§ राजीव रंजन प्रसाद
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भूमिका : दो दशक पूर्व की कहानी
कुछ और थी। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन जन-अभियान का हिस्सा था। भारत में शिक्षा-सुधार की दिशा में आधारभूत संरचनाएँ
खड़ी की जा रही थी। आज नई शिक्षा नीति, सर्व शिक्षा अभियान, ज्ञान आयोग की स्थापना
इत्यादि की कड़ी में तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित कई अन्य चीजें जुड़ चुकी हैं। यही नहीं आजकल
हर तरफ ‘डिजिटलाइजेशन’ पर बल है। तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित संचार-साधनों एवं संवादी-तंत्रों के प्रयोग किए जाने पर जोर
है। यह बदलता हुआ भारत है जिसमें कौशल-विकास के माध्यम से भारतीय शिक्षा में अपेक्षित बदलाव लाने की
कोशिश जारी है। यानी आज शिक्षा-तंत्र बदलाव के मुहाने पर है। यह बदलाव स्वतंत्र
सोचने और बेहतर करने हेतु लगातार प्रेरित कर रहा है। हम इस सोच के साथ आगे बढ़ रहे
हैं कि कौशल-विकास के माध्यम से शिक्षा में सुधार कैसे हो? भारत का अकादमिक जगत अधिकाधिक नवाचारी और अन्तरानुशासनिक
कैसे बने?
भारत ‘बौद्धिक
सम्पदा अधिकार’
(इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट) का अधिकारी कैसे हो? विशेषकर उच्च शिक्षा में बुनियादी बदलाव के सिक्के चल सके; विश्वविद्यालय मौलिक शोध की दिशा में आत्मनिर्भर हो सकें; हमारी शिक्षा-नीति, पठन-पाठन व्यवस्था, पाठ्यक्रम-प्रणाली, चिन्तन-प्रक्रिया आदि का फैलाव गहरा और अंततः विद्यार्थियों
का सर्वांगीण विकास करने वाला हो; आदि-आदि।
सम्पूर्णतः यह लक्ष्य शिक्षा-सुधार की दिशा में हो रहे विभिन्न बहस-मुबाहिसों, संवाद-चर्चा, संगोष्ठी-सम्मेलनों
इत्यादि का प्रमुख उद्देश्य है। विदित है, नई पीढ़ी संभावनाओं को सदैव आगे रखती है। जिंदा स्वप्न
सर्वाधिक उन्हीं के आँखों में तैरते हैं। इसलिए शिक्षा में सुधार का अर्थ है अपनी
युवा-पीढ़ी के आँखों में पलने वाले सपनों के साथ होना, उनकी सोच और दृष्टि में सकारात्मक ऊर्जा भरना, उन्हें अपने समय-समाज की कठिनाइयों को समझने और उनसे उबरने
की क्षमता प्रदान करना आदि-आदि। इसके अतिरिक्त नेतृत्व-क्षमता विकसित करने
सम्बन्धी प्रयासों से लेकर विद्यार्थियों में आत्मबल आधारित निर्णय-निर्माण
(डिसीजन मेकिंग) एवं मूल्य-सृजन (वैल्यू क्रिएशन) हेतु शिक्षण-कौशल आज की शिक्षा का आधारभूत लक्ष्य है। यह
संभव कैसे हो?
