चुनावों में मरघटिए का टंट-घंट मत छानिए
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(21 जुलाई 2013 को इसी ब्लाॅग पर ‘हिन्दुस्तान’ समाचार पत्र के सम्पादक के नाम भेजे इस पत्र को प्रकाशित किया गया था।)
शशि शेखर अख़बार के सम्पादक हैं। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ में उनकी
वैचारिक-टीआरपी जबर्दस्त है। वे जो लिखते हैं, सधे अन्दाज़ में। उनका साधा
हर शब्द ठीक निशाने पर पड़ता है या होगा, ऐसी मैं उम्मीद करता रहा हूँ
(फिलहाल नाउम्मीदगी की बारिश से बचा जाना नितान्त आवश्यक है) लेकिन, कई
मर्तबा वे जो ब्यौरे देते हैं, तर्क-पेशगी की बिनाह पर अपनी बात रखते
हैं; उसमें विश्लेषण-विवेक का अभाव होता है। यानी वे अपने विचार से जिस
तरह पसरते हैं, उनकी तफ़्तीश से कई बार असहमत हुआ जा सकता है। खैर!
पत्रकारिता भाषा में तफ़रीह नहीं है, यह शशि शेखर भी जानते हैं और मैं भी।
बीते ढाई दशक में उनकी कलम ने काफी धार पाया है, चिन्तन में पगे और चेतस
हुए हैं सो अलग। यह मैंने कइयों से सुना है...और उनसे भी।
अब मुख्य बात। शशि शेखर के लोकप्रिय रविवारीय स्तम्भ ‘आजकल’ में आज का
शीर्षक है-‘‘चुनावों को महाभारत मत बनाइए’’। इसमें उनका कौतूहल देखने
लायक है-‘‘पुरजवान होती इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तानी सियासतदां अपने ही
इतिहास से सबक क्यों नहीं लेते? वे कबतक नफरत के भोथरे तर्कों को नया
जामा पहनाते रहेंगे? वे कबतक हमारे शान्ति पसन्द समाज को बाँटने की कोशिश
करते रहेंगे? वे हम पर तरस क्यों नहीं खाते? हम हिन्दुस्तानी हैं, सिर्फ
वोट बैंक नहीं।’’
ऐसे कुतूहल शशि शेखर जी जैसों के लिए सेहतमंद नहीं है। आप किस पर तरस
खाने की बात कर रहे हैं? भारतीय जनता के ऊपर जो चुनावों में हर एजेण्डे,
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़, जाति-धर्म, संस्था-समुदाय, भाषा-तहजीब इत्यादि से
ऊपर उठकर(तमाम षड़यंत्रों अथवा कुचक्रों के अस्तित्वमान होते हुए भी) अपना
निर्णय सुनाती आई है; जिसने भाजपा के ‘इंडिया शाइंनिग’ से लेकर बसपा के
‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ तक को अप्रत्याशित पटखनी दी है? उस कांग्रेस
को ठेंगा दिखाया है जिसके मीडिया-युवराज राहुल गाँधी पर पार्टी की ओर से
लाख एतबार-पेशगी के बावजूद जनता की दिलचस्पी लेशमात्र नहीं है।(वैसे
कांग्रेस में उनसे बेहतर कई युवा राजनीतिज्ञ हैं) तभी तो, आप इस बात का
जिक्र करना नहीं भूलते हैं-‘‘राहुल गाँधी ने पिछले अप्रैल में जब सीआईआई
को सम्बोधित किया, तो एक वर्ग(पंक्तिलेखक युवा लिखना भूल गए) ने सोशल
मीडिया पर उन्हें ‘पप्पू’ की उपाधि से नवाज दिया।’’
अतः उपर्युक्त उदाहरणों से ज़ाहिर है कि भारतीय आबादी ‘मुर्दों का टीला’
नहीं है, लिहाजा चुनावी मौके पर हमें भी मरघटिए का टंट-घंट नहीं छानना
