Wednesday, June 1, 2011
गहरे एकांत में आत्मीय मूरत गढ़ता काव्य-संग्रह ‘सीढ़ियों का दुख’
काव्य-संग्रह ः सीढ़ियों का दुख
कवयित्री ः रश्मिरेखा
प्रकाशक ः प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली-110002
मूल्य ः 150 रुपए
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समय की शिला पर ऐतिहासिक पदचापों का ठीक-ठीक शिनाख़्त कर पाना आसान नहीं है। तब तो और नहीं जब पत्थरों पर अंकित अमूल्य कलाकृतियाँ, प्राचीन मूर्तियाँ, मिट्टी के भाण्ड, ईंट, सिक्के, आभूषण, तरह-तरह के औजार, प्रस्तर खण्ड; हमारे रक्त में घुले एहसास की तरह शब्द पाने को छटपटा रहे हों। और, हम उन्हें सिर्फ खण्डहरों का अवशेष जान अव्यक्त छोड़ दें। कवयित्रि रश्मिरेखा पत्थरों पर अंकित इस अकथ इतिहास को अपनी पहली काव्य-संग्रह ‘सीढ़ियों का दुख’ में न केवल जगह देती हैं; बल्कि उन्हें बड़ी गहराई और सूक्ष्मता से पकड़ती भी हैं। वह इन्हें सहज एवं सार्थक बिम्ब, मिथ और प्रतीक द्वारा शब्दों में ढालती हैं-‘पृथ्वी की कोख़ में पल रही/पूर्वजों की सृजन-स्मृतियाँ/कालातीत कलाकृतियों के नमूने/आत्मा में गहरे उतर आया/उनका आदिम स्पर्श’।(पृ0 71)
इस काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए पाठक कब कविताओं के भीतरी तह में प्रवेश कर जाता है; आभास ही नहीं होता है। मनुष्य के अलावे मनुष्य की जिन्दगी में शामिल घरेलू चीजों को भी इस संग्रह की कविताएँ विशेष स्थान और महत्व देती हैं जिन्हें अक्सर हम नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर उन्हें सिर्फ इस्तेमाल की चीज समझने की भूल कर बैठते हैं। इस संग्रह की ज्यादातर कविताएँ हमारे समय-समाज और जिन्दगी के घरेलूपन से जुड़ी हुई हैं। पढ़ते हुए लगता है मानों रोज की उपयोगी मामूली चीजें हमारे मस्तिष्क में बड़े अर्थ को जन्म दे रही हैं। संग्रह की कविताओं में कवयित्री ने जो अर्थ पिरोए हैं, उसमें सन्नाटे भी बोलते प्रतीत होते हैं। ‘कटोरी’, ‘सीढ़ियाँ’, ‘झोला’, ‘चश्मा’, ‘छत’, ‘चाभी’, ‘नाम की तख़्ती’, ‘आईना’, ‘लालटेन’ और ‘पाँवपोश’ ऐसी ही रोजमर्रा की वस्तुएँ हैं जिन्हें इस संग्रह में एक नया आकार और अर्थबोध दिया गया है। ‘झोला’ शीर्षक कविता में कहा गया है-‘अपनों के लिए कुछ बचाने की खातिर ही/बनी होगी तह-दर-तह/चेहरों पर झुर्रियों की झोली/जिसे बाँट देना चाहता होगा हर शख़्स/जाने से पहले/कि बची रह सके उसकी छाप और परछाई’।(पृ0 17)
पाठक को सर्वाधिक विस्मय तब होता है; जब वे पाते हैं कि ये कविताएँ अपनी लय और त्वरा में ज्यादा मारक और कहनशैली में वस्तुपरक हैं। सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनमें बड़बोलेपन का पुट नहीं है। ‘नाम की तख़्ती’ कविता में यह ठाठ बेजोड़ है-‘अक्सर समय के इतिहास में/बच जाते हैं वे ही नाम/जिनके पास नहीं होती है/अपनी तख़्ती’।