आज की भारतीय पत्रकारिता पाठकों को अंधा, बेवकूफ और गंवार मानती है; और खुद सत्यपाठ करते हुए झूठ में गोता लगाती है। घटिया राजनीति देश को कंगाल बनाती है जबकि विचारहीन और दृष्टिहीन पत्रकारिता पूरे देश को मानव-कंकाल में बदल कर रख देती है। वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं करती है। वह अवहेलना और नजरअंदाज द्वारा आपको हरसंभव खामोंश करने का कुचक्र रचती है। यह खेल भारतीय लोकतंत्र के लिए महंगाा साबित होने वाला है ; लेकिन बदलाव की लकीर भी भविष्य में ही खींची जाएगी। पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति का नमूना यह है कि संसद में प्रधानमंत्री कैंटीन में भोजन करते हैं, तो पार्टी कहती हैं इसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महाखबर होना चाहिए; और सभी पत्रकार इसे 24x7 में घंटों ख़बर बनाकर चलाते हैं...सरकार कहती है कि देश में भूखमरी की ख़बर आए, तो क्रिकेट मैच दिन भर चलाओ। हत्या-बलात्कार की अधिकता हो, तो उसकी जगह ‘सोप ओपेरा’ धारावाहिकों के कुछ रियल स्टंट और दूसरे रियलिटी शो दिखाओ। सरकार कहती है कि टेलीविजन माध्यम से पूरी दुनिया भारत की तस्वीर देखती है; इसलिए आज मीडिया में वही दिखाओ जो चित्ताकर्षक, मनोरंजक और आनंददायी हो। अख़बार और पत्रिकाओं को भी साफ शब्दों में कहा जा रहा है कि सच कहने-दिखाने से ज्यादा यह बताओ कि हम जो कह रहे हैं वही सच है; उतना ही सच है। पूरा विश्व आजकल इसी तरह के धंधेबाजी-सौदेबाजी पर चल रहा है। वे हर उस व्यक्ति को जो सच्चा है या सच्चा बने रहने की कोशिश में है, वे उसके उीएनए में बदलाव चाहते हैं। आज पूरे देश की शल्य-क्रिया जारी है। आप अपनी जान बचाइए।
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परमआदरणीय शशि शेखर जी,
सादर अभिवादन!
‘‘आज से ठीक 32 साल पहले 20 साल का नौजवान अपने पिता का स्कूटर चलाता हुआ
हिंदी के एक बेहद सम्मानित अख़बार में किस्मत आजमाने के लिए पहुंचा।
अख़बार की उस इलाके में काफी धाक थी। इसके संस्थापकों ने राष्ट्रभाषा की
उन्नति और आजादी की लड़ाई में फैसलाकुन काम किया था। नौजवान का रोमांचित
होना लाजिमी था।, पर अख़बार में पहला दिन उस पर बहुत भारी बीता। पहले तो
सम्पादक जी ने उसे अपने कमरे के बाहरछह घंटे तक .ासद इंतजार
करवाया।...लम्बे इंतजार के बाद उन तक पहुंचे नौजवान के लिए उस दिन का यह
दूसरा आघात था।....जिससे युवक के मन में विचार कौंधा कि जो लोग खुद
सद्व्यवहार और सद्विचार से वंचित हैं, वे समाज को क्या दिशा देंगे? कुछ
भुनभुनाहटें भी कान से टकरा रही थीं कि हे भगवान! हिंदी पत्रकारिता का
क्या होगा?’’
यह अल्फ़ाज आप ही के हैं जिसे पढ़कर(23 सितम्बर, 2012) मैं आप पर मोहित हो
गया था। लगा, कुछ तो लोग हैं अब भी ज़माने में जो सच्ची नियत से खरी-खरी
बात करते हैं। आज उस युवक की जगह मैं हूं; क्योंकि वह युवक खुद उस
सम्पादक की जगह चला गया है। आज मैं आपसे कह रहा हूं कि-‘हाय राम, क्या
होगा इस हिंदी पत्रकारिता का जिस अखबार में ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं
प्रत्यायन परिषद’(नैक) लिखने की जगह अंग्रेजी में पूरा नाम लिखा-बताया जा
रहा है। किस गणनामीति और भाषाविज्ञान के सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर
आपलोग यह तय करते हैं कि अमुक अथवा फलानां भाषिक शब्दावली को हिंदी में
रोमनीकृत कर परोसा जाना ही उचित, उपयुक्त है? यह तर्क कि इसे सबलोग समझ
लेंगे या यह हिंदी की तरह जटिल नहीं है; क्या आधार है आपके पास?
