रजीबा की पाती
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प्रिय मोहतरमा,
कल दशहरा था, लेकिन आप साथ में नहीं थी। कितना अकेला हो गया हूँ...मैं; आपको देखे चार महीने हो गए और यह पाँचवा बीत जाने को है। मैं यह भी जानता हूँ...आप कहेंगी, यह आप ही का किया-धरा है। हाँ, मैंने आज तक जो कुछ किया-धरा है...अपनी घमंड और गुमान के बिनाह पर ही। आप शुरू से ‘माइनस’ में
रही, घाटे में। तवज्ज़ो छोड़िए, साधारण ध्यान भी मैं न रख सका आपका। यह कबूलनामा आपको रिझाने के लिए नहीं है। रिझाया, तो आधुनिकिया प्रेम में जाता है। हम-आप तो शुरू से आज तक जिम्मेदारी में रहे, प्रेम हमारे बीच आजकल माफ़िक पनपा ही कभी नहीं। जब शादी हुई थी, तो बातचीत में काॅल दर एसटीडी की होती थी। घर में सबसे बात हो जाने के बाद आपका नम्बर आता था...तब तक बिल का टांका दस रुपए से ऊपर जा चुका होता था; आप हमारे हूँ-हाँ से मेरे पाॅकेट का मिज़ाज भाँप लेती थीं। इस तरह हमारे-आपके बीच पिछले 12 सालों में अनकहा ही सबकुछ रहा, आज भी है। दुर्भाग्यवश पिछले दिनों अच्छी ख़बर सुनाने या आपकी सूरत भर देख पाने का समय मैं न निकाल सका। चाहे परिस्थितियाँ जो रही हों, किन्तु आपका कुसूरवार सिर्फ और सिर्फ मैं ही हूँ।
ओह, सबने अपनी उम्मीदें-आकांक्षाएँ हम पर थोपी-लादी...और हम ढोते रहे। हमने कईयों के लिए सहारा का काम किया, मददगार भी बने। पढ़ाई को मैं अपनी असीम चाहत के बावजूद पूरा समर्पण नहीं दे सका; जैसे आपको आपका पूरा हक। इस अधूरेपन ने मेरी मानसिकता को मजबूत किया, तो कई अर्थो में असहाय भी। मैंने लेखन को अपने जिदपन में जो वक़्त दिया...वह पर्याप्त कभी नहीं रहा। शोधकार्य भी मेरी घरेलू जवाबदेहियों के बीच खींचता रहा। कई अपेक्षाओं पर मैं चाहकर भी खरा नहीं उतर सका। समय का मसखरापन मुझ पर बड़े रूआब से हँसता रहा। मैंने अपने को कई अर्थो-रूपों में नजरअंदाज किया। प्रायोजित हाव-भाव-विचार के साथ दूसरों के सामने प्रस्तुत होता रहा। जो मैं था, उसे मैं सिर्फ लिख अथवा छापे के अक्षर में दर्शा सकता था....ब्यौरेवार या वैचारिक पैनेपन के साथ। लेकिन समय से मुठभेड़ करने की कूव्वत मुझसे जाती रही। औरों जैसा चाकचुक होने या दिखने की लालसा हम दोनों में कभी नहीं रही। लेकिन स्वास्थ्य का ख्याल न रख पाने की चूक मैंने जानबूझकर की जिसे आपने हमेशा ग़लत कहा।
मोहतरमा,
पिछले वर्ष दीप की तकलीफदेह और लगभग लाइलाज बीमारी ने मुझे एकदम से तोड़ दिया...आपने संभाला। इसके अलावे कुछ लोग साथ रहे। मेरे शोध-निर्देशक की भूमिका भी अहम रही। घर से दूर होने के बाद मैं सचमुच कई अर्थों में काफी दूर हो चुका था, इसका अहसास होने लगा था। मुझसे बिना राय लिए या विचार जाने महत्वपूर्ण निर्णय किए जाने लगे थे। इन दिनों पापा भी चिंताग्रस्त दिखने लगे थे कि मेरे रिटायर होने के बाद हमारे कुनबे का क्या होगा? यह तनाव जायज था। अपने तीन संतानों की पढ़ाई-लिखाई पर खूब खरचा किया उन्होंने। बड़ा होने के नाते मुझसे अपेक्षा अधिक थी। मेरे अत्यधिक इंतमिनान से वह भरोसे में रहते थे, लेकिन अंतिम समय में यह भरोसा भी टूटने लगा था। बीच वाले भाई ने उनकी इस छटपटाहट को बुरी तरह बढ़ाया, परेशान किया। यही वह समय था जिस क्षण मेरे हाथ से हौसले की रस्सी छूटती जा रही थी। आपने मुझे साहस दिया। हर संभव नैतिक बल भरने का प्रयास किया। दुनिया अपनी रौ में चलती रही।
प्रियतमा,
हमारा आठ साल का बच्चा है दीप। वह अभी तक साफ ज़बान में मुझसे नहीं कह पाता है कि पापा, आप कैसे हो? यह दुःखद सचाई है जिससे हम दोनों जूझ रहे हैं। लेकिन हम हारे हुए मोहरे नहीं है या कि दुनियावी मार से पिटे हुए चेहरे! हमे इन्हीं विपरीत परिस्थितियों से अपने लिए सही राह तलाशनी है। यार! हम
कामयाब जरूर होंगे...आमीन!!
तुम्हारा ही
रजीबा
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