Monday, March 2, 2015

‘हाथ’ को सिर मानने की भूल न करें राहुल


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 'लैसेज फेयर'(Laissez Faire) शब्द राहुल गांधी के लिए उपयुक्त है। यह फ्रेंच भाषा का वाक्यांश है जिसका अर्थ होता है-‘जैसा चाहे, वैसा करने दो।’ इस समय राहुल गांधी के थाइलैंड में होने और ‘विपश्यना’ करने की ख़बर गुब्बार पर है। विपश्यना यानी अपने भीतर झांकना और अपने को वास्तविक अर्थों में खोजना। यह खोज आत्मावलोकन के पश्चात आत्म-परिष्कार के लिए होता है। यह एक आध्यात्मिक उपकरण है जिससे व्यक्ति एंकांत में स्वयं से बात करता है; अपने होने पर विचार करता है; फिर यह सोचता भी है कि वह जो काम कर रहा है उसके प्रति उसकी निष्ठा, ईमानदारी और प्रतिबद्धता कैसी है?
युवा राजनीतिज्ञों के मनोभाषिक आचरण एवं मनोव्यवहार पर संचारगत दृष्टि से 
शोध कर रहे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधार्थी
 राजीव रंजन प्रसाद 
 की 
एक X-Ray रिपोर्ट 
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गिरो, फिर उठो न,
यह पराजय है!

झुको, फिर खड़े न हो
यह सचमुच पराजय है!

इन दिनों कांग्रेस चुनावी हार के बाद आत्ममंथन की स्थिति में है। वह अपने उघड़े हाथों का सीअन जोड़ रही है। उसकी व्यग्रातुर चिंता इस बात को लेकर है कि अगला आलाकमान कौन होगा? क्या राहुल को यह जवाबदेही सौंपी जा सकती है? क्या राहुल अपने सामथ्र्य के बूते कांग्रेस पार्टी को इस बुरे दौर से बाहर निकाल पायेंगे? क्यों राहुल इतने पापड़ बेलने के बावजूद अपनी स्वतंत्र छवि और सम्मानजनक राजनीतिक कद नहीं बना सके हैं? जिस व्यक्ति में 130 साल पुरानी पार्टी अपना भविष्य निहारती-जोहती है; उसमें जनता का भरोसा क्यों नहीं है? पिछले कुछ वर्षों में राहुल ने अपने को खूब दुरुस्त किया है, मांजा है, सीख और प्रेरणा ली है; वे अपने भाषणों में स्वप्नजीवी अधिक लगते हैं; उन्हें आम-आदमी की फिक्र सताती है जिसे वे अपने बोल में राजनीतिक मंचों से लगातार उवाचते हैं; फिर जनता को उनकी तबीयत, तेवर, तजरबे और तत्परता में आशाजनक कोई बात या उम्मीद की स्थायी किरण क्यों नहीं दिखाई पड़ती है? क्या जनता मंदबुद्धि है या कि जनता को मंदबुद्धि मानने का कांग्रेस का मिथ टूट रहा है? कांग्रेस जिसे आम-आदमी के 'डीएनए' में होने का दावा करती थी; क्या उसी 'डीएनए' के गुणसूत्रों ने बगावत या विद्रोह कर डाला है? 

इन सब सवालों का एक जवाब मेरी दृष्टि में सिर्फ यह बनता है कि राहुल गांधी इस कार्य के लिए नहीं बने हैं। वह अत्यधिक संवेदनशील और भावुक हैं। वे सोचेते हैं कि मैं यदि सही सोच रहा हूं, तो वह ज़मीनी स्तर पर सही होना भी चाहिए। राहुल किसी दृष्टि से ग़लत नहीं हैं। लेकिन ग़लत लोगों के विश्वास में आकर वह यह भूल जाते हैं कि भारतीय राजनीति में स्वार्थ और अहंकार; ईमानदारी और प्रतिबद्धता से पहले अपना काम करता है। इस तरह झूठ आइना बन जाता है और सत्य पिछड़ जाता है। और जैसे ही सत्य दूसरे नंबर पर चला जाता है; किसी भी लोकतंत्र में जनता का सिवाय बुरा छोड़ भला कभी हो ही नहीं सकता है!