(पृ0 36) साहित्यकार केदारनाथ सिंह के शब्दों में वह उतना ही बोलती हैं जितना उन्हें बोलना चाहिए। अँधेरे में रोशनी की सेंध लगाने की बेचैनी और छटपटाहट मुखर अवश्य है; किन्तु कथ्य-सम्प्रेषण के स्तर पर सादगी का निबाह करना कवयित्री की चेतना का अनंत विस्तार है। आज जब सूचनाओं की भरमार है। मनुष्य की कर्मन्द्रियाँ ही नहीं ज्ञानेन्द्रियाँ तक बाज़ार द्वारा चालित हैं। ‘समय’ शीर्षक से लिखी गई कविता मनुष्यता को बेधती है-‘आज जब सूचनाओं को बदला जा रहा है/हमारी स्मृतियों में/शब्दों के घोंसले में दुबक रहे हैं सपने..../वे हैरान-परेशान हैं इस ख़बर से/कि सपने और स्मृतियाँ भी/ख़रीद-फरोख़्त की वस्तुएँ हैं/और जज़्बात बाज़ार की एक पसंदीदा चीज़’।(पृ0 38 )
देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकांता’ की तरह इस काव्य-संग्रह में दुनिया भीतर दुनिया बुनी हुई मालूम देती है जिसमें सिर्फ दुख, जिल्लत, अवहेलना, उपहास, अंतहीन साजिशें, अवसाद और दहशतअंगेज ख़बरों का शोर भर नहीं है; बल्कि इस भीतरी दुनिया में रंगोली, अल्पना, लिपि बनने को आतुर रेखाएँ, शिल्प में ढलने को मचलती आकृतियाँ, स्वर्णाक्षरों में लिखा नाम और ईख की मिठास भी प्रचुर मात्रा में उपस्थित है। इस संग्रह के माध्यम से कवयित्री जिस तरह पाठकों से रू-ब-रू हैं, उसमें सीढ़ियों का गढ़ा हुआ नहीं अपितु सहा हुआ दुख अधिक जान पड़ता है-‘सीढ़ियों से उतरते हुए/हमने कब जाना/कि सीढ़ियों पर चढ़ने से/कहीं ज़्यादा मुश्किल था/ख़ुद को सीढ़ियों में तब्दील होते देखना.../सीढ़ियों पर चढ़ते/सीढ़ियों पर उतरते/हम कहाँ समझ पाते हैं/सीढ़ियों का दुख’।(पृ0 12)
संग्रह की कविताओं में कवयित्री का आत्मद्रोह झलकता है। सामाजिक विडम्बना और रवायतों से उपजी मानसिक पीड़ा, क्षोभ और संत्रास को वह जिस पैनेपन के साथ उकेरती हैं, उसे ढाँक-तोप कर रखना मुश्किल है-‘अपने अनंत सपनों से दूर भागती/अवहेलना के संगीत सुनती/उपहास के कई दृश्यों में शामिल/कोकिल आत्मा अनुभव करती है/उसका तो कोई समाज नहीं है’।(पृ0 21) परिवार के साथ आदिम परछाई की तरह जुड़ी लड़कियों के लिए समाज आज भी निष्ठुर एवं अमानवीय है। कविता ‘नहीं आना इस धरती पर’ में कम शब्दों में जितना असरदार कहा गया है, वह काबिलेगौर है-‘मेरी बेटी!/नहीं आना इस धरती पर/कि यहाँ नहीं बनी अभी/कोई जगह तुम्हारे लिए’। पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों के बसावट का भले ही कोई ठौर कवयित्री को न दिखता हो; लेकिन वह इसी संग्रह की एक कविता में पुरुष समाज को आईना भी दिखाती हैं-‘पेड़ों की हरियाली-सी होती हैं लड़कियाँ/दुनिया के सारे नीड़/बनती हैं उन्हीं की टहनियों पर’।
अपने दौर की असामान्य प्रवृत्तियों में लिथड़ा मनुष्य आभासी दुनिया के बाहर संज्ञाशून्य दिखाई दे रहा है। सहेज कर रखी गईं चीजें छूट रही है। आज जिनसे जुड़ने का सुख उसे प्राप्त है, कल की तारीख में वे ‘निकाल-बाहर’ की चीज बन जा रही हैं। ऐसे में यह पंक्ति सटीक हैं-‘जानती हँू रूकेगा नहीं जान लेने का सफर/एक को याद करने की कोशिश में कई को भूल जाने का/अवसाद’।