इसके लिए कौशल-विकास उपयुक्त माध्यम है। माध्यम भी ऐसा जो
महज़ शिक्षा तक केन्द्रित नहीं है। विद्यार्थी, पाठ्यक्रम और अध्यापक तक केन्द्रित नहीं है। दरअसल, इसका उद्देश्य किसी
व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है। किसी व्यक्ति की भूमिका को
बहुआयामी बनाना है। इसके अतिरिक्त समय, समाज,
शासन, राजनीति, भूगोल, अर्थव्यवस्था, वैश्विक व्यापार और पूँजीवाद, उत्तर आधुनिकता, जनसंचार,
जनसंवाद आदि के महती उद्देश्य को पूरा करना है। इस इक्कीसवीं
सदी में शिक्षा-अभिरुचि और कौशल आधारित विकास की
दिशा में किए जा रहे प्रयासों को देखें, तो शिक्षा का उद्देश्य और परिणाम दोनों को समझने में आसानी होगी।
भारतीय शिक्षा-प्रणाली की विकसित परम्परा और पृष्ठभूमि
में चालित आरंभिक प्रयासों को देखें, तो ब्रिटिश हुकूमत के दिनों से इस तरह के परिवर्तनकामी
प्रयास जारी हैं। भारत में फोर्ट विलियम काॅलेज की स्थापना 1800 ई. में हुई। इस काॅलेज ने भारतीय शिक्षा में बदलाव का
अभूतपूर्व मुहावरा गढ़ा। लार्ड मैकाले ने 1835 में ‘इंग्लिश एजुकेशन पाॅलिसी’ लाकर भारतीय शिक्षा में बदलाव के अग्रगामी बिन्दु तय किए।
आगे कि कड़ी में 1854 ई. में एक नया अध्याय जुड़ा-‘ वुड डिस्पैच’। इसके बाद तो भारतीय जनता में आत्मबोध होना स्वाभाविक था। बाद के दिनों में ‘ज्ञानोदय’ (इनलाइटमेंट) के जो स्वर सुनाई पड़े, उसका दूरगामी प्रभाव भारतीय चिंतनधारा और विचार-पद्धति पर
पड़ा। रेल-डाक-तार जैसे संचार-कतनीक के आगमन और इनके विधिवत संचालन के साथ भारत में
विश्वविद्यालय की परिकल्पना भी साकार हुई। कोलकाता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालय के परिसर बने और भारतीय
नक़्शे पर उच्च शिक्षा का विधिवत ‘उलगुलान’ (आन्दोलन) हुआ। इन्हीं दिनों भारत में जन-जन तक पहुँच वाली
भाषा हिंदी की खोज हुई। खड़ी बोली की हिंदी को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आगे बढ़ाया।
भारतेन्दु-मंडली के साहित्यकारों ने ‘हिंदी,
हिंदू, हिंदूस्तानी’ के राष्ट्रीय-बोध के साथ हिंदी की जन-प्रकृति को समझते हुए इस
भाषा में अपने मौलिक साहित्य रचे। राजनीतिक लेखन के साथ सामाजिक सुधार की दिशा में
हिंदी में लिखकर सीधा हस्तक्षेप किया। इसकी प्रभावशीलता को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
ने सन् 1873 में लक्षित करते हुए कहा, ‘हिंदी नई चाल में ढली’। हिंदी में प्रकाशित स्तरीय साहित्य और उसकी परिष्कृत भाषा
भाषा के कुशल प्रयोग एवं कौशल विकास का अद्वितीय उदाहरण बने।
विषय-प्रवेश : आजादीपूर्व
भारत में राजनीतिक चेतना के आरंभ होने और उसके लहर में तब्दील होने के साक्ष्य
नहीं मिटाए जा सकते हैं। शिक्षा में भाषा का स्वर मुखर और आधुनिक
तर्कों से लैस होने के कारण कहन के तरीके में गुणात्मक प्रभाव पड़ा। यह आधुनिक
विचार-तंत्रों (आइडियाज एण्ड टुल्स) द्वारा गढ़ा गया नया मुहावरा था। किसी ने इसे
नवजागरण कहा, तो किसी ने प्रथम
स्वाधीनता आन्दोलन। पर सच यही था कि पढ़े-लिखे लोगों ने राजनीति के
