भारतीय सन्दर्भ में यह विविधता या कि विभिन्नता सर्वाधिक बहुआयामी अथवा बहुपक्षीय है। विस्तृत सामाजिक एवं राजनीतिक रंगपटल के बावजूद सब में एक समानधर्मा अभिलक्षण विद्यमान है-लोकतांत्रिक विचारों, विशेषतः वैज्ञानिक समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य, प्रगतिशील मूल्य, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन; संभाव्य चेतना, विद्रोह की संस्कृति, नेतृत्व, अभिव्यक्ति के नैसर्गिक गुणधर्म तथा राष्ट्रों के बीच मैत्री व शान्ति के लिए संघर्ष इत्यादि। उपर्युक्त बिन्दु अहम और महŸवपूर्ण कहे जा सकते हैं क्योंकि भारत में युवा राजनीति का फलक काफी विस्तृत और व्यापक है। कई अर्थों में भिन्न तथा विशिष्ट भी। राजनीतिक स्तर पर प्रदर्शित इस भिन्नता एवं विशिष्टता के लिए सामाजिक स्तरण काफी हद तक जिम्मेदार है। यह स्तरण लिंग, वयस्, वर्ग, जाति इत्यादि स्थूल-सूक्ष्म विभेदक इकाईयों में बँटी हुई है। देखना होगा कि सामाजिक स्तरण की दृष्टि से किसी युवक का वर्गीय उद्गम एवं समाज की सामाजिक संरचना में स्थान प्रमुख विभेदकारी कारक है। विरोधी वर्गों और स्तरों में विभाजित समाज में ये भेद सर्वाधिक मुखर होते हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ, एक ही आयु वर्ग के भीतर भी बहुत हद तक व्यक्ति के समाजमूलक उद्गम, सामाजिक स्तर, शिक्षा, लिंग एवं अन्य विशिष्टताओं द्वारा निर्धारित होती है।
भारत के सन्दर्भ में देखें, तो भारत की आधी आबादी का युवा होना भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए महŸवपूर्ण प्रस्थापन है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक 25 की अवस्था वाले युवाओं की तादाद लगभग 32 प्रतिशत थी। संयुक्त राष्ट्र की जनगणना रिपोर्ट(2007) कहती है कि 2030 तक विश्व की 65 फीसद आबादी 35 वर्ष से कम अवस्था के युवाओं की होगी। यह भी दिलचस्प तथ्य है कि भारत में 2020 तक औसत युवा की अवस्था 29 वर्ष होगी। लेकिन, आँकड़ों के इस तथ्यगत भूगोल से आह्लादित होने के अतिरिक्त यह भी देखना होगा कि इसमें से कितने प्रतिशत युवा ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में अव्वल हैं; आचरण और व्यवहार में क्रियाशील हैं; कल्पना, विचार और दृष्टि-चेतना में महŸवाकांक्षी हंै; या कि उनमें राजनीतिक संचेतना और राजनीतिक समाजीकरण सम्बन्धी जुड़ाव और अभिव्यक्ति पर्याप्त है। ऐसा इसलिए कि ‘‘युवजन मानसिकता की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जैसे कि स्वतन्त्रता एवं स्वाग्रह, स्वयं की सम्भावनाओं का अधि-मूल्यांकन, पूर्णतावाद एवं अन्य जो स्वयं को जानने व शिक्षित करने तथा अत्यन्त विविध क्षेत्रों में अपनी योग्यताओं और संभावनाओं को कार्यान्वित करने के अपने प्रयासों को अतिरिक्त महŸव प्रदान करती हैं।’’(युवजन और राजनीति, व्लदीमिर कुल्तीगिन) युवावस्था की सर्वप्रमुख चारित्रिक विशेषता संभवतः यह तथ्य है कि नवयुवक जीवन के विविध क्षेत्रों में विभिन्न विकल्पों का सामना करते हैं और उन्हें कार्यान्वित करते हैं। यथा-सामाजिक, राजनीतिक, व्यावसायिक, पारिवारिक इत्यादि। युवजन के लिए ये सभी जीवन के सक्रिय स्वभाव और व्यवहार हैं जिसका तात्पर्य है-ज्ञान, कुशलता और प्रतिबद्ध कार्रवाई तथा इन तीन तŸवों की घनिष्ठ पारस्परिक क्रिया।
