Tuesday, October 27, 2015

चुनाव में सब जीतेंगे, हारेगा सिर्फ बिहार

रजीबा की राय
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इन दिनों बिहार की जनता धर्मसंकट में है। इस बार चुनावी दंगल ‘कथित विकास’ और ‘प्रायोजित विकास’ के बीच है। यह संकट इसलिए भी गहराता जा रहा है, क्योंकि जंगलराज के ‘मास्टरमाइंड’ इन दिनों नए गठजोड़-गठबंधन के साथ बिहार की जनता के आगे ‘वोट’ के लिए हथेली पसारे खड़े हैं। केन्द्र की भकुआहट भी बढ़ी हुई है। येन-केन-प्रकारेण विजयी लहर देखने-दुहराने की लालसा केन्द्र सरकार में जबर्दस्त दिखाई दे रही है। लिहाजा, वह सबकुछ कर रही है या करना चाह रही है जिससे बिहार में भाजपा की वापसी सुनिश्चित हो सके। छोटे मोदी यानी सुशील कुमार मोदी स्वयं इस ताक में हैं। उनका स्वप्न नाजायज़ भी नहीं है। भारत पिछले वर्ष ‘घर-घर मोदी’ के नारे पर ‘विजयी शंखनाद’ या ‘विजयी हुंकार’ कर चुका है। वैसे असली बिहार के रहवासियों से ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ के किरदारों का पासंग/घलुआ भर भी रिश्ता-नाता नहीं है। लेकिन आज की ‘आभासी दुनिया’ में स्वस्थ एवं जीवंत रिश्ते-नातों को तव्वज़ों भी कौन देता है? चूँकि मोदी सरकार अपनी छवि-प्रोत्साहन को लेकर बेहद आतुर एवं आक्रामक रवैया अपनाती है; इसलिए बिहार की जनता के सामने उसने जो भी दाँव चला है; वह उसकी अपनी राजनीतिक योग्यता एवं प्रतिभा के अनुकूल ही है। 

देखना होगा कि चुनावी बाइन बाँटने में अव्वल राजनीतिक पार्टियाँ चंदा वसूली के तर्ज पर बिहार में वोट की राजनीति करती है। वह बिहार की जनता से जड़ से जुड़े होने का लाख दावा करें; किन्तु जनता अंततः लालफिताशाही और नौकरशाही के भेंट चढ़ जाती है। बिहार पिछले कई वर्षों से विकास के ताक में है; लेकिन अभी तक बिहारवासियों तक विकास की आस ही पहुँच सकी है। राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में इस बात का उल्लेख विशेष तौर पर किया था। आज यह आस भी बिहार की जनता को दगा देने लगा है। नीतीश सरकार ने उम्मीदगी के पंख कुतरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हावी होने के बाद नीतीश कुमार की सकारात्मक एवं प्रभावी राजनीति ने कलटी मार लिया। नतीजतन, बिहार आज ऐसे अंधमोड़ पर आ खड़ा हुआ है जिसके दावेदार बहुत हैं; लेकिन नवनिर्माण की योग्यता किसी में नहीं है। 

विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि आज की राजनीति में जनमानस को ‘भीड़’ के रूप में चित्रित या वर्णित  करने का चलन बढ़ गया है। लोक-गौरव या लोक-गरिमा जैसे शब्दार्थ अपना अर्थपूर्ण महत्त्व एवं हस्तक्षेप खो चुके हैं। इस घड़ी बिहार को विज्ञापनी विजय की दरकार है जिसकी घोषणा अगले माह नवम्बर के दूसरे सप्ताह में होगी। जीत-हार राजनीतिक दल में तयशुदा चीज है। लेकिन इस जीत का रास्ता सिर्फ जश्नफ़रोशी तक सीमित है। क्योंकि आज की तारीख़ में बिहार में अधिसंख्य नेता राजनीतिज्ञ नहीं, जातिज्ञ हैं। वह उसी की उपज और पैदावार हैं। ये जातिवादी राजनीतिज्ञ जब मठाधीश हो जाते हैं, तब उनके संतान-संततियों को राजसुख का (स्वतःस्फूर्त)सुअवसर मिल जाता है।

यानी बिहार में ‘हर बार की तरह इस बार, ऐसा ही हुआ था पिछली बार’ एक ऐसा प्रचलित मुहावरा है जिससे बिहारवासी त्रस्त नहीं हैं; बल्कि इन प्रवृत्तियों के स्थायी भाव बन चुके हैं। इसी स्थायी भाव को इस वक्त संचारी भाव में बदलने का खेल थोकभाव हो रहा है। बिहार कितना बदलेगा और कैसे बदलेगा इसका ‘रोडमैप’ जो राजनीतिज्ञ इस समय आईने की तरह चमका रहे हैं; चुनाव-परिणाम आने के बाद वे ही खुद इसका इस्तेमाल ‘पेपरवाॅश’ की तरह करेंगे। आजकल अख़बारों, विभिन्नि पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविज़न या अन्य वैकल्पिक जनमाध्यमों में बिहार को लेकर जो बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं; आधे नवम्बर के बाद पूरी तरह न सही लेकिन लगभग गायब हो जाएँगे। 

एक गायब होते देश में जो भी होगा वह देखने की चीज होगी। फिलहाल बिहार के सूरतेहाल में बदनसीबी ही लिखी जाती रही है। किसी नसीबवाले की तलाश में पिक्चर अभी जारी है...! 

अतः देखते रहिए, तमाशा मेरे आगे!

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