Saturday, May 7, 2011

पेशा नहीं ‘पैशन’ है पत्रकारिता

समयबद्ध तत्परता एवं सक्रियता पत्रकारिता के बीजगुण हैं. एक पत्रकार की स्थिति उस दोलक की तरह होती है जो तयशुदा अंतराल के बीच हर समय गतिशील रहता है. पत्रकार होने की पहली शर्त है कि आलसपन या सुस्ती से वह कोसो दूर रहे. उसकी निगाह ‘शार्पसूटर’ की भाँति मंजी हुई या पैनी होनी चाहिए. किसी घटना या घटनाक्रम को एक अच्छी ख़बर के रूप मंे ढाल लेने की काबीलियत होना एक दक्ष पत्रकार की प्राथमिक योग्यता है. पत्रकारीय पेशे में ‘न्यूज़ सेंस’ को छठी इन्द्रिय का जाग्रत होना कहा गया है. समाचार-कक्ष में ख़बरों की आवाजाही हमेशा लगी रहती है. किसी ने ठीक ही कहा है कि जब सारी दुनिया सो रही होती है, तो समाचार-कक्ष में दुनिया भर के मसले जाग रहे होते हैं. यहाँ प्रत्येक ख़बर समय की खूंटी से बंधी हुई होती हैं. क्योंकि एक निर्धारित सीमा-रेखा(डेडलाइन) के बाद प्राप्त ख़बरें कटी-पतंग की तरह हवा में हिचकोलें खाती रह जाती हैं. चाहे वे कितनी भी महत्त्वपूर्ण, अप्रत्याशित, नवीन या बहुसंख्यक पाठकों की लोक-अभिरुचि की क्यों न हांे? उन्हें अंततः ‘छपते-छपते’ काॅलम के अन्तर्गत ही संतोष करना पड़ता है या फिर अगले दिन की ‘प्रतीक्षा-सूची’ में जगह पाने के लिए होड़ करना होता है.

पत्रकारिता में समय का मोल अनमोल होता है. लेकिन जल्दबाजी या लापरवाहीवश समाचारपत्र कंकड़-पत्थर कुछ भी निगल ले, ऐसा मुमकिन नहीं. एक जिम्मेदार पत्रकार की जवाबदेही बनती है कि वह सजग प्रहरी की तरह ख़बर के हर एक तह की पड़ताल करे. कथ्य और कथनशैली को बारीकी से जाँचे; तत्पश्चात अपने समाचारपत्र में यथास्थान रखने की चेष्टा करे. पत्रकार की सुचिंतित चेष्टाएँ ही पत्र की विश्वसनीयता का असली मानक होती हैं. सामान्य पाठक किसी ख़बर को पढ़ते हुए इस बात के लिए आश्वस्त रहता है कि वह जो ख़बर पढ़ रहा है; वह समुचित छानबीन और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के पश्चात ही उस तक पहुँचाई गई है. समाचार की अन्तर्वस्तु तथ्यपरक और भाषिक-प्रस्तुति का सुगठित होना पाठकीय ग्रहणशीलता और पाठकीय-प्रत्यक्षीकरण का वास्तविक मानदण्ड है.

आजकल पत्रकारिता में अवतरित नए महर्षि-संपादक ‘क्लोन थाॅट’ के मार्फत समाचारपत्र के उच्चस्थ पदों पर आसीन हैं. उनके लिए पत्रकार ‘कन्टेन्ट राइटर’ की भूमिका में है, तो समाचरपत्र जनपक्षरधर विचारों का निर्माता न होकर पूँजीधारक विज्ञापनदाताओं का ‘बीमाकार्ड’ बन चुका है. प्रबन्ध-संपादक की हैसियत से पत्रकारिता में इनकी धौंस भले ज्यादा हो, किंतु बहुसंख्यक लोगों में प्रभाव नगण्य है. निर्विवाद रूप से ऐसे पत्रनायकों के नाम समाचारपत्र में छपते रोज हैं. लेकिन सुबुद्ध जनता आज भी जिन चंद पत्रकारों के नाम जानती है, उसमें इनका नाम उँगली के कीसी भी छोर पर आसीन नहीं है. आज भी भारतीयों के जेहन में भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, गाँधी युग के पत्रकार ही रचते-बसते हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत में जिन पत्रकारों को समाज ने सर्वाधिक महत्व दिया, उनमें कुछेक लोगों के नाम ही जिह्वाबद्ध है.

क्या कभी आपने जानने की कोशिश की है कि लोग कुछेक पत्रकारों को ही असली पत्रकार क्यों मानते हैं? क्यों उन्हें आदर्श पत्रकारिता का अगुवा समझते हैं? भारतीय समाज उन पत्रकारों के समक्ष आज भी क्यों ऋणी और नतमस्तक है जिन्होंने अपना सबकुछ होम कर दिया. अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया. जिन्दगी के कठिनतम दौर में भी जनपक्षधर एवं मूल्यगत पत्रकारिता की रवायत और रस्म पूरी की; लेकिन भटकाव के किसी गुणसूत्र को अपने भीतर नहीं पनपने दिया. इन जीवट पत्रकारों का नाम लेते हुए आज भी हमारा समाज खुद को कितना गौरवान्वित महसूस करता है? यह जानने के लिए हमें पुरानी पीढ़ी से अवश्य बातचीत करनी चाहिए.

मैं जहाँ तक समझ पाता हँू, उनके लिए पत्रकारिता भूख थी, पीड़ा थी, दुःख और संत्रास थी. वे इससे निपटने के लिए कलम को फावड़ा की तरह इस्तेमाल कर रहे थे. हसुआ और खुरपी की तरह सामाजिक विडम्बनाओं पर प्रहार कर रहे थे. सामाजिक कुरीतियों और सत्ता-प्रतिष्ठानों की राजनीतिक चालों पर धावा बोल रहे थे. हर किस्म के षड़यंत्र में सेंध लगाना उनका एकमात्र मकसद था. सबसे बड़ी बात यह थे कि वे उन्मुक्त थे, इसलिए अपने कर्म और कर्तव्य के प्रति जवाबदेह अधिक थे. उन्हें पता था कि जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालना ही श्रेयस्कर है. व्यापक जनसमूह को अपनी आवाज़ में वैचारिक चेतना भरकर ही जगाया जा सकता है.

ये पत्रकार दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय की तरह ‘धन्य’ भले न घोषित किए गए हों, किंतु वे सिर्फ हाड़-मांस का इंसान भर नहीं थे. वे देवता भले न हों, किंतु राक्षसी गुण भी उनमें नहीं विद्यमान था. उनकी असली ताकत कलम की प्राणवत्ता थी जिसका जगना मुल्क के जगने से एकदम भिन्न था. इसीलिए मैं मानता हँू कि पत्रकारिता पेशा न हो कर ‘पैशन’ थी उनके लिए. वे कलम-योद्धा थे, संस्थागत चाटुकार नहीं. पत्रकारिता के दीप से भविष्य की डगर पर रोशनी करने वाले इन पत्रकारों से हम सीख लें या न लें. आने वाली पीढ़ी जब सत्य की खोज में भारत-यात्रा पर निकलेगी, तो इन्हीं पत्रकारों की डगर से अतीत की सभ्यता-संस्कृति में प्रवेश संभव हो सकेगा.

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...