Saturday, February 9, 2019

यदि आप पत्रिकाएँ खरीदकर नहीं पढ़ते, तो ईमानदारी और निष्ठा की बात रहने दीजिए!



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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

कहावत है-‘सौ सुनार की, एक लुहार की’। पत्रिकाएँ ठोक-बजाकर मुद्दों को सामने लाती हैं। स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में पत्रिकाओं ने जो ज़मीन बनाया; विचारों के धरातल पर राजनीतिक चेतना का जो निर्माण किए वह बेजोड़ कही जानी चाहिए। उनकी भूमिका को भाषा के मुहावरेदानी में अक्षरशः बता पाना हो सकता है-संभव न हो; लेकिन उन्होंने जनपक्षधरता के जो उदाहरण पेश किए हैं, वह सचमुच बेमिसाल है। पत्रिकाएँ सूचनात्मक और विवरणात्मक मात्र नहीं हुआ करती है; बल्कि उनकी प्रकृति पाठक के विवेक को चुनौती देते हुए उनसे लड़ने-भिड़ने एवं टकराने का होता है। उनके द्वारा अर्जित अनुभवों पर रंदा चलाना होता है। वह ग़लत बातों को रेतती हैं, लेकिन तर्क सहित। पत्रिकाएँ झूठ को नंगा करती हैं और वास्तविक तथ्य को पुष्ट करती है, वह भी बड़ी निर्ममता के साथ। अपनी रचनाशीलता में पत्रिकाएँ दुनिया का सर्वांग सौन्दर्य उपस्थित कर देती हैं जिसे हम हीक भर निहार सकें, दुलार सकें, गले लगा सकें। कुल मिलाकर हम मनुष्य बने रहे इस समिधा में चेतस पत्रिकाएँ अहर्निशु जुटी होती हैं।
आजकल की बात दूसरी है। बिकाऊ लोगों ने पत्रिकाओं की ऐसी की तैसी कर दी है। उनके तकनीकी ताम-झाम बहुत हैं। चमकीली चमक-दमक बेशुमार है। पर विचार में बौनापन ऐसा कि आप यदि उनके झाँसे में आए, तो समझिए सत्यानाश! ऐसा नहीं है कि इन दिनों अच्छा कुछ भी नहीं है। लेकिन खोजने के लिए आजकल जूझना पड़ेगा। अपने साहस से निकलती और पाठकों के मन में पैठती लघु-पत्रिकाओं ने बड़ा फ़र्क उत्पन्न किया है। लेकिन उनकी आर्थिक ताकत कम होने से पहुँच अपर्याप्त है। अपनी जुटान-निपटान के माध्यम से निकलती ऐसी पत्रिकाओं को देखें तो वे अपने दख़ल में हस्तक्षेपी एवं प्रतिरोधी प्रकृति के हैं; पर वे अपने लेखकों, आलोचकों, समीक्षकों की आर्थिक मदद कर पाने में अक्षम हैं। ऐसे में कौन लेखक, आलोचक, कवि या साहित्यकार ताउम्र पत्रिकाओं के लिए अपना जांगर लुटायेगा। पाठकों में भी कई श्रेणियाँ है। तनख़्वाही प्रोफेसरों ने तो पत्रिकाओं को पढ़ने से ही तौबा कर लिया है, लेकिन लिखना जारी है। कुछ नेक जरूर हैं जो बिन मांगे-कहे समय से पत्रिकाओं को अपना सदस्यता शुल्क देते हैं। इसमें भी बहुत कम ही होंगे जो पत्रिका के आजीवन सदस्य हों।
अधिसंख्य प्रोफेसरों/अध्यापकों को तो मौजूदा पत्रिकाओं के नाम ही नहीं पता है और मालूम है तो ताजा अंक के बारे में मुँह सिले हुए हैं। ज्यादा पीछे न जाइए क्या आपने ‘कथादेश’ पत्रिका का दिसम्बर अंक पलटा है। यदि हाँ तो आपने सुधीर विद्यार्थी का संस्मरण पढ़ा होगा-‘एक इबारत जो लहूलुहान है’। इसी अंक में देखा होगा आपने भालचन्द्र जोशी का-‘कविता के घर में मनुष्यता का रहवास’। आपकी नज़रें जरूर इनायत हुई होंगी बजरंग बिहारी तिवारी के दलित प्रश्न से-‘ओड़िया दलित साहित्य’ शीर्षक से। इसी तरह ‘जनमत’ पत्रिका के नवम्बर, 2018 अंक में अवश्य ही देखा होगा-‘किसान क्रांति यात्रा: सवालों से भागती सरकारें’ विशेषांक का नव-कलेवर।
