Saturday, February 8, 2014

डायरी-अंश : 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर पिता का सम्बोधन अपने बेटों के नाम

प्रिय देव-दीप, 

हम एक गणतन्त्र राष्ट्र के नागरिक हैं। उस बृहद गणतन्त्र के नागरिक जिसकी आबादी सवा अरब का आँकड़ा पार कर चुकी है। आज जिस भारत को हम अंधाधुंध शहरीकरण, मशीनीकरण, आधुनिकीकरण के दौड़ में बेतहाशा भागते देख रहे हैं; वह मुल्क आज से 66 साल पूर्व स्वाधीन भी नहीं था; हमने इसे हासिल किया। ‘टच स्क्रीन’ और ‘वेराइटी-वेराइटी चाॅकलेट फ्लेवर’ के इस ज़माने में यह अनुमान कर पाना भी कठिन हो सकता है कि काले पानी की सजा पाने वाले हिन्दुस्तानियों के लिए पानी के काले होने का अर्थ उस वक्त क्या हुआ करता था? महात्मा गाँधी जैसे एक वृद्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व में ऐसा क्या कुछ जादू था कि आमोखास सभी उनकी पगडंडियों को समीप से गुजरते ही चूम लेने को बेचैन...व्याकुल हो उठते थे। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन, इतिहास की एक ऐसी सचाई है जिसे जाने बगैर भारत के अंतरिक्ष में जाने, उपग्रह संचार व्यवस्था हासिल करने तथा आधुनिक से उत्तर आधुनिक समाज बनने तक की कहानी को जी पाना नामुमकिन है। जीने के लिए हमारे भीतर भारतीय मन, मस्तिष्क, संस्कार और देशप्रेम का जज़्बा चाहिए।
 
देव-दीप, हमें उन भारतीयों के बारे में जानना ही चाहिए जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को काटा है; ब्रिटिश हुकूमत से सीधी टक्कर ली है; यातना और प्रताड़ना के मार सहे हैं; लेकिन सत्य के लिए, स्वराज के लिए; अपनी स्वतन्त्रता के लिए अंत तक डटे रहे हैं...अडिग...अविचल। आजादी की इस लड़ाई में देश के लिए अनेकों ने कुर्बानियाँ दी है; अनगिनत लोगों ने घर-बार छोड़कर तिलक, गाँधी, भगत, सुभाष, श्रीअरविन्द, विनोबा, नेहरु, आम्बेडकर जैसे जननेताओं के पथ पर खुद को बिछाया है; कईयों ने नेताजी सुभाष बोस के आह्वान पर ‘आजाद हिन्द फौज’ के क्रान्तिकारी दस्ते में शामिल होना अपना गौरव समझा है।
 
उनमें से कोई भी आज हमारे साथ नहीं है। हमारे बीच नहीं है। लेकिन, उन्हीं के संघर्ष और प्रतिरोध की संचेतना से प्राप्त आज़ादी को हम सब जी अवश्य रहे हैं। स्वाधीन राष्ट्र की परिकल्पना में शासन-व्यवस्था के जिस लोकतांत्रिक ढाँचे को हमने स्वीकार और आत्मसात किया है; भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी प्राण की आहुति देने वाले, समस्त बलिदानियों का यह एकमात्र स्वप्न था। 15 अगस्त, 1947 की शुभ बेला में भारत को आज़ादी प्राप्त हुई। कुछ ही वर्षों के भीतर हम एक गणतन्त्र राष्ट्र के नागरिक भी बन गए...वह शुभ दिन आज ही का दिन है। 26 जनवरी, 1950 को हमारे स्वाधीन देश में एक लिखित संविधान ने मूर्त रूप ग्रहण किया। प्रत्येक नागरिक को सांविधानिक अधिकार मिले, तो नागरिक कर्तव्यों को भी उसमें विशेष स्थान प्राप्त हुआ। अब यह हमारे ऊपर है कि हम अधिकारों के लिए लड़ते या मोर्चा ठानते हैं कि सर्वप्रथम कर्तव्यों का अनुपालन करते हैं।
 
