Wednesday, June 13, 2018

पाठकीयता के मयखाने में किताब

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राजीव रंजन प्रसाद
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‘आलोचना’  पत्रिका के 54वें अंक में कमल नयन चौबे की यह टिप्पणी समीचीन है कि, ‘‘बहुत सी ऐसी किताबें हैं जिनमें उत्तर-औपनिवेशिक दौर के भारतीय लोकतंत्र की गहराई से विवेचना की गई है और इसमें इस दौर के अधिकांश मुद्दों का विश्लेषण किया गया है। मसलन, रामचन्द्र गुहा की किताब ‘इंडिया आॅफ्टर गाँधी: द हिस्ट्री आॅफ द वल्ड्र्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी (2007) में आजादी के बाद के दौर के भारतीय लोकतंत्र की कहानी प्रस्तुत की गई है। इसमें रजवाड़ों के विलय, भाषा आन्दोलन, नक्सल आन्दोलन, आपातकाल, सिख विरोधी दंगों, खालिस्तान आन्दोलन, राम-मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद, मंडल आन्दोलन आदि कई पहलुओं की विवेचना की गई है। पाॅल ब्रास की 1990 में प्रकाशित किताब ‘द पाॅलिटिक्स आँफ इंडिया सिन्स इंडिपेंडेंस’ भी इस समय तक की देश की राजनीति के विभिन्न आयामों का एक बेहतरीन विश्लेषण प्रस्तुत करती है। 1977 ई. मंे आपातकाल ख़त्म हुआ और फिर से लोकतांत्रिक शासन और अधिकार बहाल हुए। जहाँ एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम के तौर पर आपातकाल के बारे में इस दौर के बारे मे बताने वाली अधिसंख्य किताबों में उल्लेख किया गया है-मसलन गुहा (2007); ब्रांस (1990), लेकिन इसके बारे में ज्यादा गहन विश्लेषण के लिए इम्मा टारलो की किताब ‘इम्मा टारलो अनसेटलिंग मेमोरीज: नैरेटिव्स आॅफ इंडिया’ज इमरजेंसी’ (2003) देखी जा सकती है।“ इसी तरह “फैंसीन आर. फ्रैंकल की किताब ‘इंडिया’ज पाॅलिटिकल इकोनाॅमी, 1947-2004; अचीन विनायक (1995), फ्रैंकेल और राव (सम्पा.) (1990) जैसी किताबों में स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक घटनाक्रम का विस्तृत विश्लेषण उपलब्ध है। समकालीन भारत के कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों की समझ कायम करने के लिए सतीश देशपाण्डे की कृति ‘कंटेम्पररी इंडिया: अ सोशियोलाॅजिक व्यू (2003)’ एक महत्त्वपूर्ण किताब है। भारतीय लोकतंत्र के विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण आयाम भारतीय राज्य की प्रकृति की समझ कायम करना भी रहा है। प्रणव बर्द्धन ने ‘द पाॅलिटिकल इकनाॅमी आॅफ डिवलपमेंट इन इंडिया’ (1984) शीर्षक अपनी पुस्तक में पूँजीपतियों, अमीर किसानों और नौकरशाही को तीन प्रभुत्वशाली  वर्गों के रूप में रेखांकित किया है। उनके अनुसार, ये तीनों वर्ग राजनीतिक स्पेस पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एक-दूसरे से गठजोड़ बनाते हैं और इसमें राज्य सापेक्षिक रूप से स्वायत्त स्थिति में बना रहता है। अचिन विनायक ने अपनी किताब ‘द पेनफुल ट्रांजिशन’ (1990) में प्रभुत्वशाली गठजोड़ की अवधारणा को अपनाया है। इसी तरह रूडाॅल्फ और रूडाॅल्फ ने भी अपनी पुस्तक ‘इन परसुईट आॅफ लक्ष्मी’ (1987) में इस बात पर बल दिया कि प्रभुत्वशाली गठबंधन में अमीर किसानों या खेतीहर पूँजीपतियों के प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है। 