(पृ0 104) कवयित्री अपने पिता से गहरे तक संपृक्त हैं। एक जगह अर्जित संस्कारों से प्राप्त उसूलों को टटोलती हुई वह अपने पिता से पूछती हैं-‘पर पापा तुमने नहीं सिखाए थे/पीछे से होते हमलों के जवाब/आत्मा को गिरवी रखना/दूसरों को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल/फिर ज़िन्दगी के मोर्चे पर हारते/कैसे हो पाते विजयी हम?’(पृ0 96)। उधेड़बुन भरी भागमभाग की जिन्दगी की ‘रेस’ में माँ से मिले जीवन-संघर्ष की प्रेरणा भी अनिवार्य संबल देती है। वह दृढ़ भाव से कहती हैं-‘आधी-अधूरी बनी रहकर भी माँ/इंगित करती रही दिशाओं की ओर/सिखाती रही जूझना’।(पृ0 98)
इस काव्य-संग्रह में कहीं-कहीं निराशा के कणों से उपजी पीड़ा के आहत स्वर भी सुनाई देते हैं-‘वर्त्तमान की सारी आस्थाएँ/शीशे की तरह चिटकती हैं ख़ामोश/सुरक्षा के नाम पर/साज़िशे अंतहीन’।(पृ0 88), तो कहीं उम्मीद का उजास भी पूरे ठाठ के साथ बिखरा है-‘कटोरियों की हिकमत में/शामिल है जीने की जिद/तमाम जिल्लतों के बीच भी/वे बना लेती हैं अपनी जगह’।(पृ0 14) आडम्बरपूर्ण दिखावा जिन्दगी में जिस छल और छद्म को जन्म दे रही हैं और जो साफ पकड़ में आ जाने वाली भी हैं; उसकी ओर कवयित्री संकेत करती हैं-‘इन दिनों रोशनी के आतंक में/अक्सर तिरोहित हो जाती है/शब्दों की रोशनी/जिसे हम साफ़-साफ़ देखते हैं’।(पृ0 22)
कई जगह ऐसे हैं जहाँ आत्मीयता की गूँज और धमक स्पष्ट सुने जा सकते हैं। अपने प्रिय की अमिट निशानी पास सुरक्षित होने का भाव अंतस को कैसे दीप्त करता है? उसकी बानगी ‘स्वर्णाक्षर’ शीर्षक कविता में मिलती है-‘मेरी किताब पर/तुम्हारी लिखावट में लिखा मेरा नाम/अभी भी मेरे पास जगमगा रहा है/स्वर्णाक्षरों में लिखा नाम/क्या ऐसा ही होता है?’।(पृ0 24) कवयित्री की इस आतुर जिज्ञासा में जो भाव सन्निहित है, उसकी अभिव्यक्ति अद्भुत है। संतान-संतति की सुरक्षा को ले कर माँ का ममत्व संशयग्रस्त है। वर्तमान समय की चालाकियों और जटिल सामाजिक-गुत्थियों के बीच यह भय वाज़िब भी लगता है-‘इधर मैं सोच रही हँू/मेरे डैनों के बाहर ये जब जायेंगे/इनके लिए दुनिया क्या ऐसी ही रहेगी?’।(पृ0 100) इस काव्य-संग्रह से संतप्त-अभिशप्त जीवन-प्रसंगों का कटु यथार्थ प्रकट होता है। कविता मनुष्य के मनोजगत में विचरण करती हुई देश-काल और परिवेश से टकराती हैं। कहीं-कहीं इतिहास को टटोलती और पूर्वजों के द्वारा सौंपी गई जीवन-संपदा को बचाने के लिए लड़ती-भिड़ती भी दिखाई पड़ती हैं। कविताओं में अभिव्यक्ति का आत्मवृत प्रक्षालित है-‘बीते वक्त की कतरनें/बन रही थीं गीली आकृतियाँ/पानी के कैनवास पर/नींद आराम से सो रही थी शोर के बीच/और मैं जाग रही थी सन्नाटे में भी चुपचाप’।(पृ0 80)
दरअसल, इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ गहरे एकांत में आत्मीय मूरत गढ़ता हुआ शब्दलोक रचते हैं। बेहतर कल की आश्वस्ति देती इन कविताओं को पढ़ना संवेदना और भावनाओं के नए लोक से गुजरना है-‘रात के आईने पर कितना भी गहरा पुता हो स्याह रंग/गौर से देखो तो उसमें/दिखाई पड़ेगा सुबह का चेहरा’। इसी तरह राजनीतिक नकाब पहन नैतिक-प्रपंच करते राजनीतिज्ञों से खिन्न कविता में आम-आदमी की कसमसाहट दिखाई दे जाती है-‘इस तिरंगे आकाश के नीचे/दूरंगी होती देश की अधिकांश राजनीति के बीच/मुझे कब तक झेलनी है/उनके अपराधों की बनती/लंबी फेहरिस्त’।