अभाव को अंततः दूर कर दिया। स्वयं पत्रकारिता शिक्षा में आए विभिन्न बदलावों और
कौशल विकास आधारित भाषाई आधारों का परिणाम थीं। विचार और दृष्टि से लबरेज़
पत्रकारिता ने आजादीपूर्व राजनीति की नींव रखी। सुधारवादी आन्दोलनों को
संगठित होने का मौका दिया। कालचक्र के कैलेण्डर
में दर्ज़ यही वह समय है जिसमें प्रेस की महती भूमिका को लक्ष्य करते हुए, अकबर इलाहाबादी ने कहा-‘खींचों न कमानो को, और न तलवार निकालो; जब तोप मुकाबिल हो, तो अख़बार निकालो!’ यह बात आइने की तरह साफ़
है कि राजनीतिक कार्यकलाप को प्रचारित-प्रसारित करने में भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं ने गंभीर यातानाएँ सही; उनके सम्पादकों और लेखकों को तरह-तरह से प्रताड़ित होना पड़ा किन्तु राष्ट्र निर्माण की दिशा में
उनके बढ़ते कदम ने अपने हाथ पीछे नहीं खींचे। उदाहरणस्वरूप भारतीयों के राजनीतिक संगठनों
जैसे 'पूना सार्वजनिक सभा’ (1870 ई.), ‘इंडियन एसोसिएशन’ (1876 ई.), ‘नेशनल कांग्रेस’ (1883 ई.), ‘मद्रास महाजन सभा’ (1884 ई.), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (1885 ई.) की राह और लकीर को दीर्घजीवी
बनने का मौका दिया। तद्दन्तर सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन, कंप्यूटर आदि से भारतीय शिक्षण-व्यवस्था को लैस किया गया, जिसके परिणाम हमारे सामने हैं। यानी हाथ कंगन को आरसी क्या...और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या? बहरहाल, तकनीकी-प्रौद्योगिकी
मिश्रित शिक्षा एवं शिक्षण-प्रणाली आज की हकीकत है। सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें, तो स्वाधीनता
प्राप्ति के बाद भारत की शिक्षा-प्रणाली में अपेक्षित बदलाव हुए हैं। यह बदलाव
बहुआयामी और कौशल-विकास केन्द्रित है। सामुदायिक रेडियो, युवावाणी, कृषि-दर्शन, तरंग, आँखों देखी, सुरभि आदि कार्यक्रमों की राष्ट्रीय पहचान बनी, तो इस कारण कि समय के साथ भारतीय शिक्षा ने ज़मीनी काम करने
का न केवल हौसला दिखाया; अपितु इस
दिशा में कारगर उपाय और दीर्घकालिक उपक्रम भी खड़े किए। आज भारत में केन्द्रीय विश्वविद्यालय
से लेकर महाविद्यालयों तक की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। विपणन, प्रबंधन, चिकित्सा, आभियांत्रिकी आदि महत्त्वपूर्ण उच्च-संस्थानों ने अपने नाम
का लोहा मनवाया है, जिसकी उपेक्षा अपनी
राष्ट्रीय प्रतिभा का उपहास करना होगा। यह सच है, कंप्यूटर और इंटरनेट आधारित शिक्षा की मांग उत्तरोत्तर बढ़ रही
है। पहले की तुलना में अधिक रोचक, ज्ञानवर्द्धक और प्रभावशाली अध्ययन-सामग्री हमारे पास उपलब्ध है। सिर्फ जेराॅक्स काॅपी अपने स्टडी-टेबल पर रखकर संतुष्ट होने विद्यार्थी
समय से काफी पीछे हैं। अब सीखने और समझने के बहुतेरे प्लेटफाॅर्म आॅनलाइन हैं। सचमुच, डिजीटल दुनिया ने आज
की शिक्षा-प्रणाली का कायाकल्प कर दिया है।
इन दिनों तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा को कौशल-विकास का मुख्य जरिया माना जा रहा है। इस कायांतरण में भाषा