इस सन्दर्भ में फैंसीन फैंकेल और एम. एस. ए. राव द्वारा सम्पादित किताब ‘डाॅमिनेन्स ऐंड स्टेट पावर इन इंडिया: डिक्लाइन आॅफ अ सोशल आॅर्डर’ (1990) भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें लेखकों ने नौकरशाही और संगठित श्रम जैसी सार्वजनिक संस्थाओं और विधायिका और राजनीतिक दलों जैसी राजनीतिक संस्थाओं के बीच अन्तर किया है। इन्होंने यह तर्क दिया है कि स्वतन्त्र भारत में राजनीति के इतिहास में यह देखा जा सकता है कि निम्न जातियाँ या गरीब वर्ग जैसे पहले के निम्न हैसियत वाले समूहों की शक्ति का उदय हुआ है, वहीं ऊँची जातियों और मध्यवर्ग ने सार्वजनिक संस्थाओं के माध्यम से अपना वर्चस्व कायम रखने का प्रयास किया है। नब्बे के दशक में, विशेष रूप से उत्तर भारत की राजनीति में दलितों और पिछड़े जातियों का उभार हुआ। संसदीय राजनीति में पिछड़े समूहों के इस उभार के अध्ययन के लिए क्रिस्टाॅफ जैफरेलाॅ की पुस्तक ‘इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन: द राइज आॅफ लोअर काॅस्ट्स इन नार्थ इंडिया (2003) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रामचन्द्र गुहा (2007), निवेदिता मेनन और आदित्य निगम (2007) तथा अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘लोकतंत्र के सात अध्याय’ (2002) अपनी किताब के कुछ अध्यायों में दलित राजनीति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आधुनिकीकरण और दलितों पर इसके प्रभाव के सन्दर्भ में अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘आधुनिकता के आईने में दलित’ (2003) भी एक विशिष्ट रचना है जिसमें डी. एस. नागराज, गोपाल गुरू और कई अन्य महत्त्वपूर्ण समाजवैज्ञानिकों के दलित प्रश्न-सम्बन्धी शोधालेख सम्मिलित हैं। इसमें आधुनिकता के सापेक्ष दलितों की समस्याओं के समाधान में आने वाली दिक्कतों और उम्मीदों का परीक्षण किया गया है। उत्तर औपनिवेशिक दौर में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति और राज्य से इसकी अन्तःक्रिया को समझने के लिए पार्थ चटर्जी की रचना ‘पाॅलिटिक्स आॅफ गवर्नड’ (2004) काफी महत्त्वपूर्ण है। चटर्जी ने इसमें राजनीतिक समाज (पाॅलिटिकल सोसायटी) की अवधारणा प्रस्तुत की है जो पढ़े-लिखे और वास्तविक अर्थों में संविधान-प्रदत अधिकारों का प्रयोग करने वाले छोटे नागरिक समाज से अलग होती है। राजनीतिक समाज के सदस्यों की जीविका सम्बन्धी अधिकांश गतिविधियाँ ‘गैरकानूनी’ कामों के दायरे में चली जाती हैं और राज्य इनकी गोलबन्दी के आधार पर इनकी माँगों को स्वीकार या अस्वीकार करता है। 

भारत में लोकतंत्र की चुनौतियों के सन्दर्भ में प्रताप भानु मेहता की किताब ‘द बर्डन आॅफ डेमोक्रेसी’ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि सामाजिक असमानता और राज्य के कार्यों के बारे में ग़लत समझ ने भारतीय लोकतंत्र के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। वे आत्मसम्मान की चाह को लोकतन्त्र की सबसे गहरी आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और इस बात पर बल देते हैं कि असमानता और जवाबदेही के संकट से उबरना भारतीय लोकतंत्र के लिए कठिन परीक्षा है। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में उत्तर-पूर्व के मुद्दों की समझ भी आवश्यक है। ये प्रदेश अक्सर विद्रोही गतिविधियों के कारण अशान्त रहे हैं और ‘मुख्यधारा’ की राजनीति में इसकी इसी कारण से ज्यादा चर्चा होती रही है। विधायिका में काफी कम प्रतिनिधित्व के कारण भी यह क्षेत्र उपेक्षा का शिकार हो जाता है। इस सन्दर्भ में संजीब बरुआ की ‘ड्युरेबल डिस्आॅर्डर: अंडरस्टैंडिंग द पाॅलिटिक्स आॅफ नार्थईस्ट इंडिया’ (2005) देखी जा सकती है।“

