Friday, April 29, 2011

जहाँ अनशन रोज हो रहे हैं

भारत की सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र और राजनीतिक भूगोल अरब जगत से भिन्न होने के बावजूद एक जैसी ही संक्रामक बीमारी से ग्रस्त है। यमन, ट्यूनीशिया, मिस्र और लीबिया जैसे हालात भले यहाँ देखने को न मिले, किंतु शोषित-दमित बहुसंख्यक जनता की आँखों में क्षोभ, असंतोष, पीड़ा और आक्रोश समान रूप से देखे जा सकते हैं। विश्व-पटल पर आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते भारत के बारे में यह कहना कि भारत भविष्य का छत्रपति राष्ट्र है, सही है। लेकिन, देश की शासकीय व्यवस्था में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार की ‘अकथ कहानी’ इस देश की कमजोरी को ही प्रदर्शित करता है। जनता भ्रष्टाचार के इस गणितीय 'हाईएस्ट काॅमन फैक्टर' से बिल्कुल आजि़ज़ आ चुकी है।
विषबेल की भाँति पैर जमाए भ्रष्टाचार से भारत का प्रत्येक नागरिक दुःखी, त्रस्त एवं पीडि़त है। इस प्रवृत्ति से निजात पाने की छटपटाहट और बेचैनी सभी वर्गों में एकसमान देखी जा रही है। वे कारोबारी घराने जिनकी नेता, मंत्री, अफसर व हुक्मरानों से खूब छनती है; आज वे भी पूरी ठाठ से अण्णा हजारे के साथ खड़े हैं। उन्हें अपने पेशे की मर्यादा का भान है जिस पर भ्रष्टाचार न केवल भारी पड़ रहा है, अपितु उनके पारंपरिक धंधे को भी निगलता जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अन्तरराष्ट्रीय काॅरपोरेट घरानों के बढ़ते आवक और दबाव से त्रस्त भारतीय व्यवसाय लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुके हैं। वैश्वीकरण की शब्दावली में भारतीय समाज का शोषण-दोहन जिस अनैतिक और अमर्यादित ढंग से जारी है, उस पर विराम लगाने की दिशा में अण्णा हजारे की पहलकदमी ऐतिहासिक तथा स्तुतियोग्य है।
आजकल अधिकाधिक मुनाफा की संस्कृति ने जिस प्रतिस्पर्धी उपभोक्तावादी समाज को निर्मित किया है, उसकी चोट असह्î है। पश्चिमी विकास-माॅडल पर आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था में पूँजी का संकेन्द्रण कुछ खास लोगों के लिए हितकर है जबकि शेष के लिए घातक है। ऐसे दुर्दिन में सरकारी तंत्र का जनता की समस्याओं से पलायन अचंभित करता है। लोकतंत्र के मूल स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा होना, खतरे का सूचक है।
हाल के दिनों में भ्रष्टाचार सम्बन्धी खुलासों की बाढ़ ने ‘हरि अनंत, हरि-कथा अनंता’ की शक्ल में सरकार की पीठ थपथपायी है। सरकारी संरक्षण प्राप्त संचार मंत्री ए0 राजा के 2-जी स्पेक्ट्रम मामले ने तो सरकारी तंत्र का पोल खोलकर ही रख दिया है। वस्तुतः इस सौदेबाजी में टाटा-अंबानी की मिलीभगत का खुलासा तो हुआ ही है; इसके अलावे राडिया-टेप प्रकरण से इस बात की भी तसदीक हो चुकी है कि मीडिया किस तरह अतिगोपनीय संसदीय मामलों में भी हस्तक्षेपकारी भूमिका निभा रही है। मीडिया पर यह आरोप की केन्द्रीय मंत्रियों के फेरबदल और मंत्री पद पाने सम्बन्धी अर्हता और मानदण्ड का निर्धारक वह खुद है, प्रथम द्रष्टया तर्कसंगत भले न लगे; किंतु सत्य यही है। इस सन्दर्भ में विकीलिक्स के ‘केबलगेट उद्भेदन’ को इतनी आसानी से खारिज कर देना संभव नहीं है। बेहद चर्चित सीवीसी मामले में पी0जे0 थाॅमस का हटाया जाना और इसको लेकर सरकार की हुई किरकिरी इस बात का संकेत है कि भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर सरकार कतई गंभीर नहीं है।
ऊँचें पदों पर आसीन लोग भ्रष्टाचार में शामिल न होने पाए इसी प्रवृत्ति की रोकथाम के लिए सन् 1967 में पहली दफा लोकपाल की स्थापना की गई जिसे सन् 1969 में लोकसभा ने पारित भी कर दिया था। अपनी नियमावली, संरचना और विधि-नियमन की दृष्टि में इस लचर कानून का वर्तमान में कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसा पर बने इस विधेयक में इतनी खामियाँ हैं कि इसके माध्यम से भ्रष्टाचार के मामले पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं है। अनशन के माध्यम से भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुवाई कर रहे अण्णा हजारे का कहना था कि जन लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने वाली संयुक्त समिति में 50 फीसदी अधिकारियों और बाकी 50 फीसदी में नागरिकों और विद्वानों को शामिल किया जाए; जिसके लिए सरकार अनशन-पूर्व तैयार नहीं थी। नागरिक समाज की ओर से जिन पाँच प्रतिनिधि सदस्यों के नाम संयुक्त कमिटी में प्रस्तावित हैं; वे खुद दूध के धुले हैं या नहीं, यह एक अलग विचार और बहस का गंभीर मुद्दा है जिन पर हाल के दिनों में खूब हो-हल्ला मचा है।
