Tuesday, February 5, 2019

मुर्गाकुल मीडिया : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

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एक मुर्गे की मामूली ग़लती बर्दाश्त नहीं, वहीं पूरा देश मनुष्यरूपेण भारतीय मुर्गे से त्रस्त है क्योंकि उन पर मीडिया का वरदहस्त है!

यह लिखने-पढ़ने की दुनिया का मुर्गाकाल है। मीडिया की दुनिया में बुद्धिवादी मुर्गों की आमद इन दिनों बढ़ी है। उन्हें ऐसी-ऐसी जगहों पर ‘फिट’ किया जा रहा है जिस ऊँचाई से कही-सुनी बात का असर शानदार होता है। अर्थात् टेलीविज़न के स्क्रीन पर, सिनेमा के परदे पर, समाचार-पत्र के पन्नों पर, सार्वजनिक मंच तथा मचानों पर आदि-आदि। ये खास नस्ल के मुर्गे हैं। इनकी विशेष कुल, गोत्र और जाति है। इनकी पहुँच एकवर्गीय है और प्रकृति वर्चस्ववादी। इसलिए इनका कहा इस पूरे मुल्क के लिए सनातनी, शाश्वत और कालजयी है। उनका वर्तमान ही नहीं है, अतीत और भविष्य भी इनकी मनमानी व्याख्या पर है। इतिहास और भूगोल सब के सब इनकी ही गिरफ़्त में है। ये वही लोग हैं जो बाहर से दाहिनापंथी हैं तो बायाँपंथी; लेकिन अन्दर से एकमेक हैं। आयातीत विचार वाले वामपंथी न तो दिल से नेक हैं और न दिमाग से। उन्होंने ही दक्षिणपंथियों को सिरजा है, उभारा है। कायम और काबिज किया है। हर तरह की सभा-दल में शामिल ऐसे लोगों ने कभी किसानों को अपनाया नहीं। उनका दुःख देखा नहीं। उनके बच्चों को रोजगार नहीं दिया। जातीय हेकड़ी की कमर तोड़ी नहीं। ज़मीने बाँटी नहीं। चल-अचल सम्पतियों पर समानता का ‘वीटो पाॅवर’ पेश किया नहीं। बस विचारों की फेरबदली में लगे व जुटे रहे। 

चुरकी की दिशा और जनेऊ की जगह बदलकर वामपंथी और दक्षिणपंथी बने ऐसे लोगों ने येन-केन-प्रकारेण मीडिया को पालतू बनाया। शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को अपने जातीय दंभ और अहंकार के अनुकूल बनाया। सबसे अधिक बौद्धिकों ने ज्यादती की। भाषा में छल किया। तिस पर ये दावा करते हैं-क्रांति का, रामराज्य स्थापित करने का। यही वे मुख्य सूत्रधार हैं जो सवर्ण और अ-सवर्ण का मुद्दा उठाते हैं। चारों तरफ फैलाते-पटकते हैं। ये जानते हैं कि लोग समझदार और विवेकवान दिखाई दें, तो उन्हें आपसदारी के संवाद में जोड़ने की जगह उलझा दो, उनको लड़ा दो। 

मुर्गाकुल मीडिया भी इसी समिधा में खेत है। वह वंचितों की नहीं है, क्योंकि मीडिया में आये अधिसंख्य लोग आपराधिक मानसिकता के हैं। वे दिखने में जितने सुडौल हैं अन्दर से उतने ही बिगड़ैल और ख़राब नियत वाले हैं। ऐसे 'मीडिजन' झमकदार पहनावे में अपनी बात कहते और मनवाते हैं। दरअसल, ये बदनस्ली मुर्गे जनपक्षधर बांग देने की बजाय कुछ और कर रहे हैं। जागरण, जागृति, मशाल, मिसाल इत्यादि अब उनके जुमले हैं जिसे आधार बनाकर ‘औरन को सीख’ बाँच रहे हैं। पत्रकारिता खुद अपने नागरिकों को दौड़ा रही है, हदसा रही है, डरा रही है, उनके भीतर भीतर भय का घनघोर वातावरण सिरज रही है। आश्चर्य नहीं कि यह देश के होनहारों को, कर्णधारों को अवसादग्रस्त व कुंठाग्रस्त करने में अव्वल है। देश में मीडियापोसी मुर्गों की कमी नहीं है। अब मुर्गे की बलिहारी ऐसी कि वे सड़कों पर खुलेआम घूम रहे हैं। इस-विस-जिस को सरेआम-खुलेआम काटते फिर रहे हैं। हत्या, हिंसा, उगाही, दलाली, बवाल, आगजनी, दंगा, फसाद, बलात्कार इत्यादि इनके ही उपजाए सैरागाह हैं। मीडिया के ये कारामाती मुर्गे पत्रकारिता के नए मानक खोजने और मानदण्ड स्थापित करने पर तुले हैं। 

