम्मीद अभी चुकी नहीं है; बशर्ते वे जादूई यथार्थवाद की जगह यथार्थवाद की राजनीति के महत्त्व को समझने की काबीलियत अपने भीतर पैदा करें। अब हर सरकार को यह समझना ही होगा कि भारतीय जनता अब बिना किसी ‘लेकिन’, ‘किन्तु’, ‘परन्तु’ के अपना भला, हित और सर्वतोमुखी तथा टिकाऊ विकास चाहती है।
फिलहाल, नरेन्द्र मोदी की बात...क्योंकि इस घड़ी मीडियावी संसार में उन्हीं का आना तय माना जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनाये जाने की संभावना या कह लें आसार सबसे प्रबल हैं। कारण कि विजय शंखनाद के उद्घोषक नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनमानस अपनी इच्छाओं/आकांक्षाओं की (क्षति)पूर्तिकत्र्ता मान चुकी है। दशकों से लिजलिजी राजनीति की पैरहन बनी भारतीय जनता को यह भरोसा भी ‘नमो-नमो’ ने खुद ही दिलाया है। चाहे हम लाख-लिख इसे कांग्रंेस-विरोधी परिवर्तनकामी लहर होने का हवाला दें; किन्तु इसमें नरेन्द्र मोदी का व्यक्तिगत योग सर्वाधिक है। जनता ने उनके कहे को सुना है; उनकी बातों पर कान दी है और उसने अपनी आँखों से इस राजनीतिज्ञ में संकल्प, विकल्प और नेतृत्व का वास्तविक दमखम/साहस पहचानने-टटोलने की कोशिश की है।
यह सब हो सका है, क्योंकि जनता आज भ्रष्टाचार की जिस दलदल में फँसी है; वह व्यवस्थगत कुचक्र को जिस तरह झेल रही है; घोर निराशा और हताशा के जिस भँवर में वह ऊब-चूब कर रही है; उससे उबरने/निपटने के लिए अब उसे इसी तरह से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी, ऐसे ही निर्णय करने ही होंगे। दरअसल, जनता को पिछली सरकारों ने हद दरजे तक मुर्ख बनाया है। लेकिन, अब जनता को ‘उल्लू’ बनाना संभव नहीं है। इस बार जाति और धर्म के सिक्के खूब चले हैं, लेकिन वे कितने खोटे साबित हो गए हैं यह अबकी बार चुनाव परिणाम ही बताएगा। फिर भी, भारतीय जनता ने बिल्ली के गले में घंटी बाँध दी है।
कहना न होगा कि पिछली एनडीए सरकार ने भी भारतीय जन को बुरी तरह छला है। पाँच सालों तक शासनारूढ़ रही पार्टी ने वर्ष 2004 के चुनाव में जिस तरह ‘इंडिया शाइनिंग’ अथवा ‘भारत उदय’ का नारा/मुहावरा गढ़ा था; वह सिर्फ झूठ का पुलिन्दा ही साबित हुआ। इसी नाते उसके प्रचारवादी संस्कृति के जन-प्रबन्धक(स्पीन डाॅक्टर्स) मुँह के बल गिरे। जनता के बीच वादे चाहे कितने भी हवा-हवाई क्यों न किये जाते रहे हों, लेकिन, काम तो उसे अंततः ज़मीनी ही करना होता है। हमने देखा है कि एनडीए को अपनी इस प्रचारवादी राजनीतिक ढोंग का हर्जाना पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव में हार के रूप में दुबारा चुकाना पड़ा था। लिहाजा, वर्ष 2009 में विकल्पहीनता के भयानक दौर में जनता एक बार फिर यूपीए के कमजोर/अक्षम हाथों को ही थाम लेने को विवश और बाध्य दिखी। वाक्-बहादुर नरेन्द्र मोदी को ये सारे सबक निश्चय ही याद होंगे। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के लिए इस चुनाव में बहुमत से जीतना अब तक की भारतीय राजनीति का सबसे संवेदनशील क्षण होगा; जिसे एक व्यक्ति के बदौलत जीतने का सपना देखा एवं रचा-बुना गया है।
ख़ालिस देवपुरुष बनाने वालों को जनता से डरना होगा |
इस बार जनता मोदी के पक्ष में है; ऐसा बिल्कुन नहीं है। दरअसल, भारतीय जनता झूठ/भ्रम के सीखचें को तोड़ना चाहती थी। वह टेलीविज़न के सच को ‘सच’ मानने को हरग़िज तैयार नहीं है। वह शहरी विकास के गोलमटोल दावे को भी नकार चुकी है। वह जानती है कि उसे सीने में दर्द हो और दवा दिल्ली को खिला दी जाए तो उससे उसका कोई फायदा होने वाला नहीं है। अतः आमजन अब सशर्त बदलाव, राहत, सुरक्षा, विकास, समृद्धि इत्यादि की माँग करती हुई एकजुट है। कथित तौर पर प्रचारतंत्र के बदौलत नरेन्द्र मोदी की छवि या चेहरा गढ़ने में मीडिया ने रात-दिन एक कर दिये हंै; उसने मोदी के चेहरे को इफ़रात प्रचार-खर्चे के शह पर जन-जन तक तक पहुँचाने का काम किया है; यह सब चाहे कितने भी सच हों जनता को इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है। भारत की नपुंसक होती भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने जिस ‘मिनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात की है; जनता का पूर्णविश्वास उस शब्दार्थ पर है। हाँ, उसका ‘डीएनए टेस्ट’ अभी बाकी है; लेकिन यह रास्ता जनता ने काफी सोच-समझकर और विवेकपूर्ण ढंग से चुना है। यह विश्वास मुझमें भी जगा है; क्योंकि मेरी दृष्टि में भी अब ढुलमुल रवैये की जगह यह समय कठोर निर्णय का है। युवा पीढ़ी ने इसी बिनाह पर मोदी का जबर्दस्त समर्थन किया है। इसमें कुछ अतिरेकी युवजन भी शामिल हैं जिनका मानस पिज्जा, चाऊमिन, बर्गर खाकर बना है या फिर पारंपरिक पुरोहिताई/पंडिताई के सामन्ती मानसिकता की उपज है। लेकिन, ऐसे हल्लाबोलू/सनकी युवाओं की तादाद कम है। हमें इनकी तबीयत दुरुस्त करने के लिए सकारात्म राजनीति की ताक़ीद करनी होगी। चलिए, यह पहलकदमी हम आज खुद ही से करें।
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