Wednesday, March 18, 2015

राजनीति, मीडिया और न्याय

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अमीरों का, अमीरों द्वारा, अमीरों के लिए, अमीरों जैसा
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देशभक्ति सीखने के लिए चारित्रिक अनुशासन, आत्मिक उदात्तता और मनस्वी चेतना आवश्यक है; वाचालों को देशभक्ति सीखना नहीं होता, उन्हें तो बस जनमानस को नजरअंदाज करना और अपने गोलबंदियों के बीच मजमाई कहकहा लगाना आना चाहिए!
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राजीव रंजन प्रसाद 


भारत में राजनीतिज्ञ अमीर ही होते हैं, गरीब एकाध होते हैं। भूले-भटके; अपनी मन के सुनने वाले और अपनी बनाई दुनिया में रमने वाले। यहां बात उन बहुसंख्यंक अमीरों की हो रही है जो जनता की जरूरीयात की सौदेबाजी कर जनादेश बटोरते है और हरसंभवा सत्ता पर काबिज हो जाने में सफल  होते है। यह दुनियावी एवं अनुभवसाध्य सचाई है कि अमीर बेईमान, भ्रष्ट और दुष्चरित्र होते हैं। यह दोष उनमें पैदाइशी व्याप्त होती है। दुनिया भर में कुछ प्रजातियां, नस्ल, वंश अथवा जाति-विशेष के नुमाइंदे इस पैमाने का मनसबदार हैं। उनकी हेठी या ढिठई उनकी वाचालता और बोल-बर्ताव के नंगईपन से जगजाहिर है। उनका रात-दिन पर अधिकार-सा होता है; क्योंकि वे रात रंगीन और दिन की उजलाई में सफेद/काला या काला/सफेद कुछ भी कर सकने में उस्ताद हैं। उनके पास जमा-पूंजी अपने देह-दीदा की कमाई न होकर भड़ैती से उगाही या वसूली गई होती है। कईयों को तो अपने विरासत के पाप द्वारा हासिल होती है। यह दौलत मात्रा में इतनी इफ़रात होती हैं कि वे खुद पर लुटाएं या अपने कारिंदों पर वह कंगाल हरगिज नहीं हो सकते हैं। हां, यदि इनमें से कोई संतान-संतति बुद्ध पैदा हो जाता है, तो वह छुपता नहीं है; लोक उसे अपने मंगल के लिए वरण कर लेता है उसका अनुयायी बन जाता है; और ऐसे लोग हुए हैं लेकिन बहुत कम। लेकिन आज तो भारत जैसे देश में अमीरपना की राजनीति चरम पर है। आज राजनीति, मीडिया और न्याय के त्रिवर्ग पर इन्हीं कपूतों का एकछत्र अथवा निरंकुश राज्य है। सत्तागिरी की हनक से पैदा इन संतानों  को पता है कि राजनीति के हाथों शिकार लोग मीडिया द्वारा लोक-सहानुभूति अर्जित करेंगे और अंततः न्याय के लिए न्यायपालिका का शरण गहेंगे। अतः जनतांत्रिक लिहाज से लोक-सम्मत अर्थात जनता द्वारा चुनी गई सरकार इन अवांछित परिस्थितियों से सामना करने के लिए हरसंभव बचाव का विकल्प चुनती है। आज इस बचाव का सिलसिला या कहें ग्राफ इतना बड़ा, व्यापक और बहुआयामी है कि कौन सच्चा और कौन झूठा कह पाना बड़ा मुश्किल है। ऐसे लोगों के सुशासन के पोल हर क्षण खुलते हैं; लेकिन मीडिया प्रोपेगेण्डा के माध्यम से बारात इन्हीं की सजाई जाती है। अरबों-खरबों रुपए प्रचार माध्यमों में उड़ेलकर विकास की पिपीहरी बजाने वाले इन नेताओं को कमाना चाहे फूटी कौड़ी न आए; लेकिन लुटाने की तबीयत भरपूर होती है। ऐसे लोग गाते हैं:

‘निकल पड़ी है, भाग चली है
दूर-दूर तक बात छिड़ी है
कहते हैं उम्मीद की किरण खिली है,
किरण खिली है

क, ख, ग गूंजे स्कूलों में
दिखती है वर्दी मोड़ों पे
बीमार न अब अकेला है
हर तरफ विकास का मेला है

तीन साल की मेहनत दमके
जोर लगा रहे हम जमके
कहते हैं उम्मीद की किरण खिली है,
किरण खिली है’
                    -अखिलेश यादव