भारत में लोकतंत्र और उसका लिखित संविधान आम-आदमी का वेद, वेदांग, उपनिषद्, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रंथसाहिब सबकुछ है। भारतीय लोकतंत्र की समझ के लिए भारत के संविधान के निर्माण, इससे सम्बन्धित विविध वाद-विवाद, संविधान के माध्यम से तैयार संस्थाओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उनके अधिकार और अनुभवों की समझ आवश्यक है। इस सन्दर्भ में कई महत्त्वपूर्ण किताबों का उल्लेख किया जा सकता है। “भारत में संविधान सभा में हुई बहस और इसकी विभिन्न समितियों के कामों को समझने के लिए ग्रेनविले आॅस्टिन की किताब ‘द इंडियन काॅन्स्टीट्युशन काॅर्नरस्टोन आॅफ अ नेशन’ (1966) को एक बुनियादी किताब का दर्जा दिया जाता है। इसमें संविधान के अन्तर्निहित सामाजिक उद्देश्य, लोकतान्त्रिक सरकार की पारम्परिक संस्थाओं (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) की स्थापना; भारतीय संघवाद के विशिष्ट स्वरूप, भाषाई प्रावधानों के निर्माण और संविधान सभा की प्रकृति का विश्लेषण किया गया हे। आॅस्टिन ने एकता, सामाजिक क्रांति और लोकतन्त्र को एक ‘निर्बाध वेब’ (सीमलेस वेब) की तीन विशिष्ट धाराओं का दर्जा दिया हे। भारत के संविधान के विविध प्रावधानों की समझ के लिए दुर्गा दास बसु की कृति ‘इंट्रोडक्शन टू द काॅन्स्टीट्युशन आॅफ इंडिया’ (1985) काफी महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय किताब है। इसमें संविधान के विविध भागों के विकास और अन्य ऐतिहासिक तथ्यों, सांविधानिक प्रावधानों, संविधान संशोधनों और महत्त्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों और व्याख्याओं का उल्लेख किया गया है। ग्रेनविले आॅस्टिन ने 1999 में प्रकाशित अपनी दूसरी किताब ‘वर्किंग अ डेमोक्रेटिक काॅन्स्टीट्युशन: अ हिस्ट्र आॅफ इंडियन एक्सपीरियन्स’ में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद के आरंभिक चार दशकों में इस संविधान के अनुभवों का विश्लेषण किया है। इसमें आजादी के बाद के दौर के अद्भुत आदर्शवाद और आपातकाल के संकट भरे दौर से गुजरते हुए 1990 के दशक की शुरुआत तक के अनुभवों का गहन परीक्षण किया गया है। भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति को समझने के लिए राजनीति के अद्भुत व्याख्याकार रजनी कोठारी ने समय-समय पर कई सूत्रीकरण प्रस्तुत किए। साठ के दशक में उन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व वाली व्यवस्था की व्याख्या करने के लिए ‘कांग्रेस प्रणाली’ (1964) की अवधारणा प्रस्तुत की। 1970 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाॅलिटिक्स इन इंडिया’ में उन्होंने संरचनात्मक प्रकार्यात्मक रूपरेखा का प्रयोग करते हुए भारतीय राज्य और राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण किया। इसी प्रकार, अपनी सम्पादित किताब ‘कास्ट इन इंडियन पाॅलिटिक्स’ में उन्होंने भारतीय राजनीति में जाति आधारित गोलबन्दी की व्याख्या करते हुए यह तर्क प्रस्तुत किया कि दरअसल, यह राजनीति में जातिवाद नहीं है बल्कि जातियों का राजनीतिकरण है। अस्सी के दशक में राज्य के बढ़ते दमनकारी स्वरूप और मानवाधिकारों की चिन्ता को अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने ‘स्टेट अगेंस्ट डेमोक्रेसी: इन सर्च आॅफ अ ह््युमन गवर्नेंस’ (1989) की रचना की। यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अभय कुमार दुबे ने रजनी कोठारी के प्रमुख शोध आलेखों का हिन्दी अनुवाद और सम्पादन किया है, जो कि ‘राजनीति की किताब’ (2003) शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह किताब इसलिए भी काफी उपयोगी है कि इसमें कोठारी के साथ एक लम्बा साक्षात्कार भी शामिल किया गया है जिससे उनकी वैचारिक यात्रा और विचारों में होने वाले बदलावों को आसानी से समझा जा सकता है। 

