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कुछ वर्ष पूर्व भारत का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय घोषित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए यह एक बुरी ख़बर है कि उसका नाम विश्व के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में कहीं नहीं है। इस ख़बर से विश्वविद्यालय परिसर में हड़कम्प या किसी किस्म का बवेला मचे, यह सोचना ही फिजूल है। इस बाबत सामान्य चर्चाएं/बहसें भी प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों के आपसी आत्मचिन्तन और मंथन का विषय शायद ही हो; क्योंकि इस घोषणा/उद्घोषणा से उनका बाल भी बाँका नहीं होना है। वैसे समय में जब पूरी दुनिया अपनी शिक्षा-पद्धति और शैक्षणिक-प्रक्रिया को लेकर बेहद संवेदनशील और चेतस है; भारत आज भी अपने शिक्षा-प्रारूपों मंे मौलिक अथवा आमूल बदलाव लाने का पक्षधर नहीं है। सामान्य जानकारी के लिए यह जिक्र आवश्यक है कि इस रिपोर्ट को विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की सूची निकालने वाली वेबसाइट क्युएस टाॅपयुनिवर्सिटिज डाॅट काॅम ने लांच किया है। इस सूची में आईआईटी दिल्ली को जहाँ 212वीं रैंकिंग प्राप्त हुई है, वहीं आईआईटी मुम्बई को 227वीं। यह रैंकिंग विश्वविद्यालयी गुणवत्ता सम्बन्धी कई निर्धारित मानकों के आधार पर जारी किए गए हैं जिन मानकों पर भारतीय विश्वविद्यालय एकदम फिसड्डी हैं।
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक प्रो0 कृष्ण कुमार भारतीय विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में बात निकलते ही योग्य और अपने विषय में दक्ष अध्यापकों की कमी का रोना रोने लगते हैं। वह भी उस स्थिति में जब कठिन से कठिनतर(?) हो रहे अध्यापक पात्रता परीक्षा में उतीर्ण अभ्यर्थियों की तादाद चैंकाने योग्य हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पेशकश/सब्ज़बाग पर कनिष्ठ व वरिष्ठ शोध अध्येतावृत्ति के लिए खासी रकम जिस गुणवत्ता को आधार मानकर खर्ची जा रही है; क्या वे ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ मुहावरा-टाइप हैं? प्रश्न यह भी है कि सूचना-विज्ञान और तकनीकी नवाचार से सम्बन्धित जिन प्रोजेक्टों पर अंधाधंुध पैसा निवेश हो रहा है; क्या वे कागजी लुगदी मात्र हैं? इसके अतिरिक्त यह भी यक्ष प्रश्न है कि वर्तमान में अध्यापकों की तनख़्वाह को मोटी-तगड़ी करने को लेकर यूजीसी जिस कदर संवेदनशील है; क्या वे प्राध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने की बजाय चिकोटी काट भगा दे रहे हैं या कि गुदगुदी करा खुद हँसने और विद्यार्थियों को भी हँसाने मात्र में रमे हैं; ताकि आधुनिक-अत्याधुनिक कैम्पसों की रमणीयता और मनोहारिता कायम रहे।
मित्रों, कुछ तो गड़बड़झाला अवश्य है; जिससे हमारी शिक्षा-प्रणाली संक्रमित है। उसकी सेहत लगातार बिगड़ रही है। कहना न होगा कि संवाद-परिसंवाद के नित घटते स्पेस की वजह से अधिसंख्य भारतीय विश्वविद्यालयों का माहौल शुष्क और कहीं-कहीं जड़बद्ध दिखाई दे रहा है। खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जो अपने ‘नबंर वन’ की दावेदारी पर अघाता और आत्ममुग्ध शैली में भोज-भात करता रहा है; में हरियाली, सौन्दर्य और