प्रिय देव-दीप,
आज तुम्हें एक ऐसी शख़्सियत के बारे में, उसके जीवन-संघर्ष के बारे में बताने जा रहा हूं जिसने गांधी से बहुत कुछ सीखा ही नहीं कर के दिखाया भी। आज के स्वार्थी और दिखावटी युग में जहां अकादमिक ‘वर्क शाॅप’ देश भर में हजारों प्रति वर्ष की संख्या में हो रहे हैं; सचमुच कुछ करने की नियत कितने लोग पा पाते हैं...थोड़ा ठहरकर सोचना होगा। खैर! आज अपने पिता से सुनों नेल्सन मंडेला के बारे में जिस अपराजेय आत्मा को दक्षिण अफ्रीका का गांधी कहा जाता है।
तुम्हारा पिता
राजीव
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आज तुम्हें एक ऐसी शख़्सियत के बारे में, उसके जीवन-संघर्ष के बारे में बताने जा रहा हूं जिसने गांधी से बहुत कुछ सीखा ही नहीं कर के दिखाया भी। आज के स्वार्थी और दिखावटी युग में जहां अकादमिक ‘वर्क शाॅप’ देश भर में हजारों प्रति वर्ष की संख्या में हो रहे हैं; सचमुच कुछ करने की नियत कितने लोग पा पाते हैं...थोड़ा ठहरकर सोचना होगा। खैर! आज अपने पिता से सुनों नेल्सन मंडेला के बारे में जिस अपराजेय आत्मा को दक्षिण अफ्रीका का गांधी कहा जाता है।
तुम्हारा पिता
राजीव
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मबासा नदी के किनारे ट्राँस्की का मवेजों गाँव। नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला
इसी गाँव में 18 जुलाई, 1918 को पैदा हुए। यह अफ्रीका का दक्षिणी पूर्वी
हिस्सा है। नेल्सन मंडेला का जन्म जिस वर्ष(1918 ई.) हुआ; रूस में
‘बोल्शेविक क्रान्ति’ हो चुकी थी। यह लड़ाई गैर-बराबरी और असमानता के खि़लाफ
लड़ी गई निर्णायक लड़ाई थी। प्रतिरोध इस क्रान्ति के मूल में था। समाजवादी
विचार की चेतना में प्रतिरोध का अर्थ व्यापक और बहुआयामी होता है जिसे इस
क्रान्ति ने आधार और दिशा दोनों प्रदान की थी। जनसमूहों के इस विद्रोह में
शोषित, पीड़ित, वंचित, उत्पीड़ित...लोगों की आवाजें सीधे शामिल थी। सामूहिक
चेतना प्रतिरोध के स्वर में जिस तरह अपनी चुप्पी तोड़ रहा था; उसे देखते हुए
कुछ न कुछ नया घटित होना अवश्यंभावी था। वहीं बदले की कार्रवाई में
क्रूरतापूर्ण नरसंहारें भी दुनिया भर में जारी थी। यह सर्वविदित है कि जब
कभी भी बुर्जआ-शक्तियों के मूलाधार पर चोट या प्रहार होता है, प्रायः उसकी
सियासी प्रतिक्रिया हिंसक और आक्रामक हुआ करती है। तब भी
सामन्तवादी-पूँजीवादी मानसिकता और मनोदशा में पगे शोषक मुल्कों के लिए इस
जन-प्रतिरोध को दबाना या फिर उसे समूलतः नष्ट कर पाना अब संभव नहीं रह गया
था। लिहाजा, रंगभेद, नस्लभेद, वर्गभेद, स्तरभेद इत्यादि शब्दावलियों के
खि़लाफ जनता धीरे-धीरे एकजुट होती दिख रही थी।