आधारित कौशल-विकास का स्थान सर्वोपरि है। यहाँ
यह देखना आवश्यक है कि यह सबकुछ जिनसे सम्बन्धित है और जिनको सम्बोधित है; को भाषा के माध्यम से
जोड़ा जा रहा है। यह जुड़ाव भीतरी है। सर्वविदित है कि किसी भी भाषा को सप्रयास सीखना
होता है। यह सामाजिक-अंतरक्रिया (सोशल इंटरेक्शन) के फलस्वरूप हमें प्राप्त
है। वास्तव में भाषा एक अर्जित भाषिक मूल्य एवं वैशिष्टय है। यद्यपि इसका रचाव-बुनाव व्यक्ति-विशेष के मन-मस्तिष्क में होता है; इसका संयोजन-सम्पादन समूह-विशेष के माध्यम से होता है; किन्तु वाक् के माध्यम
से उजागर होते ही वह समष्टि-बोधक हो जाता है। अर्थात् अभिव्यक्त भाषा को संचार के चाहे जिस
किसी भी माॅडल में डाल दें, पैटर्न में रख दें, सिस्टम से जोड़ दें; उनका संचरण-सम्प्रेषण अबाध गति से होता है।
ध्यातव्य है कि अंतःवैयक्तिक संचार हो या अंतर्वैयक्तिक संचार
या कि समूह अथवा जनसंचार; भाषा ‘इनकोडिंग-डिकोडिंग’ में तबतक नहीं पिछड़ती जबतक कि भाषा-प्रयोक्ता स्वयं अपनी हाथ खड़े नहीं कर देता है। कई बार प्रयोक्ता
की अपनी सीमाएँ और कई बार उसकी अक्षमता भाषा को कठिन, जटिल या कि संचार हेतु अनुपयुक्त साबित कर देती हैं। यदि भाषा-प्रयोक्ता अपनी बात को सहज-सरल, तर्कपूर्ण, प्रवाहमयी तरीके से नहीं कह--सुन पा रहा है, तो यह गड़बड़ी भाषा की ओर से पैदा हुई नहीं होती है बल्कि स्वयं
भाषा-प्रयोक्ता की अक्षमता एवं अपूर्णता
की देन होती है। इससे उबरने की ख़ातिर भाषा-प्रयोक्ता के समक्ष भाषा को साधने और उसे अच्छी तरह व्यक्त करने
का चुनौतीपूर्ण प्रश्न होता है। सम्पूर्णतः तो न सही लेकिन कौशल-विकास इसका उपयुक्त निदान यानी हल
है। आज के सन्दर्भों में देखें, तो भाषा को आधुनिक कंप्यूटर-प्रणाली और तद्नुकल बहुविध अनुप्रयोगों से जोड़ने के फ़ायदे अनगिनत
हैं। यह भाषा आधारित कौशल-विकास है जिसमें तकनीकी-प्रौद्यौगिकी की भूमिका अन्यतम (अल्टीमेट) है।
विषय-स्थापना : आजकल कंप्युटर
उपकरणों के प्रयोग और इंटरनेट माध्यम से तैयार की गई विपुल अध्ययन-सामग्री ने भारतीय हिंदी समाज की
मानसिकता (माइंड सेट) को अपने तईं बदल दिया
है। उदाहरणस्वरूप साहित्यिक सामग्री के अन्तर्गत हिंदी की विभिन्न विधाओं का सहज संकलन, संचयन, संपादन, संवर्द्धन इत्यादि संभव
है। यह हिंदी में हुई ‘यूनिकोड’ क्रांति है जिसने अब
आॅनलाइन जगत में हिंदी में कुछ भी लिखना, भेजना और संगृहीत करना आसान कर दिया है। यूनिकोड हिंदी का सार्वभौम (यूनिवर्सल) फाॅण्ट है। यूनिकोड के
होने से ब्लाॅग, ट्विटर, वाट्सअप, फेसबुक आदि पर लिखना
आसान हो गया है। उदाहरण के लिए कुछ चर्चित साइटे हैं : hindigdhykosh.com, hindikavitakosh.com, jansatta.com,
dainikpurvoday.com, hindisamay.com, bbchindi.com, thelallontop.com, mygov.com,
samalochan.blogspot.in, hindirgu.blogspot.in इत्यादि। साहित्येतर विषयों को देखें तो हिंदी का व्यावहारिक-अनुप्रयोग (एप्लीकेशंस) हाल के दिनों में बढ़े