मीडिया, कंप्यूटर, इंटरनेट शब्दों के सामान्य समझ और प्रचलन में कहीं कोई
गिला-शिकवा नहीं है; लेकिन ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद’ की
जगह ‘नेशनल असेसमेंट ऐंड एक्रिडिएशन काउंसिल’ लिखना तो भाषागत गुलामी,
वर्चस्व और कोढ़ियापा हो गई जनाब!
मुझे उम्मीद है आप जवाब देंगे; क्योंकि मेरे भीतर प्रतिरोध अथवा विरोध
करने की पत्रकारीय लौ आप जैसे प्रतिबद्ध पत्रकारों ने लगाई है। यदि आप ही
इसे बुझाने के लिए सरकारी दमकल बुलाने लगे, तो वह अलग बात! वैसे मुझे आदत
हो गई है। जानते हैं, एक बार एक नामी-गिरामी विश्वविद्यालय में
साक्षात्कार के दौरान मेरे लिखे का तेवर तल्ख़ और कुछ अधिक तीक्ष्ण देख
साक्षात्कार लेने वाले सज्जन ने कहा कि-''यहां नियुक्ति हो जाएगी आपकी;
लेकिन आपको अदब और लिहाज के साथ अकादमिक प्रबंधक के आगे सलामी ठोंकनी
होगी; निर्देशित ढंग से अपने काम करने होंगे...तैयार हैं?'' मैंने कहा
कि-''माफ कीजिएगा, सिर्फ पचास हजारी मासिक तनख़्वाह के लिए मैं अपने ज़मीर
से समझौता नहीं कर सकता हूं और न ही इस तरह के किसी लुभावने प्रस्ताव के
सन्दर्भ में सोच तक सकता हूं।’’
परिणाम, तमाम योग्यता धरी रह गई। यह निर्णय मैंने तब लिया जब मैं और मेरा
परिवार घोर संकट के दौर से गुजर रहा था। सात साल के अपने बेटे की श्रवण
सम्बन्धी अपंगता की पहली बार जानकारी होने के बाद मैं बुरी तरह
विक्षिप्त और हलकान-परेशान था। अंततः मैं अपनी दृढ़इच्छााशक्ति के बदौलत
उबरा; अपने अबोध बेटे से माफी मांगा कि मैं एक जवाबदेह पत्रकार पहले हूं;
तुम्हारा पिता बाद में।
जाने दीजिए, ये अपने-अपने किस्से हैं; लेकिन मुझे तो आपसे अपने प्रश्न का
माकुल जवाब चाहिए। उस अभिभावक से जो हकड़ कर लिखता है-‘‘सच कभी हारता
नहीं, इसएि जो लोग इस रास्ते पर चल रहे हैं, वे ही एक नई रहगुजर का
निर्माण करेंगें’’
शशि शेखर जी, कभी किसी जगह पर मैं ग़लत भी हो सकता हूं; लेकिन इसे
दुरुस्त भी तो आप जैसे हमारे शुभचिंतक अभिभावकों को ही करना है। आमीन!
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
(वरिष्ठ शोध अध्येता)
जनसंचार एवं पत्रकारिता
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
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सादर अभिवादन!
‘‘आज से ठीक 32 साल पहले 20 साल का नौजवान अपने पिता का स्कूटर चलाता हुआ
हिंदी के एक बेहद सम्मानित अख़बार में किस्मत आजमाने के लिए पहुंचा।
अख़बार की उस इलाके में काफी धाक थी। इसके संस्थापकों ने राष्ट्रभाषा की
उन्नति और आजादी की लड़ाई में फैसलाकुन काम किया था। नौजवान का रोमांचित
होना लाजिमी था।, पर अख़बार में पहला दिन उस पर बहुत भारी बीता। पहले तो
सम्पादक जी ने उसे अपने कमरे के बाहरछह घंटे तक .ासद इंतजार
करवाया।...लम्बे इंतजार के बाद उन तक पहुंचे नौजवान के लिए उस दिन का यह
दूसरा आघात था।....जिससे युवक के मन में विचार कौंधा कि जो लोग खुद
सद्व्यवहार और सद्विचार से वंचित हैं, वे समाज को क्या दिशा देंगे? कुछ
भुनभुनाहटें भी कान से टकरा रही थीं कि हे भगवान! हिंदी पत्रकारिता का
क्या होगा?’’