गणतन्त्र राष्ट्र के रूप में हिन्दुस्तान की कीर्ति अक्षय, तो प्रतिष्ठा चतुर्दिक है। गणतन्त्र दिवस राष्ट्रीय उत्सव है। एक ऐसा उत्सव जो हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अवलम्ब है। हम सम्प्रभुता-सम्पन्न राष्ट्र के नागरिक हैं; इस सार्वभौम सत्य को आज के दिन आकार लेते हुए देखा जा सकता है। आज के दिन स्वयं को भारतवासी कहते हुए हम और आप सभी गौरवान्वित होते हैं; खुद को कृत्-कृत् महसूस करते हैं। भीतरी अनुभूति का विराट फलक आज के दिन सभी भारतीयों में एकमेक हो जाता है...लगता है जैसे एक दरिया समन्दर होने को है। यह समन्वित चेतना, एकीकृत व्यक्तित्व आज भारतीय अवाम में जिस तरह अंगड़ाई लेते हुए, विहसते हुए, प्रसन्न और प्रफुल्लित होते हुए दिखाई दे रही है....हम भारतवासियों की खातिर निश्चय ही यह वास्तविक प्रकाश-पूँज है, राष्ट्र-दीपक है।
 
देव-दीप, आज इस पावन दिन के उपलक्ष्य में, देश-प्रदेश में हर जगह सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक बहुविध कार्यक्रम सम्पन्न किए जा रहे हैं। कला, दर्शन, साहित्य हो या संगीत; सभी का मूलभाव अथवा ध्येय अपने राष्ट्रीय अस्मिता, गौरव, परम्परा और संस्कृति को अभिव्यक्त करना है। यह अभिव्यक्ति असीम का ससीम में रूपान्तरण है। यह अभिव्यक्ति अनन्त और असीमित का सूक्ष्म से स्थूल में कायाकल्प है। यह अभिव्यक्ति ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ का प्रकृति-प्राणी में परकायाप्रवेश है। हम इस अभिव्यक्ति के बहाने उन महŸवपूर्ण संकेतों, प्रतीकों, चिह्नों तथा मिथकों को जानते हैं, उनसे जुड़ते हैं जिनका योग बीते युग, काल और समय में ऐतिहासिक/अनिर्वचनीय रहा है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन सभी का महत्त्व, सामान्य या विशिष्ट; साधारण या असाधारण; शान्त या मद्धिम; देश, काल और पात्र के सापेक्षतः निर्धारित होता है। स्वदेशी आन्दोलन, स्वराज, सत्य-अहिंसा, सत्याग्रह, सांगठनिक राजनीतिक शक्ति एवं संचेतना इत्यादि स्वातंत्र्योत्तर कालावधि में विशेष अर्थ, महŸव और स्थान रखते थे; आज उनका सन्दर्भ बदल गया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य या आज के बदले हुए सन्दर्भ में आज़ादी या गणतन्त्र का वही अर्थ नहीं है जो स्वाधीनता प्राप्ति के समय की पीढ़ी के लिए मान्य अथवा प्रचलित था। उन दिनों राष्ट्रीय दिवस एक जुनून, एक आवेग की भाँति भारतीय मानस को स्पन्दित/तरंगित करता था। जबकि आज 26 जनवरी, 15 अगस्त या 2 अक्तूबर, सब के सब ‘हाॅली डे सेलिब्रेशन’ या ‘छुट्टी-व्यापार’ मात्र बनकर रह गए हैं।
  