'मेरी धरती मुझसे पूछ रही
कब मेरा कर्ज चुकाओगे
मेरा अंबर पूछ रहा
कब अपना फर्ज निभाओगे
मेरा वचन है भारत मां को
तेरा शीश नहीं झुकने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वे लूट रहे हैं सपनों को
मैं चैन से कैसे सो जाऊं
वे बेच रहे हैं भारत को
खामोश मैं कैसे हो जाऊं
हां मैंने कसम उठाई है
मैं देश नहीं बिकने नहीं दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वो जितने अंधेरे लाएंगे
मैं उतने उजाले लाऊंगा
वो जितनी रात बढ़ाएंगे
मैं उतने सूरज उगाऊंगा
इस छल-फरेब की आंधी में
मैं दीप नहीं बुझने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वे चाहते हैं जागे न कोई
बस रात का कारोबार चले
वे नशा बांटते जाएं
और देश यूं ही बीमार चले
पर जाग रहा है देश मेरा
हर भारतवासी जीतेगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

मांओं बहनों की अस्मत पर
गिद्ध नजर लगाए बैठे हैं
मैं अपने देश की धरती पर
अब दर्दी नहीं उगने दूंगा
मैं देश नहीं रुकने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

अब घड़ी फैसले की आई
हमने है कसम अब खाई
हमें फिर से दोहराना है
और खुद को याद दिलाना है
न भटकेंगे न अटकेंगे
कुछ भी हो इस बार
हम देश नहीं मिटने देंगे
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा।'
                       -नरेंद्र मोदी 

अखिलेश सरकार और मोदी सरकार कौन-सा अख़बार पढ़ते हैं या कब कौन-सा समाचार चैनल देखते हैं; नामालूम; लेकिन जनता जो देख रही है; उसमें इन दोनों सत्ताओं का बहरुपियापन सार्वजनिक हो चला है। अरविंद केजरीवाल का स्वांग भी अब ढपोरशंखी बारात-सा ही साबित हो रहा है। खैर! कौन नहीं जानता यह सच कि अपनी चोरकटई और बेइमानी की चाहत पर पूंजीवाद प्रायोजित भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण का हमला भारतीय सम्प्रभुता पर लगातार जारी है। राजनीति के दुहरे-तिहरे छल-छद्म के कारण आधुनिक समाज भयाक्रांत है, अजीब दहशत में है। यह सामाजिक विखण्डन और विघटन की चेतावनी है। अपराध, हत्या, हिंसा और दरिंदगी की अमानुषिक छाया का कालापन उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। असंतुलित विकास और अवसर की असमानता के कारण दुनिया का यथार्थ तेजी से अपना पैंतरा बदल रहा है। यह आर्थिक विकास के विरोधाभास से उपजी हुई एक संकटकालीन स्थिति है जिसमें इस युग के गहरे दुःख बटोराए हुए हैं। फिर भी अमोघ शांति। रामायाण और महाभारत की भूमि पर अन्याय का प्रतिकार असंभव हो जाना; चकित कर डालता है। नतीजतन, सत्ता की चाह, भूख, कामना और आकांक्षा दिनोदिन इतनी प्रगाढ़ होती जा रही है कि सबमें लगभग एकसमान दलीद्दर समाया हुआ है। गांधी का ‘कोड आफ इंडिविजुअल कंडक्ट’ किसी को याद नहीं। अपनी ही स्वतन्त्रता और आत्मस्वाभिमान की रक्षा संभव नहीं। रोमां रोलां ने एक बार कहा था-‘ओह! स्वतंत्रता, दुनिया में सबसे अधिक जोर-जु़ल्म तुम्हारे नाम पर ही हुआ है।’ 