यह वस्तुतः सर्वहारा की जीत थी। इस बदलाव से पूरी दुनिया में नई आस बँधनी शुरू हो गई थी। प्रतिरोध-संस्कृति के इस पाठ में माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन वैचारिक नेतृत्वकर्ता थे तो महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला इसके सच्चे अनुयायी। भारत में गाँधी ‘करो या मरो’ नारे के साथ भारतीय स्वाधीनता संग्राम की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। वहीं नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका में ‘प्रतिरोध’ की सर्जना और उसमें धार पैदा कर रहे थे। नेल्सन मंडेला ने सर्वप्रथम 1943 ई. में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस ‘ज्वाइन’ की और ‘जेनुइन’ तरीके से राजनीतिक मोर्चाबंदी करना प्रारम्भ कर दिया। अफ्रीका में नस्लभेद की स्थिति इतनी भयावह थी कि सन् 1948 में इसे कानूनी दर्जा तक मिल चुका था। मंडेला यह देख रहे थे कि उनके अपने लोगों के साथ इसलिए भेद किया जा रहा था क्योंकि प्रकृति ने उनको दूसरों से अलग रंग दिया था। इस देश में अश्वेत होना अपराध की तरह था। वे सम्मान चाहते थे और उन्हें लगातार अपमानित किया जाता था। रोज कई बार याद दिलाया जाता कि वे अश्वेत हैं और ऐसा होना किसी अपराध से कम नहीं है।
मंडेला इस नस्लभेदी कट्टरता और श्वेत-समूहों के आधिपत्य का पुरजोर मुख़ालफत करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे। यूरोपीय शासित इस मुल्क में अफ्रीकी रहवासियों को सरकार चुनने के लिए मत देने तक का अधिकार नहीं प्राप्त था। भारी जनसमर्थन के बीच संघर्षशील अहिंसक प्रतिरोध की लम्बी लड़ाई लड़ चुकने के बाद 1961 ई. में उन्होंने गूँगी-बहरी गोरी सत्ता के ख़िलाफ ‘एएनसी’ की सैन्य टुकड़ी तैयार की। दरअसल, रंगभेद की नीति सभी सीमाओं को तोड़ती जा रही थी। दक्षिण अफ्रीका की जमीन अत्याचारों के मेहराब से मढ़ी जा चुकी थी। अतः एएनसी और दूसरे प्रमुख दल ने हथियाबन्द लड़ाई लड़ने का फैसला किया। दोनों ने ही अपने लड़ाका दल विकसित करने शुरू कर दिए। नेल्सन अपनी मौलिक राह छोड़कर एक दूसरे रास्ते पर निकल पड़े थे जो उनके उसूलों से मेल नहीं खाता था। मंडेला ने अपनी सैन्य टुकड़ी का नाम ‘स्पीयर आफ दी नेशन’ रखा था जिसका अध्यक्ष वे खुद ही थे। यह रास्ता नया था, लेकिन मंजिल अभी भी वही थी-अपने लोगों के लिए न्याय और सम्मान दिलाने की, रंगभेदी नीतियों को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त करने की, स्वाधीन रूप से एक ऐसे जनतांत्रिक समाज के गठन की जहाँ समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व की गहरी पैठ और सम्बोधन हो।
नेल्सन मंडेला को इसी कारण 1964 ई. में तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। वे 27 वर्षों तक लगातार राॅबेन द्वीप के जेल में बंद रहे। इस जेल में सुरक्षा बीहड़ थी। नेल्सन मंडेला के उस दौर की एक तस्वीर तक कहीं नहीं है; वजह कि उस जेल से एक फोटोग्राफ तक की तस्करी नहीं की जा सकती थी। इस जेल में उन्होंने अनेकों यातनाएँ सहे; कठोर परिश्रम के कारण गंभीर रूप से बीमार पड़े; लेकिन अपने संकल्प और मूल ध्येय से पीछे नहीं हटे। उन्होंने अपने मजबूत इरादे को कभी स्वयं पर से भरोसा खोने नहीं दिया। बुरे वक्त में अपने परिवार के सदस्यों को ढाढस बंधाया; लेकिन विचलित अथवा निराश नहीं हुए। इसीलिए अश्वेत समाज के लिए नेल्सन मंडेला की छवि राजनीतिक कम, अश्वेत समाज के मसीहा-पुरुष की