भारत की 21वीं सदी, युवा मानसिकता की उपर्युक्त दृष्टि का अनुसमर्थक है। समर्थन की मुख्य वजहे निम्नांकित हैं-समाज में युवकों की विशिष्ट स्थिति, इसके मूल्यों एवं आदर्शों का सक्रिय आत्मसात्करण, सम्प्रेषण व सम्प्रेषणपरक अभिप्रेरण, पारस्परिक सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं के लिए तदनुरूप प्रयास इत्यादि। युवजन चेतना की ये और अन्य विशिष्टताएँ राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने और युवजन आन्दोलनों और संगठनों के विकास की गत्यात्मकता की खोज करने के लिए बहुत जरूरी है। यद्यपि भारतीय युवा आबादी का बहुलांश सामाजिक-आर्थिक विषमता और अभाव का शिकार है, उनके पास अपनी शक्ति और ज्ञान का उपयोग करने के पर्याप्त अवसर नहीं हैं और वह अपनी स्थिति की असहायता से पीड़ित है; तथापि पूर्व की अपेक्षा वर्तमान पीढ़ी के समक्ष मौके अनगिनत हैं। शिक्षा सम्बन्धी व्यापक जागरूकता और जनमाध्यम प्रसार ने जिस नए वर्ग को निर्मित किया है उसके लिए जाति और समुदायगत मतभेद विस्मृत हो गए हैं, अब आर्थिक वर्ग उनके लिए महŸव रखता है। दरअसल, शहरी भारतीय युवा, शिक्षित और सामाजिक सरोकारों के साथ उदीयमान मध्यवर्ग भी है। निश्चित आय-स्रोत वाले इस शहरी मध्यवर्ग में सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की संख्या 2011 के नवम्बर में तीन करोड़ अस्सी लाख थी, जो अब बढ़कर 6 करोड़ पचास लाख हो गई है। वर्तमान में इन्टरनेट प्रयोग करने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या लगभग 14 करोड़ है जिनमें से 75 फीसद तादाद 35 वर्ष से कम आयु के युवाओं की है। इसी तरह टेलीकाॅम क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव देखे जा सकते हैं जिसके एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल 93.4 करोड़ मोबाइलधारक हैं।
उपर्युक्त तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीय विकास आज के आधुनिक भारत का उजला पक्ष है जिसे समग्रता में देखने की जरूरत है। भारतीय युवा-वर्ग में शामिल उस विशाल समूह को भी ध्यान में रखना चाहिए जो होश संभालते ही अपना और अपने परिवार का पेट पालने के काम में लग जाते हैं। उन्हें इस बात का अवसर ही नहीं मिलता कि वे यह सोचें कि वे युवा हो गए हैं। युवा होने के नाते उनके लिए भी जीवन के ऐसे बहुत से दरवाजे खुलने चाहिए जिनके द्वारा वे अपने व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सकें। यह एक कटु सचाई है कि ‘‘गरीब घरों के जो नौजवान काॅलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों तक नहीं पहुँच पाते, उन्हें उनकी जिन्दगी ही यह सबक सिखला देती है कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में शिक्षा और रोजगार का विशेषाधिकार, ज्यादातर मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए लोगों के लिए ही सुरक्षित है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर मंे, शिक्षा ज्यादा से ज्यादा धनी लोगों द्वारा खरीदी जा सकने वाली और पूँजीपतियों द्वारा बेची जाने वाली चीज बनती जा रही है। आम घरों के लड़के छोटे शहरों-कस्बों के काॅलेजों से जो डिग्रियाँ हासिल करते हैं, वे नौकरी दिलाने की दृष्टि से एकदम बेकार होती हैं और शिक्षा की गुणवŸाा की दृष्टि से भी उनका कोई मोल नहीं होता।’’(क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन; आह्वान)