पत्रकारिता बकवादी हो रही है इसलिए वह पाठक की खरीद पर नहीं राजनीतिक प्रचार पर निर्भर है। उनके विवेक का सत्यानाश करते हुए राजनीतिक मनोरंजन परोस रही है। मनोरंजन अब हाशिए पर नहीं मुख्य पृष्ठ पर है। बिके हुए सम्पादक भाट-चारण होने की शर्त पर लगातार बकवास कर रहे हैं। उनके लिए आयातीत मुद्दे ही असल सत्य हैं। इसी गढ़े हुए सत्य का महाकुंभ लगाकर पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को उसमें गोता लगाने और लगाए रखने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। देश में गरीबी, बेरोजगारी, अपराध से मुक्ति, स्त्रियों की सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति, शिक्षा के उन्नत होते स्तर, लोगों में विकसित होता कर्तव्य-बोध, दायित्व या नैतिक आचरण सब पर चर्चा जोरदार हो रहे हैं। बहस-संवाद पुरजोर दिख रहे हैं। लेकिन ज़मीनी अथवा वास्तविक बदलाव नहीं हो रहा है। अब हर पाठ का कुपाठ हो रहा है; अंतःपाठ या अन्तर्पाठ बिल्कुल नहीं। 

मीडिया इस तरह पूरे मुल्क में फैल-पसर रही है। सरकार ने बेहतरीन सुविधाओं के साथ निजी चैनलों का सरकारीकरण कर दिया है। नामकरण से इतर इस अघोषित सरकारीकरण में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बड़ी निवेश कर रही हैं। वे राम-लीला, कृष्ण-लीला, हनुमान-लीला, शंकर-लीला के प्रदर्शन-प्रस्तुति हेतु खुले दिल से चढ़ावा चढ़ा रही हैं। उनके निर्माण में बड़ी धनराशि लगा रही हैं। देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बिना तिरंगे के आकार-प्रकार व रंग में फेरफार किए सबकुछ बदल दिया है। हमारी चेतना और विवेक को रंगीन बना दिया है। हमारा देश राम-कृष्ण की कहानी देखते हुए पोर्नोग्राफी देख रहा है। बच्चे और किशोर बदलाव के सबसे लम्बे डग भर रहे हैं। वे जिन सिसकारियों के साथ गर्लफ्रेंड-ब्वायफ्रंेड बन गलबहियाँ करते हुए घूम-फिर रहे हैं, उसमें ग़लत कुछ भी नहीं है तो यह भी सच है कि उसमें स्थायीत्व भी नहीं है। अब जिंदगी की मुख्य धुरी कहे जाने वाले परिवार को नए दौर के बहुतेरे युवाओं ने दिमाग-बाहर कर दिया है। वे संस्कार के नाम पर नैतिक पालन करने की बजाय स्वार्थसिद्धि में जुटे हुए हैं। 

अब मुर्गाकुल मीडिया में नधाए लोग ही असल जिंदगी में लेखक हैं, शिक्षक हैं, नेता हैं, नौकरशाह हैं, मंत्री-हुक्मरां हैं। ये अपने गाजे-बाजे संग देश को साहित्य की नई बात बता रहे हैं। अध्यात्म-दर्शन पर व्याख्यान दे रहे हैं। समूचे देश को भाषण पिला रहे हैं। शासन-व्यवस्था बनाए रखने की ताक़ीद दे रहे हैं। देश को गुजरे सभी सालों से बेहतर दशा-स्थिति में होने का दावा पेश कर रहे हैं। जबकि उनका देश कहीं नहीं हैं। वे बिके हुए मुर्गे हैं। देश की दलाली करते हुए अल्प समय में करोड़ों का वारा-न्यारा किए हुए लोग हैं। सभी संसाधनों पर जबरिया अपना एकाधिकार जमाए हुए लोग हैं। ये लोग दो टांग पर खड़े मुर्गे हैं जिनकी मांसल भाग पर देशवासियों की नहीं, पूँजीवादी ताकतों की गिद्ध-दृष्टि हैं। यह और बात है, ऐसे मुर्गे जिनकी गंध बदबूदार होती है और प्रजाति उछलखोर इस समय मुल्क में सबसे बड़े 'ब्रांड' बने हुए हैं। उनकी बढ़ी हुई मांग इस कारण भी है कि लोकसभा चुनाव सामने आने वाला है। ऐसे मुर्गे अपनी गरदन मरोड़े जाने से पहले तक औरों की मजा लेते रहेंगे। दूसरों के ऊपर हँसते रहेंगे। अपनी बारी तक वे चाहेंगे कि इस देश में उनके सिवा कोई नहीं बचे।

निपट अनाड़ी ऐसे लोगों के लिए ‘बाबा नाम केवलम्’ की तर्ज पर बिकाऊ और बकलोल मीडिया ही सबसे मुफीद और एकमात्र चारागाह है। मुर्गाकुल मीडिया के इस युग में उनसे कुछ भी अपेक्षा रखना अपनी विवेक, साहस और आत्मबल का सत्यानाश करना है।

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