अप्रैल महीने की 5 तारीख को 74 वर्षीय वयोवृद्ध गाँधीवादी एवं सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे दिल्ली के जंतर-मंतर पर लोकव्यापी अनशन पर डटे तो चंद दिनों के भीतर सरकार की कंपकंपी छूट गई। आनन-फानन में जिस तरह से जन लोकपाल बिल की अधिसूचना जारी हुई; वह अनशन की अप्रत्याशित ताकत की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। भारत में सत्याग्रह, अनशन या भूख-हड़ताल कोई नई इबारत नहीं है। महात्मा गाँधी इसके प्रवत्र्तक रह चुके हैं, तो भगत सिंह तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद प्रबल अनुसरणकर्ता। मणिपुर प्रान्त में आज भी अनशन पर डटी इरोम शर्मिला एक अनोखी मिसाल हैं जो पिछले 10 वर्षों से अनशन पर हैं।
आज पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ समवेत स्वर में विरोध का बिगुल फूँक चुका है। इस जनज्वार के पीछे जो भावना सन्निहित है; वह इस बात की तसदीक है कि देशवासी भ्रष्टाचार के चंगुल से मुक्त होने खातिर छटपटा रहे हैं। उनकी इसी विकलता को अण्णा हजारे ने वाणी दी है। मुक्तिकामी अभियान की दिशा में आमरण अनशन का आह्वान किया। अनशन का असर पूरे देश में इस असाधारण शैली में होगा, इसका अंदाजा प्रेस और मीडिया की छोडि़ए खुद उन राजनीतिज्ञों को भी नहीं था जो अरसे से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। प्रतिरोध के स्वर को संगत दिशा और गति देने के लिए इससे पहले भी कई मर्तबा पहलकदमी किए जा चुके हैं; पर सर्वमान्य अगुवा नेता की कमी थी। इसी वर्ष महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि के मौके पर ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ अभियान के तत्त्वाधान में पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हुआ जो कि विस्मयकारी था।
बहरहाल, हम भारतीयों को यह समझना होगा कि अनशन कोई शिगूफा नहीं है। यह अपनी बात मनवाने का किसी किस्म का ‘शार्टकट’ भी नहीं है। यह एक जन-अभियान है जिसमें पूरे देश की भागीदारी अपेक्षित है। इस आन्दोलन में उन लोगों को भी शामिल किए जाने की जरूरत है जो हाशिए पर हैं। जिनके घरों में हर क्षण, हर घंटे, हर रोज अनशन जारी है। बस देखने की दृष्टि चाहिए। जिस घर में गरीबी से ऊबकर विवाहिता अपने बच्चों सहित जान दे देती है; उस घर में उस रोज चूल्हा नहीं जलता है। यानी परोक्ष अनशन। जिस घर का लाडला बेरोजगारी से उपजी निराशा से खुदकुशी कर लेता है; उस घर में भी सभी परिजन अनशन पर ही होते हैं। कालाहाण्डी, पलामू, विदर्भ, दंतेवाड़ा, बस्तर, दादरी, सिंगूर या फिर नियमागिरि जैसे सैकड़ों परिक्षेत्र ऐसे हैं जहाँ हर रोज किसी न किसी कारण से अनियतकालीन अनशन चालू है। अनशन वही वर्ग कर रहा है जो वंचित, प्रताडि़त और घोर उपेक्षा का शिकार है। अलक्षित अनशन पर अरसे से डटा यह तबका भ्रष्टाचार की मार से सर्वाधिक बेज़ार है। दरअसल, इनका परोक्ष अनशन इसलिए चर्चित या प्रभावशाली नहीं है क्योंकि अण्णा-अनशन की भाँति इनके पास कोई प्रायोजक(दानकर्ता) नहीं है। सुविधा और साधनहीन इस वर्ग के पास भ्रष्टाचार के खिलाफ तकनीकी अभियानों(एसएमएस/फोन मिसकाॅल्स/सोशल साइट्स) का कोई मजबूत ‘नेटवर्क’ नहीं है। और, न ही गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला मीडिया उनके पास है जो अपने कवरेज में अनशन के मूल मुद्दों से पलायन करता है। हमें ध्यान देना होगा कि यह वही मीडिया है जो बि़लावजह अण्णा हजारे को ‘सुपरमैन हीरो’ साबित कर एक अवांछित किस्म के अतिरेक को जन्म देता है।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...