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Rajeev Ranjan | Mon, Mar 9, 2015 at 1:25 PM |
To: Apporva Anand | |
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परमआदरणीय अपूर्वानंद जी,
सादर-प्रणाम!
आपका जनसत्ता में लिखा ‘अप्रासंगिक’ स्तंभ पढ़कर बेचैनी हुई। ‘प्रश्न परम्परा’(8 मार्च) शीर्षक से लिखे अपने इस स्तंभ के बहाने आपने माकुल और वज़नी सवाल उठाया है। पहली बात आप जैसे सार्वजनिक बुद्धिजीवियों के लिए रोमिला थापर के सवाल का मथना ही यह सिद्ध कर देता है कि आप अकादमिक फूहड़पन और बेहयाई से परे हटकर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। इसके लिए आप अतिरिक्त प्रशंसा का पात्र हैं; यह बात बेमानी है। दरअसल, समय, समाज और सवाल के सन्दर्भ में हमारा चिंतातुर होना लाज़िमी है; क्योंकि स्थितियां दिन-ब-दिन विकट और विकराल होती जा रही हैं। कथित बौद्धिकजनों का कुनबा बौराया हुआ है और जिन बहसों में वे तल्लीन-संलग्न हैं; उससे आम-आदमी का भला होना संभव नहीं; कुरीतियों का नाश होना संभव नहीं; मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था(टेरी ईगल्टन जिस ओर संकेत कर रहे हैं और आप जिन्हें नोटिस ले रहे हैं) में जरूरी बदलाव मुमकिन नहीं। किताब पढ़कर(?) मुटाए बुद्धिवादियों के लिए आम-आदमी की भाषा और परिभाषा महज़ शब्द-क्रीड़ा मात्र है। वह अपनी अकादमिक रूतबे, हैसियत अथवा प्रतिष्ठा में इस कदर उलझा हुआ है कि उसके लिए आम-आदमी का सखा, बंधु, मित्र, यार, दोस्त आदि होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसे पाखंडी, सत्तालोलुप और आत्ममुग्ध बुद्धिजीवियों के लिए अपना बोलना ‘वचनामृत’ है; लेकिन जिनके बारे में बोल रहा है और जिनसे बोल रहा है; उनकी कभी सुननी पड़े; यह सोच पाना भी दूभर है। अकादमिक संगोष्ठियों-कार्यक्रमों में ऐसे लोग दुनिया भर के मुद्दों-मसलों-विषयों पर निःकंठ बोलेंगे। तथ्यों, आंकड़ों और सूचनाओं की ढेर में से वे जो कुछ भी सामने रखते हैं या परोसते हैं; उससे वे अपने बौद्धिक होने का गुमान करते हैं; जबकि श्रोताओं का एक बड़ा समूह भीतर ही भीतर गालिब का आईना चमका रहा होता है-‘‘हमें मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन....’’
यदि आप मेरी उम्र में होते, तो कहता-‘‘मित्र! इन ससूरों की ज़बान को लकवा क्यों नहीं मार जाते?’’
खैर,हम तो विद्यार्थी ठहरे। आपके कहन की सीमा और मर्यादा है। वैसे भी आजकल के बौद्धिकजन सही सवाल करने पर अपनी नज़र टेढ़ी कर लेते हैं। मैं इस प्रकोप का भुक्तभोगी रहा हूं। अकादमिक साक्षात्कार में प्रतिप्रश्न करने की वजह से हिमाचल केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने मुझे सहायक-प्राध्यापक पद पर नियुक्ति नहीं दी। मैंने कहा-‘सर्जनात्मक लेखन एवं पत्रकारिता’ जैसे पाठ्यक्रम से आप हिंदी भाषा को बाहर का रास्ता दिखाकर कभी कोई मौलिक/नवीन अथवा नवाचारयुक्त प्रतिमान नहीं गढ़ सकते हैं। यह जानते हुए आप मुझे मेरे सामने सिर्फ अंग्रेजी में पढ़ाने और भविष्य में पीएच.डी. अंग्रेजी में ही कराने का प्रस्ताव कैसे रख सकते हैं?’' माननीय कुलपति ने बड़े आदर और विनम्रतापूर्वक कहा-‘‘हमें अच्छी हिन्दी नहीं अच्छी अंग्रेजी चाहिए!’’
