Saturday, May 17, 2014

काशी की ‘गंगा-आरती’ को भाजपा ने ‘जन-प्रतिनिधि आरती’ में बदला

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(अच्छे दिन का आसार पाले काशीजन को अपनी ही घाट से बैरंग लौटाया जा रहा)

'गंगा आरती' काशी की अध्यात्मिक शान है। इसकी लोकप्रियता स्वमेव प्रसिद्ध है। गंगा के तीर पर बने पारम्परिक घाट प्रतिदिन उसका चश्मदीद गवाह बनते हैं। इस आरती-पूजन में जन-मन का जुटान स्फूर्त एवं स्वाभाविक ढंग से होता है। यह तादाद तकरीबन सैकड़ो-हजारों में होती है। विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी यहाँ रोज उमडता है। वे आश्चर्यमिश्रित भाव से इस परम्परा का लुत्फ़ और आनन्द लेते दिखते हैं। काशीजन बाबा विश्वनाथ और माँ गंगे पर अगाध श्रद्धा रखने वाले लोग हैं। उनमें अपने शहर में पधारे दर्शनार्थियों के प्रति विशेष सहूलियत का भाव रहता है। कुल जमा यह कि इन क्षणों में आरती-पूजन का माहौल मनोहारी, पावन एवं पवित्र हो जाता है।

लेकिन विशेष मौकों पर इस परम्परा का उल्लंघन होना बेहद अखरता है। किसी राजनेता के गंगा-आरती में शामिल होने का यह अर्थ कहाँ और कैसे होता है कि आमजन को इस सुअवसर से महरूम कर दिया जाये। उनके ही आने-जाने पर पाबंदियाँ लगा दी जाये। जिस स्थान से उनका जुड़ाव असीम-अनन्त है; उन जगहों को भी धर्म के ठेकेदारों द्वारा आरक्षित करा दिया जाये। यह न्यायसंगत, उपयुक्त अथवा सही नहीं है। पर राजीतिक वर्चस्वधारियों के लिए धर्म की वास्तविक प्रकृति, चरित्र, आचरण, व्यवहार एवं व्यवस्था का ज्ञान ही शून्य है। दरअसल, कथित विशिष्ट जन धर्म का लिहाफ़ लेकर उन पारम्परिक, धार्मिक, सार्वजनिक इत्यादि जगहों पर इसलिए आते हैं ताकि वे खुद को आमजन के माफ़िक आचरण-व्यवहार करने वाला खुद को घोषित कर सकें।

आज नरेन्द्र मोदी काशी के घाट पर हैं; लेकिन काशीजनों की वहाँ उपस्थिति है ही नहीं। वे जिन लोगों के संग-साथ गंगा-आरती करने पहुँचे हैं उस स्थान को उन्हीं के सिपहसालारों ने ‘हाइजैक’ कर लिया है। हो सकता है कि गंगा-आरती के दरम्यान ‘हर हर महादेव’ के बरअक़्स ‘हर हर मोदी’ का नारा लगे। उनका मन प्रसन्न हो; तबीयत प्रफुल्लित हो; भाव आन्नदित हो। लेकिन, वह काशी की मूल स्वाभाविक परम्परा को अवरुद्ध कर आज गंगा किनारे जिस मंच पर आसीन हैं; उनका उनके जाते ही उजड़ना और नष्ट होना तय है। क्या इत्ती-सी बात भी किसी ज़मीनी नेता का नामूलम है? काशी की जिस जनता ने उन्हें इस बार चुनाव में सर आँखों पर बिठाया है; आज वे ही चेहरे अपनी आँखों से अपने शहर की परम्परा में अपने लोकप्रिय एवं पसंदीदा नेता को नहीं देख पा रहे हैं। एक बार फिर दुहराऊं अपनी बात कि काशी के ‘मुक्तिबोधों’, यह आने वाले दिन के अच्छे संकेत नहीं हैं।

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