Monday, June 6, 2011

आज पत्रकारिता के समक्ष तोप मुक़ाबिल है!


इस घड़ी बाबा रामदेव के प्रयासों की वस्तुपरक एवं निष्पक्ष आलोचकीय बहस-मुबाहिसे की आवश्यकता है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बाबा रामदेव को कई लोग कई तरह से विज्ञापित-आरोपित कर रहे हैं। कोई कह रहा है-संघ के हैं रामदेव, तो कोई उन्हें महाठग कह अपनी तबीयत दुरुस्त कर रहा है। कई तो उन्हें गाँधी के गणवेष में जनता के सामने परोसने के लिए विकल हैं। बदले हुए इस घटनाक्रम में मुद्दे से पलायन कर चुकी सरकार और स्वयं बाबा रामदेव एक-दूसरे के ख़िलाफ जुबानी तलवार भाँज रहे हैं। 4 जून को अचानक बदले घटनाक्रम को केन्द्र सरकार बाबा रामदेव द्वारा भीतरी राजनीतिक स्तर पर किए गए समझौते से साफ मुकर जाने को जिम्मेदार ठहरा रही है।

फ़िलहाल इस पूरे मामले की चश्मदीद गवाह बनी जनता(सर्वाधिक लुटी-पिटी) की हालत नाजुक एवं दयनीय है। कहावत है-चाकू तरबूजे पर गिरे या तरबूज चाकू कर; कटना तो तरबूजा का ही तय है। विद्यार्थी मीडिया का हँू, इसलिए याद आ रहा है मुझे नॉम चोमेस्की का ‘प्रोपगेण्डा मॉडल’। मूल मुद्दे से पलायन कर नए गैरजरूरी मुद्दे को प्रक्षेपित करना इस मॉडल का मूलाधार है। कलतक जो जनता भ्रष्टाचार, काले धन की वापसी, पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमत, महँगाई, खेतिहर भूमियों को जबरन किए जा रहे अधिग्रहण, शासकीय लापरवाही और राजनीतिक इच्छााशक्ति में आ रहे गिरा वट को ले कर उखड़ी हुई थी; आज उसी जनता के सामने बाबा रामदेव की प्रतिष्ठा भला जीवन-मरण का प्रश्न कैसे बन गई? कल की तारीख़ में बाबा रामदेव अगर कांग्रेस और कांग्रेसी आलाकमान(जिन्हें वे अपनी मौत के लिए जवाबदेह घोषित करते हैं) के साथ सुलह-समझौता(!) कर लें, तो इस जनज्वार में शामिल जनता का क्या होगा? ऐसा सोचना या घटित होना आज के बहुरुपिए समाज में नामुमकिन नहीं है। लेकिन एक बात तो साफ हो गई है कि यूपीए सरकार के भीतर नैतिक गिरावट चरम पर है और उसका आत्मबल चूक गया है। कहावत है-चोर की दाढ़ी में तिनका। कांग्रेस सरकार की गत आज उसी चोर की भाँति है जो ग़लत है लेकिन खुद को मुँहचोर साबित होने देना नहीं चाहती है।

इस समय रामलीला मैदान चर्चा का ‘हॉट स्पॉट’ है जैसे ओसामा की मौत के बाद शहर एबटाबाद चर्चा में आन प्रकट हुआ था। लेकिन महज चर्चा से मुल्क की चौहद्दी नहीं बदलती है। क्रूर प्रशासकों एवं शोषक नीति-नियंताओं का ख़ात्मा भी सिर्फ ख़बरों में मर-खप जाने से नहीं होता है। बदलाव के मुहाने पर आ पहुँचा राष्ट्र हमसे हमारे विवेक-परीक्षण के लिए समय माँग रहा है। मुझे जहाँ तक लगता है-यह बात तो आनी-जानी है; कहकर हम कहकहा भले लगा लें; किन्तु आज का दिन जब इतिहास बनेगा तो हमारी भूमिका गुमनाम जोकर्ची के अतिरिक्त कुछ नहीं होगी। मीडियावी इतिहास के ‘सर्च इंजन’ में तलाश तो राहुल गाँधी की भी होगी जिनको दिल्ली के राजीवनगर बुराड़ी में आयोजित कांग्रेस के 83वें महाधिवेशन में कहते सुना गया था-‘‘आम-आदमी चाहे वह गरीब हो अथवा धनी। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई हो, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित। यदि वह देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है तो वह एक आम-आदमी है। उनमें पर्याप्त क्षमता, बुद्धि और शक्ति है। वह अपने जीवन के हर दिन इस देश के निर्माण में लगा रहता है; परन्तु हमारी प्रणाली हर कदम पर उन्हें कुचलती रहती है….,’’