हैं। विभिन्न विषयों तथा कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित हिंदी का यह नया स्वरूप प्रयोजनमूलक
हिंदी है। परिचयात्मक ढंग से कहें, तो भारत के सांविधानिक नक्शे में हिंदी भाषा राजभाषा के रूप
में मान्य है। यह राष्ट्रभाषा है और सम्पर्क भाषा भी। राजभाषा यानी अंग्रेजी के
सहप्रयोग के साथ राजकीय विधान, कार्यालयी काम-काज, अकादमिक लिखा-पढ़ी, ज्ञान-विज्ञान, अन्तरानुशासनिक-अन्तर्सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार इत्यादि में सांविधानिक रूप से
मान्यता प्राप्त एक वैध भाषा। वह भाषा जिसके बारे में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351
के अन्तर्गत काफी कुछ
लिखित एवं वर्णित है। यही नहीं अनुच्छेद 120 में संसद में भाषा-प्रयोग के बारे में हिंदी
की स्थिति स्पष्ट है, तो अनुच्छेद 210 में विधान-सभा एवं विधान-परिषद में हिंदी के प्रयोग को लेकर ठोस दिशा-निर्देश उल्लिखित है।
वहीं सम्पर्क-भाषा कहने का अर्थ-आशय रोजमर्रा के प्रयोग-प्रचलन की भाषा; कुशलक्षेम, हालचाल की भाषा,
आमआदमी के बोली-बर्ताव की भाषा। यह हमारी
आय और आमदनी की भाषा भी है जिसे पारिभाषिक शब्दावली में इन दिनों प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा रहा
है। अनुप्रयुक्ति की दृष्टि से यह नवाधुनिक क्षेत्र है जिनका महत्त्व एवं
प्रासंगिकता हाल के दिनों में तेजी से बढ़े हैं। दरअसल, सूचना-प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटरीकरण और मीडिया के बढ़ते
प्रभावों के कारण ही आज फंक्शनल हिंदी के क्षेत्र में रोजगार के नए-नए द्वार खुल रहे हैं। आज
इस क्षेत्र में कुशल पेशेवरों की डिमांड है, उतनी मात्रा में उनकी भरपाई नहीं हो
पा रही है। उदाहरण के लिए आज
हिंदी एकबार फिर बदलाव की नई इबारत लिख रही है। इन दिनों पढ़ने-लिखने-बोलने वाले
लोगों के साथ मशीनी-ताकत यानी यांत्रिक-युग भी संग-साथ है।
उच्च शिक्षा को लक्ष्य करते हुए कहें, तो बीसवीं सदी में
शुरू हुए बदलाव ने आज शिक्षण-व्यवस्था और शैक्षणिक-प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव कर
दिए हैं। आज हर विद्यार्थी तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित सूचना-यांत्रिकी
(इन्फार्मेशन टेक्नोलाॅजी) से लैस है। आज का युग ही ‘आइस युग’ कहा जा रहा है। यानी ‘एजुकेशन थ्रू इन्फार्मेशन
एण्ड कम्युनिकेशन’। ध्यातव्य है कि स्मार्ट-फोन के चलन ने इसमें अप्रत्याशित इज़ाफा कर दिया है।
अकादमिक जगत इस तरह के बदलावों का गवाह है। कारण कि इंटरनेट से जुड़े लोगों के पास
एक नई दुनिया सामने है-आभासी-संसार यानी ‘वर्चुअल वल्र्ड’। अतएव, ज्ञान-समाज का
निर्माण करने वाले विद्यार्थियों के पास सूचना क्रांति और सूचना राजमार्ग जैसे
चर्चित शब्दावली हैं जिनसे भारत की शैक्षणिक-गुणवत्ता में उत्तरोत्तर बदलाव देखे
जा सकते हैं। आज नवमाध्यमों की आसान पहुँच ने आॅल्वीन टाॅफ्लर, हैबरमास और मार्शल मैकलुहान
जैसे आधुनिक विचारकों की सोच को आगे बढ़ाया है। हम सब सभ्यता-संस्कृति के ‘तीसरी लहर’ (थर्ड वेव) का हिस्सा हो चुके हैं। जैसे-ई-पेपर, इंटरनेट रेडियो, नेट-टीवी,
