Sunday, May 1, 2011

जनता जागे, तो विमुक्त समाज की मुक्ति संभव



दैनिक समाचारपत्र जनसत्ता के रविवारी परिशिष्ट(1 मई,
2011) में पंकज रामेन्दु की आवरण कथा ‘अपने ही मुल्क में बेगाने’ पढ़ते
हुए मन कितनी बार हँसा, थाह नहीं? यह हँसी अपनेआप पर थी जो आँखों में
‘विजन 2020’ का नक्शा लिए घूम रहे हैं। हम देश की बढ़ती आर्थिक ‘ग्रोथ
रेट’ पर अपनी काॅलर सीधी कर रहे हैं या फिर खुद से अपनी पीठ थपथपाने की
फिराक में हैं। हम यह मान चुके हैं कि नई सहस्त्राब्दी में तेजी से उभरता
भारत नित आगे बढ़ रहा है। बहुत-कुछ ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए
जा’ जैसी तर्ज़ पर। ऐसे उल्लासित समय में पत्रकार पंकज की सचबयानी रूलाती
नहीं है, हँसने के लिए ‘स्पेस’ देती है। उन्होंने जिस विमुक्त समुदाय की
जीवनचर्या को उघाड़कर हमारे सामने रखा है, उसे पढ़ते हुए एकबारगी
अन्धेरों से घिर जाने का बोध होता है। विमुक्त जाति के लोगों में धन-वैभव
की इच्छा कम अपने जांगर से पैदा की गई करतब और कला को जिंदा रखने की जिद
अधिक है।

उन्हें पारम्परिक ढर्रे पर जरायम जाति से सम्बोधित किया जाना
एक किस्म की ज्यादती है जिसे मीडिया धड़ल्ले से आजमा भर नहीं रही है,
बल्कि इस समाज की आन्तरिक बसावट को झुठलाते हुए इनके छवि का
अपराधीकरण भी कर रही है। लेख में वर्णित सांसद स्टीफन का यह तर्क कि
‘चोर का बेटा चोर होगा’ प्रथम द्रष्टया भले हास्यास्पद लगे, लेकिन आज भी
भारतीय समाज इसी फलसफे को ढो रहा है। प्रगतिशील विचारों की आमद बढ़ने
के बावजूद जातिगत अवधारणा आज भी मनुष्यों के सामाजिक-मूल्य का पहला
निर्धारक है। लिहाजा,इस प्रथा ने उन समुदायों को सर्वाधिक उत्पीडि़त और
उपेक्षित किया है जो बंजारा, घुमन्तु, खानाबदोश हैं। अपनी तादाद में बहुतायत
इस असंगठित समुदाय कि सबसे बड़ी विड़बना यह है कि वे अपना घर कंधे
पर लेकर चलते हैं। स्थायी बन्दोबस्ती के अभाव में उनका ठौर-ठिकाना
पूरे देशभर में पसरा हुआ है।

जिन ‘कलन्दरों’ के करतब देखकर मुझ जैसे तमाशाई मजे लूटते हैं,
ऐसे बेघर विमुक्त समाज की भीतरी सचाईयों को जानने-समझने की कोशिश
शायद! ही की जाती है। मुर्गा-मस्सलम की जगह मुर्गों की आँत, गर्दन और पंजे
नोचते इस बेसहारा एवं अभावग्रस्त समुदाय के लिए हमारी अनिच्छा और
उपेक्षाभाव इस बात की तसदीक है कि समाज से संवेदनाएँ लुप्त हो रहीं हैं
और मानुषिक बेचैनी गायब। ऐसे में पत्रकार पंकज की आवरण कथा जिन बातों को
उद्घाटन करती हैं वे कोई तिलिस्म या रहस्य नहीं है। यह समाज के भीतर
जीवित एक ऐसा सच है जिससे साबका सभी का पड़ता है पर चेहरा कोई नहीं पढ़ता।

आज यह समुदाय 20-50 की दैनिक रुपली पर गुजर-बसर कर लेने
को अभिशप्त बना हुआ है। जनगणना और पहचान-पत्र जैसे नागरिक अधिकार
से वंचित इन खानाबदोश लोगों के लिए संसदीय सरकार द्वारा कुछ नहीं किया
जाना तंत्र की मंशा और विभिन्न पार्टियों की असलियत का खुलासा करती है।
करीब 15 करोड़ की तादाद में पूरे देश में फैले विमुक्त समाज के लिए अभी
तक कुछ न किया जाना, बेहद चिंतनीय और शर्मनाक ही कहा जा सकता है।
सामाजिक उत्पीड़न और जातिगत उपेक्षा की मार से त्रस्त्र इस घुमन्तु समुदाय
के लिए सरकार को तत्काल सोचने की जरूरत है। उनके हितरक्षा के लिए जबतक
कोई सार्थक कदम नहीं उठाए जाते इनके परिवार के लिए आजिवीका का संकट
सदैव बना रहेगा।

अपनी पहचान से महरूम और अजनबी इस विमुक्त समाज की खातिर
सामाजिक संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। जागरूक नागरिक-समाज की
ओर से इनकीबेहतरी की दिशा में ठोस उपाय किए जाना बेहतर कल की प्रत्याशा में
निर्णायक कदम होगा। यानी विमुक्त समाज की मुक्ति तभी संभव है जब जनता
जागेगी और उसकी निगाह में इस समाज की बेहतरी का संकल्प जन-जन में अंकुरित
होगा।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...