राहुल की टीम ने पिछले एक दशक से जनता का हरसंभव बुरा किया है। सभी अपने स्वार्थ और अहंकार को गाढ़ा करने में जुटे रहे। नतीजतन, राहुल बिहार, उत्तर पद्रेश, मध्यप्रदेश से लेकर अन्य प्रांतों में भी अपनी पार्टीगत जनाधार लगातार खोते रहे। लोकसभा चुनाव में भी असफल रहे। यह असफलता राहुल की कमी कम; उनके साथियों के चोरकटई और काहिलीपन का नतीजा अधिक है। कहना न होगा कि सोलहवीं लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी ऐतिहासिक पार्टी के संख्यागत आंकड़े को अपने उम्र के बराबर में ला खड़ा किया। यह हार करारी थी जिसने राहुल गांधी को भारतीय जनमानस के प्रतिरोधी चरित्र से पहली बार परिचित कराया था। उन्हें यह बात व्यावहारिक रूप से समझ में आ गई होगी कि जनता को कांग्रेस के पिछले कार्यों के ‘स्वर्णकाल’ से कोई लेना-देना नहीं है। आमजन आज की समस्याओं से बरी होना चाहते हैं। वे आज मुख्यतौर पर जो चैतरफा दरिंदगी, हैवानियत, अराजकता, शोषण, हिंसा, बलात्कार, बीमारी, गरीबी, अशिक्षा, पेयजल संकट, स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी, यातायात प्रबंधन की लचर व्यवस्था, भ्रष्ट नौकरशाही, सरकारी-तंत्र की लालफिताशाही, कारपोरेट घरानों की आर्थिक-लूट, बाज़ार का दिनोंदिन उनके चैखटे के भीतर घूस उन्हें अपनी जकड़बंदी में फांस लेने की कवायद, फैशन, क्रिकेट, सूचना, मनोरंजन आदि के बाहरी हमलों और भीतरी षड़यंत्रों से हर हाल में मुक्ति चाहते हैं। 

आज देश की अधिसंख्य आबादी हवा-पानी के भरोसे जिंदा है। वह रोज कमाती है, तो खाती है। ऐसे जन सरकारी सुविधाओं का लाभ कम पाते हैं; मोहरा अधिक बनते हैं। दस्तावेजों में उनके नाम-पते सही-सही लिखे होते हैं; लेकिन उनके हिस्से में एक ढेला भी नसीब नहीं होता है। सरकारी ऋण में कमीशन तक यह सरकारी-तंत्र और उसके नुमांइदे वसूलते हैं; घर और शौचालय बनाने में मिली रकम का बंदरबांट सरकारी मुलाजिम करते हैं। राजनीतिक पत्रकार सुरेन्द्र किशोर कहते हैं-‘‘एक ताजा अध्ययन के मुताबिक, भारत में शासन से अपने जायज काम कराने के लिए भी हर साल जनता को छह लाख तीस हजार करोड़ रूपए घूस देनी पड़ती है। यह राशि नीचे से उपर तक बंटती है। अधिकतर नेताओं की मेहरबानी से संसद व विधानसभाओं में ऐसे सदस्यों की संख्या वुनाव-दर-चुनाव बढ़ती जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार क अपराध के गंभीर आरोप हैं और जो करोड़पति-अरबपति हैं।''  

यह सच है; इसे कांग्रेस पार्टी बखूबी जानती है; लेकिन वह खामोश बना रहती है। क्योंकि उसके मन में खुद चोर है। अतः वे खुद ही इन कारनामों को शह देते हैं। उनमें विरोध का साहस कम है या उनकी अपनी मिलीभगत है। ऐसे में कांग्रेस चाहती है कि जनता उनकी योजनाओं के एवज में वोट दे, मत दे; कहां-कैसे संभव है? राहुल गांधी की आंख अगर आलू नहीं है, तो इन समस्याओं को देखने के लिए अपने दीदा का ‘पाॅवर’ बढ़वाना चाहिए। आदर्शवाद बुरी बात नहीं है; लेकिन उसे अपने देह का गहना बनाकर खुद से नाथे रहना भी ठीक नहीं है। यथार्थ और आदर्श में फर्क होता है। राहुल गांधी जबतक इस अंतर को भली-भांति नहीं समझ लेते हैं; भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्धार हरग़िज संभव नहीं है।