मोबाइल जर्नलिज़्म (मोजो), वेब-जगत, सोशल-नेटवर्किंग, ब्राॅडबैंड, ग्लोबल
इनफाॅर्मेशन,
भूमंडलीकृत विश्व इत्यादि।
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी)[1] : ‘’सूचना व संचार
प्रौद्योगिकी की इस व्यापक परिभाषा के तहत रेडियो, टीवी, वीडियो, डीवीडी, टेलीफोन (लैंडलाइन और मोबाइल फोन दोनों ही), सैटेलाइट प्रणाली, कम्प्यूटर और
नेटवर्क हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर आदि सभी आते हैं; इसके अलावा इन प्रौद्योगिकी से जुड़ी हुई सेवाएं और
उपकरण, जैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ई-मेल और ब्लॉग्स
आदि भी आईसीटी के दायरे में आते हैं। 'सूचना युग' के शैक्षिक उद्देश्यों को साकार करने के लिए शिक्षा
में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के आधुनिक रूपों को शामिल करने की आवश्यकता
है। इसे प्रभावी तौर पर करने के लिए शिक्षा योजनाकारों, प्रधानाध्यापकों, शिक्षकों और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों को प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण, वित्तीय, शैक्षणिक और
बुनियादी ढांचागत आवश्यकताओं के क्षेत्र में बहुत से निर्णय लेने की आवश्यकता
होगी।‘’
कार्यस्थल पर प्रौद्योगिकी[2] : ‘’प्रौद्योगिकी के
प्रयोग से जुड़ी नीतियों, रणनीतियों और व्यावहारिक कदमों के प्रदर्शन के लिए
दुनिया भर से ली गईं अन्वेषण, कामयाबी और विफलता की दास्तानें। इनके तहत निम्न
विषय शामिल होंगे : शैक्षिक टीवी; शैक्षिक रेडियो; वेब आधारित निर्देश; खोज के लिए पुस्तकालय; विज्ञान और प्रौद्योगिकी में व्यावहारिक गतिविधियां; मीडिया का इस्तेमाल; शिक्षकों को तैयार
करने और कैरियर से जुड़े प्रशिक्षण के लिए प्रौद्योगिकी; नीति-निर्माण, डिजाइन और डेटा
प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी; स्कूल प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी; प्रौद्योगिकी के
विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए मौजूद चीजों पर एक नज़र; निर्देशात्मक
सामग्री; ऑडियो, विजुअल और डिजिटल
उत्पाद; सॉफ्टवेयर और कंटेंटवेयर; शैक्षणिक वेबसाइट इत्यादि।‘’
विद्यार्थी केंद्रित शैक्षणिक माहौल बनाने में भूमिका[3] : ‘’शोध रिपोर्ट के
अनुसार सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के सही इस्तेमाल से विषय-वस्तु और
शैक्षणिक प्रविधि दोनों में बुनियादी बदलाव किए जा सकते हैं और यही 21वीं सदी में
शैक्षणिक सुधारों के केंद्र में भी रहा है। यदि कायदे से इसे विकसित किया गया और
लागू किया जाए, तो सूचना व संचार
प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित शिक्षण ज्ञान और दक्षता के प्रसार में महत्वपूर्ण
भूमिका निभा सकता है जो आजीवन अध्ययन के लिए छात्रों को उत्प्रेरित करता रहेगा।
यदि कायदे से इस्तेमाल किया जाए, तो सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) और इंटरनेट