भारतीय भूगोल के हिसाब से देशकाल और वातावरण की विभिन्नता जगजाहिर है। व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त समाज, संस्कृति, भाषा, लिंग, वय, वर्ग, जाति, धर्म इत्यादि में भी पर्याप्त अंतर है, ....विभेद है। लेकिन यह वैविध्य या विविधता ही हिन्दुस्तान की असली जीवन-सम्पदा है; जीवन-राग, संगीत और प्रकृति है। लाल किला का ऐतिहासिक प्राचीर जहाँ से भारत के राष्ट्राध्यक्ष...माननीय राष्ट्रपति देश को सम्बोधित करते हैं; को समीप से सलामी ठोंकती झाँकियाँ भारत के अन्तर्जगत और अन्तर्मन का झरोखा है, खिड़की है। यह भारत के विशाल गणतन्त्र का एक ऐसा जीवन्त कोलाज है जहाँ से बहुभाषाभाषी और बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज अपना परिचय प्राप्त करता है। क्षणमात्र के लिए ही सही यह शुभ दिन हमारे मन-मन्दिर के समक्ष एक भव्य रंगमंच उपस्थित कर देता है। अपने देसीपन, भारतीयपन को जिन्दादिली से जीने वाले बहुसंख्यक भारतीय तमाम संकट, विपदा, अन्याय, शोषण को सहते हुए; प्रतिरोध की लकीर खींचते हुए इसी गणतन्त्र भारत में शानपूर्वक जीवित हैं; सरकारी निकम्मेपन, अक्षमता और धूर्तता के बावजूद सही-सलामत हैं। साधारण सामाजिकी और सांस्कृतिकी में जीवनबसर करते इन लोगों की उत्सवधर्मिता और सामूहिकता असाधारण है। अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए वे स्वनिर्भर...आत्मनिर्भर हैं। उन्हें अमेरिका या यूरोप की ओर देखने की जरूरत नहीं है।
 
देव-दीप, 26 जनवरी का दिन शुभ और महत्त्वपूर्ण क्योंकर है...कमोबेश हम सब जानते हैं। हमें संभवतः पता है...भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बारे में। उन स्वतन्त्रतासेनानियों के बारे में जिन्होंने 1857 ई0 की पहली जनक्रान्ति से ले कर 1947 ई0 तक अनवरत ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। नामों की अनगिन सूची में शामिल ऐसे सदाशयी लोगों का आज़ादी के आन्दोलन, संघर्ष, संग्राम, लड़ाई में स्वयं को होम कर देना राष्ट्रीय निष्ठा की सर्वश्रेष्ठ निशानी है। देशप्रेम का अप्रतिम उदाहरण जिस पर भरोसा करना आज की पीढ़ी के लिए आसान बिल्कुल नहीं है। उनकी आहुति या बलिदान स्वराज की जिस परिकल्पना को भेंट थी...समर्पित थी...आज उसी स्वराज या स्वाधीन भारत के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में हमारा अपना अस्तित्व है। उनकी आत्मा में भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना बसी हुई थी....‘हम भारत के लोग, भारत को...’। यानी 26 जनवरी 1950 के ठिक पहले तक हम बिखरे हुए जन थे; हम रियासत, जमीन्दारी, काश्तकारी द्वारा अलगाए गए लोग थे; जाति, धर्म और भाषा में बंटे हुए इंसान थे; किन्तु 26 जनवरी के दिन भारतीय संविधान ने हिन्दुस्तानियों के समक्ष भविष्य का जो नया द्वार खोला...उस सिंहद्वार पर लिखा था-‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व से युक्त गणतन्त्र भारत’।
 
अतः राजनीतिक संचेतना के निर्माण और कायम औपनिवेशिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में स्वतन्त्रताप्रेमी भारतीयों, शहीद रणबांकुरों और परिवर्तनकामी राजनीति के नेतृत्वकर्ताओं ने जिस त्याग, समर्पण और निष्ठा का परिचय दिया है...उसे इतिहास के पन्नों में नहीं अपने दिल में स्थान दिए जाने की जरूरत है। क्योंकि यह शुभ दिन हमें पूर्णरूपेण स्वाधीन...स्वतन्त्र होने के अहसास से भरता है। यह दिन हमें आजादी के उन परवानों की याद दिलाता है जिन्होंने अपनी समस्त ऊर्जा, शक्ति, शौर्य और साहस को अपने राष्ट्र पर न्योछावर कर दिया है। राष्ट्रनिर्माण की अभिलाषा में अपना सर्वस्व सौंप देने का जो उदाŸा भाव उन वीर सपूतों में था...आज के कठिन समय में हमें उनसे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।