थोड़ी सी विषयांतर किंतु जरूरी बात। इन दिनों हम और हमारा सामाजिक परिवेश यूरोप और अमेरिका के लोकलुभवन चपेट में है। हम अपनी संस्कति को वहां की सांस्कृतिक उपकरणों और उपादानों से देख रहे हैं; उन पर वैसी ही मानसिकता का इत्र-फुलेल छिड़क रहे हैं। हम बाज की बाजीगिरी को देखने को लालायित है जो येन-केन-प्रकारेण हमारा भविष्य खा-चिबा जाने पर आमादा है। हम हर चीज में अपना पुराना कह छोड़ रहे हैं; पारम्परिक कह उसे हेयदृष्टि से देख रहे हैं। हमारे बोल-बत्र्ताव और आचरण-संस्कार में भी उसी का वर्चस्व है। यह असर कितना ख़तरनाक है इसका नमूना लोगों के हस्ताक्षर को देख कर पता लग सकता है। कहा जाता है कि आदमी का ‘नेचर’ और ‘सिग्नेचर’ नहीं बदलता है। आज हर जगह लोग अपनी पहचान अपनी भाषा में कम दूसरी भाषा में हस्ताक्षरित कर रहे हैं। हिन्दी विरोध वाले इस बात के लिए क्यों नहीं हैरान-परेशान हैं कि उनके नौनिहाल और युवा होती पीढ़ी कम से कम अपनी मातृभाषा को तो श्मशान-घाट न भेजे।

राहुल गांधी खुद विदेशों में शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं। क्या उन्होंने महात्मा गांधी का यह उद्बोधन पढ़ा है या उसके सार-संदेश को कभी जानने-समझने की चेष्टा की होगी? 1942 में ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान करने के ठीक पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की रजत-जयंती के मौके पर गांधी जी ने कहा था- ‘‘पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय की अपनी एक-न-एक विशेषता होती है। कैम्ब्रिज और आॅक्सफोर्ड को ही लीजिए, इन विश्वविद्यालयों को इस बात का नाज है कि उनके हर एक विद्यार्थी पर उनकी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है क वे फौरन पहचाने जा सकते हैं। हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं। वे तो पश्चिमी यूनिवर्सीटी की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल भर है। अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही सोख कहें, तो शायद वाजिब होगा।’’ 