अन्य कई लेखकों ने भी अस्सी के दशक में राज्य के बढ़ते दमनकारी स्वरूप और इसके द्वारा थोपे गए विकास में निहित हिंसक विस्थापन जैसे सवालों का विश्लेषण किया। इस विषय पर आशीष नंदी की पुस्तक ‘द रोमांस आॅफ द स्टेट ऐंड द फेट आॅफ डायसेंट इन ट्राॅपिक्स’ (2003) का अध्ययन किया जा सकता है। यह नंदी के कुछ शोधालेखों का संकलन है जिसमें उन्होंने राष्ट्र-राज्य की अवधारणा और भारत में इसके अनुभवों पर विचार किया है। वे इसके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों तथा सम्प्रदायवाद, सेक्युलरवाद, आतंकवाद तथा विकास जैसे मसलों पर भारतीय राज्य की नीतियों का विश्लेषण करते हैं। आरम्भिक दौर में भारत में उदारवाद के स्वरूप को लेकर चले वाद-विवाद का एक अद्भुल विश्लेषण सुनील खिलनानी की किताब ‘द आइडिया आॅफ इंडिया’ में प्रस्तुत किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस किताब का हिंदी अनुवाद ‘भारतनामा’ शीर्षक से अभय कुमार दुबे ने किया है। अतुल कोहली की किताब ‘पोवर्टी अमिड प्लेंटी इन द न्यू इंडिया’ वैश्वीकरण के युग में भारत की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था की गहन व्याख्या प्रस्तुत करती है। इसमें 1980 के दशक में राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी द्वारा राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों के बीच कायम किए गए सम्बन्धों पर गौर किया गया है, जिसने 1991 के बाज़ार सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया। वैश्वीकरण के प्रभावों तथा 1989 के बाद की राजनीति में सम्प्रदायवाद, पिछड़ी-दलित जातियों के उभार जैसी राजनीतिक परिघटनाओं के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए निवेदिता मेनन और आदित्य निगम द्वारा लिखी गई किताब ‘पाॅवर एण्ड काॅन्टेस्टेशन: इंडिया सिंस 1989’ (2007) एक उपयोगी पुस्तक है। इसी तरह, अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘भारत का भूमंडलीकरण’ (2003) में भारत के विभिन्न तबकों पर वैश्वीकरण के प्रभाव से सम्बन्धित कई गहन शोधालेख शामिल हैं जिनमें वैश्वीकरण के विकल्पों पर भी विचार किया गया है। भारतीय सन्दर्भ में लोकतंत्र के साथ ही असाधारण कानूनों का भी लगातार अस्तित्व बना रहा है। ऐसे कानून और इनके प्रावधान कानून के सम्मुख समानता की अवधारणा के विपरीत हैं। उज्ज्वल कुमार सिंह की किताब द स्टेट, डेमाॅक्रेसी ऐंड ऐंटी टेरर लाॅ इन इंडिया (2007) विशेष रूप से आतंकवाद गतिविधि निरोधक कानून या पोटा के निर्माण और निरस्त होने के सन्दर्भ में असाधारण कानूनों की राजनीति का परीक्षण करती है। भारतीय लोकतंत्र के इस अनछुए पहलू को समझने के लिए यह एक आवश्यक किताब है। 