सजग पाठक सब जानते ही हैं इसलिए संक्षेप में कहें, तो ऐसे ही आपने देखा होगा ‘शीतल वाणी’, ‘रचना समय’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘सबलोग’, ‘जन मीडिया’, ‘पाखी’, ‘साहित्य अमृत’, ‘वाक्’, ‘तद्भव’ ‘सोच विचार’ आदि पत्रिकाओं के ताजातरीन अंक। अपने समय की विचारवाही पत्रिका समयांतर को कैसे भूल सकते हैं आप जिन्होंने अपनी पत्रिका के जनवरी-2019 अंक को दो दशक के साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित किया है। परिकथा का जनवरी-फरवरी, 2019 अंक के बारे में अवश्य ही सुन रखा होगा जो नव-लेखिकाओं के रचना-संसार पर केन्द्रित है। यदि आप पढ़ने की शौकीन हैं, तो हंस का पिछला विशेषांक ‘नवसंचार के जनाचार’ अवश्य ही पढ़ा-देखा होगा। अपनी तरह की अलग पत्रिका जिसने विशेष रूप से आपका ध्यान खींचा होगा-‘इंडिया इनसाइड’ का ताजा अंक जो ‘साहित्य के समकाल’ का पड़ताल करती है। यह लघु पत्रिकाओं की अपरिमित ताकत ही है कि शुद्ध मुनाफ़े वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहित्य वार्षिकी निकाला है। ‘इंडिया टुडे: 2018’ का अंक देखें जिसका शीर्षक ही शानदार है-‘रचना का जनतंत्र’। मेरी अपनी सीमाओं के कारण बहुत-सी उल्लेखनीय पत्रिकाओं का नाम छूट जाना स्वाभाविक है; पर मेरा इरादा यहाँ महज़ पत्रिकाओं का नाम गिनाना मात्र नहीं है; बल्कि उनकी अनिवार्यता की ओर संकेत करने मात्र का है।
कहना न होगा कि हर पत्रिका ने अपनी तरह से अपने मौजूदा समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों से जरूरी सामग्री इकट्ठा कर/जुटा कर पाठकों को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया है। उन्हें भरा-पूरा करने के लिए रचनात्मक सामग्री जुटाया और अथक मेहनत संग सम्पादित कर हम पाठकों तक पहुँचाया है। ऐसे सम्पादको का शुक्रगुजार होना लाजमी है जो समय के बनैले त्रासदियों और उसकी चपेट से हमें बचाना चाहते हैं। दूरदर्शी सम्पादकों के प्रति हमारा सर इस कारण भी झुक जाता है कि वे अपनी पूरी जिंदगी खपाकर हमें बचाने में जुटे हुए हैं। उन रचनाकारों को भी हम दिल से आभारी हैं जिन्होंने अपनी भूख की जगह हमारे भविष्य की चिंता करना जरूरी समझा है। वे जानते हैं कि भूकम्प आने से ठीक पहले तक ज़मीन पर दरारें नहीं हुआ करती हैं; सुनामी आने के ठीक पहले तक किनारों पर भगदड़ नहीं मचे होते हैं; लेकिन जब अन्धकारा को लगातार गाढ़ा और पैना किया जा रहा हो तो देर-सवेर हमारे उजाले के परखच्चे उडेंगे ही उडेंगे। हमारी खुशहाली में डाका पडेगा ही पडेगा। इसे नौजवान पीढ़ी भले न देख पा रही हो, लेकिन अनुभवी आँखें अपनी इंद्रियों से संभावित खतरों को भाँप लेने में सक्षम है, समर्थ है। ऐसे सम्पादकों में किन-किन का नाम का नाम लिया जाए, लेकिन जिन्होंने भी अपनी साहस और जीवटता के बूते पत्रिकाओं को जिंदा रखा है उनके प्रति हमारा कृतज्ञ होना जरूरी है।