अतः राहुल गांधी को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की जनता इन सोख्ता या स्याही सोख से नहीं चलती है। वह इस तरह की किसी ‘टैग’, ‘लेबल’ या ‘स्टिकर’ की मुहताज नहीं है। उसके पास अपनी उम्मीदों के औजार और उपकरण है। वह निरा-मुर्ख नहीं है। भले भारतीय जनता कथित ‘गुलाम भाषा’ अंग्रेजी नहीं बोलती हो; लेकिन उसके अक्षर, लिपि, शब्द, पद, वाक्य आदि में अपनी भीतरी संस्कार, स्मृति, चेतना और विवेक की बोली-वाणी-वाक् और भाषा है। वह आशा, उत्साह, साहस, व्यवस्था, मनोयोग, प्रसन्नता आदि के माध्यम से अपने अभावों के बीच अपनी जिंदगी खेती है। अपना जीवन तमाम तंगहाली के बावजूद गुजर-बसर करने लायक जोड़कर रखती है। क्या ऐसे अभावहीन-साधनहीन लोगों के पास जो उपकरण-औजार हैं; क्या राहुल गांधी अपने कार्यकताओं में बांटने की काबिलियत रखते हैं। राजनीति को प्रबंधन की कक्षा समझने की भूल करने वाले राहुल गांधी का फलसफा ‘फेल’ हो चुका है। विदेशी विश्वविद्यालयों की योग्यता धरी की धरी रह गई हैं। यह राहुल की जितनी असफलता है; उससे कहीं अधिक उस शिक्षा-निकेतन की है जो अपने को ‘टाॅप 200’ में रखने की शेखी बघारते हैं। अपनी ईजाद ‘स्कूलिंग’ की ‘हेजिमनी’ को जोर-शोर से भारत में प्रचारित करते हैं। वे यह बताने का दंभ पालते हैं कि ज्ञान का असली पिटारा हमारे पास है; विकास का वास्तविक रोड-मैप हम तैयार कर सकते हैं। जबकि सचाई यह है कि भारत में भ्रष्ट्राचार, विदेशी-शिक्षा में दक्ष-प्रवीण नीति-नियामक-धारकों ने ही फैलाया है। भारत में तमाम बुराइयां थीं; सामंतीपन था, बर्बरता की पराकाष्ठता थी; लेकिन किसी में इतनी हैसियत नहीं थी कि वह लोक-भाषा को बांध सके या उस पर अपना एकाधिकार जमा सके। आज भारत का पढ़ा-लिखा वर्ग भाषा में काफ़िर बना हुआ है। वे अंग्रेजी बोलने का दावा करते हैं; लेकिन अंग्रेजी की कोख में उनके पैदा होने के लिए जगह मयस्सर नहीं है। लिहाजा वे अपनी ज़बान में ‘सरोगेसी’ द्वारा विदेशी भाषा 'प्लांट' करा रहे हैं। ऐसे लोगों की ज़बान कितनी असरदार, प्रभावशाली और जन-जन के हिया को जुड़ाने वाली होगी; राहुल गांधी को बोलते देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे हवाई राजनीतिज्ञ विदेशी मानदंडों के आधार पर आधुनिक ‘लिडरशीप’ का पाठ पढ़ाते हैं; लेकिन वह नहीं जानते कि भाषिक गुलामी का ‘पउआ’ लेकर भारतीय राजनीति में संयोगवश दाखिल हो जाना संभव है; लेकिन अपनी हैसियत बनाए रखना बेहद मुश्किल। यह बात केन्द्र में काबिज मोदी सरकार के लिए जितना सही है; उतना ही दिल्ली में गद्दीनशीन पार्टी आम-आदमी को। 

राहुल गांधी की दिक्कतदारी यह भी है कि वे अपने विदेशी शिक्षा के माध्यम से ग्रहीत संस्कार को भारतीय राजनीति में आजमाना चाहते हैं; और मिसफिट बैठते हैं। दूसरी ओर उनकी पूरी टीम जिन विश्वविद्यालयों से शिक्षा ग्रहण करके निकली है, वहां सबकुछ ‘इवेंट’ है। यथा: सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, निष्ठा, संकल्प, चिन्तन, समर्पण, सेवाभाव, व्यवहार, व्यक्तित्व, नेतृत्व, सोच, दृष्टि वगैरह-वगैरह। ये सचमुच गांधी जी की शब्दावली के कहे मुताबिक स्याही-सोख्ता मात्र हैं। वे ‘प्लानिंग’ के हिसाब से काम करते हैं। ‘आइडिया जेनेरेट’ कर अपना हाजमा दुरुस्त करते हैं। ये अक्ल के बैगन पांच-सितारा होटल में मीटिंग और बातचीत करते हैं कि कहां सड़क जाम होगा, कहां से कहां तक पदयात्रा होगी, कौन-कहां पर कैसे रोड-शो निकालेगा आदि। ऐसी राजनीति से कांग्रेस यदि अपना भला करना चाहती है, तो वह निश्चय करे। वह हर-वर्ष चिंतन-कर्म करे; विपश्यना करे।  

