Saturday, November 20, 2010

कठघरे में इंसाफनेत्री


‘इमेजिन टीवी’ पर एक ‘रियलिटी शो’ शुरू हुआ है है-‘राखी का इंसाफ’। हर तरह के लड़ाई-झगड़े और अडं़गे-पचड़े जो अक्सर मियां-बीवी के आपसी तनातनी और तू-तू-मैं-मैं की उपज होती हैं, को अब इंसाफनेत्री राखी सावंत सलटाएँगी। हाल ही में राखी के फैसले से आहत हुए एक व्यक्ति की मौत ने इस कार्यक्रम की लोकप्रियता को बढ़ाने में काफी मदद की। इस घटनाक्रम के बाद मीडिया बाज़ार में इस कार्यक्रम की चवन्नी हैसियत को बढ़िया ‘ब्रेक’ मिला, लिहाजा यह कार्यक्रम जल्दी ही अधिकांश लोगों की निगाह में आ गया है। इससे पहले भी राखी कई मजेदार ‘स्टंट’ कर चुकी हैं जिसकी चर्चा ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह है। लोकतांत्रिक भारत का न्याय-नियंता और अपने सर्वाधिकारों में संप्रभु सुप्रिम कोर्ट को अचरज होना चाहिए कि जो न्याय-तंत्र बीसियों बर्षों से इंसाफ की आस में झोल खाते मामलों को ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ के प्रावधान के बाद भी नहीं निपटा सका है, उसे एक रियलिटी शो अपने स्व-प्रयास से रफा-दफा करने के लिए कमरकस खड़ा है। ऐसे में भला किसी को क्या गुरेज? लेकिन अफसोस! ऐसे कार्यक्रम अपने नाम में चाहे कितने भी धाँसू क्यों न होते हों, उनके साथ का पूँजी-तंत्र अपने चरित्र में बेहद अमानवीय तथा पेशेवर होता है।
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध नैतिक और मानवीय हों शायद इसी अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए समाज ने विवाह-संस्था की स्थापना की होगी जो आज रिश्तों में दुराव-अलगाव और सम्बन्ध-विच्चछेद की नौबत से दो-चार है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जो बहुरानी-पतुरिया पति की मार, सास के जार और ननद-जेठानी के ताने-उलाहने को सहती हुई अपनेआप में दुबकी-सिमटी रहती थी या कि अंदर ही अंदर कुढ़ रही होती थी
वह आज टेलीविज़न परदे पर चिंघाड़ रही है। राखी के सामने न्याय की गुहार लगाती इन पीड़िताओं को अपने पल्लू का होश भले न रहता हो किंतु टेलीविज़न स्क्रीन पर तेवर में आक्रामक दिखने की इनकी लालसा प्रबल होती है। यह बदलाव हर सूरत में काबिलेगौर है जिसे ‘स्त्री-विमर्श’ के लंबरदारों द्वारा भी नोटिस में लिया जाना चाहिए।
ऐसे कार्यक्रम किन वजहों से तथा किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु टेलीविज़न चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं, यह भी विचारणीय है। पूँजी-केन्द्रित बाज़ार थोक मुनाफे को वरीयता देता है। उसके लिए हर चीज वरणीय है बशर्ते उसमें ‘कमोडिटी’ बनने की कुव्वत हो। मजे की बात है कि राखी की मार्केट वैल्यू इधर के दिनों में जिस तरह बढ़ी है उस नजरिए से ‘राखी का इंसाफ’ सही समय पर लांच हुआ है। बहुचर्चित ‘मीका-राखी प्रकरण’ के बाद राखी ने बेहतरीन वापसी की है और खुद को बाज़ार के हिसाब से उन्नत भी किया है। वह ‘पब्लिक’ का मिजाज भाँप चुकी हैं तभी तो उनके बोल में शारीरिक हाव-भाव की तरह ही ‘बोल्डनेस’ नज़र आ रही है। वह इंसाफनेत्री बन कर किसी मामले को कितनी भी संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ क्यों न सुनती दिखंें जब फैसले की बारी आती है तो वह बोलती वही हैं जिसका बोला जाना पहले से तय है। हाल ही में ‘इंटरेस्टिंग’ तरीके से दिखाए गए सुनीता सिंह और देव भारद्वाज विवाद ने तब तूल पकड़ लिया जब यह मालूम चला कि उनका आपसी विवाद न केवल पहले से प्रायोजित था, बल्कि परदे के पीछे हुई सौदेबाजी का भी इसमें महनीय योगदान था।
आजकल टेलीविजन चैनलों पर जिस तरह के वाहियात कार्यक्रमों को दिखाने की होड़ है, उसको देखते हुए इन मुद्दों पर सार्थक तथा मुक्कमल बहस की सख्त जरूरत है। क्योंकि प्राइम टाइम के अन्तर्गत दिखाये जाने वाले ऐसे कार्यक्रमों को सिर्फ उच्छश्रृंख्लिता का पर्याय या फिर विकृत मनोभाव एवं मनोदशा का सूचक मानकर समाधिस्थ हो लेना न तो स्वयं के हित में है और न ही जनहित में। विवेकशील एवं प्रज्ञावान भारतीय खुद ही तय करें कि इस बारे में किए जाने वाले उपक्रम क्यों और कितना जरूरी है?

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...