Monday, December 18, 2017

राहुल गाँधी Vs नरेन्द्र मोदी

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राजीव रंजन प्रसाद

आधुनिक भारतीय राजनीति का कैनवास बड़ा है। संविधान और संसद इस जनतांत्रिक व्यवस्था की हृदयस्थली है। विभिन्न निकायों और स्तरों पर नियतकालीन चुनाव होते हैं। सामान्य-असामान्य जीत और हार अलग चीज है। विजयोत्सव मनाइए या महामातम, चुनाव परिणाम के बाद इस तरह के दौर से गुजरना हर एक राजनीतिक दल की नियति है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आमोंखास हर एक नागरिक सांविधानिक तरीके से अपना जनप्रतिनिधि चुनता है। केन्द्र और राज्य में एक ही अथवा भिन्न दलों का नेतृत्व स्वीकार करता है। कहना न होगा कि यह भारतीय जनतंत्र की असल ताकत है, सत्ता और शक्ति का महासंगम है। किसी लोकतंत्र में उपलब्ध जनपक्ष का यह रवैया उसके बौद्धिक विवेक का परिचायक है। भारत जैसे विशाल किन्तु मजबूत जनतंत्र में विभिन्न संस्थाओं, समूहों तथा दलों की आपसी एकजुटजा स्तुत्य है। विभिन्न दलों की बात करें, तो उनका अपना चुनाव-क्षेत्र है, अलग-अलग वैचारिक परिपाटियाँ, हस्तक्षेप और मतभेद है। भारत की जनता सबका समादर करती है। चुनाव के मौके पर अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित कर अपना उच्चतम दायित्व निभाती है। दरअसल, भारतीय जनता का अपने मताधिकार का प्रयोग राजनीति दलों के हार-जीत से बड़ी चीज है। सरदार और मुखिया चुने जाने से महती कार्य है। यह नारों में ढलने और नारा बन जाने से सर्वथा भिन्न मूल्य-बोध है। राजनीति का मुख्य जंतर मतदान है। इसका शब्दार्थ जो लोकतंत्र में ध्वनित होता है वह है-‘सीधी भागीदारी और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप’। इसीलिए राजनीतिविज्ञानी जनता को लोकतंत्र का वास्तुकार मानते हैं। अपनी इच्छानुसार किसी एक को चुनना साहस का काम है, उसके पक्ष में हो जाना जनता के स्वाधीन आत्मबल का परिचायक है। जनता की स्वतंत्र अस्मिता का ज्ञापन मूलतया इसी बात से होता है कि वह अपना नेता चुनती किसको है। जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिरूप है। कहा जाता है-यथा राजा, तथा प्रजा। जबकि आधुनिक शब्दावली में जनप्रतिनिधि जनता की प्रतिकृति है। 

भारत का बहुसांस्कृतिक परिवेश बृहदाकार है। स्वाधीनता के दिनों में यहाँ जो राजनीतिक-संस्कृति विकसित हुई, राजनीतिक चेतना का विकास हुआ; वह वर्तमान राजनीति के लिए आधारस्तंभ कही जानी चाहिए। कांग्रेस का जन्म और उसके हाथ में राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण वंशवाद का प्रतीक-शास्त्र नहीं कहा जाएगा। सन् 1951-52 के आम-चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कांग्रेसी-राष्ट्रीयता का संवाहक होने के नाते जनादेश का अधिकारिणी बनी। असल बात तो यह कि भारतीय राजनीति में वंशवादी ढर्रे को राजनीति के नेहरुवियन माॅडल ने शुरू किया था जिसका ‘लेटेस्ट वर्ज़न’ राहुल गाँधी हैं। राहुल गाँधी को जनता ने कितना स्वीकारा या कि उन्हें हाथों-हाथ लिया; यह बात और तथ्य किसी से छुपी नहीं है। राहुल वंशवाद से ताल्लुक रखने के कारण राजनीतिक कोपभाजन का शिकार खूब हुए। उन पर शब्दों के कड़े डंडे बरसाये गए। किसी ने उन्हें ‘पप्पू’ कहा, तो किसी ने ‘अनिच्छुक राजनीतिज्ञ’। कांग्रेस ने भी प्रायोजित तरीके से राहुल नाम का सिक्का चलाने का हरसंभव कोशिश की, पर भारतीय जनता ने रहमदिली नहीं दिखाई। इसकी मुख्य वजह राहुल गाँधी द्वारा जनता को ठगा जाना था। वर्ष 2004 के बाद 2009 ई. में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी अवश्य; पर अपने कार्यकाल में उसने सत्ता का मजाक बनाकर रख दिया। जनादेश से इस खिलवाड़ को घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, महंगाई, अशिक्षा, कुशासन, असुरक्षा, अपराध, अशांति इत्यादि के रूप चिह्नित करना सुविधाजनक होगा।