अतः राहुल ‘ब्रेक’ ले रहे हैं; लेने दो। वे थाइलैंड में ‘विपश्यना’ कर रहे हैं करने दो। किसी व्यक्ति को इतनी आजादी, तो अवश्य चाहिए कि वह अपनी मन की कर सके। मेरी दृष्टि में राहुल में वाग्मिता की भारी कमी है; लेकिन वे ईमानदार और प्रतिबद्ध नज़र आते हैं। आजकल की राजनीति चाटुकारिता और बोलक्कड़पन की है। पर यह कला हमेशा साथ नहीं देती। कहावत है कि ‘कुछ लोगों को बहुत देर तक के लिए और बहुत लोगों को कुछ देर तक के लिए मुर्ख बनाए रखा जा सकता है; लेकिन सबको सदा के लिए मुर्ख बनाए रखना हरगिज़ संभव नहीं है।’ इस बात को राहुल गांधी को ब्रह्म वाक्य की तरह मन-दिल में तहिया लेना चाहिए।

आजकल तो मनमर्जी का ज़माना है। सरेआम टट्टी-पेशाब करने वाले आजकल नेता-परेता बन जा रहे हैं। कई तो ऐसे चटोरे टपोरीमल भी हैं कि जिनके पास अपनी गाड़ी हुई नहीं कि सरकार उनकी हो गई। सरकार जैसे उनकी रखैल है। वे पार्टी का झंडा अपने मोटर-वाहन पर टांगे घूमने-फिरने लगते हैं। टोकटाक करो, तो हूमचकर कहेंगे-‘मजाक है, पार्टी को लाखों देते हैं।’ सो ऐश और धौंस में इन राजनीतिज्ञों या राजनीतिक-पुत्रों की दिन-रात कटती है। ऐसे पोसुआ लोग राहुल गांधी को अपना नेता कहते हैं; जबकि जनता ऐसे को देखकर ही कांग्रेस से नफरत करती है; राहुल के बातों को अनसुना करती है। राहुल की समझदारी की क्या कही जाए; वे चारों ओर से ऐसे चापलूसों से घिरे हैं कि; उनके प्रत्येक मातहत के पास हजारों ज़मीनी ख़बरें, लोगों के संदेश और चुनाव-क्षेत्र की हाल-स्थिति दनादन पहुंचती रहती है। जबकि उनका अपने क्षेत्र से याराना कबका पुराना पड़ चुका होता है। जनसंवाद उनके लिए एक धांसू टोटका है। इसे वे मौका पड़ने पर रामबाण की तरह बरतते हैं।  

हां, तो राहुल की बात। आज जरूरत पूरे कांग्रेस को ‘विपश्यना’ की है; लेकिन गए अकेले। यह ग़लत है। सरासर नाइंसाफी है। सुनाया जा रहा है कि आने के बाद वे पार्टी का कायाकल्प करेंगे। नए कमांडर डालेंगे। नई योजना और रणनीति बनाएंगे। अब वे जो सिपहसालार रखेंगे उन्हें वे खुद चुनेंगे। राहुल कांग्रेस पार्टी में धुरीगत बदलाव करेंगे; इसके आसार ही नहीं दिखाई दे रहे हैं; बल्कि यह रंगत अभी से दिखने भी लगी है। ऐसे में राहुल फिलहाल अपनी कुंडली जागरण करने गए हैं। ‘विपश्यना’ स्वयं की खोज सरीखा आध्यात्मिक मार्ग है। गांधी-मार्ग और नेहरू-मार्ग से पलटी मार चुकी इंदिरा की पार्टी कांग्रेस(आई) अब कांग्रेस(आरएच) से अपने भीतर आमूल-चूल बदलाव लाने की सोच रही है। पार्टी बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। चूलें हिली हुई है। संज्ञाहीन नेता अब ‘तू-तू-मैं-मैं’ के सर्वनाम में उलझे हुए हैं। कांग्रेस की टोपी अब चिन्तन और सुधार के नाम पर उछालने की बारी है। अपने रोड-शो और यात्रा का रिपोर्ट कार्ड राहुल को पता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के यात्रा की उनके धुरंधर नेताओं ने विभिन्न तिथियों में कैसा कोहराम मचाया था, छुपा नहीं है। अपनी पार्टी में पदस्थापित बेशउर और बेलिहाज नेताओं की वजह से जिस तरह ‘मिशन 2012’ की भद्द पिटी; उससे एक बात तो साफ हो गया कि नैतिक आचरण में भ्रष्ट नेतागण भले ही कुछ देर सभ्यजनीन होने का ढोंग और स्वांग करें; लेकिन हैं वे वास्तव में लीचड़ ही। ऐसे नेता कभी यह नहीं जान पाते कि धन, पद, कुलीनता, आयु आदि भले ही भाषा-प्रयोगों को निर्धारित करते हैं; परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार व्यक्तिगत आचरण, सामाजिक मर्यादा, व्यक्तिगत व्यवहार की लोकोन्मुखता होती है। समाजविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों की दृष्टि में, समाज में प्रतिस्पर्धात्मक सम्बन्ध कई आधारों पर निश्चित होते हैं। जैसे-स्त्री-पुरुष भेद, पारिवारिक सम्बन्ध, आयु, ज्ञान, गुण, पद, कुल, गोत्र, सम्पत्ति, बल, बुद्धि, प्रकार्य आदि। मनोविज्ञानी ब्राउन और गिलमैन के अनुसार ये प्रभुत्त्व प्रदान करने वाले आधार हैं जबकि हमारे मत में ये आधार प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। 

