Wednesday, June 8, 2011

इस अन्धेरे समय में....!




‘‘शब्द कितने भी अर्थवान क्यों न हो? उजाले के बिना उनका अस्तित्व नहीं है। लिखे हरफ़ पढ़ने के लिए उजास चाहिए। मन की उजास। आत्मा की उजास। मानवीय मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का उजास। अच्छा कहने और ईमानदार जीने की संकल्पना का उजास। दरअसल, वेद-सूक्ति हो या नैतिक-सुभाषितानी; सभी में उजास ही तो एकमात्र लक्षित भाव है। भारतीय संस्कृति में यह भाव साकार और निराकार दोनों रूपों में उपस्थित है। बस मन के अतल गहराईयों में उतरने का जज़्बा चाहिए। साहस चाहिए अपने देशकाल की परिस्थितियों एवं पारिस्थितिक तंत्र से मुकाबला करने के लिए।’’

इस अन्धेरे समय में गुरुवर आपकी यह सीख मेरे लिए प्रेरणा है। इन्तहान की घड़ी में ‘स्ट्रूमेन्ट बॉक्स’ है। वैसे समय में जब देश का जीवन-दर्शन रीत रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का दूसरी ज़बान में विरुपण जारी है। देसी भाषा और बोली-बात निजी शैक्षिक केन्द्रों से बहिष्कृत हो मरघट पहुँचाए जा चुके हैं। मैं आपके इन्हीं प्रेरणा के उजास में स्वयं को सींचा हुआ महसूस कर रहा हँू।

मैं आपके व्यक्तित्व के अनुकरणीय गुणों से गहरे संपृक्त हँू। लेकिन कई अर्थों में भिन्न और विरोधी भी। यह मेरे अर्जित सामाजिक सरोकार की देन हैं, तो वंशानुगत अर्जित संस्कार की मूल परिणति। यह जरूरी भी है, क्योंकि ग्रहणकर्त्ता को अपना कर्त्ता भाव नहीं भूलना चाहिए जैसे दाता को अपनी सीमाएँ और मर्यादाएँ।

अतः इस अन्धेरे समय में भी आपकी प्रेरणाओं से संबल प्राप्त करते हुए मैं आपके द्वारा दुहराये जाने वाले इन पंक्तियों पर पूरी ठाठ से मुसकरा सकता हँू-‘बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना/आदमी को भी मय्यसर नहीं इंसान होना’।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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