चाहिए। यह ख़्याल रखा जाना आवश्यक है कि हमारे किए-धरे, कहे-सुने पर आज भी
जनता सबसे अधिक विश्वास करती है, अपनी आत्मा में सच के ज़िन्दा होने का
ढ़िढोरा पिटती है। इसलिए हमारे लिखे का वैचारिक-अर्थ निकसे न कि
वैचारिक-अर्थी; ऐसी निगाहबानी जरूरी है।
और जहाँ तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है, तो उनका व्यक्तित्व निश्चित ही
नेतृत्व-सम्पन्न है। उनके उवाच में प्रभाव का रंग है। राजनीति की उनकी
समझ(चालाकियाँ) इतनी साफ/निखरी हुई है कि वे जर्रे-जर्रे का इस्तेमाल
अपने पक्ष, हित अथवा वोट-बैंक भुनाने के लिए कर सकते हैं।(यह मान लेना भी
अतिरेक से भरा और भ्रामक है) बकौल शशि शेखर-‘‘बड़े जतन से
उन्होंने(नरेन्द्र मोदी) खुद को इस लायक बनाया है कि उनकी प्रसिद्धि
गुजरात और देश की सीमाओं से लांघकर समूची धरती पर फैलने लगे। लोग उन्हें
पसन्द करें या नापसन्द, पर राजनीति के जंगल में उन्होंने अपनी जगह बनाने
में कामयाबी हासिल कर ली है।’’
यहाँ भी शशि शेखर जी को याद रखना चाहिए कि भारतीय राजनीति जंगल नहीं है।
अगर जंगल-राज होता, तो आप पिछले वर्ष यूपी में बेहद रचनात्मक ढंग से
चुनावी-तैयारी, अभियान, जनमुहिम, संघर्ष या व्यावहारिक परिवर्तन(चुनाव
ख़त्म अब काम शुरू) इत्यादि का ‘अपना मोर्चा’ नहीं ठानते; इस ज़मीन में खुद
को नहीं गोड़ते; आप वह सब नहीं करते जिससे भारतीय लोकतंत्र की गरिमा
‘पुनर्नवा’ होती है। अतः शशि शेखर जी की सलाहियत दुरुस्त है। हमें अपने चुनावों को महाभारत बनने
से रोकना होगा। इससे ईश्वरवाद और भाग्यवाद के कुकुरमुते पनपते हैं। इससे
हमारा नागरिकपना ख़त्म होता है। हम यूटोपिया-चिन्तन में दाखिल अवश्य होते
हैं, लेकिन उसे साकार करने का औजार भूल गए होते हैं। मेरी समझ से, अतीत
की बात पर श्रद्धा ठीक है। परन्तु उसका बेवजह इस्तेमाल ख़तरनाक है। हमें
चुनावों में अपने विवेक-कौशल, बुद्धि-व्यवहार, दृष्टि-चेतना इत्यादि के
सहारे चुनावी लड़ाई लड़नी चाहिए जिसका हिमायती खुद आप भी हैं। हमें उन बौने
युवा राजनीतिज्ञों(वंशवाद के उत्तराधिकारी) को राजनीतिक-पास देने से बचना
चाहिए जिनसे जनता को रू-ब-रू कराने का जिम्मा कई बार समाचारपत्रों के ऊपर
भी लाद दिया जा सकता है।
अतएव, हमें चुनावी सरगर्मियों का आकलन-विश्लेषण करते समय भारतीय नागरिकों
की ओर से सहृदयता बरतने की हरसम्भव कोशिश करनी चाहिए; ताकि हमारे ये
प्रयत्न तमाम भूलों के बावजूद भारतीय चिन्तन, विचार, दृष्टि, परम्परा,
तहज़ीब, उसूल इत्यादि को दृढ़ सम्बल प्रदान कर सके; भाग्य की लेखी कहे जाने
वाले पाखण्ड का नाश कर सके...और हम बढ़ सके लोकतंत्र के जनपथ पर अपनी
भारतीय जीवन-राग एवं जीवन-मूल्यों को गाते-गुनगुनाते हुए; ‘वीर तुम बढ़े
चलो, धीर तुम बढ़े चलों की टेक पर। आमीन!