बहरहाल, 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की दहलीज पर खड़ा भारत आर्थिक विकास(?) और समृद्धि(?)़ के निर्णायक दौर में है। यह कथित आर्थिक-आत्मनिर्भरता लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की देन है। आज की पीढ़ी आधुनिक शब्दावली में जिसे एल.पी.जी. कहते नहीं अघा रही है, वह मुख्यतः अपनी राष्ट्रीय सम्प्रभुता, ज़मीन और भूगोल का बिना शर्त पाश्चात्यीकरण है। आज की युवा पीढ़ी जिनमें से 84 फीसद का मानना है कि वे शिक्षा, आय और जीवनस्तर के मामले में अपने माँ-बाप से अधिक बेहतर जीवन जी रहे हैं; के समक्ष दूसरे किस्म की चुनौतियाँ भी सर्वाधिक है। एक बड़ा प्रश्न तो हाल के दिनों में सामाजिक-सांस्कृतिक समंजन को लेकर उभरा है। आज समाज के समक्ष जो सबसे बड़ा आसन्न संकट है; वह है-पुरानी और नई पीढ़ियों के बीच उŸारोŸार बढ़ता ‘जैनरेशन गैप’। पुरानी पीढ़ी का मानना है कि वह नई पीढ़ी की अपेक्षा नैतिक रूप से ज़्यादा दृढ़निश्चयी और जवाबदेह है जबकि नई पीढ़ी इस धारणा को पुरानी पीढ़ी का ‘आत्मविलाप’ कहकर ख़ारिज़ कर रही है। आज की युवा पीढ़ी स्वयं को पुरातनपंथी अथवा रूढ़िवादी धड़ों से अलग करके देखती है। यह विषय बहसतलब है क्योंकि नई पीढ़ी अपने आचार, विचार और व्यवहार में जिन अधुनातन(?) प्रवृŸिायों का अनुसरणकर्ता है; उसमें आधुनिकता सम्बन्धी मूल संप्रत्यय ही अनुपस्थित है। वहीं सामाजिक वर्जनाओं, बंदिशों तथा शुचिता के प्रश्न को लेकर भयाक्रान्त पुरानी पीढ़ी के अन्दर भी अपनी पारम्परिक सोच और मानसिकता से उबरने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती है जबकि नई पीढ़ी इस तरह के किसी भी ‘सोशल इथिक्स’ या ‘सोशल पैटर्न’ के प्रति न तो संवेदनशील है और न ही आग्रही है। दो पीढ़ियों के बीच का यह अनमेलपन संवादहीनता की जिस स्थिति को सिरज रहा है; उसे किसी एक के लिए भी हितकर नहीं कहा जा सकता है।
भारत के सन्दर्भ में देखें, तो भारत की आधी आबादी का युवा होना भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए महŸवपूर्ण प्रस्थापन है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक 25 की अवस्था वाले युवाओं की तादाद लगभग 32 प्रतिशत थी। संयुक्त राष्ट्र की जनगणना रिपोर्ट(2007) कहती है कि 2030 तक विश्व की 65 फीसद आबादी 35 वर्ष से कम अवस्था के युवाओं की होगी। यह भी दिलचस्प तथ्य है कि भारत में 2020 तक औसत युवा की अवस्था 29 वर्ष होगी। लेकिन, आँकड़ों के इस तथ्यगत भूगोल से आह्लादित होने के अतिरिक्त यह भी देखना होगा कि इसमें से कितने प्रतिशत युवा ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में अव्वल हैं; आचरण और व्यवहार में क्रियाशील हैं; कल्पना, विचार और दृष्टि-चेतना में महŸवाकांक्षी हंै; या कि उनमें राजनीतिक संचेतना और राजनीतिक समाजीकरण सम्बन्धी जुड़ाव और अभिव्यक्ति पर्याप्त है। ऐसा इसलिए कि ‘‘युवजन मानसिकता की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जैसे कि स्वतन्त्रता एवं स्वाग्रह, स्वयं की सम्भावनाओं का अधि-मूल्यांकन, पूर्णतावाद एवं अन्य जो स्वयं को जानने व शिक्षित करने तथा अत्यन्त विविध क्षेत्रों में अपनी योग्यताओं और संभावनाओं को कार्यान्वित करने के अपने प्रयासों को अतिरिक्त महŸव प्रदान करती हैं।’’