अधिक है। उनका उद्देष्य और लक्ष्य राजनीतिक ताकत हासिल करना था, ताकि वे जनता की आर्थिक स्वतन्त्रता और सामाजिक जनाधिकार सुनिष्चित कर सकें। बकौल नेल्सन मंडेला-‘‘मैं हर तरह के प्रभुत्व और वर्चस्व के ख़िलाफ हूँ। बुर्जुआ-संस्कृति अपनी हो या परायी; वह जहाँ भी अन्याय, अत्याचार, दमन और शोषण की मंशा से आगे बढेगी; मैं उसका पुरजोर विरोध करूँगा। मैं यह नहीं देखूँगा कि सत्तासीन लोग काले हैं या गोरे।’’
1994 ई. में सम्पन्न आम-चुनाव में मंडेला अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति चुने गए। वैसे उनकी आन्तरिक इच्छा देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की नहीं थी। वे चाहते थे कि इस देश की सत्ता युवा हाथों को सौंप दी जाये। लेकिन जन-आकांक्षाओं के भारी दबाव को देखते हुए नेल्सन मंडेला को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा; और इस तरह नेल्सन मंडेला ने पूरी दुनिया में इतिहास रच दिया। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक(2004 ई.) में नेल्सन मंडेला ने राजनीति से सार्वजनिक तौर पर खुद को अलग कर लिया। दरअसल, पिछले कई दशकों से जारी लड़ाई और कैद में घोर तकलीफ़ के साये में बीते समय ने उनकी शारीरिक अवस्था को बेहद कमजोर कर दिया था। वैसे भी सांगठनिक उत्तरदायित्व एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निर्मित सांगठनिक ढाँचें को नेतृत्व देने के लिए पूरा समय देना होता है। इस कठिन कर्म में नेल्सन मंडेला ने अपना शत-प्रतिशत देने का हरसंभव प्रयत्न किया।
21वीं सदी के राजनीतिक महानायकों में नेल्सन मंडेला की उपस्थित निर्कण्टक है। उनका व्यक्तित्व अफ्रीकी समाज की राजनीति और उसकी अगुवाई को पूर्णतया समर्पित है। उनमें प्रतिरोधी चेतना बहुलांश है। नेल्सन मंडेला जेल के भीतर भी उतने ही सक्रिय थे। वे अफ्रीकी जनता की सोच और चिन्तन को लगातार ‘प्रतिरोध’ की चेतना और शक्ति से लैस कर रहे थे। मंडेला देशवासियों को जनतंत्र बहाली की दिशा में संघर्षशील बनाने के लिए कटिबद्ध थे। इस जगह शहीद भगत सिंह का स्मरण होना स्वाभाविक है। वे कहते थे-‘‘जरूरत है निरन्तर संघर्ष करने, कष्ट सहने और कुर्बानी भरा जीवन बिताने की। अपना व्यक्तिवाद पहले ख़त्म करो। इंच-इंच पर आगे बढ़ो। इसके लिए हिम्मत, दृढ़ता और बहुत मजबूत इरादे की जरूरत है। कितने ही भारी कष्ट एवं कठिनाइयाँ क्यों न हों, आपकी हिम्मत न कांपे। कोई भी पराजय या धोखा आपका दिल न तोड़ सके। कितने भी कष्ट क्यों न आएं, आपका यह जोश ठंडा न पड़े। कष्ट सहने और कुर्बानी करने के सिद्धान्त से आप सफलता हासिल करेंगे और यह व्यक्तिगत सफलताएँ क्रांति की अमूल्य संपत्ति होंगी।’’ आधुनिक अफ्रीका के निर्माण में अपने को होम कर देने वाले नेल्सन मंडेला ने मानो इस संदेष का आजीवन अवगाहन किया हो। इसीलिए वे अफ्रीका में महात्मा गाँधी के सच्चे उत्तराधिकारी भी बन सकें। उनके लिए ‘बापू’ की तरह ही अपनी जनता का दुःख, तकलीफ, पीड़ा इत्यादि असह्य एवं अस्वीकार्य थी। मंडेला समझौतापरस्त या अवसरवादी राजनीतिज्ञ नहीं थे जो आज के राजनीति की सहजप्रवृत्ति बन चुकी है। वह प्रतिरोध के स्वर को मृत्युपर्यंत जीने और उसे अभिव्यक्ति के स्तर पर जिलाए रखने वाले दूरद्रष्टा थें। उनकी आत्मा(सामाजिक चेतना) प्रतिरोध की जो अभिव्यक्ति करती है उसका भाषा में अर्थ और अभिलक्ष्य दोनों सूक्ष्म एवं विशिष्ट हैं। नेल्सन मंडेला में आत्म-सम्मान और संकल्पनिष्ठता का ओज-उद्वेग भरपूर था। वे प्रतिकामी शक्तियों के जोड़-गठजोड़, शोषण-अन्याय, हिंसा-अपराध इत्यादि की मुख़ालफत में आजीवन संघर्षशील और विचार के स्तर पर प्रगतिशील बने रहे। ऐसे महान जननायक मंडेला को विनम्र श्रद्धाजंलि जिन्होंने अफ्रीकी जनता को जीने की आजादी मुहैया कराई; समानाधिकार की लड़ाई को सफल एवं प्राप्य बनाया और जो जनता की दृष्टि में महात्मा गाँधी के समानधर्मा व्यक्तित्व बने। अंग्रेजी कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली की उस कविता की चंद पंक्तियाँ नेल्सन मंडेला की याद में यहाँ सादर समर्पित हैं जिन्हें वे सदा गुनगुनाते थे:
यह वस्तुतः सर्वहारा की जीत थी। इस बदलाव से पूरी दुनिया में नई आस बँधनी शुरू हो गई थी। प्रतिरोध-संस्कृति के इस पाठ में माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन वैचारिक नेतृत्वकर्ता थे तो महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला इसके सच्चे अनुयायी। भारत में गाँधी ‘करो या मरो’ नारे के साथ भारतीय स्वाधीनता संग्राम की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। वहीं नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका में ‘प्रतिरोध’ की सर्जना और उसमें धार पैदा कर रहे थे। नेल्सन मंडेला ने सर्वप्रथम 1943 ई. में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस ‘ज्वाइन’ की और ‘जेनुइन’ तरीके से राजनीतिक मोर्चाबंदी करना प्रारम्भ कर दिया। अफ्रीका में नस्लभेद की स्थिति इतनी भयावह थी कि सन् 1948 में इसे कानूनी दर्जा तक मिल चुका था। मंडेला यह देख रहे थे कि उनके अपने लोगों के साथ इसलिए भेद किया जा रहा था क्योंकि प्रकृति ने उनको दूसरों से अलग रंग दिया था। इस देश में अश्वेत होना अपराध की तरह था। वे सम्मान चाहते थे और उन्हें लगातार अपमानित किया जाता था। रोज कई बार याद दिलाया जाता कि वे अश्वेत हैं और ऐसा होना किसी अपराध से कम नहीं है।
मंडेला इस नस्लभेदी कट्टरता और श्वेत-समूहों के आधिपत्य का पुरजोर मुख़ालफत करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे। यूरोपीय शासित इस मुल्क में अफ्रीकी रहवासियों को सरकार चुनने के लिए मत देने तक का अधिकार नहीं प्राप्त था। भारी जनसमर्थन के बीच संघर्षशील अहिंसक प्रतिरोध की लम्बी लड़ाई लड़ चुकने के बाद 1961 ई. में उन्होंने गूँगी-बहरी गोरी सत्ता के ख़िलाफ ‘एएनसी’ की सैन्य टुकड़ी तैयार की। दरअसल, रंगभेद की नीति सभी सीमाओं को तोड़ती जा रही थी। दक्षिण अफ्रीका की जमीन अत्याचारों के मेहराब से मढ़ी जा चुकी थी। अतः एएनसी और दूसरे प्रमुख दल ने हथियाबन्द लड़ाई लड़ने का फैसला किया। दोनों