यह सच है कि किसी राजनेता को भाषण देने की कला में निपुण होना चाहिए। उसकी वाग्मिता का प्रभाव मनोहारी होता है। लेकिन यह एकमात्र निर्णायक नहीं है। समाज के बाहरी आवरण तथा मान्यताएं भाषा-प्रयोगों की दृष्टि से इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती, जितनी महत्त्वपूर्ण विचारों की उदात्तता तथा भावों की पवित्रता एवं कर्म की सात्त्विकता होती है। इसीलिए मन, वाणी और कथन की एकरूपता को भाषा का आदर्श नियामक समझा जाता है।  किन्तु अफसोस! भारतीय राजनीति में नेता होना संस्कागत चेष्टा नहीं है। यह स्वार्थगत अभिलिप्सा मात्र है जिसमें जिसे जो कमान दे दिया जाता है; वह इंतमिनान से लेमनचूस चूसता रहता है। कांग्रेस में पदगत बंटवारा में सामाजिक स्तरीकरण जबर्दस्त है। यथा: सवर्ण-सवर्णेतर; शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण, धनी-निर्धन, उच्च-मध्य-निम्न। ये स्तरभेद बहुचरणीय और बहुआयामी है। इनमें से प्रत्यके के भीर अंतःविभाजन है। यथा: साक्षारता, ज्ञान, योग्यता, आचरण, वाक्-व्यवहार आदि। यह विभाजन इतना गहरा और साफ है कि अधिसंख्य को देखकर ही पहचाना जा सकता है।