प्रौद्योगिकी से अध्ययन और अध्यापन के नए तरीके खोजे जा सकते हैं, बजाय इसके कि
शिक्षक और विद्यार्थी वही करते रहें जो पहले करते रहे थे। शिक्षण और अध्ययन के ये
नए तरीके दरअसल अध्ययन की उन रचनात्मक शैलियों से उपजते हैं जो शिक्षण प्रणाली
में अध्यापक को केंद्र से हटा कर विद्यार्थी को केंद्र में लाता है।‘’
सीमाएँ एवं खतरे : कौशल-विकास को अपनी
मूल अवधारणा में समेटे हुए आज ज्ञान शास्त्रीय तहखाने से बाहर आ चुका है। अब ज्ञान
के तकनीकी दृष्टिकोण अथवा तकनालाॅजिकल मनोव्यवहार पर जोर अधिक है। आज की तारीख़
में मनुष्य का ‘ह््युमन बिइंग’ से ‘डिजिटल बिइंग’ में रूपांतरण अप्रत्याशित हरग़िज नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि मौलिक ज्ञान के साथ मनुष्य का
संवादी-प्रक्रम एवं संचारवाही-उपक्रम जैसे टूट-सा गया है। यह मानवीय-विच्छेद की नई
प्रतिकूल स्थिति है। इसको लेकर सावधानी बरतनी होगी। इस भूमंडलीकृत विश्व में अपनी
भाषा की संवेदना, भूमिका, पहचान, सत्ता आदि से
सम्बद्ध जरूरी प्रश्न खटाई में पड़ते दिख रहे हैं। कई बार हम भाषा की बोधगम्यता, दुरूहता और उसकी सम्प्रेषणीयता को लेकर हाय-तौबा मचाते हैं
जबकि कोई भाषा न दुरूह होती है और न सरल; वह समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए समभाव से सेवामाध्यम के रूप में प्रयुक्त
होती है। शिक्षा से सम्बद्ध अकादमिक-जन जानते हैं कि किसी भी भाषा की बोधगम्यता
सम्बद्ध विषय एवं पाठक या श्रोता की शिक्षा, रुचि तथा संस्कार पर निर्भर करती है। जो भाषा एक सुसंस्कृत
एवं सुशिक्षित व्यक्ति के लिए बोधगम्य है, वही असंस्कृत और अशिक्षित व्यक्ति के लिए दुरूह हो सकती है।
संवादधर्मी चिन्तन के विस्तृत फ़लक एवं बहुआयामी दृष्टिकोण को आधारभूत लक्ष्य मानते
हुए देखें तो,
‘‘भाषा, भाषा-प्रयोक्ता
की सोच,
उसके सामाजिक सम्बन्धों तथा उसके सामाजिक परिवेश को
उद्घाटित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत जैसे बहुभाषिक और
बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के सन्दर्भ में तो भाषा का समाज संदर्भित अध्ययन और भी
सार्थक सिद्ध होता है। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा-समुदाय, उसकी अधीनस्थ बोलियाँ, उसकी साहित्यिक शैलियाँ तथा उसके प्रयोजनमूलक विकल्पों के
समूह हिंदी भाषा के समाज संदर्भित अध्ययन को प्रचुर सामग्री उपलब्ध कराते हैं।’’ [4] वैज्ञानिक प्रगति और तकनीकी प्रौद्योगिकी-विकास की तमाम
कवायदों के बावजूद आधुनिक समय में भारतीय धर्म, दर्शन, चिन्तन, विचार, विवेक, वाक्-व्यापार, वाचिक-सम्प्रेषण, शब्दार्थ-सम्बन्ध, भाषा, लिपि आदि को
उपयुक्त स्थान और समुचित महत्त्व नहीं मिल रहा है जबकि ‘‘ज्ञान का तकाजा है कि तथ्यों को कुरेद-कुरेद कर निकाला जाए; और यह काम किसी प्रश्न का उत्तर अमुक-अमुक ही हो सकता है; ऐसा आग्रह रखकर नहीं किया जा सकता। यह तो उत्तर मिलते ही
बिना सोचे-समझे उसे झपट लेना है; और इसको
मीडिया ने खूब लोकप्रिय बना दिया है।’’[5] विगत कुछ दशकों में हमारा भाषिक-चरित्र तथा चारित्रिक