ने ही अपने लड़ाका दल विकसित करने शुरू कर दिए। नेल्सन अपनी मौलिक राह छोड़कर एक दूसरे रास्ते पर निकल पड़े थे जो उनके उसूलों से मेल नहीं खाता था। मंडेला ने अपनी सैन्य टुकड़ी का नाम ‘स्पीयर आफ दी नेशन’ रखा था जिसका अध्यक्ष वे खुद ही थे। यह रास्ता नया था, लेकिन मंजिल अभी भी वही थी-अपने लोगों के लिए न्याय और सम्मान दिलाने की, रंगभेदी नीतियों को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त करने की, स्वाधीन रूप से एक ऐसे जनतांत्रिक समाज के गठन की जहाँ समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व की गहरी पैठ और सम्बोधन हो।
नेल्सन मंडेला को इसी कारण 1964 ई. में तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। वे 27 वर्षों तक लगातार राॅबेन द्वीप के जेल में बंद रहे। इस जेल में सुरक्षा बीहड़ थी। नेल्सन मंडेला के उस दौर की एक तस्वीर तक कहीं नहीं है; वजह कि उस जेल से एक फोटोग्राफ तक की तस्करी नहीं की जा सकती थी। इस जेल में उन्होंने अनेकों यातनाएँ सहे; कठोर परिश्रम के कारण गंभीर रूप से बीमार पड़े; लेकिन अपने संकल्प और मूल ध्येय से पीछे नहीं हटे। उन्होंने अपने मजबूत इरादे को कभी स्वयं पर से भरोसा खोने नहीं दिया। बुरे वक्त में अपने परिवार के सदस्यों को ढाढस बंधाया; लेकिन विचलित अथवा निराश नहीं हुए। इसीलिए अश्वेत समाज के लिए नेल्सन मंडेला की छवि राजनीतिक कम, अश्वेत समाज के मसीहा-पुरुष की अधिक है। उनका उद्देष्य और लक्ष्य राजनीतिक ताकत हासिल करना था, ताकि वे जनता की आर्थिक स्वतन्त्रता और सामाजिक जनाधिकार सुनिष्चित कर सकें। बकौल नेल्सन मंडेला-‘‘मैं हर तरह के प्रभुत्व और वर्चस्व के ख़िलाफ हूँ। बुर्जुआ-संस्कृति अपनी हो या परायी; वह जहाँ भी अन्याय, अत्याचार, दमन और शोषण की मंशा से आगे बढेगी; मैं उसका पुरजोर विरोध करूँगा। मैं यह नहीं देखूँगा कि सत्तासीन लोग काले हैं या गोरे।’’
1994 ई. में सम्पन्न आम-चुनाव में मंडेला अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति चुने गए। वैसे उनकी आन्तरिक इच्छा देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की नहीं थी। वे चाहते थे कि इस देश की सत्ता युवा हाथों को सौंप दी जाये। लेकिन जन-आकांक्षाओं के भारी दबाव को देखते हुए नेल्सन मंडेला को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा; और इस तरह नेल्सन मंडेला ने पूरी दुनिया में इतिहास रच दिया। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक(2004 ई.) में नेल्सन मंडेला ने राजनीति से सार्वजनिक तौर पर खुद को अलग कर लिया। दरअसल, पिछले कई दशकों से जारी लड़ाई और कैद में घोर तकलीफ़ के साये में बीते समय ने उनकी शारीरिक अवस्था को बेहद कमजोर कर दिया था। वैसे भी सांगठनिक उत्तरदायित्व एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निर्मित सांगठनिक ढाँचें को नेतृत्व देने के लिए पूरा समय देना होता है। इस कठिन कर्म में नेल्सन मंडेला ने अपना शत-प्रतिशत देने का हरसंभव प्रयत्न किया।