यह समय कठिन इन अर्थों में है कि भारत विकास और समृद्धि की दिशा में बढ़ नहीं रहा है, बह रहा है। यह बहाव अनियंत्रित है। बाह्î पूँजी के संक्रमण और दबाव पर आधारित है। आर्थिक विषमता ने दो वर्गों के बीच की खाई को बढ़ा दिया है। भारतीय राजनीति पर आज अधिसंख्य पूँजीदारों का कब्जा है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व में परिवारवादियों का सिक्का जमा हुआ है। भाई-भतीजावाद चरम पर है, तो धनबल का बोलबाला भ्रष्टाचार का विषकुण्ड बन बजबजा रहा है। समाज और संस्कृति के स्तर पर मूल्यों का क्षरण और नैतिकता के उल्लंघन का मामला आए दिन प्रकाश में है।
 
आज व्यक्तिवाद की संस्कृति ने उत्तर आधुनिक भारतीय-मन को यंत्रवत बना दिया है। देसी भूमि पर एफडीआई, वालमार्ट, सेज, विश्व बैंक इत्यादि का चतुर्दिक हमला भारतीय शासन-व्यवस्था और नेतृत्व की विफलता का परिचायक है। आमोखास सभी में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ गुस्सा, आक्रोश और असंतोष जबर्दस्त है। अण्णा हजारे की मुहिम ने पिछले वर्ष पूरे देश के जनमानस को आलोड़ित करके रख दिया था। इसी तरह स्त्रियों के सशक्तिकरण के बिगुल बुलन्द करने के बावजूद आधी आबादी पुरुषिया कुण्ठा और मानसिकता से बुरी तरह उत्पीड़ित है। उन पर हो रहे ताबड़तोड़ हमले लैंगिक भेदभाव की नंगी सचाई है। नतीजतन, इस घड़ी स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर हिंसा, हत्या, बलात्कार और अन्य प्रकार के शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना की शिकार है। कुछ दिन पहले दिल्ली गैंगरेप की हैवानियत भरी करतूत के खिलाफ पूरे देश को हमने बागी, उग्र और आक्रोशित होते हुए अपनी आँखों से देखा है।
 
आज अपने ही मुल्क में गणतन्त्र किस कदर गौणतन्त्र में बदल चुका है। यह हम सब को देखना होगा। भारत की वास्तविक प्रगति या समृद्धि अपनी परम्परा-विरासत को तज कर आगे बढ़ने में नहीं है। हमें अपने राष्ट्रीय गौरव के विरासत को सहेजना होगा। नवसाम्राज्यवादी मुल्कों ने वैश्विकरण के मुहावरे में बाज़ारवाद का मकड़जाल फैला रखा है...उसमें राजनीतिक दखल/दबंगई का जोर है...जबकि समर्थ राजनीतिक व्यक्तिव और कुशल-प्रवीण नेतृत्व का सर्वथा अभाव है। आज की भारतीय राजनीति में चिन्तन भी ‘पाॅवरगेम’ हो गया है जिसमें ‘पोजिशन’ में बदलाव होते देखा जा सकता है, लेकिन चित्तवृत्ति में बदलाव नहीं हो पाता है।
 
देव-दीप, भारतीय गणतन्त्र का यह शुभ और महत्त्वपूर्ण दिन हमारी खुशहाली और प्रसन्नता का प्रतीक बने, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने समय के सवालों, मुद्दों, समस्याओं और अन्तर्विरोधों से सीधे टकराए। युगीन यथार्थ और युगीन चेतना से आमजन को परिचित करायें। आज गणतन्त्र दिवस के बारे में नहीं गणतन्त्र में हो रहे आमूल-चूल बदलाव की स्थिति और पारिस्थितिकी के बारे में प्रश्न खड़े करने की आवश्यकता है। वर्तमान में पसरी जड़ता और यथास्थितिवाद के खिलाफ़ नई अमराई....पीढ़ी को बागी बिगुल फूंकने की जरूरत है।

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...