राजीव रंजन प्रसाद
समकालीन भारतीय राजनीति में ‘युवा राजनीतिज्ञ’ शब्द राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें संचार-सम्बन्धी सक्रियता सबसे प्रबल मानी गई है। सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से ‘युवा राजनीतिज्ञ’ का सफल या असफल होना कुछ निश्चित कारकों पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ-व्यक्ति विशेष के आचरण और व्यवहार मंे प्रदर्शित मूल-प्रवृत्तियाँ, व्यक्तित्व, भाषिक व्यवहार, संज्ञानात्मक प्रत्यक्षीकरण एवं बोध, शैक्षिक-पृष्ठभूमि, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, देश-काल-परिवेश से जुड़ाव, राजनीतिक परम्परा, विरासत से अंतःसम्बन्ध आदि-आदि। इस नाते किसी युवा राजनीतिज्ञ के व्यक्तित्व या आचरण-व्यवहार में प्रदर्शित अभिरुचि, अभिव्यक्ति के स्तर, ग्रहणशीलता के गुण और अनुभूति-संवेग संबंधी सभी प्रत्ययमूलक क्रियाएं उसके मन-मस्तिष्क की आवश्यक परिघटना मानी जाती हैं, जो संचार-संपादन के लिए अनिवार्य हैं।
संचार मनुष्य की प्राथमिक एवं अनिवार्य आवश्यकता है। संचार के माध्यम से मनुष्य अपने सामाजिक सम्बन्धों का न केवल निर्माण करता है, अपितु अपने व्यक्तित्व और सहसम्बन्धों का भी विस्तार करता है। विशेषकर राजनीति में संचार और संचारक का स्थान अन्यतम है क्योंकि संवादहीनता की स्थिति एकीकृत राष्ट्र, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संगठन, संस्थागत व्यवस्था, सुदृढ़ सामाजिक समूह आदि महत्त्वपूर्ण सत्ता-इकाइयों तक को छिन्न-भिन्न कर सकती है। अतः नेतृत्व की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व अगर प्रधान माना जाता है तो सिर्फ इसी कारण कि प्रभावी व्यक्तित्व सम्प्रेषण-कौशल के महत्त्व को समझता है जिसके कारण संवादहीनता की स्थिति ही नहीं उपजती। किसी भी नेतृत्व को सही दिशा-दृष्टि दे पाना तब तक संभव नहीं है जब तक उसमें सक्रियता और गतिशीलता का ओज और प्रभाव न हो। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ‘अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण’ जैसी विज्ञापन-पंक्ति गढ़ना इसी संवादहीनता को ख़त्म करने की कवायद है ताकि वह अपने मतदाताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को पार्टी के गौरवशाली इतिहास और विरासत से परिचित करा सके; साथ ही उन्हें मनोनुकूल दिशा में प्रेरित भी कर सके।
विदित है कि संचार का केन्द्रीय तत्त्व सूचना है जो शक्ति का अक्षय स्रोत और भाषा का गत्यात्मक पहलू है। भाषा वह जरूरी साधन है, जिसके द्वारा मानव-समुदाय परस्पर विचार-विनिमय करता है। यह कुछ निश्चित प्रारूपों, कुछ निश्चित नियमों और परंपराओं के माध्यम से हस्तांतरित होने वाली प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में प्रयुक्त भाषा के मनोविज्ञान को समझना जितना जरूरी है, उतना ही समाज-भाषा के विविध आयामों को भी। साथ ही, भाषिक मनोविज्ञान अर्थात मनोभाषिकी को संचार-दृष्टि से जोड़ा जाना क्योंकर महत्वपूर्ण है, प्राचीन भारतीय वैयाकरणों और आधुनिक भाषाविदों के भाषा सम्बन्धी चिन्तन का आधुनिक संदर्भ क्या है, यह जानना भी दिलचस्प है।
प्रथमतः मनुष्य का सीधा सामना दूसरे व्यक्ति के बाह्य रूप से होता है। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति को जानना-समझना संचार का प्रत्यक्षपरक पहलू है जिसे व्यक्ति के मनोभाषिक पक्ष के माध्यम से जाना-समझा जा सकता है। मनोभाषिक पक्ष के अध्ययन से तात्पर्य विश्लेषण-प्रक्रिया के उस संदर्भ से है कि संचार अथवा संवाद के समय अमुक व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में क्या-क्या घटित होता है? भाषिक-स्तरण की भूमिका कैसी है जो मूलतः लिंग, वयस्, वर्ग, जाति, विषय एवं प्रयोजन पर आधारित होती हैं? भाषिक विविधता और उसके प्रभावशीलता को कूट अन्तरण, कूट मिश्रण आदि के आधार पर किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है; यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है? भाषा के परोक्ष सहयोगी के रूप में अवाचिक क्रियाएँ किस हद तक और किन कारणों से महत्वपूर्ण हैं; इसकी खोजबिन भी आवश्यक है? इतना ही नहीं, समाज भाषाविज्ञान और मनोभाषाविज्ञान के लिए आज दो प्रश्न विशेष महत्त्व के हैं कि भाषा के माध्यम से हम अपने भिन्न-भिन्न व्यवहारों को साधते कैसे हैं और एक खास तरह से साधते हैं, तो क्यों? यदि इसे युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के संदर्भ में केन्द्रित कर कहा जाए तो यह आकलन नितान्त संभव है कि राहुल गांधी, वरुण गांधी क्यों नहीं हैं और वरुण गांधी अखिलेश यादव क्यों नहीं?