2014 ई. में कांग्रेस की भद्द पीटी। उसका जगह लिया भाजपा के ‘अच्छे दिन’ ने। आज देश के 19 राज्यों में ‘अच्छे दिन’ है। केन्द्र सहित 19 राज्यों में सियासी कमान संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के इस उपलब्धि का एकमात्र श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है वह है-नरेन्द्र मोदी। कहने वाले कह सकते हैं कि एक तरफ कांग्रेस के असफलता के सर्जक राहुल गाँधी  हैं, तो दूसरी ओर सफलता के पर्याय बन चुके नरेन्द्र मोदी हैं। 

शोधकर्ता होने के नाते प्रचारवादी राजनीति से इतर सचाई की खोज के लिए हमने कुछ प्रश्नों को दागना शुरू किया। जैसे-क्या राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी ये दो ही नाम देश के तक़दीर हैं? क्या इन्हीं दोनों से भारतीय भाव-विचार, अभिमत-प्रतिक्रिया संचालित हैं? क्या इन दोनों का कहा मानना-सुनना हिन्दुस्तान की नियति बन चुकी है? यदि इन दोनों राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व, भाषा, भाषण, भूमिका, प्रभाव, जनपक्षधरता, जन-जुड़ाव, जन-संवेदना, राजनीतिक ज्ञान, सामरिक सहभागिता, वैश्विक सम्बन्धों इत्यादि का जायज़ा लें, इनका समग्र तथा सम्पूर्ण तुलनात्मक अध्ययन करें तो कुछ और प्रश्न स्वाभाविक रूप से इस प्रसंग में जुड़ जाते हैं। जैसे-क्या राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी का ‘वन मैन शो’ एक के लिए ख़राब तो दूसरे के लिए अच्छा है? क्या ओछी भाषा में संभाषण की राजनीति राहुल गाँधी की पार्टी करती है, नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक दल बिल्कुल पाक-साफ़ है? क्या राहुल गाँधी ने कांग्रेस की नैया डूबो दी है, तो वहीं नरेन्द्र मोदी के ‘न्यू मीडिया’ माॅडल से भारतवासियों के दिन बहुरे हैं? क्या वंशवाद कांग्रेस की अपनी जन्मना बीमारी है और अन्य राजनीतिक पार्टियाँ इनसे बिल्कुल अछूती हैं? इत्यादि। 

देखिए, हर नागरिक अपने राजनेता को अपना नायक मानता है। देशबंधु नागरिक अपने नेता की सुनता है और नेता के कहेनुसार आचरण भी करता है। बोलता हुआ राजनीतिज्ञ चाहे जिस किसी पार्टी का हो उसका बोलना उसकी असलियत को ज़ाहिर करता है। लोक-दायरे में बोलने-चालने और सुनने-समझने की इस रवायत को संचार की शब्दावली में ‘संचारकत्व’ कहते हैं। संचारकत्व में माहिर राजनेता किसी भी दल, मत या विचारधारा का हो सकता है; इसमें कोई इकलौता ‘रूल आॅफ थम्ब’ नहीं है। वैसे भी भारत में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, वामदल, समाजवादी पार्टी आदि मुख्य पार्टियों के अतिरिक्त दर्जनों राजनीतिक गठबंधन एवं संगठनहैं। रोचक तथ्य यह है कि भारत में आज सैकड़ो अज्ञात पंजीकृत दल हैं।.....,

(शेष बाद में

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