भारतीय लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों और सीमावर्ती राज्यों में राज्य सत्ता की दमनकारी नीतियों की एक विचारोत्तेजक आलोचना के रूप में अरुंधती राॅय की किताब ‘लिसनिंग टू ग्रास हाॅप्पर्स’ (2009) का उल्लेख किया जा सकता है। यह किताब राॅय के कई लेखों का संकलन है। किताब में गुजरात 2002 में राज्य प्रायोजित दंगों, 2003 में भारतीय संसद पर हुए हमले की संदेहास्पद जाँच-पड़ताल पूरी तरह से गैर-जवाबदेह न्यायपालिका की सीमाओं तथा बड़े काॅरपोरेट घरानों, सरकार और मुख्यधारा की मीडिया के बीच साँठ-गाँठ, अगस्त 2008 में कश्मीर में हुई उथल-पुथल आदि मसलों पर लेख शामिल हैं। भारत में नारीवादी आन्दोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और उसकी समकालीन चुनौतियों की समझदारी कायम करने के लिए राधा कुमार की किताब ‘अ हिस्ट्री आॅफ डुईंग: एन इल्यूस्ट्रेटेड अकाउंट फाॅर मूवमेंट फाॅर वुमेन राइट्स एंड फेमेनिज़्म इन इंडिया, 1800-1900’ (1993) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस किताब का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। भारत में नारीवाद के विविध आयामों और इसके समकालीन सवालों के सन्दर्भ में निवेदिता मेनन की किताब ‘सीईंग लाइक अ फेमेनिस्ट’ (2012) का अध्ययन किया जा सकता है। पर्यावरण और वन निवासी समूहों के अधिकारों का विकास और विस्थापन सम्बन्धी मुद्दों के ऐतिहासिक और समकालीन पहलुओं को समझने के लिए माधव गाडगिल और रामचन्द्र गुहा द्वारा सम्पादित दो किताबों का अध्ययन किया जा सकता है: ‘दि फिस्सर्ड लैण्ड: ऐन इकलाॅजिकल हिस्ट्री आॅफ इंडिया’ (1992) और ‘इकोलाॅजी ऐंड इक्विटी’ (1995)। ध्यान दिया जाना चाहिए कि किसी भी लोकतन्त्र के वास्तविक हालात का अन्दाजा वहाँ के अल्पसंख्क समूहों को मिले अधिकारों और उनकी राजनीतिक भागीदारी के आधार पर किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में राजीव भार्गव द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘सेक्युलरिज़म ऐंड इट्स क्रिटिक’ (1999) एक उपयोगी और प्रासंगिक किताब है। यह भी गौरतलब है कि अभय कुमार दुबे ने इस किताब में शामिल कई लेखों और कुछ नए लेखों को एक साथ रखकर एक किताब सम्पादित की जो कि सेक्युलरवाद के विषय पर एक अनिवार्य किताब के रूप में है। इस पुस्तक का शीर्षक है: ‘बीच बहस में सेक्युलरवाद’ (2005)। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के दौर में मुस्लिमों की स्थिति और पहचान के संकट की समस्या के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए मुशीरुल हसन की यह किताब देखी जा सकती है: ‘लीगेसी आॅफ डिवाइडेड नेशन: इंडियाज मुस्लिमस सिंस इंडिपेंडेंस (1997)। पाॅल ब्रास ने अपनी एक अन्य किताब ‘द प्रोडक्शन आॅफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन काॅन्टेम्परी (2005) में समकालीन भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों के विविध कारकों और आयामों का विस्तार से विश्लेषण किया है। इस दौर में हिन्दुत्ववादियों के राजनीतिक उभार और उनकी विचारधारात्मक स्थिति की पड़ताल करने वाले कई अध्ययन भी सामने आए। इस सन्दर्भ में विशेष रूप से आशीष नंदी, शिखा त्रिवेदी, शैल मायाराम और अच्यूत याज्ञनिक की किताब ‘क्रिएटिंग अ नेशनेलिटी: रामजन्मभूमि मूवमेंट एण्ड द फीयर आॅफ द सेल्फ’ (1995) तथ किस्टाॅफ जेफेरेलाॅ की पुस्तक ‘द हिन्दू नेशनलिस्ट मूवमेंट इन इंडिया’ (1996) का उल्लेख किया जा सकता है।“