(पृ0 72) अपनी पूरी विचित्रता के साथ नमूदार शोषक-समाज की वास्तविक सच्चाई क्या है? इसको चिह्नित करते हुए कहा गया है-‘शोषितों को सीढ़ियाँ बना/शीर्ष चढ़े लोगों ने/आसमानी सितारों में बना ली/अपनी दुनिया/लेकिन अँजुरी भर जल ही तो/पूरा समंदर नहीं होता’।(पृ0 106) मौन के घने होते मेघ के बीच जहाँ आमूल बदलाव की आस क्षीण हो चली है; कवयित्री का यह कहना पाठक के अर्न्तमन को झिंझोड़ देता है-‘लगातार दिखाए जाते हुए/सुखद आश्वासनों के दृश्य/शब्दों की मूसलाधार वर्षा/और एलोरा की गुफाओं-सी लम्बी हमारी चुप्पी/तुम्हें कहीं से आश्वस्त करती हैं/कि हमारी परिभाषा बदल रही हैं’।(पृ0 93)
आज जब नितांत निजी पलों में भी एकांत ढूंढ पाना मुश्किल है। चीजें वैयक्तिक रिश्तों का अतिक्रमण करती दिख रही है। ‘छत’ कविता के इन पंक्तियों का कैनवास व्यापक है-‘आज कितना मुश्किल होता जा रहा है/इतने बड़े भूमंडल पर/बचाए रखना एक कोना/जहाँ सिर पर अपनी छत हो और/उस छत से उड़ान के लिए एक आसमान’।(पृ0 43) एक ही ढर्रे पर रोज होने वाली क्रियाकलापों में भी कवयित्री को ढेरों बदलाव दिख रहे हैं, वह कहती हैं-‘मौत भी अब कहाँ रही पहले वाली मौत/सुबह भी अब नहीं रही पहले वाली सुबह’।(पृ0 43)
प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित इस कविता-संग्रह का आवरण-चित्र खूबसूरत है। परोक्ष भाव-बिम्ब से आच्छादित इस आवरण-चित्र में जीवन की निरन्तरता और उथल-पुथल के बीच मनुष्य के राग-बीज छुपे हैं-‘तुम्हारे स्नेह की रोशनाई ने/भर दिए मेरी कलम में अशेष शब्द/जिसे तुम्हीं ने दिया था कभी/बनाए रखने को वजूद’।(पृ0 102) अलक्षित निर्वासन का शिकार मनुष्य अपने ही घर में मानों कैद है। चीजों की मौजूदगी उपयोगी और अनुपयोगी की कसौटी पर कसे जा चुके हैं। प्रकृति से दुराव या फिर परिस्थितियों की वजह से किनारा सहृदय आत्मा में बेचैन हूक पैदा करने वाली हैं। संग्रह की कविता ‘यूज एण्ड थ्रो’ शीर्षक में इस अंदरुनी कसक को सहज ही रोपा गया है-‘नदियों, पक्षियों और हवाओं का शोर/क्यों सुनाई नहीं पड़ता/क्यों हर तरफ दहशतअंगेज ख़बरों का शोर है।’(पृ0 112)
काव्य-संग्रह ‘सीढ़ियों का दुख’ केवल स्त्रीसुलभ गहरे विषाद का सृजन मात्र नहीं है। कुल 56 पंखुड़ियों से लैस कविताओं की गुलदान गहरे एकांत में बहुत आत्मीय बात करती मालूम देती हैं। ये सहृदय पाठकों को दस्तक देकर आमंत्रित करती हैं। साथ ही अपने शब्दों के साथ एक सुदूर लम्बी यात्रा के लिए भी तैयार करती हैं। प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में उम्मीद की जानी चाहिए कि काव्य-संग्रह अपने संबोध्य पाठक तक पहुँचेगा और अपनी सादगी के लिए सराहा भी जाएगा।
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संपर्कः निराला निकेतन के पीछे, झुनी साह लेन,
रामबाग रोड, मुजफ्फरपुर-842001. बिहार
मोबाइल- 09430051824
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