सवर्ण, शिक्षित एवं उच्च वर्ग
-योग्यता
-ज्ञान
-शिक्षा

सवर्णेतर, अशिक्षित और निम्नवर्ग
-अयोग्यता
-अज्ञान
-अशिक्षा

कांग्रेस में कोई सहज आपसे बात कर ले, हरगिज संभव नहीं। सब अपने विषय, प्रसंग, प्रयोजन और परिस्थिति के मुताबिक लोगों से मेलजोल बढ़ाते हैं; जनसम्पर्क साधते हैं; अपने बारे में और पार्टी के भावी योजनाओं के बारे  में खुले में चर्चा-परिचर्चा, संवाद-विमर्श या सीधे आमजन से अपनापा दिखाते पाए जाते हैं।चार बार दौड़ने से हो सकता है कि प्रधानमंत्री का निजी सचिव आपसे मिलने को राजी हो जाए; लेकिन राहुल गांधी से मिलने के लिए अपनी सारी ज़मीन-जायदाद कांग्रेस के नाम लिखा दीजिए तब भी नहीं मिल सकते हैं। प्रश्न है, ये दो कौड़ी के महलबंद नेता इतने नखरे उठाने का अभ्यस्त हो गए हैं कि ये जिंदा मानुष हैं ही नहीं। इसीलिए प्रायः हम देख पाते हैं कि कांग्रेसी नेतागण ज़मीन पर कम अवतरित होते हैं; गगनचुंबी बने रहना अधिक सुहाता है। वे कहीं किसी जगह दिखाई भी दे जाएं तो आठ-दस मुस्टंड लौंडों से इस कदर घिरे रहते हैं; मानों राजनेता नहीं शहर का गुंडा, मवाली या कोई माफिया हों। कई बार उनकी हरकतें अप्रत्याशित ढंग से खीसें निपोरने वाली होती हैं। वे सबको प्रणाम-पाती-पलगी करते फिरेंगे; सबसें दुआ-सलाम, हाल-चाल और कुशलता पूछकर मुस्कुराएंगे। जनता अब इतनी समझदार हो गई है कि वह उन्हें देखते ही जान जाती है कि जरूर इनका कोई नया प्रपंच-जुलूस-प्रदर्शन-विरोध-पुतला-दहन आदि टिटिमा होगा। पिछले कई दशकों से कांग्रेसी नेतागण राजनीति को सितारा-राजनीति से अलंकृत किए हुए हैं। वह प्रबंधन की भाषा का ‘छह संसाधन’ पढ़कर राजनीतिक नेतृत्व करने की सोचते हैं। जैसे:

- लोग
- क्षेत्र
- पद
- पदानुक्रम
- प्रबंधन
- आर्थिक संसाधन

उपर्युक्त विवेचन के पश्चात यदि राहुल गांधी इन तमाम विसंगतियों को यथावत रखते हुए यह कहें कि मैं आम-आदमी की तरक्की चाहता हूं; मैं गरीबी दूर करना चाहता हूं; मेरा उद्देश्य समानता लाना है; मैं सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हूं; मेरा लक्ष्य राष्ट्रीय एकता को लेकर संकल्पित है आदि-आदि; और अपने पिछले कारनामों का नाम गिनाना शुरू कर दें : सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार, भोजन का अधिकार, जल-जंगल-ज़मीन का अधिकार, तो जनता सुनकर अनसुना ही करेगी। फिर आप लाख ‘विपश्यना’ कीजिए, चिंतन-मनन कीजिए आपको जनता का रूख शायद ही सकारात्मक मिले। दरअसल भारत की जनता अब इस बात से पूरी तरह वाकिफ हो चली है कि-''भारतीय राजनीति एक गहन वैचारिक चिन्तन, मंथन और विमर्श के दौर से गुजर रही है। पर इस बौद्धिक उपक्रम का प्रवेश द्वार और निकास द्वार इतना सन्निकट होता है कि यह पता ही नहीं चलता कि विमर्श कब शुरू होकर कब ख़त्म हो गया और उन विमर्शों से हासिल क्या हुआ? यह सिलसिला 1952 से चल रहा है।'' ऐसे में पत्रकार सुरेन्द्र कुमार की ही यह बात बड़ी मानीख़ेज मालूम देती है-‘‘आज किसी नेता को चमत्कारी नहीं; सिर्फ ईमानदार होने की जरूरत है। उसे यह मानकर चलना होगा कि वह अगले चुनाव का नहीं बल्कि अगली पीढ़ियों का ध्यान रख रहा है।’’

हम भी इसी ईमानदारी संग प्रतिबद्धता की ताकीद करते हैं। बशर्ते थाइलैंड से विपश्यना कर लौट रहे राहुल गांधी देश और जनसमाज से पहले खुद की और समूचे पार्टी की शक्लोंसूरत और सूरतहाल बदलने की अपनी इच्चछाशक्ति, संकल्पशक्ति और आत्मबल को सम्प्रेषणीय बनाएं। संवाद को सिरजें। पार्टी के भीतर सामाजिक-सांस्कृतिक रचनात्मकता को बहाल करें। यदि यह सब आप कर सकने में सफल हुए, तो सचमुच ‘राहुलोदय’ का नया युग प्रारंभ होगा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्तमान संकटों के गिरोह से मुक्त होने के अपने प्रयास में सफल होती दिखेगी। आमीन!

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...