यह अल्फ़ाज आप ही के हैं जिसे पढ़कर(23 सितम्बर, 2012) मैं आप पर मोहित हो
गया था। लगा, कुछ तो लोग हैं अब भी ज़माने में जो सच्ची नियत से खरी-खरी
बात करते हैं। आज उस युवक की जगह मैं हूं; क्योंकि वह युवक खुद उस
सम्पादक की जगह चला गया है। आज मैं आपसे कह रहा हूं कि-‘हाय राम, क्या
होगा इस हिंदी पत्रकारिता का जिस अखबार में ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं
प्रत्यायन परिषद’(नैक) लिखने की जगह अंग्रेजी में पूरा नाम लिखा-बताया जा
रहा है। किस गणनामीति और भाषाविज्ञान के सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर
आपलोग यह तय करते हैं कि अमुक अथवा फलानां भाषिक शब्दावली को हिंदी में
रोमनीकृत कर परोसा जाना ही उचित, उपयुक्त है? यह तर्क कि इसे सबलोग समझ
लेंगे या यह हिंदी की तरह जटिल नहीं है; क्या आधार है आपके पास?
मीडिया, कंप्यूटर, इंटरनेट शब्दों के सामान्य समझ और प्रचलन में कहीं कोई
गिला-शिकवा नहीं है; लेकिन ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद’ की
जगह ‘नेशनल असेसमेंट ऐंड एक्रिडिएशन काउंसिल’ लिखना तो भाषागत गुलामी,
वर्चस्व और कोढ़ियापा हो गई जनाब!
मुझे उम्मीद है आप जवाब देंगे; क्योंकि मेरे भीतर प्रतिरोध अथवा विरोध
करने की पत्रकारीय लौ आप जैसे प्रतिबद्ध पत्रकारों ने लगाई है। यदि आप ही
इसे बुझाने के लिए सरकारी दमकल बुलाने लगे, तो वह अलग बात! वैसे मुझे आदत
हो गई है। जानते हैं, एक बार एक नामी-गिरामी विश्वविद्यालय में
साक्षात्कार के दौरान मेरे लिखे का तेवर तल्ख़ और कुछ अधिक तीक्ष्ण देख
साक्षात्कार लेने वाले सज्जन ने कहा कि-''यहां नियुक्ति हो जाएगी आपकी;
लेकिन आपको अदब और लिहाज के साथ अकादमिक प्रबंधक के आगे सलामी ठोंकनी
होगी; निर्देशित ढंग से अपने काम करने होंगे...तैयार हैं?'' मैंने कहा
कि-''माफ कीजिएगा, सिर्फ पचास हजारी मासिक तनख़्वाह के लिए मैं अपने ज़मीर
से समझौता नहीं कर सकता हूं और न ही इस तरह के किसी लुभावने प्रस्ताव के
सन्दर्भ में सोच तक सकता हूं।’’
परिणाम, तमाम योग्यता धरी रह गई। यह निर्णय मैंने तब लिया जब मैं और मेरा
परिवार घोर संकट के दौर से गुजर रहा था। सात साल के अपने बेटे की श्रवण
सम्बन्धी अपंगता की पहली बार जानकारी होने के बाद मैं बुरी तरह
विक्षिप्त और हलकान-परेशान था। अंततः मैं अपनी दृढ़इच्छााशक्ति के बदौलत
उबरा; अपने अबोध बेटे से माफी मांगा कि मैं एक जवाबदेह पत्रकार पहले हूं;
तुम्हारा पिता बाद में।
जाने दीजिए, ये अपने-अपने किस्से हैं; लेकिन मुझे तो आपसे अपने प्रश्न का
माकुल जवाब चाहिए। उस अभिभावक से जो हकड़ कर लिखता है-‘‘सच कभी हारता
नहीं, इसएि जो लोग इस रास्ते पर चल रहे हैं, वे ही एक नई रहगुजर का
निर्माण करेंगें’’
शशि शेखर जी, कभी किसी जगह पर मैं ग़लत भी हो सकता हूं; लेकिन इसे
दुरुस्त भी तो आप जैसे हमारे शुभचिंतक अभिभावकों को ही करना है। आमीन!
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
(वरिष्ठ शोध अध्येता)
जनसंचार एवं पत्रकारिता
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
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