(युवजन और राजनीति, व्लदीमिर कुल्तीगिन) युवावस्था की सर्वप्रमुख चारित्रिक विशेषता संभवतः यह तथ्य है कि नवयुवक जीवन के विविध क्षेत्रों में विभिन्न विकल्पों का सामना करते हैं और उन्हें कार्यान्वित करते हैं। यथा-सामाजिक, राजनीतिक, व्यावसायिक, पारिवारिक इत्यादि। युवजन के लिए ये सभी जीवन के सक्रिय स्वभाव और व्यवहार हैं जिसका तात्पर्य है-ज्ञान, कुशलता और प्रतिबद्ध कार्रवाई तथा इन तीन तŸवों की घनिष्ठ पारस्परिक क्रिया।
भारत की 21वीं सदी, युवा मानसिकता की उपर्युक्त दृष्टि का अनुसमर्थक है। समर्थन की मुख्य वजहे निम्नांकित हैं-समाज में युवकों की विशिष्ट स्थिति, इसके मूल्यों एवं आदर्शों का सक्रिय आत्मसात्करण, सम्प्रेषण व सम्प्रेषणपरक अभिप्रेरण, पारस्परिक सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं के लिए तदनुरूप प्रयास इत्यादि। युवजन चेतना की ये और अन्य विशिष्टताएँ राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने और युवजन आन्दोलनों और संगठनों के विकास की गत्यात्मकता की खोज करने के लिए बहुत जरूरी है। यद्यपि भारतीय युवा आबादी का बहुलांश सामाजिक-आर्थिक विषमता और अभाव का शिकार है, उनके पास अपनी शक्ति और ज्ञान का उपयोग करने के पर्याप्त अवसर नहीं हैं और वह अपनी स्थिति की असहायता से पीड़ित है; तथापि पूर्व की अपेक्षा वर्तमान पीढ़ी के समक्ष मौके अनगिनत हैं। शिक्षा सम्बन्धी व्यापक जागरूकता और जनमाध्यम प्रसार ने जिस नए वर्ग को निर्मित किया है उसके लिए जाति और समुदायगत मतभेद विस्मृत हो गए हैं, अब आर्थिक वर्ग उनके लिए महŸव रखता है। दरअसल, शहरी भारतीय युवा, शिक्षित और सामाजिक सरोकारों के साथ उदीयमान मध्यवर्ग भी है। निश्चित आय-स्रोत वाले इस शहरी मध्यवर्ग में सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की संख्या 2011 के नवम्बर में तीन करोड़ अस्सी लाख थी, जो अब बढ़कर 6 करोड़ पचास लाख हो गई है। वर्तमान में इन्टरनेट प्रयोग करने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या लगभग 14 करोड़ है जिनमें से 75 फीसद तादाद 35 वर्ष से कम आयु के युवाओं की है। इसी तरह टेलीकाॅम क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव देखे जा सकते हैं जिसके एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल 93.4 करोड़ मोबाइलधारक हैं।