दरअसल, यह घोर विपत्ति का संकटकालीन दौर है। हम अपनी ही चेतना को सायास बलात्कृत कर रहे हैं। यह मानसिक दुष्कर्म भीतरी योजना-परियोजना का हिस्सा है जिसके कारण हमारी चेतना लगातार शिथिल, निष्क्रीय, किंकर्तव्यविमूढ़, निष्कंप, निष्प्रभ आदि हो चली हैं। हमें यह एहसास ही नहीं है कि खतरे की घंटी उन्माद और उत्तेजना के बरक्स कितनी मद्धिम और उपेक्षित-सी हो ली है। भारतीय समाज आत्मज्वर से पीड़ित है। उसे ‘बर्डफ्लू’ या ‘स्वाइन फ्लू’ से भी अधिक संक्रामक बीमारी लग चुकी है। लोगों की चेतना तेजी से मृतप्राय हो रही है, तो स्मृति लुप्तप्राय। जनक्रोश की जनधारा को लकवा मार गया है। पढ़े-लिखे शिक्षित लोग अपनी लोहे के चादर की लम्बे दरवाजों को खोल और बंद कर रहे हैं। शोहरत की दुधियाई रोशनी में उनका घर दमक रहा है, तो उनका फर्श दिपदिपाता हुआ नज़र आ रहा है। ऐसे बौद्धिक सामंतियों को यह नहीं दिखता कि इस देश का एक बड़ा वर्ग अपने दुधमुंहा बच्चे के दूध वास्ते खखन रहा है; बूढ़े मां-बाप के इलाज़ के लिए एक नौज़वान अपनी किडनी बेच रहा है। किसी भू-माफिया की धोखाधड़ी से आहत व्यक्ति नशे में डूब-उतरा रहा है। देश की बच्चियां रोज अराजक तत्त्वों, शोहदों और दरिंदों के हाथों दबोची एवं बलात्कृत की जा रही हैं; गणमान्य शासक! बता तूने कितनी सजा मुकर्रर की; कितने गुनाहों का पर्दाफाश किया; कितनों को न्याय दिलाया; कितनों के सुख-चैन लौटाए, कितने तुम्हें शापित करने की जगह दुआएं दे रहें हैं; कितने तुम्हें अगली बार जिताएंगे; कितने 'तुम-सा कोई नहीं' कहते हुए तुम्हारी वंदना कर रहे हैं....? हे आत्मजीवी शासक! देश की स्वाधीन सत्ता ने लोगों को निखट्टू और निकम्मा बनाने के सिवा किया क्या है? सरकारी-तंत्र, नौकरशाही, लालफिताशाही, नेता, सफेदपोश, मंत्री, हुक्मरान आदि लूट और भ्रष्टाचार में इस कदर पेनाहे हुए हैं कि उनके लिए ‘गरीब’ का मतलब नरेगा और मनरेगा है। जबकि दूसरे सियासी सत्ताधारियों के लिए ‘गरीब’ का मतलब ‘डिजटल रेवोल्यूशन’ है। देश का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति भूख, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अन्याय, पीड़ा, तकलीफ, भेदभाव, लिंग-भेद, दुष्कर्म, हत्या, हिंसा, अपराध आदि को वे ‘रूटीन न्यूज़’ मानते हैं और उन पर अपनी सरकारी विज्ञप्तियां/दुखाचार जारी कर अपनी जवाबदारी से मुक्त हो लेते हैं। ऐसे महाजनों और महानुभावों के लिए आमजन का मरना चिंता का विषय नहीं है। लेकिन इन भोग-विलासी जनों के गले में ख़रास तक उत्पन्न हो लेना ‘ब्रेकिंग न्यूज’ है।

