Tuesday, May 10, 2011
असीमा
अइसन पोस्ट लिख दिहलू तू कि मन कुछ सोचे पर विवश हो गइल. हमनि के केतना आपन-आपन रटिलाऽजा. लेकिन दीदी हो तोहार बाबूजी त आपन स्वार्थ के उतारि के आपन जिन्दगी देस खातिर लगा दिहले, तोहनियो जानि आपन पापा के प्यार पाव खातिर तरस गइलूजा. खैर, हमहू खालि दिलासा देवे के और का कहि सकिला.
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!
--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...
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यह आलेख अपने उन विद्यार्थियों के लिए प्रस्तुत है जिन्हें हम किसी विषय, काल अथवा सन्दर्भ विशेष के बारे में पढ़ना, लिखना एवं गंभीरतापूर्वक स...
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तोड़ती पत्थर ------------- वह तोड़ती पत्थर; देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्थर कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तल...
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-------------------------- (घर से आज ही लौटा, अंजुरी भर कविताओं के साथ जो मेरी मम्मी देव-दीप को रोज सुनाती है। ये दोनों भी मगन होकर सुनते ...
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