Wednesday, January 14, 2015

मकर-सक्रांति पर आए पापा-मम्मी

प्रिय देव-दीप,

तुम्हारे दादा-दादी आए। भर मोटरी तिलवा-चुरा और तिलकूट लेकर। बढ़ी हुई ठंड में मैंने अपनी ओर से मना किया। न माने। कल आए और आज चले गए। हम सबका मन हरा-भरा हो गया।

देव-दीप, घर होने पर आप लाख विपदा-संकट में भी अकेले नहीं होते हैं। माता-पिता देवता के रूप हैं जिनकी प्रतिकृतियां अथवा प्रतिरूप मंदिरों में पाई जाती है।

देव-दीप, मैं अपने माता-पिता के लिए कुछ अच्छा कर सकूं, तो अच्छा; लेकिन उनका कभी नाम खराब न करूं, उनके विश्वास को न तोडूं, आज ही की तरह कल भी उनकी निगाह में बच्चा बना रहूं...यही चाहत है। मैं उम्र के फासले के कारण तुम्हारा जोड़ीदार नहीं बन सकता हूं; परन्तु अपने माता-पिता के लिए मेरी जगह हमेशा बच्चे की ही है जहां मैं स्वयं को सुरक्षित महसूस करता हूं; सुकून से सांस लेने की जगह पाता हूं।

मकर-संक्रांति की शुभकामना सहित तुम दोनों को बहुत प्यार। आजकल अपने समय के प्रिय कवि मंगलेश डबराल की किताब ‘लेखक की रोटी’ पढ़ रहा हूं। बहुत नेकदिली और सहजबखानी से सच को सच की तरह लिखा है, मंगलेश डबराल ने। कभी मौका लगे, तो पढ़ना।

तुम्हारा पिता
राजीव रंजन प्रसाद

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...