थोड़ी रूख और बात मीडिया की की जानी आवश्यक है। यूं तो आज की मीडिया अपनी करम-धरम में बेह्या हो ली है। वह पूंजी के फेर में अपना मूल चरित्र खो चुकी है। वह सत्ता के बेडरूम में नंगे दाखिल होने को तत्पर है। वह सत्ता की इच्छा पर करवटे लेने या उठ-बैठ करने को राजी है। सरकार कहे कि देश में महंगाई घट गई, तो मीडिया कोहराम मचाएगी घट गई; सरकार कहे कि देश में अब लोग पहले की तुलना में अधिक कार खरीदने लगे हैं, देश की लगभग जनता के पास स्मार्ट फोन हो गए हैं, तो मीडिया यही खबर अक्षरशः लांच करेगी। अब तो अमेरिका यह बता रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आगामी वर्षों में क्या करवट लेगा; उसकी उंचाई-मुटाई-लम्बाई क्या होगी; वगैरह-वगैरह। दरअसल, वैश्विक दबावों की आड़ में या परोक्ष षड़यंत्र में सरकारी हुक्मरानों की चेरी बन चुकी भारतीय मीडिया के लिए ईमान-धर्म पैसा है; क्योंकि पैसे से बंगले खरीदे जाते हैं; पैसे से हनीमून पैकेज तैयार होते हैं; पैसे से परिवार जनों के चेहरे पर प्रसन्नता और बच्चों के पाॅकेट-मनी में बढ़ोतरी संभव है। जब सबकुछ पैसे से ही होना जाना तय है, तो फिर अपनी आमद और आमदनी से परहेज या गुरेज कौन करे। आज की पीढ़ी जो सुख-सुविधा में शुरू से पली-बढ़ी और आज बड़ी हुई है; वह पीढ़ी बेहद व्यावहारिक है। उसके लिए चारित्रिक मूल्य ठेंगा है; शुचिता का प्रश्न ढोंग है; फिजूलखर्ची की जगह मितव्ययिता बेवकूफी है। आज की यही पीढ़ी मीडिया का सबसे सक्षम और लक्षित उपभोक्ता है। आज की पत्रकारिता जनसंचार की जगह जोन/जोनल विशेष के प्रति उत्तरदायी है। वह सोसायटियों को ‘कवरेज’ देती है। क्योंकि मौजूदा मीडिया-क्षेत्र में आ रहे लोग कारपोटियों के वंशज हैं या उनके डीएनए में उन्हीं के गुणसूत्र विद्यमान हैं। मीडिया में चलते-फिरते इन ज़वान ‘जन-गण-मन’ गायकों के लिए पिज्जा-बर्गर और सथ्यता-संस्कृति में कोई अंतर नहीं है। भारतीय रेस्तरां का मालिक भारतीय हो या अंग्रेज; उन्हें सिर्फ मुफ्त पास चाहिए होता है। किसी कंपनी का सीईओ विदेशी है या भारतीय; इससे आज की प्रबंधकीय शिक्षा-दीक्षा पाकर अपने ‘बुलंदी’ पर होने का गुमान रचती युवा पीढ़ी का कोई वास्ता या सरोकार नहीं है। गांधी, मोदी, नीतिश, अखिलेश, रमन सिंह, शिवराज सिंह चैहान, वसुंधरा राजे, आनंदी बेन पटेल और अरविंद केजरीवाल सब ‘क्लाइंट’ है जिनसे मनमाफिक पैसे मिलने के एवज में उनके कहे मुताबिक ‘राम-लीला’ और ‘रास-लीला’ करना है। आज की मीडिया लोगों को मामुली आदमी कहती और मानती है। मीडियावी स्टुडियो में पाउडर और फेयर-क्रीम चिपुड़े शब्द, पद, वाक्य और हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित छौंकुआ भाषा में गहगह करने वाले/वाली इन नकाबी पेशेवरों के लिए हर समाचार दाल-भात का कव्वर है; हत्या-हिंसा, दर्दनाक मौंते के क्रम में ब्रेक वह भी कहकर; क्या तमाशा है भाई! आजकल समाचार का मतलब राजनीति और राजनीति का मतलब बिकाउ होना है। मीडिया वह हर चीज बेचने को तैयार है, जिसकी उसे मनमाफ़िक कीमत हासिल है या भेंट की गई है। इसीलिए लोगों का मन समाचार चैनलों से तेजी से उचट रहा है। जनमाध्यमों में माध्यम का वर्चस्व-प्रभुत्त्व कायम है; लेकिन जन-दबदबा अथवा जन-मूल्य गायब है, नदारद है। लोग टेलीविज़न से अधिक भाव रिमोट कंट्रोल को दे रहे हैं जो अपने भीतर विकल्प की भरपूर गूंजाइश रखता है।

एक अर्थ में, लोगों का उचटना, तंग होना या मीडिया चैनलों से हद दरजे तक दूरी बनाने की सोचना हर दृष्टिकोण से जायज है। क्योंकि जनता जब टेलीविजन से दूर होती है; समाचार-पत्रों से अलग होती है, तो वह स्वयं से उस घड़ी सबसे अधिक जुड़ी होती है। और जब आदमी खुद से जुड़ जाता है, तो उसका फिर अपने स्थान, क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र, विश्व आदि से जुड़ना शुरू हो जाता है। फिर वह देश-काल-परिवेश में दखल देने लगता है। फिर वह नेतृत्व का कमान अपने हाथों में लेने की सोचने लगता है। और इसी बरास्ते जो जन-ज्वार फूटता है; सार्थक नेतृत्व, किकल्प और सत्ता इन्हीं से बनती है। जनता याद करती है कवि मुक्तिबोध को:

‘‘ज़िन्दगी की कोख में जन्मा
नया इस्पात
दिल को खून में रंगकर
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव-देह धारण कर
असंख्य स्त्री-पुरुष बालक बने, जग में भटकते हैं
कहीं जन्मे
नए इस्पात को पाने
झुलसते जा रहे हैं बाग में
या मुंद रहे हैं धूल-धक्कड़ में
किसी की खोज है उनको
किसी नेतृत्व की।’’

और अंत में न्यायपालिका की बात करें, तो भारतीय लोकतंत्र में कटी पतंग की भूमिका में है। जिसे किसी न किसी दिन ज़मीन पर आना तय है, सुनिश्चित है। लेकिन वह आकाशमार्गी डग भरते हुए, कुलांचे मारते हुए बराबर भारतीय न्याय-व्यवस्था में विश्वास और आस्था रखने का भरोसा दिलाती है। अफसोस; भेडिए बाल के बाद जनता का खाल नोच रहे हैं जबकि नयपालिका में अभी भी सुनवाई जारी है। इल्तजा है, मरने तक इंतजार कीजिए। भारतीय आध्यात्मिकों की मानें, तो-मरने के बाद सबको सद्गति मिल जाती है। अतः बस निहुर कर ज्योतिषियों, सन्यासियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों, गुरुओं के आगे अपना मन-तन-धन सौंपते जाइए! ‘मंगलम् भगवान विष्णु...'




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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...