21वीं सदी के राजनीतिक महानायकों में नेल्सन मंडेला की उपस्थित निर्कण्टक है। उनका व्यक्तित्व अफ्रीकी समाज की राजनीति और उसकी अगुवाई को पूर्णतया समर्पित है। उनमें प्रतिरोधी चेतना बहुलांश है। नेल्सन मंडेला जेल के भीतर भी उतने ही सक्रिय थे। वे अफ्रीकी जनता की सोच और चिन्तन को लगातार ‘प्रतिरोध’ की चेतना और शक्ति से लैस कर रहे थे। मंडेला देशवासियों को जनतंत्र बहाली की दिशा में संघर्षशील बनाने के लिए कटिबद्ध थे। इस जगह शहीद भगत सिंह का स्मरण होना स्वाभाविक है। वे कहते थे-‘‘जरूरत है निरन्तर संघर्ष करने, कष्ट सहने और कुर्बानी भरा जीवन बिताने की। अपना व्यक्तिवाद पहले ख़त्म करो। इंच-इंच पर आगे बढ़ो। इसके लिए हिम्मत, दृढ़ता और बहुत मजबूत इरादे की जरूरत है। कितने ही भारी कष्ट एवं कठिनाइयाँ क्यों न हों, आपकी हिम्मत न कांपे। कोई भी पराजय या धोखा आपका दिल न तोड़ सके। कितने भी कष्ट क्यों न आएं, आपका यह जोश ठंडा न पड़े। कष्ट सहने और कुर्बानी करने के सिद्धान्त से आप सफलता हासिल करेंगे और यह व्यक्तिगत सफलताएँ क्रांति की अमूल्य संपत्ति होंगी।’’ आधुनिक अफ्रीका के निर्माण में अपने को होम कर देने वाले नेल्सन मंडेला ने मानो इस संदेष का आजीवन अवगाहन किया हो। इसीलिए वे अफ्रीका में महात्मा गाँधी के सच्चे उत्तराधिकारी भी बन सकें। उनके लिए ‘बापू’ की तरह ही अपनी जनता का दुःख, तकलीफ, पीड़ा इत्यादि असह्य एवं अस्वीकार्य थी। मंडेला समझौतापरस्त या अवसरवादी राजनीतिज्ञ नहीं थे जो आज के राजनीति की सहजप्रवृत्ति बन चुकी है। वह प्रतिरोध के स्वर को मृत्युपर्यंत जीने और उसे अभिव्यक्ति के स्तर पर जिलाए रखने वाले दूरद्रष्टा थें। उनकी आत्मा(सामाजिक चेतना) प्रतिरोध की जो अभिव्यक्ति करती है उसका भाषा में अर्थ और अभिलक्ष्य दोनों सूक्ष्म एवं विशिष्ट हैं। नेल्सन मंडेला में आत्म-सम्मान और संकल्पनिष्ठता का ओज-उद्वेग भरपूर था। वे प्रतिकामी शक्तियों के जोड़-गठजोड़, शोषण-अन्याय, हिंसा-अपराध इत्यादि की मुख़ालफत में आजीवन संघर्षशील और विचार के स्तर पर प्रगतिशील बने रहे। ऐसे महान जननायक मंडेला को विनम्र श्रद्धाजंलि जिन्होंने अफ्रीकी जनता को जीने की आजादी मुहैया कराई; समानाधिकार की लड़ाई को सफल एवं प्राप्य बनाया और जो जनता की दृष्टि में महात्मा गाँधी के समानधर्मा व्यक्तित्व बने। अंग्रेजी कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली की उस कविता की चंद पंक्तियाँ नेल्सन मंडेला की याद में यहाँ सादर समर्पित हैं जिन्हें वे सदा गुनगुनाते थे:
‘‘शुक्रगुजार हूं उस जो भी ईश्वर का
अपनी अपराजेय आत्मा के लिए
परिस्थियों के शिकंजे में फंसे होने के
बाद भी मेरे चेहरे पर न शिकन है
और न कोई जोर से कराह
वक़्त के अंधाधुंध प्रहारों से
मेरा सर खून से सना तो है, पर झुका नहीं।’’
अपनी अपराजेय आत्मा के लिए
परिस्थियों के शिकंजे में फंसे होने के
बाद भी मेरे चेहरे पर न शिकन है
और न कोई जोर से कराह
वक़्त के अंधाधुंध प्रहारों से
मेरा सर खून से सना तो है, पर झुका नहीं।’’
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