लेकिन हम पाठक क्या सचमुच भरोसे के काबिल हैं? क्या हने इन पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण अंकों को खरीदा है। अपने डाक के पते पर शुल्क देकर मंगाया है। यदि नहीं, तो फिर हम कैसे पाठक हैं! सोचना होगा। क्या हममें इतनी भी सदाशयता नहीं बची है कि हम विचारों को महत्व दें। अपनी रूह में उन पत्रिकाओं के शब्दार्थ को शामिल करें। हमारे लिए तमाम कठिनाइयों को झेलती, बर्दाश्त करती इन लघु पत्रिकाओं को जिंदा रखने में हमारा कोई फ़र्ज नहीं है? कोई भूमिका नहीं है? हमें सोचना होगा कि बाज़ारवादी आक्रमण और पूँजीवादी धौंस के बावजूद पत्रिकाएँ बची हुई हैं; येन-केन-प्रकारण नियमित प्रकाशित हो रही हैं तो पाठकों के नेकदिली और भरोसेमंद साथ के ही कारण। संख्या में बेहद कम किन्तु सहृदय और संवेदनशील पाठक कुल के बावजूद अपना जान निसार किए हुए हैं। उनकी मेहरबानी और दिलचस्पी ही लघु पत्रिकाओं की असल ताकत है। ऐसे पाठक मनस्वी होते हैं जो अपनी पत्रिकाओं को दुलारते हैं। समय से सहयोग और न्यनतम सदस्यता शुल्क नवाज़ते रहते हैं। बाद बाकी, तो मुँह बाये ऐसे लोगों की टोली हैं जिनमें लिखने-छपने की ललक तो ग़जब होती है पर पत्रिकाओं को महीने-दर-महीने खरीदकर पढ़ना गुनाह लगता है। पत्रिकाएँ भी आजकल दाम में कुल महंगाई बढ़ोतरी के बाद भी पचास रुपए की कीमत के आस-पास टंगी है। कुछेेक विशेषांकों की बात छोड़ दें, तो पत्रिकाओं के साधारण अंक प्रायः 100 से नीचे के ही होते हैं।
तिस पर भी सम्पादकों के सामने विकट संकट यह होता है कि सदस्यता शुल्क पाठकों से बड़े आग्रह-अनुरोध के बाद मंगाने होते हैं। बिक्री केन्द्रों का बर्ताव तो और ठस एवं गैर-जिम्मेदाराना है। ऐसे में पढ़े-लिखें लोगों से ही उम्मीद-अपेक्षाएँ सर्वाधिक है। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि कहाँ चली जाती है पूरी दुनिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, लगाव और पाठकीय प्रतिबद्धता जो सम्पादक को अपने लिए आर्थिक सहयोग ख़ातिर भी मान-मनुहार करना पड़ता है। नौकरी के लिए ललायी नई पीढ़ी की उदासीनता ने भी इस संकट को और गाढ़ा किया है। विचारों के ग्रहण-बोध की उनकी सहज लगाववृत्ति को मौजूदा परिवेश नेे नज़र लगा दी है, लेकिन उनकी खुद की नियत भी सही नहीं है। उनकी आँख बिना किसी दृष्टि-दोष के कुछ भी सही नहीं देख पा रही है। अधिसंख्य युवा अलग-अलग खाँँचें में उलझे हुए हैं। शब्दों की गंभीरता और विचारों की ताकत से नावाकिफ़ ऐसे युवजन यदि पत्रिकाओं को खरीदकर पढ़ने मात्र लगें, तो लघु-पत्रिकाओं के समक्ष खड़ा एक बड़ा संकट हल हो जाएगा। आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर होने से ये पत्रिकाएँ विचारों के स्तर पर अधिक सशक्त और प्रभावशाली होंगी। इन पत्रिकाओं से जुड़े स्वतन्त्र लेखकों को भी कुछ आर्थिक सहूलियत हो सकेंगी।

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