इसी प्रकार अकादमिक जगत व्यक्ति के व्यक्तित्व, व्यवहार एवं नेतृत्व को लेकर बेहद गंभीर है। मानव-विज्ञान की शाखा से लेकर मनोविज्ञान तक संचार-भाषा के बहुउद्देशीय आयोजन मानव-संचार एवं मानव-भाषा को केन्द्र में रखकर अपनी बात कहते हैं। विषय-विशेषज्ञों की बात करें, तो व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में अरुण कुमार सिंह की पुस्तक ‘व्यक्तित्व’ द्रष्टव्य है। इसमें उन्होंने व्यक्तित्व सम्बन्धी भारतीय-पश्चिमी अवधारणाओं और अन्य पक्षों पर विशद चर्चा एवं सैद्धान्तिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। व्यक्तित्व सम्बन्धी अंतःवृत्तियों के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक की भाँति कार्य करने वाले कुछ सामान्य और विशेष पुस्तकों का उल्लेख किया जा सकता है। हिंदी में व्यक्तित्व विकास पर बहुत अधिक किताबें नहीं लिखी गई हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किताबें हैं ही नहीं। हिंदी के नवागत शोधार्थी को यदि एक ही जगह व्यक्तित्व के बारे में सम्पूर्णतः जानकारी चाहिए हो, तो अरुण कुमार सिंह की पुस्तक ‘व्यक्तित्व’ का नामोल्लेख आवश्यक है।  ‘कादम्बिनी’ पत्रिका के व्यक्तित्व-विशेषांक (2006) में शिव खेड़ा की बहुचर्चित किताब ‘हाऊ टू विन’ बड़े काम की बतलाया गया है।है। इसी तरह, स्टीवन आर. कोवे की ‘सेवन हैबिट्स आॅफ हाइली इफैक्टिव पीपुल’, एस. आर. वास और अनिता वास की ‘सीक्रेट्स आॅफ लीडरशिप’, ‘गैट ए लाइफ, गैट ए जाॅब’, ‘यू लाइक एंड लाइक ए जाॅब यू गैट’ और ‘कनेक्टिंग वर्किंग टूगेदर फाॅर हैल्थ एण्ड हैप्पीनेस’-जैसी कई किताबें हैं। इसके अलावा ‘चिकेन सूप सीरिज’, ‘डेल कारनेगी की ‘बाॅडी लैंग्वेज’ और ‘हाऊ टू विन फ्रेंड्स एंड इंफुलुंस पीपुल’-जैसी सफलता और व्यक्तित्व विकास पर लिखी पुस्तकंे भी दुनियाभर में खासी लोकप्रिय हैं।इसी तरह लोकप्रियता के ‘बेस्ट सेलर’ प्रारूप में शिव खेड़ा की ‘हाऊ टू विन’ का हिंदी रूपांतरण ‘जीत आपकी’ के नाम से बाज़ार में उपलब्ध है। इसके अलावा संजीव मनोहर साहिल की, ‘आपकी सफलता-आपका हक’, आर. एस. चोयाल की ‘हाँ तुम एक विजेता हो’, उदयशंकर सहाय की ‘अपना व्यक्तित्व प्रभावी कैसे बनाएँ’ जैसी कुछ किताबें हिंदी में उपलब्ध हंल। इन किताबों के जरिए लोगों को अपने व्यक्तित्व की कमियों को पहचानने में खासी मदद मिलती है।  

उपर्युक्त (संक्षिप्त, चयनित, दूसरों द्वारा उद्धृत) विवेचन-विश्लेषण से यह बात तो साफ है कि हमारी पहलू में पुस्तकें इफ़रात हैं, बस पढ़ने का मिज़ाज और नियत चाहिए। मानसिक बोध और संज्ञान के सक्रियमान तथा शक्तिमान बने रहने ख़ातिर पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ ही असल खुराक हैं। बाज़ार की राजनीति द्वारा लोकतंत्र तथा संसदीय कार्यकलाप को राजनीतिक बाज़ार मान बैठने की जिद से छुटकारा पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं से मित्रता गाढ़े बिना संभव नहीं है। हमलोग चाहे हैबरमास के लोवृक्रत का हवाला दें, या फिर फ्रांचिस्का आॅरसेनी के ‘हिंदी लोकवृत’ का। हम भारतीय सन्दर्भों में रामाधारी सिंह दिनकर के ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से अपनापा गाठें या फिर एडर्नो के ‘संस्कृति-उद्योग’ का। हम सही बात तक कुशल पठनीयता के बरास्ते ही पहुँच सकते हैं। हम पढ़ते हुए ही अपने समसामयिक संकट-चुनौतियों से अवगत हो सकते हैं। यानी अंततः चुनाव तो हमें ही करना होगा। .…और यह चुनाव किताबों के मयखाने में प्रवेश किए या फिर उनका आस्वाद लिए बगैर हरग़िज संभव नहीं है।

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...