अपूर्वानंद जी, हम देहाती बच्चे हैं; बेहद भावुक। हमारे लिए हर शब्द का अर्थ होता है और महत्तव भी तद्नुकूल। ऐसी बात हमें अंदर तक चोटिल करते हैं। हम भेदभाव और असमानता के बीच अपनी ताप, ऊर्जा, बल, शक्ति आदि से आगे बढ़े हैं। हमारा कोई मार्गदर्शक-दिग्दर्शक नहीं रहा है। पत्रकारिता का चुनाव अपनी हेठी और भीतरी जुनून का परिणाम है। हम कहीं किसी स्तर पर पीछे मुड़कर नहीं देखे हैं। मैं अभी-अभी अपना शोध-कार्य पूरा करने वाला हूं। जनसंचार एवं पत्रकारिता में नेट/जेआरएफ/एसआरएफ। परास्नातक में सर्वोच्च अंक। पत्र-पत्रिकाओं में लिखा-पढ़ा दर्जन भर। संगोष्ठियों में आधे दर्जन शोध-पत्र पढ़ चुका हूं। अब यहां से घर लौटने की कुछ माह बाद नौबत आये, तो क्या कहेंगे? यह कि प्रतिभा किसी मौके की मुहताज नहीं होती। ऐसी दार्शनिक नौटंकी मुझे रास नहीं आती है। शुक्र है, फर्डानिंड सस्यूर, कार्ल गुस्ताव युंग, एडवर्ड सईद, रोमन याकोब्सन, रेमण्ड विलियम्स, नाॅम चोमस्की, हेबरमास, क्रीस बेली, फ्रांचिस्का आॅरसेनी, टेरी ईगल्टन, राॅबीन जेफ्री आदि को लेकर लौट रहे हैं जिन्होंने कम से कम मुझे सही और शिक्षित आदमी होने का वास्तविक मर्म बुझाया है। यह बताया है कि दुनिया भर को सात्त्विक ज्ञान देने वाला राष्ट्र आज स्वयं अंधराष्ट्रवाद का शिकार अथवा भुलावे में है।
आज की तारीख़ में मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि यह समय/दौर इस कदर ख़राब है कि अकादमिक गधों को जैसे अस्तबल का ‘इन्चार्ज’ बना दिया गया है; आज इन्हीं पर स्वस्थ और उपयुक्त घोड़ों के पहचान/चयन की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। परिणाम प्रत्यक्ष है, गधों ने अपने जैसे अकादमिक गधों को ही इस दुनियावी जगत में ज्ञान बांटने के लिए चुनना-नियुक्त करना जारी रखा है। सारी कमियों/ग़लतियों को ढांक-तोप कर विश्वविद्यालयों का महिमामंडन और गुणगान-बखान चालू है। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद’ की टीम आई, तो मैंने सीधे इस संस्था के निदेशक के समक्ष अपनी चिंता रखी; लेकिन ढाक के वही तीन पात। मुहावरा सही साबित हुआ-नक्कारखाने में तूती की आवाज़।’ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जो शोध-कार्य हो रहे हैं; वे विश्वस्तरीय है। मेरी बोलती बंद। लौट के बुद्धू घर को आए जैसी हालात। भीतर चुप्पी और सन्नाटा। लेकिन प्रश्न वहीं का वहीं...क्या हुआ नचिकेता? हा! हाहा! हाहाहहहा!!!
ऐसे में आपके ही कहे का आश्रय लूं, तो कथित विशेषज्ञ तो हैं; लेकिल बुद्धिजीवी नहीं हैं। विशेषकर सार्वजनिक बुद्धिजीवी। चलिए इन्हीं (ब)दस्तूरों के बीच अपनी-अपनी होली मुबारक!
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता
(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिंदी
हिंदी विभाग
काशी हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
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