मनोहारी वातावरण के बीच नई टीले/ठीहे कृत्रिम ढंग से रचने की कवायद जोरों पर है। भारतीय विश्वविद्यालयों में आत्मप्रक्षालन या स्वमूल्यांकन की संचेतना यदि न विकसित हुए, तो ज्यादा संभव है कि विश्व रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालय उत्कृष्ट और उम्दा प्रदर्शन की बजाए ऐसे ही नित पातालगामी होते जाएंगे। अपनी मातृभाषा को लेकर जिस किस्म का दुराग्रह और पूर्वग्रह भारत के शिक्षा-नियंताओं के मन में पैठा है; उससे भी कई विडम्बनाएं उपजी हैं।
अंग्रेजी भाषा को नवाचार(इनोवेशन) और अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक सम्पदा का सर्वेसर्वा मानने वाले ज्ञान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सैम पित्रोदा का यह कहना बेहद हास्यास्पद है कि भारतीय विश्वविद्यालय आज भी उन्नीसवीं शताब्दी के युग के हैं। आईआईटी दिल्ली और आईआईटी मुम्बई जहाँ हिन्दी वाग्देवी बहिष्कृत हैं, वहाँ की भाषा-साम्राज्ञी ब्रिटेन है या फिर अमेरिका। आधुनिकी तकनीकी संसाधनों एवं सूचना-प्रौद्योगिकी सम्बन्धी अत्याधुनिक साज-सामानों से लकदक इस तरह के अनगिनत विश्वविद्यालय हैं जहाँ का वातावरण भारतीय नहीं है। फिर ये क्यों अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की सूची में ‘शार्टलिस्टेड’ होने में लगातार पिछड़ रहे हैं। प्रो0 कृष्ण से लेकर सैम पित्रोदा तक को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है; बशर्ते उनमें भारतीय ज्ञान मीमांसा और बौद्धिक परम्परा में अनुस्युत तत्वों के अवगाहन(प्रोफाॅउन्ड स्टडी) की इच्छा एवं संकल्पशक्ति बची हो।
कुछ वर्ष पूर्व भारत का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय घोषित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए यह एक बुरी ख़बर है कि उसका नाम विश्व के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में कहीं नहीं है। इस ख़बर से विश्वविद्यालय परिसर में हड़कम्प या किसी किस्म का बवेला मचे, यह सोचना ही फिजूल है। इस बाबत सामान्य चर्चाएं/बहसें भी प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों के आपसी आत्मचिन्तन और मंथन का विषय शायद ही हो; क्योंकि इस घोषणा/उद्घोषणा से उनका बाल भी बाँका नहीं होना है। वैसे समय में जब पूरी दुनिया अपनी शिक्षा-पद्धति और शैक्षणिक-प्रक्रिया को लेकर बेहद संवेदनशील और चेतस है; भारत आज भी अपने शिक्षा-प्रारूपों मंे मौलिक अथवा आमूल बदलाव लाने का पक्षधर नहीं है। सामान्य जानकारी के लिए यह जिक्र आवश्यक है कि इस रिपोर्ट को विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की सूची निकालने वाली वेबसाइट क्युएस टाॅपयुनिवर्सिटिज डाॅट काॅम ने लांच किया है। इस सूची में आईआईटी दिल्ली को जहाँ 212वीं रैंकिंग प्राप्त हुई है, वहीं आईआईटी मुम्बई को 227वीं। यह रैंकिंग विश्वविद्यालयी गुणवत्ता सम्बन्धी कई निर्धारित मानकों के आधार पर जारी किए गए हैं जिन मानकों पर भारतीय विश्वविद्यालय एकदम फिसड्डी हैं।
