Tuesday, May 31, 2011

गहरे एकांत में आत्मीय मूरत गढ़ता काव्य-संग्रह ‘सीढ़ियों का दुख’



काव्य-संग्रह ः सीढ़ियों का दुख
कवयित्री ः रश्मिरेखा
प्रकाशक ः प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली-110002
मूल्य ः 150 रुपए

.................................................................

चुनिन्दा कविताओं के उद्धरित अंश :


कटोरियों की हिकमत में
शामिल है जीने की जिद
त्माम जिल्लतों के बीच भी
वे बना लेती हैं अपनी जगह। (कटोरी/पृ0 14)


शब्दों की दुनिया से मुलाकात
कितना मुश्किल है किसी खास चश्मंे से
चीजों को पहचानने की आदत डालना
भले ही यह चश्मा अपना हो
या कभी मुमकिन है
अपनी नज़र को अपने ही चश्में से देखना। (चश्मा/पृ0 16)


अपनों के लिए कुछ बचाने की खातिर ही
बनी होगी तह-दर-तह
चेहरों पर झुर्रियों की झोली
जिसे बाँट देना चाहता होगा हर शख़्स
जाने से पहले
कि बची रह सके उसकी छाप और परछाई। (झोला/पृ0 17)


अपने अनंत सपनों से दूर भागती
अवहेलना के संगीत सुनती
उपहास के कई दृश्यों में शामिल
कोकिल आत्मा अनुभव करती है
उसका तो कोई समाज नहीं है। (काली लड़की/पृ0 21)


इन दिनों रोशनी के आतंक में
अक्सर तिरोहित हो जाती है
शब्दों की रोशनी
जिसे हम साफ़-साफ़ देखते हैं। (लालटेन/पृ0 22)


मेरी किताब पर
तुम्हारी लिखावट में लिखा मेरा नाम
अभी भी मेरे पास जगमगा रहा है
स्वर्णाक्षरों में लिखा नाम
क्या ऐसा ही होता है? (स्वर्णाक्षर/पृ0 24)


कई-कई मजबूत गाँठों और कड़े छिलकों से बनी
अपनी ज़मीन पर सीधा तना ईख
कैसे खींचता होगा धरती से
इतनी सख़्ती इतनी मिठास एक साथ। (ईख/पृ0 30)


चमकती दाँतों की प्रदर्शनी के इस दौर में
मेरी मुसकान पूस महीने की ओस की तरह
मेरी आँखों में रहती है मोनालिज़ा की तस्वीर। (तुम/पृ0 31)


अक्सर समय के इतिहास में
बच जाते हैं वे ही नाम
जिनके पास नहीं होती है
अपनी तख़्ती। (नाम की तख़्ती...पृ0 36)


आज जब सूचनाओं को बदला जा रहा है
हमारी स्मृतियों में
शब्दों के घोंसले में दुबक रहे हैं सपने....
वे हैरान-परेशान हैं इस ख़बर से
कि सपने और स्मृतियाँ भी
ख़रीद-फरोख़्त की वस्तुएँ हैं
और जज़्बात बाज़ार की एक पसंदीदा चीज़। (समय/पृ0 38)


आज कितना मुश्किल होता जा रहा है
इतने बड़े भूमंडल पर
बचाए रखना एक कोना
जहाँ सिर पर अपनी छत हो और
उस छत से उड़ान के लिए एक आसमान। (छत/पृ0 43)


मौत भी अब कहाँ रही पहले वाली मौत
सुबह भी अब नहीं रही पहले वाली सुबह। (हालात/पृ0 52)


रात के आईने पर कितना भी गहरा पुता हो स्याह रंग
गौर से देखो तो उसमें
दिखाई पड़ेगा सुबह का चेहरा। (आईना/पृ0 54)


बाँधते हुए हवाई पुल
पहरुए फ़तह करते रहे हैं हवाई किले। (पहरुए/पृ0...58)


पृथ्वी की कोख़ में पल रही
पूर्वजों की सृजन-स्मृतियाँ
कालातीत कलाकृतियों के नमूने
आसमा में गहरे उतर आया
उनका आदिम स्पर्श। (पत्थरों पर अंकित था इतिहास/पृ0 71)