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(21 जुलाई 2013 को इसी ब्लाॅग पर ‘हिन्दुस्तान’ समाचार पत्र के सम्पादक के नाम भेजे इस पत्र को प्रकाशित किया गया था।)
शशि शेखर अख़बार के सम्पादक हैं। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ में उनकी
वैचारिक-टीआरपी जबर्दस्त है। वे जो लिखते हैं, सधे अन्दाज़ में। उनका साधा
हर शब्द ठीक निशाने पर पड़ता है या होगा, ऐसी मैं उम्मीद करता रहा हूँ
(फिलहाल नाउम्मीदगी की बारिश से बचा जाना नितान्त आवश्यक है) लेकिन, कई
मर्तबा वे जो ब्यौरे देते हैं, तर्क-पेशगी की बिनाह पर अपनी बात रखते
हैं; उसमें विश्लेषण-विवेक का अभाव होता है। यानी वे अपने विचार से जिस
तरह पसरते हैं, उनकी तफ़्तीश से कई बार असहमत हुआ जा सकता है। खैर!
पत्रकारिता भाषा में तफ़रीह नहीं है, यह शशि शेखर भी जानते हैं और मैं भी।
बीते ढाई दशक में उनकी कलम ने काफी धार पाया है, चिन्तन में पगे और चेतस
हुए हैं सो अलग। यह मैंने कइयों से सुना है...और उनसे भी।
अब मुख्य बात। शशि शेखर के लोकप्रिय रविवारीय स्तम्भ ‘आजकल’ में आज का
शीर्षक है-‘‘चुनावों को महाभारत मत बनाइए’’। इसमें उनका कौतूहल देखने
लायक है-‘‘पुरजवान होती इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तानी सियासतदां अपने ही
इतिहास से सबक क्यों नहीं लेते? वे कबतक नफरत के भोथरे तर्कों को नया
जामा पहनाते रहेंगे? वे कबतक हमारे शान्ति पसन्द समाज को बाँटने की कोशिश
करते रहेंगे? वे हम पर तरस क्यों नहीं खाते? हम हिन्दुस्तानी हैं, सिर्फ
वोट बैंक नहीं।’’
ऐसे कुतूहल शशि शेखर जी जैसों के लिए सेहतमंद नहीं है। आप किस पर तरस
खाने की बात कर रहे हैं? भारतीय जनता के ऊपर जो चुनावों में हर एजेण्डे,
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़, जाति-धर्म, संस्था-समुदाय, भाषा-तहजीब इत्यादि से
ऊपर उठकर(तमाम षड़यंत्रों अथवा कुचक्रों के अस्तित्वमान होते हुए भी) अपना
निर्णय सुनाती आई है; जिसने भाजपा के ‘इंडिया शाइंनिग’ से लेकर बसपा के
‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ तक को अप्रत्याशित पटखनी दी है? उस कांग्रेस
को ठेंगा दिखाया है जिसके मीडिया-युवराज राहुल गाँधी पर पार्टी की ओर से
लाख एतबार-पेशगी के बावजूद जनता की दिलचस्पी लेशमात्र नहीं है।(वैसे
कांग्रेस में उनसे बेहतर कई युवा राजनीतिज्ञ हैं) तभी तो, आप इस बात का
जिक्र करना नहीं भूलते हैं-‘‘राहुल गाँधी ने पिछले अप्रैल में जब सीआईआई
को सम्बोधित किया, तो एक वर्ग(पंक्तिलेखक युवा लिखना भूल गए) ने सोशल
मीडिया पर उन्हें ‘पप्पू’ की उपाधि से नवाज दिया।’’
अतः उपर्युक्त उदाहरणों से ज़ाहिर है कि भारतीय आबादी ‘मुर्दों का टीला’
नहीं है, लिहाजा चुनावी मौके पर हमें भी मरघटिए का टंट-घंट नहीं छानना