आमोंख़ास के इस आन्दोलन को खुद राहुल गाँधी के सरकारी-तंत्र द्वारा बेतरह कुचले जाने को जनमाध्यम किस रूप में प्रचारित-प्रसारित करें, यह सोचना न केवल पत्रकारों के लिए महत्त्वपूर्ण है; अपितु योग्य राजनीतिक विश्लेषकों, चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की ख़ातिर भी आपद धर्म है। सरकार की इस बर्बर और दुस्साहसी पुलिसिया-कार्रवाई को सिर्फ और सिर्फ हिक भर कोस कर काम चला लेना क्या पत्रकारीय मर्यादा की दृष्टि से उपयुक्त है? या फिर ऐसे प्रकरण भविष्य में फिर कभी नमूदार न हों; इस दिशा में समुचित रूपरेखा और सुचिन्तित व्याख्या प्रस्तुत किया जाना ही पत्रकारीय बिरादरी का प्राथमिक लक्ष्य माना जाए? सबसे बड़ा रोना यह है कि मीडिया खुद भी इस वक्त संशय में है। मीडिया यह तय कर पाने में असमर्थ है कि एक साधु-सन्यासी के आन्दोलन को देसी जनान्दोलन कहा जाए या कि नहीं? पुलिसिया कार्रवाई का वह खुलकर मज्ज़मत करे, या फिर बाबा को उनकी हद बताए कि वह राजनीति करने की बजाय योग करें; वही बेहतर है। ऐसे अन्तर्द्वंद्व की घड़ी में क्या हो समयानुकल पत्रकारिता? यह प्रश्न है जिसमें यक्ष ही यक्ष कुंडली मारे बैठे हैं।

बाबा रामदेव द्वारा काले धन की वापसी सुनिश्चित करने को लेकर रामलीला मैदान में जिस तामझाम के साथ भव्य सत्याग्रह की शुरूआत हुई उसका इस तरीके से ढूह में तब्दील हो जाना स्वयं मीडियाजनों को हतप्रभ करता है। आपातकाल के समय जीवित होश नहीं रखने वाले मुझ जैसे अभागे के लिए यह अनदेखी-अनबीती सचाई है। पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते मुझे मेरे गुरुवर प्रो0 अवधेश नारायण मिश्र की एक सीख याद आ रही है जिसका आशय था-‘एक पत्रकार द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली स्याही कितनी भी स्याह क्यों न हो? उसके माध्यम से निरूपित शब्दों के अर्थ, भाव, बिम्ब, प्रोक्ति, उद्देश्य और प्रेरणा कभी स्याह नहीं होते हैं।’’ सारतः अपने अग्रज-पत्रकारों से इस बारे में सूक्ष्म एवं बारीक विश्लेषण की अपेक्षा बेमानी नहीं है जो दुध का दुध और पानी का पानी अलग कर इस परोक्ष आपातकाल की त्रासद दौर से मुक्ति दिला सकते है।

बहरहाल, बाबा रामदेव के समर्थन में जिस तरह लोग भड़के हुए हैं; उसी तरह उन पर पलटवार करने वाले लोग भी बोल-बोलने को आमदा हैं। कुछ लोग उनके राजनीति में आने की बात को ‘अनैतिक प्रोपगेण्डा’ घोषित कर चुके हैं। उन्हें सुझाव दिए जा रहे हैं कि साधु-सन्यासियों को अपने तपोबल और ज्ञानमण्डल का निवेश गुरुकुल में करना चाहिए; न कि सड़कों पर। सड़क तो राष्ट्रमण्डल के आयोजन के लिए है। 10, जनपथ पर आने-जाने के लिए है। स्वधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के आयोजन में शामिल होने वाले सैन्य-परेड के लिए है। यह उनके स्वागत के लिए है जिन्हें वह इच्छित ढंग से पद्म श्री और पद्म विभूषण जैसे पुरस्कार से नवाज़ती है। यह सड़क आईपीएल और मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पाद लाँचिंग और ब्राण्ड-प्रमोशन के लिए है। यह सड़क उन सबके लिए है जो मोटी तनख्वाह पाते हैं और वीकेण्ड में सैर-सपाटा करने के आदी हो चुके हैं। यह उन चेहरों का राह तकने के लिए है जो सेलिब्रेटी हैं, उद्योगपति हैं या फिर नेता-मंत्री और नौकरशाह।

तभी तो बाबा रामदेव को यह घुसपैठ काफी मंहगी पड़ी। जनता के स्वर का सारथी बन वह दिल्ली के रामलीला मैदान तो पहुँच गए; किन्तु उन्होंने सरकार के असरदार दरबारियों से हुई भेंट-मुलाकात में क्या कुछ सुना-गुना, यह सार्वजनिक तौर पर जनता को बताना जरूरी नहीं समझा। यही गच्चा खा गए बाबा रामदेव। उन्होंने जल्दबाजी के आवरण में जो कबूलनामा कबूल की; वही उनके शांति-कपोत रूपी इस जनआन्दोलन को ले उड़ा, और बाबा रामदेव हाथ मलते रह गए। एकमात्र इस चूक ने उनसे सम्बन्धित तरह-तरह के अफवाहों का बाज़ार गर्म कर दिया।