वैशिष्ट्य अविश्वसनीय ढंग से बदला है या कहें, तो विरूपित-विखण्डित हुआ है। अर्थ-बोध के स्तर पर
अप्रत्याशित परिवर्तन हुए हैं, सो अलग। यह
बदलावगत परिपाटी वैश्विक ‘प्रोपेगेण्डा’ का हिस्सा है जिसमें प्रचलित मूल्यों के प्रति असंतोष अथवा
असहमति नहीं;
बल्कि नस्लगत/वर्गगत भेदभाव है। आज की पीढ़ी को जो भाषा मिली
है,
वह परम्परा से प्राप्त है। पर, वह हू-ब-हू न तो वैदिक भाषा है, न अपभ्रंश और न ही प्राकृत की। यही नहीं, वह आज से दो दशक पूर्व की भाषा की भाँति भी नहीं है। वह
समकालीन सन्दर्भों से जूझती हुई, निखरती, कटती, छँटती इस रूप
में व्यवहृत है। आज पुराने शब्द बदल गये हैं, पहले जो बहुत प्रचलित थे उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है।
पुराने प्रतीत होने वाले शब्द भी नयी अर्थवत्ता के कारण पुराने नहीं रह जाते। अर्थ, वाक्य-विन्यास, व्याकरण सब कुछ एक लम्बे कालखण्ड में परिवर्तित हो जाते हैं। भाषा के किसी
स्वरूप-विशेष को अपनाने के पीछे एक उद्देश्य होता है। ध्यातव्य है कि भाषा अपने
प्रयोग,
प्रयुक्ति अथवा प्रयोजन में कुछ नए शब्दों या
शब्दावली-विशेष से जुड़ जाती है और कई बार सिवाय लोकस्वीकृति के इसका कोई सुचिन्तित
कारण भी हमारे पास नहीं होता।
निष्कर्ष : दुनिया की हर भाषा से मनुष्य की लगाववृत्ति जन्मजात होती है।
यह सर्वज्ञात तथ्य है कि भाषिक सामथ्र्य मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मना कूटीकृत होते
हैं। भाषा-अर्जन की प्रवृत्ति मनुष्य में इसी कारणवश है। रूपबोध, रंगबोध, गंधबोध, ध्वनिबोध
आदि का मूल कारण भाषा है। भाषा ही वह चासनी है जिसका शाब्दबोध एक अर्थपूर्ण इन्द्रधनुष
रचता है। इन सबके अतिरिक्त अनुभूति और अभिव्यक्ति में फांक, फर्क अथवा फेरफार को भाषा
ही जतलाती है, संकेत करती है। भाषा दुविधा एवं द्वंद्व निवारण की दवा है। यह एक प्रयुक्तिजन्य
औजार है, एक मानवसुलभ सुविधा है। अत्एव, कौशल-विकास की दृष्टि से भाषा उसकी मुख्य धूरी
है। यह देखना होगा कि शैक्षणिक कार्यकलापों और शिक्षा-सुधार की दिशा में भाषा ने खासा
बदलाव किया है। कौशल-विकास में भाषा की भूमिका को हिंदी के माध्यम से रुपायित करें,
तो यूनीकोड का महत्व अन्यतम है। यूनीकोड यानी इंटरनेट के माध्यम से हिंदी लिखने की
सुविधा। यह एक सार्वभौम लिपि है जिसका प्रयोग करते हुए हिंदी आज ग्लोबल भाषा बन चुकी
है। इक्कीसवीं सदी में पैदा और विकसित हुई पीढ़ी की शैक्षणिक गतिविधियों एवं सामान्य
कार्यकलापों को दृष्टिगत करते हुए कहें, तो हमें अपनी भाषा-संस्कृति और उसमें घुली-मिली
सामाजिक-राजनीतिक चेतना को लेकर संवेदनशील होने-बनने की जरूरत सबसे अधिक है।
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[4] रवीन्द्रनाथ
श्रीवास्तव, ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’; राधाकृष्ण; नई दिल्ली; दूसरा सं. : 1996; पृ. 04
निदेशालय; दिल्ली
विश्वविद्यालय; प्रथम संस्करणः 2011;
पृ. xii; (भूमिका)
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