चाहिए। यह ख़्याल रखा जाना आवश्यक है कि हमारे किए-धरे, कहे-सुने पर आज भी
जनता सबसे अधिक विश्वास करती है, अपनी आत्मा में सच के ज़िन्दा होने का
ढ़िढोरा पिटती है। इसलिए हमारे लिखे का वैचारिक-अर्थ निकसे न कि
वैचारिक-अर्थी; ऐसी निगाहबानी जरूरी है।
और जहाँ तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है, तो उनका व्यक्तित्व निश्चित ही
नेतृत्व-सम्पन्न है। उनके उवाच में प्रभाव का रंग है। राजनीति की उनकी
समझ(चालाकियाँ) इतनी साफ/निखरी हुई है कि वे जर्रे-जर्रे का इस्तेमाल
अपने पक्ष, हित अथवा वोट-बैंक भुनाने के लिए कर सकते हैं।(यह मान लेना भी
अतिरेक से भरा और भ्रामक है) बकौल शशि शेखर-‘‘बड़े जतन से
उन्होंने(नरेन्द्र मोदी) खुद को इस लायक बनाया है कि उनकी प्रसिद्धि
गुजरात और देश की सीमाओं से लांघकर समूची धरती पर फैलने लगे। लोग उन्हें
पसन्द करें या नापसन्द, पर राजनीति के जंगल में उन्होंने अपनी जगह बनाने
में कामयाबी हासिल कर ली है।’’
यहाँ भी शशि शेखर जी को याद रखना चाहिए कि भारतीय राजनीति जंगल नहीं है।
अगर जंगल-राज होता, तो आप पिछले वर्ष यूपी में बेहद रचनात्मक ढंग से
चुनावी-तैयारी, अभियान, जनमुहिम, संघर्ष या व्यावहारिक परिवर्तन(चुनाव
ख़त्म अब काम शुरू) इत्यादि का ‘अपना मोर्चा’ नहीं ठानते; इस ज़मीन में खुद
को नहीं गोड़ते; आप वह सब नहीं करते जिससे भारतीय लोकतंत्र की गरिमा
‘पुनर्नवा’ होती है। अतः शशि शेखर जी की सलाहियत दुरुस्त है। हमें अपने चुनावों को महाभारत बनने
से रोकना होगा। इससे ईश्वरवाद और भाग्यवाद के कुकुरमुते पनपते हैं। इससे
हमारा नागरिकपना ख़त्म होता है। हम यूटोपिया-चिन्तन में दाखिल अवश्य होते
हैं, लेकिन उसे साकार करने का औजार भूल गए होते हैं। मेरी समझ से, अतीत
की बात पर श्रद्धा ठीक है। परन्तु उसका बेवजह इस्तेमाल ख़तरनाक है। हमें
चुनावों में अपने विवेक-कौशल, बुद्धि-व्यवहार, दृष्टि-चेतना इत्यादि के
सहारे चुनावी लड़ाई लड़नी चाहिए जिसका हिमायती खुद आप भी हैं। हमें उन बौने
युवा राजनीतिज्ञों(वंशवाद के उत्तराधिकारी) को राजनीतिक-पास देने से बचना
चाहिए जिनसे जनता को रू-ब-रू कराने का जिम्मा कई बार समाचारपत्रों के ऊपर
भी लाद दिया जा सकता है।
अतएव, हमें चुनावी सरगर्मियों का आकलन-विश्लेषण करते समय भारतीय नागरिकों
की ओर से सहृदयता बरतने की हरसम्भव कोशिश करनी चाहिए; ताकि हमारे ये
प्रयत्न तमाम भूलों के बावजूद भारतीय चिन्तन, विचार, दृष्टि, परम्परा,
तहज़ीब, उसूल इत्यादि को दृढ़ सम्बल प्रदान कर सके; भाग्य की लेखी कहे जाने
वाले पाखण्ड का नाश कर सके...और हम बढ़ सके लोकतंत्र के जनपथ पर अपनी
भारतीय जीवन-राग एवं जीवन-मूल्यों को गाते-गुनगुनाते हुए; ‘वीर तुम बढ़े
चलो, धीर तुम बढ़े चलों की टेक पर। आमीन!
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