कहने वाले अपनी बात झोंक रहे हैं कि इस देश में सेलिब्रेटियों की कमी नहीं है; लेकिन वे काले धन के मुद्दे पर चुप हैं तो बाबा रामदेव इतने मुखर क्यों? चिन्तक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी और साहित्याकारों की भरी-पूरी फौज है, वे चुप लेकिन बोले तो केवल बाबा रामदेव? कईयों का मानना है कि बाबा रामदेव को श्रेय अतिप्रिय है। बाबा छद्म रचने में उस्ताद अधिक हैं, राष्ट्रीय मुद्दे और चिन्ताओं से जमीनी स्तर पर संपृक्त कम हैं। बाबा रामदेव सदैव मुद्दों को हथियाना जानते हैं। उनका आन्दोलन जनमानस द्वारा नहीं संघ द्वारा प्रायोजित है। अधिकांश लोगों का तो यह भी कहना है कि बाबा रामदेव ने काले धन जैसे संवेदनशील मुद्दें का अनावश्यक राजनीतिकरण कर इस दिशा में ‘अण्णा टीम’ द्वारा किए जा रहे प्रयास को अवरूद्ध कर डाला है। रायशुमारी में शामिल कुछ लोगों का यह भी कहना है कि बाबा रामदेव कांग्रेस, भाजपा, संघ, बसपा और सपा सभी राजनीतिक दलों से ‘कॉमन’ सांठ-गांठ कर अपनी रोटी सेंकने का दोहरा खेल खेलना चाहते हैं। वे जन की बात करते हैं, किन्तु खुद ही सज्जन नहीं है; सो ‘महाजनो येन गत सः पंथा’ की उक्ति से उन्हें विभूषित करना सही नहीं है।

इस घटनाक्रम पर कई ताजा प्रतिक्रियाएँ सामने हैं। जैसे-‘हाय! बाबा को केन्द्र और दिल्ली सरकार ने लिंग परिवर्तन करने पर बाध्य कर दिया गया। भगवा से सलवार-समीज पर उतर आये बाबा।’ हँसकर अपनी फौरी प्रतिक्रिया से अवगत कराते इन सबल युवाओं(पंक्ति लेखक के सापेक्ष) को सरकार की नीचता पर हँसना क्यों नहीं आ रहा है? मौलिक अधिकार जिसे हम सांविधानिक भाषा में ‘अभिव्यक्ति एवं स्वतंत्रता के अधिकार’ के रूप में परिभाषित करते हैं; उस पर धावा बोले जाने को लेकर वे चिन्तित-व्यथित क्यों नहीं हैं? हमारी रक्त-मज्जा में सींची गई चीजों का भूगोल प्रायोजित तरीके से बदला जा रहाहै, वर्तमान में उसे लेकर भी समाज में किसी किस्म का क्षोभ या पीड़ा क्यों नहीं है?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि अब आधुनिक सत्ता जन-उत्पीड़न के लिए धारदार हथियार का इस्तेमाल करने की बजाय नीम-बेहोशी में आमआदमी को टुन रखना चाहती है। पूँजी-केन्द्रित सत्ता सीधे-सीधे जान-माल को क्षति भी नहीं पहुँचाती है। वह आपकी शक्ति को कमजोर करने के लिए वातावरण गढ़ती है। ऐसा माहौल तैयार करती है जिसमें आप खुद ही अपनेआप को ‘मिसफिट’ और ‘मिसमैच’ महसूस करने लग जाएँ। पाश्चात्य कलेवर में निर्मित वह ऐसे मारक आयुध प्रयोग में लाती है जो हमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और नैतिक दायित्वों से स्वतः ही विमुख कर डालती है। आचरण और प्रवृत्तियाँ बदल जाती हैं। संस्कार और मूल्यबोध की अभिप्रेरणाएँ निर्वासित हो जाती हैं। यानी आधुनिक सत्ता राजनीतिक पीठों या लोकतांत्रिक पाये पर टिकी न होकर आज नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के भीतर विन्यस्त है जिसे अभिजन समाज कहते हैं। इस ‘इलिट क्लास’ के पास इतनी अकूत संपत्ति और शक्ति है कि वह बाबा रामदेव को न केवल रंक से राजा बना सकती है; बल्कि उन्हें सवा अरब की भारतीय जनता के सामने ‘इनकाउन्टर’ भी कर सकती है। आज जनता की संख्या शक्ति का पर्याय नहीं है। आज शक्ति सकेन्द्रित है उन कारपोरेट घरानों में जिसके मुरीद हमारे देश के प्रधानमंत्री और उनके ही जैसे पिच्छलग्गू नेता हैं। इस पूरे दहशतअंगेज आवरण को फिराक के शब्दों में कहना यथेष्ट है-‘रुपया राज करें आदमी बन जाए गुलाम/ऐसी तहज़ीब तो तहज़ीब की रूसवाई है।’

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