सबसे अहम बात यह है कि भारत की वर्तमान जनतांत्रिक संसदीय प्रणालीजन्य राजनीति यदि जनआंदोलन, जनसरोकार, जनचेतना और जनकल्याण जैसे पारंपरिक मुद्दों से पलायन कर चुकी है, तो इसकी एक मुख्य वजह राजनीतिक युवा नेतृत्व का निष्क्रिय और निष्प्राण होना भी है। भारत में 55 प्रतिशत आबादी युवा-वर्ग की है। फिर भी, लोकतांत्रिक प्रणाली भ्रष्ट और पतनशील है। यह स्थिति इस बात का द्योतक कही जा सकती है कि भारतीय युवा ‘भ्रान्त-स्थिति’ में हैं या फिर ‘युवा नेतृत्व’ सुसुप्तावस्था में है। शक्तिशाली संचार-साधनों की उपलब्धता के बावजूद सार्थक संपर्क-साहचर्य बेहद कमजोर है या फिर संवादहीनता की स्थिति घनघोर है। छात्र-आन्दोलन और विश्वविद्यालय-राजनीति हिंसा, अपराध, माफिया, गुंडागर्दी और असामाजिक तत्त्वों के रूप में चिह्नित है। जनसमाज की निगाह में ऐसे दो-चार प्रतिनिधि युवा राजनीतिज्ञ भी नहीं है, जिन्हें देख कर या वैकल्पिक युवा नेतृत्व को ले कर ताल ठोंकी जा सके।
लिहाजा, भारतीय राजनीति में वंशवाद से उपजे युवा नेताओं की भरमार अवश्य है किंतु आमजन पर प्रभाव नील-बट्टा-सन्नाटा है। शून्य की इस स्थिति में राजनीतिक विरासत द्वारा उभरे ‘युवा नेतृत्व’ से ही जन-अपेक्षायें अधिक हैं। राहुल गांधी की लोकप्रियता इसकी साक्ष्य है। बता दें कि हाल ही में सेंटर फाॅर मीडिया एंड कल्चरल रिसर्च के ताजा सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि राहुल गाँधी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। तकरीबन 33 शहरों में तैंतीस हजार युवाओं के बीच कराये गए इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष या दावा कितना सही है? इसका अंदाजा हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम से लग सकता है। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में राहुल गाँधी सरीखे युवा पहुँचते अवश्य हैं; पर परिसर में उनके पहुँचने का प्रभाव कम विरोध का असर ज्यादा देखने को मिलता है। बेशक! युवा-राजनीति में राहुल गाँंधी लोकप्रियता के शीर्ष पर काबिज़ हैं किंतु उनकी पैठ और असर का ग्राफ डवाँडोल है। वजह साफ है कि युवा कांग्रेस का आन्तरिक धड़ा मजबूत स्थिति में नहीं है। विभिन्न प्रांतों में व्याप्त अंदरूनी कलह, खींचतान और वर्चस्व की रस्साकसी ने राहुल गाँधी को दुविधा में डाल रखा है जिससे निपटे बगैर ‘मिशन 2012’ या फिर ‘मिशन 2014’ की बात करना बेमानी है।
ऐसे में युवा-राजनीतिज्ञों के संचार सम्बन्धी गतिविधियों पर आधारित कार्यकलापों का समाज भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं मूल्यांकन अनिवार्य है। बहुधा इस तरह के शोध में जिन इकाइयों का चयन किया जाता है, उसमें चुने गए राजनीतिज्ञों के जीवनवृŸा के अतिरिक्त व्यावहारिक कार्यकलाप और उपलब्धियों का विवरणवृŸा अधिक होता है, वहीं व्यक्तित्व की आंतरिक संरचना का मापन-मूल्यांकन और विश्लेषण गौण होता है। अक्सर हम उन कारकों को नहीं चिह्नित कर पाते हैं जो किसी व्यक्ति के स्वभाव, आदत या चरित्र के गठन में मुख्य किरदार की भूमिका निभाते हैं। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर भाषा में व्यक्त व्यक्तित्व का यह पक्ष मनोभाषिक होता है, जो यह निर्धारित करता है कि किसी जनसमूह में कुछ खास तरह के व्यक्ति के भीतर ही नेतृत्व करने या नेता बनने की योग्यता क्यों प्रबल हो उठती है? ऐसे नेतृत्वकत्र्ताओं की सामाजिक सक्रियता और वैचारिक क्रियाशीलता लोगों को तुरंत अपनी ओर आकर्षित क्यों और किस तरह कर लेती है? इस तरह के शोधपरक कार्यों का उद्देश्य बतौर संचारक युवा राजनीतिज्ञों के मानसिक स्तर, शारीरिक चेष्टाओं और व्यावहारिक क्रियाकलापों के आलोक में संचार सम्बन्धी मनोभाषिक पक्ष का निरीक्षण-परीक्षण करना है।
वस्तुतः व्यक्ति और समाज के मध्य विकासमान उन कारकों को भी आज के युवा राजनीतिज्ञों के संदर्भ में देखने-टटोलने की कोशिश की जानी चाहिए जिनकी परिधि में परम्परा, संस्कृति और आधुनिकता का बदलता परिप्रेक्ष्य शामिल है। यहाँ नित नवीन परिवर्तन के उत्तर-आधुनिक संदर्भ में ‘युवा राजनीतिज्ञों’ के सामाजिक पक्षधरता और संकल्पयुक्त प्रतिबद्धता को सर्वोचित ढंग से समझे जाने का विकल्प भी खुला होना महत्त्वपूर्ण है। भारतीय व पाश्चात्य चिन्तन के बहुआयामी दृष्टिकोणों, जनसंचार माध्यमों की भूमिका, उल्लेखनीय संचार प्रतिदर्शाें तथा भाषा सम्बन्धी भाषिक राजनीति के मुख्य पहलुओं पर केन्द्रित कार्य का होना आज के सन्दर्भों में इसलिए भी अपेक्षित है; ताकि समकालीन युवा राजनीतिज्ञों का समाज भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण-मूल्यांकन किया जा सके।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि संचार के उत्तरोत्तर विकासक्रम ने देश, काल और परिवेश को प्रभावित करने के अतिरिक्त कुछ ऐच्छिक और अनैच्छिक जरूरतों को भी अनिवार्यतः लागू कर दिया है, जो मनुष्य की मूल प्रवृतियों, ऐन्द्रिक आवश्यकताओं और मानवीय क्रियाकलापों में शामिल है। अपने इस शोध-दृष्टि में इन बातों पर सूक्ष्म दृष्टि रखने का प्रयास होगा कि संचार साधनों की होड़ और सहज उपलब्धता की वजह से सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक हर पक्ष प्रभावित हैं। एक ओर, उत्तर आधुनिक संस्कृति का नूतन-नवीन संस्करण संचार क्रांति के एक सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुआ है तो दूसरी ओर संस्कृति और समाज पर नकारात्मक प्रभाव भी दृष्टिगोचर है। भाषा के वर्चस्व और ह्रास में पूंजी और मीडिया तंत्र जिस तरह हावी है, उस आलोक में संसक्ति प्रक्रिया अर्थात वैश्विक और स्थानीय संगठन के बीच प्रगाढ़ता खतरनाक तरीके से बढ़ी है। वर्तमान में राजनीति और सत्ता के हथियार के रूप में भाषा-प्रयोग और भाषा-निर्माण के जो सायास व अनायास प्रक्रम चल रहे हैं, उनके दूरगामी परिणाम होंगे। वस्तुतः जाति, वर्ग, लिंग, संप्रदाय, राजनीति, बाजार आदि से भाषा का गठजोड़ और अन्योन्याश्रित क्रियाएँ; उत्तर आधुनिक समय-समाज और हिन्दी भाषा के लिए विशेष चिंता और चिंतन की विषय है।