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक प्रो0 कृष्ण कुमार भारतीय विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में बात निकलते ही योग्य और अपने विषय में दक्ष अध्यापकों की कमी का रोना रोने लगते हैं। वह भी उस स्थिति में जब कठिन से कठिनतर(?) हो रहे अध्यापक पात्रता परीक्षा में उतीर्ण अभ्यर्थियों की तादाद चैंकाने योग्य हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पेशकश/सब्ज़बाग पर कनिष्ठ व वरिष्ठ शोध अध्येतावृत्ति के लिए खासी रकम जिस गुणवत्ता को आधार मानकर खर्ची जा रही है; क्या वे ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ मुहावरा-टाइप हैं? प्रश्न यह भी है कि सूचना-विज्ञान और तकनीकी नवाचार से सम्बन्धित जिन प्रोजेक्टों पर अंधाधंुध पैसा निवेश हो रहा है; क्या वे कागजी लुगदी मात्र हैं? इसके अतिरिक्त यह भी यक्ष प्रश्न है कि वर्तमान में अध्यापकों की तनख़्वाह को मोटी-तगड़ी करने को लेकर यूजीसी जिस कदर संवेदनशील है; क्या वे प्राध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने की बजाय चिकोटी काट भगा दे रहे हैं या कि गुदगुदी करा खुद हँसने और विद्यार्थियों को भी हँसाने मात्र में रमे हैं; ताकि आधुनिक-अत्याधुनिक कैम्पसों की रमणीयता और मनोहारिता कायम रहे।
मित्रों, कुछ तो गड़बड़झाला अवश्य है; जिससे हमारी शिक्षा-प्रणाली संक्रमित है। उसकी सेहत लगातार बिगड़ रही है। कहना न होगा कि संवाद-परिसंवाद के नित घटते स्पेस की वजह से अधिसंख्य भारतीय विश्वविद्यालयों का माहौल शुष्क और कहीं-कहीं जड़बद्ध दिखाई दे रहा है। खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जो अपने ‘नबंर वन’ की दावेदारी पर अघाता और आत्ममुग्ध शैली में भोज-भात करता रहा है; में हरियाली, सौन्दर्य और मनोहारी वातावरण के बीच नई टीले/ठीहे कृत्रिम ढंग से रचने की कवायद जोरों पर है। भारतीय विश्वविद्यालयों में आत्मप्रक्षालन या स्वमूल्यांकन की संचेतना यदि न विकसित हुए, तो ज्यादा संभव है कि विश्व रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालय उत्कृष्ट और उम्दा प्रदर्शन की बजाए ऐसे ही नित पातालगामी होते जाएंगे। अपनी मातृभाषा को लेकर जिस किस्म का दुराग्रह और पूर्वग्रह भारत के शिक्षा-नियंताओं के मन में पैठा है; उससे भी कई विडम्बनाएं उपजी हैं।
अंग्रेजी भाषा को नवाचार(इनोवेशन) और अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक सम्पदा का सर्वेसर्वा मानने वाले ज्ञान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सैम पित्रोदा का यह कहना बेहद हास्यास्पद है कि भारतीय विश्वविद्यालय आज भी उन्नीसवीं शताब्दी के युग के हैं। आईआईटी दिल्ली और आईआईटी मुम्बई जहाँ हिन्दी वाग्देवी बहिष्कृत हैं, वहाँ की भाषा-साम्राज्ञी ब्रिटेन है या फिर अमेरिका। आधुनिकी तकनीकी संसाधनों एवं सूचना-प्रौद्योगिकी सम्बन्धी अत्याधुनिक साज-सामानों से लकदक इस तरह के अनगिनत विश्वविद्यालय हैं जहाँ का वातावरण भारतीय नहीं है। फिर ये क्यों अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की सूची में ‘शार्टलिस्टेड’ होने में लगातार पिछड़ रहे हैं। प्रो0 कृष्ण से लेकर सैम पित्रोदा तक को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है; बशर्ते उनमें भारतीय ज्ञान मीमांसा और बौद्धिक परम्परा में अनुस्युत तत्वों के अवगाहन(प्रोफाॅउन्ड स्टडी) की इच्छा एवं संकल्पशक्ति बची हो।
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