उपर्युक्त तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीय विकास आज के आधुनिक भारत का उजला पक्ष है जिसे समग्रता में देखने की जरूरत है। भारतीय युवा-वर्ग में शामिल उस विशाल समूह को भी ध्यान में रखना चाहिए जो होश संभालते ही अपना और अपने परिवार का पेट पालने के काम में लग जाते हैं। उन्हें इस बात का अवसर ही नहीं मिलता कि वे यह सोचें कि वे युवा हो गए हैं। युवा होने के नाते उनके लिए भी जीवन के ऐसे बहुत से दरवाजे खुलने चाहिए जिनके द्वारा वे अपने व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सकें। यह एक कटु सचाई है कि ‘‘गरीब घरों के जो नौजवान काॅलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों तक नहीं पहुँच पाते, उन्हें उनकी जिन्दगी ही यह सबक सिखला देती है कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में शिक्षा और रोजगार का विशेषाधिकार, ज्यादातर मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए लोगों के लिए ही सुरक्षित है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर मंे, शिक्षा ज्यादा से ज्यादा धनी लोगों द्वारा खरीदी जा सकने वाली और पूँजीपतियों द्वारा बेची जाने वाली चीज बनती जा रही है। आम घरों के लड़के छोटे शहरों-कस्बों के काॅलेजों से जो डिग्रियाँ हासिल करते हैं, वे नौकरी दिलाने की दृष्टि से एकदम बेकार होती हैं और शिक्षा की गुणवŸाा की दृष्टि से भी उनका कोई मोल नहीं होता।’’(क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन; आह्वान)
बहरहाल, 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की दहलीज पर खड़ा भारत आर्थिक विकास(?) और समृद्धि(?)़ के निर्णायक दौर में है। यह कथित आर्थिक-आत्मनिर्भरता लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की देन है। आज की पीढ़ी आधुनिक शब्दावली में जिसे एल.पी.जी. कहते नहीं अघा रही है, वह मुख्यतः अपनी राष्ट्रीय सम्प्रभुता, ज़मीन और भूगोल का बिना शर्त पाश्चात्यीकरण है। आज की युवा पीढ़ी जिनमें से 84 फीसद का मानना है कि वे शिक्षा, आय और जीवनस्तर के मामले में अपने माँ-बाप से अधिक बेहतर जीवन जी रहे हैं; के समक्ष दूसरे किस्म की चुनौतियाँ भी सर्वाधिक है। एक बड़ा प्रश्न तो हाल के दिनों में सामाजिक-सांस्कृतिक समंजन को लेकर उभरा है। आज समाज के समक्ष जो सबसे बड़ा आसन्न संकट है; वह है-पुरानी और नई पीढ़ियों के बीच उŸारोŸार बढ़ता ‘जैनरेशन गैप’। पुरानी पीढ़ी का मानना है कि वह नई पीढ़ी की अपेक्षा नैतिक रूप से ज़्यादा दृढ़निश्चयी और जवाबदेह है जबकि नई पीढ़ी इस धारणा को पुरानी पीढ़ी का ‘आत्मविलाप’ कहकर ख़ारिज़ कर रही है। आज की युवा पीढ़ी स्वयं को पुरातनपंथी अथवा रूढ़िवादी धड़ों से अलग करके देखती है। यह विषय बहसतलब है क्योंकि नई पीढ़ी अपने आचार, विचार और व्यवहार में जिन अधुनातन(?) प्रवृŸिायों का अनुसरणकर्ता है; उसमें आधुनिकता सम्बन्धी मूल संप्रत्यय ही अनुपस्थित है। वहीं सामाजिक वर्जनाओं, बंदिशों तथा शुचिता के प्रश्न को लेकर भयाक्रान्त पुरानी पीढ़ी के अन्दर भी अपनी पारम्परिक सोच और मानसिकता से उबरने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती है जबकि नई पीढ़ी इस तरह के किसी भी ‘सोशल इथिक्स’ या ‘सोशल पैटर्न’ के प्रति न तो संवेदनशील है और न ही आग्रही है। दो पीढ़ियों के बीच का यह अनमेलपन संवादहीनता की जिस स्थिति को सिरज रहा है; उसे किसी एक के लिए भी हितकर नहीं कहा जा सकता है।
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