इस तिरंगे आकाश के नीचे
दूरंगी होती देश की अधिकांश राजनीति के बीच
मुझे कब तक झेलनी है
उनके अपराधों की बनती
लंबी फेहरिस्त। (कब तक/पृ0 72)


बीते वक्त की कतरनें
बन रही थीं गीली आकृतियाँ
पानी के कैनवास पर
नींद आराम से सो रही थी शोर के बीच
और मैं जाग रही थी सन्नाटे में भी चुपचाप। (पानी का कैनवास/पृ0 80)


पेड़ों की हरियाली-सी होती हैं लड़कियाँ
दुनिया के सारे नीड़
बनती हैं उन्हीं की टहनियों पर। (पेड़ों की हरियाली/पृ0 84)


वर्त्तमान की सारी आस्थाएँ
शीशे की तरह चिटकती हैं ख़ामोश
सुरक्षा के नाम पर
साज़िशे अंतहीन। (आखि़री नक्शा/पृ0 88)


मेरी बेटी!
नहीं आना इस धरती पर
कि यहाँ नहीं बनी अभी
कोई जगह तुम्हारे लिए। (नहीं आना इस धरती पर/पृ0 90)


लगातार दिखाए जाते हुए
सुखद आश्वासनों के दृश्य
शब्दों की मूसलाधार वर्षा
और एलोरा की गुफाओं-सी लम्बी हमारी चुप्पी
तुम्हें कहीं से आश्वस्त करती हैं
कि हमारी परिभाषा बदल रही हैं। (उस सुबह के लिए/पृ0 93)


पर पापा तुमने नहीं सिखाए थे
पीछे से होते हमलों के जवाब
आत्मा को गिरवी रखना
दूसरों को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल
फिर ज़िन्दगी के मोर्चे पर हारते
कैसे हो पाते विजयी हम। (पिता/पृ0 96)


आधी-अधूरी बनी रहकर भी माँ
इंगित करती रही दिशाओं की ओर
सिखाती रही जूझना। (माँ/पृ0 98)


इधर मैं सोच रही हँू
मेरे डैनों के बाहर ये जब जायेंगे
इनके लिए दुनिया क्या ऐसी ही रहेगी। (बच्चों की दुनिया/पृ0 100)


तुम्हारे स्नेह की रोशनाई ने
भर दिए मेरी कलम में अशेष शब्द
जिसे तुम्हीं ने दिया था कभी
बनाए रखने को वजूद। (राग-बीज/पृ0 102)


जानती हँू रूकेगा नहीं जान लेने का सफर
एक को याद करने की कोशिश में कई को भूल जाने का
अवसाद। (जान लेने का सफर/पृ0 104)


शोषितों को सीढ़ियाँ बना
शीर्ष चढ़े लोगों ने
आसमानी सितारों में बना ली
अपनी दुनिया
लेकिन अँजुरी भर जल ही तो
पूरा समंदर नहीं होता। (इतनी उदास क्यों हो?/पृ0 106)


तमाम सुरक्षा कवचों के बीच
सिंहासन से शहीदी मुद्रा से
लगातार प्रवाहित हो रहा है प्रवचन। (युद्ध के समय/पृ0 110)



क्या सही है, क्या ग़लत
सबकुछ तय नहीं किया जा सकता
युद्ध के समय
जरूरी नहीं चीजें वहीं हो
जहाँ चाहते हैं हम इन्हें रखना। (युद्ध के समय/पृ0 110)


नदियों, पक्षियों और हवाओं का शोर
क्यों सुनाई नहीं पड़ता
क्यों हर तरफ दहशतअंगेज ख़बरों का शोर है। (यूज एण्ड थ्रो/पृ0 112)

--------------------------------
संपर्कः निराला निकेतन के पीछे, झुनी साह लेन,
रामबाग रोड, मुजफ्फरपुर-842001. बिहार
मोबाइल- 09430051824

(कविता-संकलन ‘सीढ़ियों का दुख’ की समीक्षा जल्द ही ब्लॉग ‘इस बार’ में प्रकाश्य-राजीव रंजन प्रसाद)

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...