भारत के नवनिर्माण में जिन राजनीतिक चिंतक-विचारक राजनेताओं ने समता-समानता-भ्रातृत्व की धुरी पर लोकतंत्र का बुनियादी आधार तैयार किया और अकल्पनीय योगदान दिया, आज पूरे जनतांत्रिक परिदृश्य से गायब हैं। श्रीअरविन्द, तिलक, गांधी, आम्बेडकर, मानवेन्द्रनाथ राय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे राजनेताओं का समकालीन राजनीति में उभार, वर्चस्व और लोकप्रियता घटी है तो क्योंकर? समकालीन राजनीतिज्ञों के संदर्भ में बात करें तो जनमाध्यम ही संदेश बन गए हैं और उनकी प्रभावशीलता और उन पर आश्रितता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। अब ‘राजनीति’ संचार के हिसाब से प्रबंधन में तब्दील हो गयी है। इस प्रणाली में राजनीतिक-प्रतिनिधि अपने नेतृत्व द्वारा मानव-संसाधन को निर्देशित-नियंत्रित करते दिख रहे हैं। इस शोध में हमारी एक और समस्या उन युवाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी से संबंधित ठोस कारणों की पहचान करना है, जो आमजन के प्रतिनिधि युवा-चेहरा न हो कर वंश-परंपरा की उपज हैं। यह ‘युवा ब्रिगेड’ आमजन की चिंता, तकलीफ, असुरक्षा और संवेदनशील मसलों से जुड़ा हुआ दिखाया तो जा रहा है, पर वस्तुतः है भी या नहीं, और है तो कितना; यह एक गंभीर चिन्तन का विषय है।
राजनीति जिसके बारे में आमफ़हम धारणा है कि यह समाज को बदलता है, की उस रिक्तता की ओर ध्यान दिलाता है, जिसे हम ‘युवा नेतृत्व’ के नाम से जानते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारत में अगर किसी वर्ग को दोयम दर्जे पर रखा गया है या फिर संसदीय-प्रांतीय प्रणाली में सक्रिय भागीदार बनने का अवसर या उचित प्रतिनिधित्व एक लम्बे अरसे तक नहीं मिला है तो वह है युवा। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जनआंदोलन और जनसरोकार की राजनीति का आयाम घटा है और व्यक्तिनिष्ठ दलीय राजनीति का चलन बढ़ा है। ऐसे में जमीन से जुड़े या संघर्ष के मोर्चे पर लड़ने वाले युवा-राजनीतिज्ञ नदारद हैं। उनकी जगह सत्तासीन वंशावली का एकाधिकार है।
बहरहाल, आज ‘सूचना समाज’ और ‘सूचना-राजमार्ग’ मनुष्य के दैनिक क्रियाकलापों के अभिन्न हिस्से बन चुके हैं। मनुष्य का व्यक्तिगत आचरण, व्यवहार, क्रियाशीलता, संज्ञानात्मक प्रत्यक्षीकरण व बोध, पारस्परिक अन्तक्र्रिया, मूल प्रवृत्तियाँ, अनुकरण, प्रेरणा, व्यक्तित्व, नेतृत्व, जनमत और प्रचार सभी संचार हेतु सक्रिय भूमिका में नजर आ रहे हैं, जो मनोभाषिक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म प्रदर्शन एवं प्रकटीकरण है। परोक्ष-अपरोक्ष अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर संचार और मनोभाषिक व्यवहार के बीच गहरा अन्तर्सम्बन्ध है, जो व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण द्वारा सृजित है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ‘संचार’ और ‘मनोभाषा विज्ञान’ के समेकित रूप-रचना पर उल्लेखनीय शोध का सर्वथा अभाव है। यह विषय अपनी प्रकृति में नवीन ज्ञान की खोज के प्रयास रूप में देखा जाना चाहिए।
(मीडिया शोधार्थी राजीव रंजन प्रसाद ‘संचार और मनोभाषिकी: युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में’ विषय पर इस वक्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध कर रहे हैं।)
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